सुकेश साहनी की लघुकथाओं का परिदृश्य / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

भौतिक विकास का युग प्रकारांतर से नैतिक क्षरणशीलता का युग भी होता है। इसका परावर्तन पूरे समाज में पड़ता है। साहित्य बदलती और आसन्न भविष्य में भौतिक विकास का युग प्रकारांतर से नैतिक क्षरणशीलता का युग भी होता है। इसका परावर्तन पूरे समाज में पड़ता है। साहित्य बदलती और आसन्न भविष्य में बदलने वाली धड़कनों का आकलन और संयोजन होता है; केवल हथियार या मरहम नहीं,वरन् एक ही समय में दोनों की भूमिका अदा करने वाला । किसी भी विधा का निखार उसमें किए जा रहे गंभीर लेखन से होता है। फिजूल की चर्चाएँ और द्वेषपूर्ण वक्तव्य अवरोध का ही काम करते हैं। लघुकथा भी इसका शिकार होती रही है । चालीस-पचास लघुकथाएँ पढ़ लीजिए तो विषयवस्तु का पिष्टपेषण मात्र मिलेगा, ताज़गी नदारद । भाषा में शिल्प के कसाव की बातें बहुत पीछे छूटजाती हैं । लघुकथा के शुभचिंतकों का [कुछ को छोड़कर] ध्यान प्राय: विवादों को जन्म देने और उनमें उलझने में ही लगा रहा । जब विषय की गहन अनुभूति पाठक को बहुत गहरे तक छू लेने की क्षमता रखती है; तब सीधा-सरल शिल्प भी चल जाता है । और अगर शिल्प पर गहरी पकड़ हो तो साधारण-से दिखनेवाले विषय को भी प्रखर बनाया जा सकता है ।

विचारों का धुँधलका लघुकथा के लिए जानलेवा सिद्ध हुआ है तो सरलता के नाम पर घिसी-पिटी निष्प्राण शैली भी लघुकथा की उपेक्षा का कारण बनती रही है। विषयों की परिधि भी कम ही रही है । इसे कभी लघुकथा की विशेषता मान लिया गया तो कभी सीमा । नवें दशक की लघुकथा में सुकेश साहनी उन प्रमुख लेखकों में से एक हैं, जिन्होंने इस विधा को गंभीरता से लिया है इनकी रचनाओं को पढ़कर लगता है कि ये कुछ ऐसे ढंग से लिख रहे हैं ;जो इन्हें अपने समकालीन लेखकों से अलग करता है ।
जीवन के प्रत्येक क्षेत्र को इन्होंने स्पर्श किया है। चाहे वह ‘नपुंसक’ का शेखर हो, चाहे ‘इमीटेशन’ के राहुल का पिता, समाज और परिवार की विद्रूपता का कारण हमारे सामने खुली किताब की तरह पेश कर देता है या कहिए कि आँख में उँगली डालकर बता देता है कि सामाजिक एवं पारिवारिक ढाँचे में कहाँ-कहाँ चूक हो रही है । अपसंस्कृति की फैलती हुई अमरबेल,राजनीति,दफ्तर,परिवार,गली-कूचों में ढहते हुए जीवन मूल्य, जीवन में अपनाए गए भौतिक दर्शन, परस्पर सम्बन्धों की क्षयशीलता, धार्मिकता के नाम पर बढ़ती हुई शोचनीय कटृरता लेखक की चिंता के विषय रहे हैं । जिन विषयों पर अन्य लेखकों ने सतही तौर पर लेखन किया है ; उन्हीं विषयों पर सुकेश साहनी ने अपना सजग चिंतन जोड़कर लघुकथा को सम्मानजनक स्वरूप प्रदान किया है । संभव है कि पूर्वाग्रहवश यह बात आज स्वीकार न की जाए, लेकिन जिस दिन तटस्थता से इस क्षेत्र में कार्य होगा, उस दिन इस लेखक की क्षमता को स्वीकार करना पड़ेगा, जिसकी प्रत्येक रचना के साथ गहन चिंतन, अनुभव की आँच तथा शिल्प की गरिमा अनुस्यूत है।

लघुकथा के साथ कहानी और उपन्यास में भी अधिक परिश्रम एवं सजगता की आवश्यकता है । जो चलते-फिरते लघुकथा रच डालते हैं, ऐसे तथाकथित समर्थ कलाकारों से लघुकथा का अहित ही ज्यादा हुआ है, हित नहीं । पारिवारिक परिवेश में ढेर सारी ऐसी बातें हैं ; जिन्हें गौण समझ कर छोड़ दिया जाता है । साहनी के लिए ये बातें गौण नहीं, वरन् गहन चिंता का कारण हैं। अंतिम साँसें गिनती हुई ‘मृत्युबोध’ की बूढ़ी सुमित्रा के साथ ठंडी पारिवारिक संवेदना पथरा गई है। लगता है जैसे बूढे व्यक्ति के बीमार होने की नियति केवल मृत्यु ही होसकती है। जमीन पर उतारने व गंगाजल लाने की प्रक्रिया में हड़बड़ी हो उठी है। सुमित्रा के आँखें खोल देने पर कमरे में सन्नाटा छा जाता है। सम्बन्धों के इस लकवाग्रस्त दृश्य को देखते ही बूढीं सुमित्रा की आँखों से आँसू निकल पड़ते हैं । सारे सम्बन्धों का खोखलापन बेनकाब हो जाता है। ‘गाजर घास’ में भी बूढ़ों के प्रति नई पीढ़ी की घोर उपेक्षा व्यंजित हुई है, साथ ही लेखक की गहरी चिंता भी प्रकट हुई है। परिवार से लेकर बाहरी परिवेश तक अपसंस्कृति की गाजर घास विवेक को समाप्तप्राय करने पर तुली है। अपसंस्कृति और ‘फालतू व्यक्ति’ समझने की संवेदनहीनता घर-बाहर सब जगह विषबीज से विषवृक्ष में तब्दील हो रही है।
‘दादाजी’में उपेक्षा का कारण मरते-मरते बच जाना है : ‘बीमार बूढ़ा मरते-मरते बच जाए तो अशुभ होता है।’ अपनी माँ द्वारा कही इस रूढ़िग्रस्त बात को छोटा बच्चा राहुल अपने फेल होने से जोड़ लेता है। बच्चों के मस्तिष्क में दुर्भावना भरना क्षुद्र मनोवृत्ति का परिचायक है। ‘राबिन हुड’ में लेखक की चिंता हमारा स्वप्नदर्शी फिल्मी युवा जगत् है । ‘चिंतन की चेष्टा’ में आरोपित कृत्रिमता का शिकार होकर यह वर्ग वास्तविकता से आँखें मूँदता जा रहा है । उद्देश्यहीनता की रतौंधी से पीड़ित होना दिशा-भ्रष्ट होने का कारण बन गया है। इस पतनशीलता की शुरूआत तो नज़र आ रही है, परन्तु इसका अंत क्या होगा, कुछ कहा नहीं जा सकता । स्नेहशून्य वातावरण में रिश्ते भार बन जाते हैं। ‘मोहभंग’ में यही अहसास रमेश को होता है । माता-पिता हैं नहीं। बड़े भाई चाहते हैं कि जैसी भी मिले, वह नौकरी करे । बचपन का लगाव भरा माहौल अब घर में नहीं रहा। केवल सम्बन्धों की औपचारिकता और घुटन बची है ; जो रह-रहकर अजनबीपन का अहसास कराती है ।रमेश नौकरी पर जाने की तैयारी करके इस अजनबीपन से मुक्त होने का प्रयास करता है ।

‘पेंडुलम’ में पारिवारिक रिश्तों को टूटने से बचाए रखने के लिए तटस्थता का उपाय पीड़ामय हो उठा है । पत्नी और माँ के बीच पारिवारिक रिश्तों का संतुलन बनाए रखना प्राय: कठिन हो जाता है। ‘गुठलियाँ’ में नारी-उपेक्षा को प्रभावशाली ढंग से व्यंजित किया गया है। चाहे वह बेटी ‘बिट्टी’ हो, चाहे बूढ़ी माँ, उसे नारी होने की उपेक्षा झेलनी ही पड़ती है । इस उपेक्षा की जड़ें सींचने के काम में नारी भी शामिल है ।
‘गोश्त की गंध’ नारी जाति के शोषण की करुण कथा है। पूरे समाज का शिवि-तन दहेज की तराजू में चढ़ जाता है । फिर भी, दहेज के बाज के बराबर नहीं हो पाता । प्रतीक के माध्यम से साहनी ने कथा को तीक्ष्णता प्रदान की है। सकारात्मक अंत होने के पश्चात भी गोश्त का प्रतीक शोषण की दरिंदगी को गहराई से उभारता है।

‘स्कूटर’ में स्वप्नदृश्य के माध्यम से एक पिता की आर्थिक विवशता का करुण दृश्य उकेरा गया है। दहेज की विभीषका में इतना ही बचा है कि ‘बाप’ आदमी न रहकर स्वयं दहेज पूर्ति का साधन बन जाए।सरोज जैसी लड़कियों के भाग्य पर खतरे के गिद्ध मँडरा रहे हैं तो दूसरी ओर दिग्भ्रांत युवक सुनील का रूप धारण कर चुके हैं । ‘पितृत्व’ में भेदपूर्ण चिंतन का प्रहार किया गया है। लाल साहब को पिता के रूप में बेटी के सुखमय जीवन की चिंता है ।बेटी एकछत्र राज करेगी, लेकिन जो बहू रात-दिन खटकर बेटी से भी ज्यादा सेवा करती है, परिवार की सुख-सुविधा का ध्यान रखती है,उसे लाल साहब संतुष्ट होने पर भी ‘बेटी’ का स्थान नहीं दे पाते । जड़ संस्कारों की यह गाँठ मन को जकड़े हुए है। इस गाँठ के खुलने से समाज एवं परिवार की घुटन कम हो सकती है।

मध्यवर्ग ,उच्चवर्ग में और निम्नवर्ग मध्यवर्ग में शामिल होने के लिए जो समाधान ढूँढ़ रहा है, वह भटकाव से अधिक कुछ नहीं। महँगे और तथाकथित कुलीन अंग्रेजी स्कूलों में शिक्षा दिलाना भी एक कृत्रिम समाधान है । अपनी जड़ों से कटकर जीने का अभिशाप ‘हारते हुए’ का सीताराम झेल रहा है। अपने बेटे राहुल की हिकारत भी उसे रुग्ण-संस्कृति की कुलीनता नजर आती है। ‘शिक्षाकाल’ में नैतिकता की गर्दन पर पैर रखकर खड़ी शिक्षा प्रक्रिया की घुटन को अजय के अंतर्द्वद्व में साकार किया गया है । प्रोफेसर शर्मा जैसे लोग न जाने कितनी प्रतिभाओं को तिल-तिल मिटने के लिए बाध्य कर रहे हैं ! उनकी तनिक-सी वक्र दृष्टि किसी के पूरे जीवन में तमस घोल सकती है। शिक्षा जगत् में इस तरह के तमाम सारे खलनायक निर्बाध विचरण कर रहे हैं ।

दफ्तरों में व्याप्त भ्रष्टाचार जीवनचर्या का पर्याय बन गया है। भ्रष्टाचार विरोधी जाँच को किस प्रकार ठेंगा दिखा दिया जाता है, ‘सोडावाटर’ इसका ज्वलंत उदाहरण है । वर्मा की तिकड़मों के आगे अधिकारी समर्पण कर देते हैं; क्योंकि समर्पंण में ही उन्हें लाभ दिखाई देता है। अधिकारी और अधीनस्थ सब एक ही थैली के चट्टे –बट्टे हैं। ईमानदार और कर्मठ कर्मचारी को किस प्रकार घेरकर बेईमान और भ्रष्ट बनाने का प्रयास होता है, ‘नरभक्षी’ में इसी को मार्मिकता से चित्रित किया गया है। एक समय तो वह था, जब किसी का बेईमान बनकर सम्मान पाना मुश्किल था, परंतु आज की बदलती मूल्यहीन स्थिति में ईमानदार बनकर जी पाना दिवास्वप्न बनकर रह गया है। इस लघुकथा में भाषा का कसाव एवं चित्रात्मकता महत्त्वपूर्ण है । चीफ साहब की प्रत्येक गतिविधि कथा में प्राण फूँकती है। घुटन तो तब होती है, जब मित्र विजय की पत्नी भी चाहती है कि वह भ्रष्टाचार का जीवन अंगीकार कर ले। इससे बड़ी विडम्बना और क्या होगी कि ईमानदार व्यक्ति को किसी का भी समर्थन नहीं मिल पाता, पत्नी तक का नहीं। ‘कुत्ते वाले घर’ में तीखा व्यंग्य है। अखबार बेचने वाले बिल का भुगतान करने से बचने का कमीनापन कोठी के मालिक को कुत्ते की श्रेणी में रख देता है। हॉकर पर पंखे चुराने का झूठा आरोप लगाकर कोठी का मालिक बचने का रास्ता ढूँढ़ लेता है । हॉकर के मन में आता है कि वह सामने वाली कोठी से ‘कुत्ते से सावधान’ की तख्ती उतारकर वहाँ ‘कुत्ते की कोठी’ लगा दे । इस बेबस विद्रोह में भयंकर पीड़ा दबी हुई है। गरीब और असहाय होना बेईमानी का प्रतीक बन गया है। सम्पन्न व्यक्ति तमाम नीचताओं के बीच भी ‘बड़ा’ बना रहता है।

‘आइसबर्ग’ में सांप्रदायिक विद्वेष का मनोविज्ञान बहुत सजगता से उभारा गया है। सांप्रदायिक विद्बेष के मूल में प्राय: भय और अफवाहें विद्यमान होती है । एक युवक की भयभीत मन:स्थिति के द्वारा साहनी ने विभिन्न पक्षों का विश्लेषण किया है। भीड़ में होने पर, बातचीत में शामिल होने के मनोवैज्ञानिक दबाव में कुछ भी अघटित बोल दिया जाता है। उस बोलने का क्या दुष्परिणाम होगा, इस बात की चिंता नहीं की जाती। भय का यह आइसबर्ग समाज- प्रवाह में यह यात्रा-रोधक का विनाशकारी काम करता है। वही युवक अंतत: अपने नन्हें बेटे की शरारतों को याद करके मुस्करा दिया । बेटे की स्मृति को इस लघुकथा में जोड़कर ‘आइसबर्ग’ की प्रवत्ति से बचने की सकारात्मक व्यंजना की गई है। अभिजात अपसंस्कृति के बेगानेपन को लेखक ने विभिन्न कोणों से प्रस्तुत किया है। ‘अपने लोग’ में रेलगाड़ी की प्रथम श्रेणी में यात्रा करनेवाले भावशून्य आरोपित कुलीन संस्कृति के लोगों की उपेक्षा के कारण बैठने भर का स्थान नहीं पा सका। शायिकाओं पर आँखें बंद किए लेटे हुए अफसरनुमा लोग सचमुच समाज की हर धड़कन से आँखें ‘बंद’किए हुए हैं तथा ‘लेटे’ हुए की स्थिति में पहुँच चुके हैं। वहीं द्वितीय श्रेणी के डिब्बे की भीड़-भाड़ में लोगों ने इधर-उधर सरककर ( स्थान का अभाव होने पर) जगह बना दी । यही नहीं, वह पासवाले यात्री के कंधे पर सिर टिकाकर ऊँघने लगा इस कथा का अंतर्भेदी है। एक वर्ग ऐसा है, जहाँ जगह होने पर पैर रखना कठिन है। वहाँ मिला हुआ अधिकार भी छोड़ना पड़ता है। दूसरी ओर जगह के अभाव में भी सिर टिकाकर (जहां पैर टिकाना वस्तुत: कठिन है) राहत की साँस ली जा सकती है। समाज का यही वाला वर्ग संवेदना को भोथरी होने से बचाए हुए है।

भौतिक सुखों की अतिशयता,निरर्थकता एवं ऊब में परिवर्तित हो जाती है। ‘मृग मरीचिका’ में अजय भी भौतिकसंस्कृति को अंतिम सत्य मानकर ‘बोल्ड लड़कियों’ से अनीता की तुलना करने लगता है। सीधी-सादी प्यार की प्रतिमूर्ति अनीता उसे गँवार लगती है। वह सादगी और फूहड़पन दोनों को समान समझने लगता है। ‘मिडनाइट फीवर’ जैसे उत्तेजक गीत रात के क्षणिक सत्य हैं तो भोर होने पर जगह-जगह रात के अवशेषों के रूप में बिखरी जुगुप्सा दिन का कटु एवं शाश्वत सत्य। अजय के मन में भोर के समय जगी जुगुप्सा उसे प्यार भरा खत लिखने के लिए बाध्य कर देती है।
‘कस्तूरी मृग’ का भोगवादी नायक सारी भौतिक सुविधाओं के बीच बेचैन है। ये सुविधाएँ उसकी चेतना को लुंज-पुंज कर चुकी हैं, उसकी अशांति को बढ़ा चुकी हैं । शांति तो उसके मन में है,अँजुरी भर पानी पी लेने में है । घुटनों पर पत्थरों की चुभन से उत्पन्न टीस के कारण अंतर्मन में यह अनुभूति होते ही वह राहत की साँस लेता हैं। लेखक ने इस तरह के जो विषय उठाए हैं, वे लघुकथा जगत के लिए नए हैं। इस तरह के तथ्यों का निर्वाह करना स्टंट लघुकथा लेखकों के लिए जरूर कठिन है । इसी भोगवादी संस्कृति की अवधारणीय मोहकता के नीचे कुरूपता छिपी रहती है। यही कुरूपता पर्यटन स्थलों को भोगवादी रूप प्रदान कर चुकी है । ‘प्रदूषण’ लघुकथा में औरत तक को ‘सामग्री’ के रूप में प्रस्तुत करने के प्रयासों की विडम्बना को साहनी ने अपनी तीखी शैली प्रस्तुत किया है। सुरम्य प्राकृतिक घाटियाँ हमारी रुग्ण मनोवृत्ति के बूचड़खाने में तब्दील होती जा रही है। महानगरों की कोढ़-भरी लिजलिजी सभ्यता हर जगह अपनी जड़ें फैला रही है।

साहनी जी शीर्षक तक का चयन बड़ी सावधानी से करते हैं। ‘चक्रव्यूह’ लघुकथा में कर्मठ अधिकारी की विवशता को सूक्ष्मता से उभारा गया है : बड़े अधिकारी अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए गलत प्रवृत्तियों को बढ़ावा देते हैं। छोटे अधिकारी की स्थिति ‘त्रिशंकु’ जैसी हो जाती है। वह न बड़े अधिकारियों को खुश रख पाता है और न अधीनस्थ कर्मचारियों को नाराज करके अपना काम चला सकता है। दफ्तरों में फैला भ्रष्टाचार ‘गुबार’ में अपनी गर्द से सही आचरण को ढकता जा रहा है। इस माहौल ने पूरे परिवेश को कलुषित किया है। ऍडजस्ट करने की शुरूआत चीफ साहब करते हैं, दस हजार के लिए । जब उसके तार एक-एक करके अधिशासी अभियन्ता, सहायक अभियंता और अवर अभियंता तक पहुँचते हैं तो रकम चालीस हजार हो जाती है। भ्रष्टाचार को यदि खत्म करना है तो इसकी शुरूआत भी ऊपर से करनी पड़ेगी। अछूत वर्ग बदली हुई परिस्थितियों में और अधिक यातना सह रहा है। ‘जहाँ के तहाँ’ में गंगी की परवर्ती पीढ़ी उपेक्षा के साथ देह-शोषण की पीड़ा भी झेल रही है। सुधार की बातें आहत सम्मान पर लेप नहीं लगा सकतीं । किसानों का शोषण इस कदर हो रहा है कि विकास की बातों पर भी उनका विश्वास नहीं रहा। ‘डरे हुए लोग’ में अविश्वास का यह विषधर यूँ ही नहीं डँस रहा है, इसके नेपथ्य में चले जाने की अनुगूँज सुनाई पड़ेगी।

साहनी ने विषयवस्तु के अनुकूल चरित्र एवं स्वभाव के अनुरूप ही शिल्प का चयन किया है। मानसिक उद्वेलन का सूक्ष्म पर्यवेक्षण जीवंत रूप में अभिव्यक्त हुआ है। अधिकतम लघुकथाओं में से एक ऐसी खरोंच है, जो पाठक के मन में दूर तक खिंचती चली जाती है । ‘तृष्णा’ में रोहित की तृष्णा केवल संतान तक सीमित है। वृद्धा की गोद में लेटे शिशु के प्रति ममत्व जाग उठता है, परंतु वृद्धा की खिन्नता का कारण है उसकी बहू द्वारा जनी यह तीसरी बेटी । लेखक ने वृद्वा के प्रति पाठक के मन में तनिक भी घृणा जगने नहीं दी, लेकिन गलत सोच को रेखांकित कर दिया। वृद्वा की गोद में लेटी बच्ची का अँगड़ाई लेकर उसकी ओर अपलक देखना एक मूक प्रतिरोध है। भाषा की यह शक्ति गहन मंथन के बिना रूपायित नहीं हो सकती थी। ‘यही सच है’ की विषयवस्तु जितनी गंभीर है, भाषा भी उसकी अनुगामिनी बन गई है। रंजन की युवा पत्नी मर गई । अस्थियाँ चुनकर श्मशान से लौट रहा है। “वो दूधवाली बाल्टी रख ली है न?” ससुर के इतना पूछने पर भन्ना उठता है, लेकिन चार वर्षीय बेटे बिट्टू का ध्यान आते ही उसका आक्रोश ठंडा पड़ जाता है। जो बचा रहता है, चाहे वह बाल्टी हो, चाहे बिटटू हो, वही सच है। इस सामयिक सत्य की ओर मुड़ने की अनिवार्यता जीवन से जुड़ी है । रंजन ने अपने बेटे को सीने से लगाकर जोर से भींच लिया, क्योंकि पत्नी के चले जाने पर उसका यह अंश ही तात्कालिक सच है। इस तरह साहनी की लघुकथाएँ मानव जीवन के बहुआयामी जीवन का सच्चा चिट्ठा है। मानव जीवन में जो भटकाव आया है, ये कथाएँ उसकी ‘वापसी’ का आह्वान करती हैं। यह वापसी तभी संभव है, जब हम भावी पीढ़ी की संभावनाओं को ध्यान में रखें, चरित्र की क्षणिक दुर्बलता को हावी न होने दें, चरित्र की सहज वृत्ति को साँस लेने, पंख फैलाने का अवसर दें। ‘वापसी’ लघुकथा के अभियंता की तरह इस समाज के द्वंद्व की समाप्ति तथा पूर्व स्थिति में लौटने पर ही मूल्यों की रक्षा संभव है।