सुकेश साहनी की कविताओं में युग बोध / शिवजी श्रीवास्तव
मेरे सम्मुख सुकेश साहनी की आठ कविताएँ हैं। सुकेश साहनी की पहचान लघुकथा आंदोलन के चर्चित हस्ताक्षर के रूप में है। हिन्दी लघुकथा को साहित्य की केंद्रीय विधा के रूप में स्थापित करने में उनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका है; पर उनकी कविताओं को पढ़कर उनके सशक्त कवि रूप के भी दर्शन होते हैं, दरअसल सच्चे सृजनधर्मी को किसी विधा की सीमाओं में नहीं बाँधा जा सकता है, एक सशक्त रचनाकार अपनी अभिव्यक्ति हेतु कोई भी माध्यम चुन सकता है।
उनकी ये कविताएँ नवें दशक में रची गई रचनाएँ हैं। कोई भी संवेदनशील एवं सजग रचनाकार अपने युग से असंपृक्त नहीं रह सकता, उसकी रचनाओं में युग की प्रतिध्वनि न हो ये संभव नहीं, सुकेश साहनी भी इसके अपवाद नहीं हैं। उनकी आठों कविताओं में तत्कालीन समाज की ध्वनियाँ सुनी जा सकती हैं।
नवें दशक का भारतीय समाज राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से बेहद उथल-पुथल से भरा था। प्रत्येक दृष्टि से वह संक्रमण का काल था। अनेक प्रकार के आंदोलन जन जीवन को प्रभावित कर रहे थे आठवें दशक के जेपी के आंदोलन ने राजनीति के चरित्र को बदल दिया था, उस आंदोलन की चेतना कई रूपों में समाज में विद्यमान थी। भ्रष्टाचार, महँगाई, बेरोजगारी, साम्प्रदायिकता के विरुद्ध एक विद्रोही चेतना आम आदमी के दिलो-दिमाग़ को मथ रही थी। साहित्य में भी लगातार बदलाव दृष्टिगोचर हो रहे थे। कविता जन-आकांक्षाओं के अनुरूप बदल रही थी। तमाम वादों-आंदोलनों से गुजरते हुए कविता ने विद्रोही तेवर अख्तियार कर लिये थे। इस विद्रोह को किसी वाद के चौखट में फिट करना उसके साथ अन्याय करना होगा। यद्यपि सामन्ती मानसिकता से मुक्त होकर पूँजीवादी व्यवस्था के मूल्यों का मुखर विरोध करती हुई कविता प्रगतिशील और जनवादी सिद्धांतो के अनुरूप विकसित हो चुकी थी, तथापि समाजवादी व्यवस्था के कईअं तर्विरोध उसे असहज कर रहे थे। सुकेश साहनी की ये कविताएँ इसी युगीन पृष्ठभूमि की कविताएँ हैं। विद्रोही तेवर की होते हुए भी किसी फ्रेम की कविताएँ नहीं हैं।
सुकेश साहनी की कविताओं में युगानुरूप विद्रोह व प्रतिरोध के सशक्त स्वर हैं, जन आकांक्षाओं की मुखर अभिव्यक्ति है, अन्याय और शोषण के खिलाफ लड़ने का ईमानदार संकल्प है तथा छद्म नेतृत्व को बेनकाब करने की चेतना है। उनकी कविता का नायक वह आम आदमी है, जो हर स्थिति में अपने लक्ष्य के लिये ईमानदारी से युद्धरत है, उसे न किसी की दया चाहिए, न सहानुभूति। वह स्वयं युग की धारा को मोड़ देने में समर्थ है। उसके संघर्ष से समय और समाज की धारा बदल जाती है, वह सदियों से मानव समाज की बेहतरी के लिये लड़ रहा है
लड़ता हुआ आदमी
लड़ता है हर क़िस्म की बीमारियों से
उसे तुम्हारी दवाओं की ज़रूरत नहीं होती
लड़ता हुआ आदमी रचता है ऋचाएँ
उसे तुम्हारे जाप की ज़रूरत नहीं होती।
...
लड़ता हुआ आदमी
लड़ सकता है बिना जिस्म के भी
उसे नपुंसक फौजों की ज़रूरत नहीं होती (लड़ता हुआ आदमी)
सुकेश साहनी अपनी विचार-चेतना को व्यक्त करने के लिए भाषा और बिम्बों का बड़ा ही सार्थक प्रयोग करते हैं। वे पौराणिक, ऐतिहासिक और लोक जीवन की शब्दावली / बिम्बों का बड़ी ही सुंदरता से प्रयोग करके सम्पूर्ण कविता को अभिनव अर्थवत्ता प्रदान करते हैं। 'चिंगारियाँ' कविता में वे छद्म क्रान्तिकारियो को बेनकाब करने के लिये बड़े ही सहज लोक बिम्बों / मुहावरों से रची-बसी भाषा का प्रयोग करते हैं—
तुम जो पैसा बो रहे हो
पैसा काट रहे हो
तुम जो पैसा ओढ़ रहे हो
पैसा बिछा रहे हो
तुम जो पाँच सौ दे रहे हो
एक हज़ार पर अँगूठे लगवा रहे हो
तुम मेरे सीताराम नहीं हो सकते। (चिंगारियाँ)
पैसा बोना, काटना, बिछाना, ओढ़ना या मेरे सीताराम होना लोक जीवन के प्रचलित मुहावरे हैं, जिन्हें कवि ने बड़ी ही सुंदरता से प्रतिरोध की इस कविता में प्रस्तुत किया है, इस कविता में कवि का विद्रोह पूँजीवादी शक्तियों के विरुद्ध है, छद्म जनवादियों के विरुद्ध है और तेजी से पैर पसारती हुई अपसंस्कृति के विरुद्ध है, कवि की चिंता भावी संततियों के लिए मानवीय संवेदनाओं को बचाने की है, भले ही वे सन्ततियाँ शोषक वर्ग की क्यो न हों—
हाँ, में चिंतित हूँ
नई पौध की राख होती संवेदनाओं के लिए
अभी शेष हैं राख में कुछ चिंगारियाँ
इन्हें जिलाना होगा
नन्हे बंटी को बचाना होगा। (चिंगारियाँ)
क्रान्ति कभी अंतिम लक्ष्य नहीं होती, वह एक रास्ता होती है लक्ष्य को पाने का, आतंक की सत्ता को समाप्त करके नव सर्जन की भूमि तैयार करने का। सुकेश साहनी की कविता इस ओर बराबर संकेत करती रहती है, " रचते' हुए ऐसी ही कविता है वह अत्यंत प्रतीकात्मक ढंग से विनाशकारी शक्तियों को भी सृजनोन्मुख बनाने की बात कहते हैं-
बरसो, बहो, गिरो, खिलो, चीखो, ठहरो
काला पत्थर / भुरभुरा कर फिर आ मिलेगा
मिट्टी की धारा से
रचने लगेगा
तुम्हारे संग
गेहूँ की बालियाँ (रचते हुए)
शोषित वर्ग के प्रतिरोध के स्वर का निर्ममतापूर्वक दमन करना शोषक शक्तियों का चरित्र है, दमन की ये प्रक्रिया हर युग में विद्यमान रहती है उनके प्रति प्रतिरोध और विद्रोह के स्वर भी सदा मुखर होते हैं। दमनकारी शक्तियाँ जितनी निर्ममता से प्रतिरोध के स्वरों का दमन करती है, विद्रोह के स्वर उतनी हीअधिक तीव्रता से मुखर होते है, विद्रोही चेतना नए-नए रूपों में जन्म लेती रहती है, सुकेश साहनी की 'अंततः' कविता इस तथ्य को अत्यन्त प्रभावी ढंग से अभिव्यक्त करती है-
उसने जला डाला
मेरा घास फूस घर
पैरों तले की धरती
और
सिर पर का आसमान
अन्ततः
उसने झोंक दिया मुझको
बिजली की भट्ठी में
पर नहीं छीन सका मुझसे
असंख्य असंख्य माँओं की कोखें। (अंततः)
सुकेश साहनी की कविताएँ भी उनकी लघुकथाओं की तरह लघु कलेवर एवं सघन चेतना से संयुक्त हैं, उनकी सम्पूर्ण सम्वेदना, समस्त चेतना बिल्कुल अंत में आकर स्पष्ट होती है और अंत में ही आकर कविता अत्यंत व्यापक अर्थ को स्पष्ट करके पाठक को चमत्कृत कर देती है। 'किसी भी बच्चे की माँ के लिए' और 'विरासत' कविताएँ भी इसी व्यापक बोध को एक व्यंजना के साथ व्यक्त करती हैं। 'किसी भी बच्चे की माँ के लिए' कविता एक श्रमिक की माँ के प्रति सघन आत्मीय लगाव की कविता के रूप में प्रारम्भ होती है; पर अंत में आकर माँ शब्द अत्यंत व्यापक अर्थ की अभिव्यंजना करके कविता के मर्म को सघन कर देता है-
ये लोग
तुझे ख़त लिखने की बात करते हैं
पर मैं
लिखता हूँ कविता
किसी भी बच्चे की माँ के लिए
फिर ये लोग
तुझे
बाँटने की बात
क्यों करते हैं
माँ। (किसी भी बच्चे की माँ के लिए)
'विरासत' कविता में विद्रोह बड़ा प्रतीकात्मक है, यह विद्रोह नदी की शांत धारा की तलहटी में छुपे ज्वालामुखी जैसा है, कविता में फॉसिल्स के माध्यम से अतीत की समृद्ध संस्कृति के समानांतर वर्तमान समाज की स्वार्थी और कायरतापूर्ण संस्कृति पर गहरा कटाक्ष किया है, सम्पूर्ण कविता अतीत की संस्कृति के गुणगान के साथ विकसित होती है; पर अंत तक आते-आते विसंगति-बोध की तीखी कविता बन जाती है-
हमने बेच दी है अपनी हड्डियाँ
बदले में खरीद ली है दम
दुमों के नहीं बनते फॉसिल्स
अच्छा फॉसिल्स बनने के लिए
हममें कुछ हड्डियाँ होनी ही चाहिए (विरासत)
'एकऔरत का कैनवास' में स्त्री जीवन की नियति के तीन चित्र हैं, तीन चित्रों के कोलाज रूप में रची गई इस कविता का रचना सत्य यही है कि स्त्री की नियति कष्ट भोगना ही है, प्रत्येक रिश्ते में कर्तव्य के नाम पर सारे दायित्वों का निर्वाह करती घुटती-पिसती नारी दुःख भोगने के लिये अभिशप्त है। वस्तुतः सामन्ती समाज में कर्तव्य के नाम पर नारी को अनेक जकड़नों में आबद्ध किया गया, समाज के विकास एवं प्रगति चेतना सम्पन्न होने के बावजूद भी नारी नियति के उस चक्र से मुक्त नहीं हो पा रही है, वह सदा दूसरों के लिये जीवन जीती है, उसके स्वयं के स्वप्न नहीं, स्वयम के विषय में सोचने का अवकाश नहीं है, सुकेश जी इस कविता में प्रत्येक चित्र के अंत में यही प्रश्न उठाते हैं-
तन-मन से
सबके लिए खटती हुई तुम
सोती कब हो? "
खुशी-खुशी
रोटियाँ थापती
और दौड़-दौड़ कर
घर भर को खाना ख़िलाती तुम
खाती कब हो? "
पति, बेटे, बहू
और
नातियों के लिए
जीती तुम
अपने लिए
जीती कब हो? (एक औरत का कैनवास)
बिना किसी बड़े सैद्धांतिक नारे के सहज रूप में किए जाने वाले ये प्रश्न स्त्री-मुक्ति के संदर्भ में महत्त्वपूर्ण बनकर उभरते हैं।
'उस एक पल के लिए' कविता भिन्न धरातल की महत्त्वपूर्ण कविता है, मनुष्य सदा संघर्ष की स्थिति में नहीं रह सकता मनुजता का चरम लक्ष्य शांति और प्रेम हैं, सतत युद्ध, सतत संघर्ष, सतत विरोध और वैमनस्य के मध्य वे पल भी आते हैं जो प्रेम, सहयोग एवम् शांति के होते हैं, वे पल ही महत्त्वपूर्ण होते है, वे क्षण ही मानवता को बचाने के लिए अनिवार्य हैं, हमारा दायित्व है कि उस क्षण को पहचानें, महसूस करें और आने वाली पीढ़ियों के लिये सुरक्षित कर लें, इस भाव को बहुत ही कलात्मक ढंग से सुकेश जी ने इस कविता में व्यक्त किया है-
बैठता
जरूर है
बन्दूक पर कबूतर
चाहे एक पल के लिए
...
जबाबदेही
हमारी भी है
दोस्तो!
उस / एक पल के लिए
चाहें तो
चुरा ले नजरें
या कि-
समेट लें
उस पल को
नवजात शिशु की तरह (उस एक पल के लिए)
निःसन्देह सुकेश साहनी की समस्त कविताओं में पीड़ित और शोषित आमजन की चिंताएँ हैं, विद्रोह के स्वर हैं साथ ही मानवीय संवेदनाओं को बचाए रखने के स्वप्न हैं, इन कविताओं में युग की प्रतिध्वनियाँ स्पष्ट रूप से सुनी जा सकती हैं।
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