सुकन्या / जगदीश कश्यप
मगन भाई को उबकाई आने लगी । वे पत्नी से कुछ ज़रूरी काम कहकर उठ लिए और प्रेक्षाग्रह से बाहर आ गए । क्या वास्तव में ही उनकी लजीली लड़की इतनी समझदार हो गई है । इससे तो अच्छा था वह नाटक देखने ही न आते । उन्हें वैसे भी नाटकों में रुचि नहीं रही । पत्नी बोली थी—
'हमारी सुकन्या का आज प्रोग्राम है । तुम्हें चलना पड़ेगा, वरना बेटी का दिल टूट जाएगा ।'
बेटी की ख़ातिर उन्होंने हामी भर दी थी ।
उन्हें बताया गया था कि सुकन्या सीता का रोल करेगी.... नाटक का नाम क्या था.... हाँ, याद आया.... आज की सीता । ये नाटक क्या था, सरासर सीता का अपमान था— थू! मगन भाई का मुँह कसैला हो गया । आख़िर सुकन्या को ऐसा रोल करने की ज़रूरत क्या थी ? चलो, क्राँति बारोठिया के यहाँ चलकर उसके ग़म में शरीक हो लिया जाए । क्राँति भाई की लड़की.... खेल-कूद में अव्वल आने वाली रेणुका.... अभी उसको मरे हुए एक हफ़्ता भी नहीं गुज़रा है.... शादी के बाद बेचारी का खेल-कूद सब छूट गया । ससुराल में अपनी सेवा से सबको ख़ुश रखती थी, फिर भी ज़ालिमों ने दहेज के लालच में अकाल मौत दे दी उसे ।
'नहीं-नहीं, मैं ऐसे घर में अपनी सुकन्या को नहीं ब्याहूँगा ।' मगन भाई को सुकन्या का वह डायलाग याद आने लगा—'मैं वो सीता नहीं जो अपनी पवित्रता का बार-बार प्रमाण देगी—सासूजी ! मैं अब अपने पैरों पर खड़ी हूँ....'
मगन भाई उल्टे पैरों लौट पड़े और प्रेक्षाग्रह में जाकर पत्नी के पास बैठ गए ।