सुकेश साहनी से योगराज प्रभाकर की बातचीत / सुकेश साहनी

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1-आप अपनी लघुकथा के लिए कथानक का चुनाव कैसे करते हैं?

- लघुकथा के लिए कथानक का चयन स्वतः स्फूर्त प्रक्रिया के तहत ही होता है। जीवन जीते हुए बहुत कुछ घटता है, कुछ दूसरों के साथ घटता देखते हैं, कुछ जग बीती भी सुनने को मिलती रहती है। इन्हीं में से कुछ ऐसा भी होता है, जो दिलोंदिमाग में अंकित हो जाता है और आगे जाकर किसी लघुकथा का अंश बन जाता है।

2-क्या कभी कोई कथानक किसी विचार अथवा सूक्ति पढ़ते हुए भी सूझा है?

- मेरे साथ ऐसा कभी नहीं हुआ।

3-कथानक सूझने के बाद ज़ाहिर है कि लघुकथा की एक अपुष्ट सी रूपरेखा स्वत: ही बन जाती हैl आप क्या उसे बाकायदा कहीं लिख लेते हैं या केवल याद ही रखते हैं?

- मेरी प्रत्येक लघुकथा के सृजन की अपनी कहानी है। जिसे मैंने अपनी ‘रचना प्रक्रिया ‘में साझा भी किया है। मस्तिष्क में चलने वाली इस प्रक्रिया को कहीं लिखकर रखने की आवश्यकता कभी महसूस नहीं हुई।

4-क्या कभी ऐसा भी हुआ कि कथानक सूझते ही लघुकथा का अंत सबसे पहले दिमाग में आया हो और आपने उसी के इर्द-गिर्द लघुकथा बुनी हो?

- ‘विजेता’ ही एकमात्र ऐसी लघुकथा है, जिसका अंत पहले ही सूझ गया था; लेकिन इस लघुकथा को भी मैं तत्काल नहीं लिख सका था।

5-कथानक चुनने के बाद आप यह निर्णय कैसे करते हैं कि उस पर लघुकथा किस शैली में लिखनी है?

- मेरे लिए लघुकथा की सम्प्रेषणीयता बहुत मायने रखती है। भीतर चल रहे मंथन के दौरान ही सम्प्रेषणीयता को मददेनजर रखते हुए शैली का चयन करता हूँ।

6-लघुकथा का पहला ड्राफ्ट लिखकर आप कब तक यूँ ही छोड़ देते हैंl आप सामान्यत: लघुकथा के कितने ड्राफ्ट लिखते हैं?

-जब रचना मेरे भीतर मुकम्मल हो जाती है, यानी प्रारम्भ से अंत तक मुझे क्या कहना है, इसमें कोई शंका नहीं रह जाती है तभी लघुकथा कागज पर उतरती है। फिर रचना को कसने या उचित शब्दों के चयन की प्रक्रिया के बाद, प्रायः तीसरे ड्राफ्ट में लघुकथा पूर्ण हो जाती है।

7-क्या कभी ऐसा भी हुआ कि कथानक सूझते ही तत्क्षण उस पर लघुकथा लिखी गई हो?

- मेरे साथ ऐसा कभी नहीं हुआ।

8-लघुकथा लिखते हुए क्या आप शब्द सीमा भी ध्यान में रखते हैं?

- नहीं, लिखते समय शब्द सीमा पर कभी ध्यान नहीं देता हूँ। लिखने के बाद मैं लघुकथा को कसने की कोशिश जरूर करता हूँ।

9-लघुकथा लिखते हुए आप किस पक्ष पर अधिक ध्यान देते हैं? शीर्षक पर, प्रारंभ पर, मध्य पर या फिर अंत पर?

- जब लघुकथा भीतर मुकम्मल हो जाती है, तभी लिखने बैठता हूँ। जाहिर है कि प्रारम्भ और अंत पर भी मंथन लगभग पूर्ण हो चुका होता है। फिर भी लिखते समय अंत पर अधिक ध्यान देता हूँ। लिखते समय यदि शीर्षक पहले से बेहतर सूझ जाए तो परिवर्तित कर देता हूँ।

10-लघुकथा लिखते समय ऐसी कौन सी ऐसी बाते हैं जिनसे आप सचेत रूप से बचकर रहते हैं?

- अनावश्यक विस्तार से बचता हूँ।

11-एक गम्भीर लघुकथाकार इस बात से भली भांति परिचित होता है कि लघुकथा में उसे ‘क्या’ कहना है, ‘क्यों’ कहना है’ और ‘कैसे’ कहना है, निस्संदेह आप भी इन बातों का ध्यान रखते होगेl इसके इलावा आप ‘कहाँ’ कहना है (अर्थात् किस समूह, गोष्ठी, पत्रिका, संकलन अथवा संग्रह के लिए लिख रहे हैं) को भी ध्यान में रखकर लिखते हैं?

- किसी समूह, गोष्ठी,पत्रिका,संकलन अथवा संग्रह को ध्यान में रखकर कोई लघुकथा मैंने नहीं लिखी,न ही कभी लिखने का प्रयास ही हुआ।

12-लघुकथा लिखते हुए क्या आप पात्रों के नामकरण पर भी ध्यान देते हैं? लघुकथा में पात्रों के नाम का क्या महत्त्व मानते हैं?

- कुछ लघुकथाओं के विषय ऐसे होते हैं जिनमें पात्रों के नाम का बहुत महत्त्व होता है। ऐसी रचनाओं के पात्रों के नामकरण पर विशेष ध्यान देना लघुकथा की जरूरत होती है। ‘अन्ततः’ के श्यामलाल, ‘गाजर घास’ के बाबू रामसहायऔर 'बिरादरी' के बाबू और सीताराम ऐसे ही पात्र है।

13-क्या लघुकथा लिखकर आप अपनी मित्र-मंडली में उस पर चर्चा भी करते हैं? क्या उस चर्चा से कुछ लाभ भी होता है?

-लघुकथा लिखने के बाद मैं सबसे पहले पत्नी रीता को सुनाता हूँ या पढ़ने को देता हूँ। यदि वह लघुकथा के मूल स्वर को पकड़ लेती है , तो मैं सन्तुष्ट महसूस करता हूँ। उन्हें समझने में दिक्कत होती है, तो सोच विचार कर लघुकथा को सम्प्रेषण की दृष्टि से और अधिक सरल बनाने का प्रयास करता हूँ। मेरे द्वारा लिखी गई प्रत्येक लघुकथा के दूसरे पाठक भाई ‘रामेश्वर काम्बोज ‘हिंमाशु’ होते हैं।उनकी प्रतिक्रिया मेरे लिए महत्त्वपूर्ण होती है। इस विमर्श से लाभ तो होता ही है।

14-क्या कभी ऐसा भी हुआ कि किसी लघुकथा को सम्पूर्ण करते हुए आपको महीनों लग गए हों? इस सम्बन्ध में कोई उदाहरण दे सकें तो बहुत अच्छा होगाl

- मेरे साथ कई बार ऐसा हुआ है कि लघुकथा को मुकम्मल होने में महीनों, यहाँ तक की बरसों लग गए। इस परिप्रेक्ष्य में ‘लघुकथा: रचना प्रक्रिया में 'तोता' ( हिन्दी चेतनाः अप्रैल- जून-2024) लघुकथा को देखा जा सकता है।

15-आप अपनी लघुकथा का अंत किस प्रकार का पसंद करते हैं? परामर्शात्मक, उपदेशात्मक या निदानात्मक?

-कथ्य की आवश्यकता के अनुरूप स्वाभाविक अंत होना चाहिए। उपदेशात्मक या निदानात्मक अंत मेरी पहली पसंद कभी नहीं रहे।

16-आप किस वर्ग को ध्यान में रखकर लघुकथा लिखते हैं, यानी आपका ‘टारगेट ऑडियंस’ कौन होता है?

- आम पाठक को ध्यान में रखकर ही लिखता हूँ। कुछ ऐसी लघुकथाओं ने भी जन्म लिया है, जिनके पाठकों का दायरा बहुत ही सीमित है। ऐसी रचनाएँ आम पाठकों को समझ में नहीं आती। मेरा मानना है कि स्वाभाविक रूप से रची गई प्रत्येक लघुकथा महत्त्वपूर्ण होती है।

17-अपनी लघुकथा पर पाठकों और समीक्षकों की राय को आप कैसे लेते हैं? क्या उनके सुझाव पर आप अपनी रचना में बदलाव भी कर देते हैं?

- पाठकों और समीक्षकों की राय मेरे लिए महत्त्वपूर्ण होती है। खासतौर पर मैं पाठकों की राय को बहुत तरजीह देता हूँ। चूँकि लघुकथा तभी कागज पर उतरती है, जब वह मेरे भीतर पूरी तरह पक जाती है; इसलिए मैंने छपने के बाद किसी लघुकथा में बदलाव की जरूरत महसूस नहीं की।

18-क्या कभी ऐसा भी हुआ कि आपने कोई लघुकथा लिखी; लेकिन बाद में पता चला कि वह किसी अन्य लघुकथा से मिलती-जुलती हैl ऐसी स्थिति में आप क्या करते हैं?

- रचना प्रक्रिया के दौरान वही कथानक मस्तिष्क में रह जाते हैं, जो महत्त्वपूर्ण होते हैं, जिन्हें पाकर यह लेखकीय छटपटाहट/बेचैनी होती है कि मुझे ऐसा कुछ मिल गया है, जो दूसरों को भी पता चलना चाहिए। अंततः इसी प्रकार की लघुकथाएँ जन्म लेती है , अर्थात् लिखी जाती हैं। लिखने के बाद ऐसा कभी महसूस नहीं हुआ कि किसी दूसरी लघुकथा से मिलती जुलती लघुकथा लिखी गई है।

19-क्या कभी आपने अपनी लिखी लघुकथा को खुद भी निरस्त किया है? यदि हाँ, तो इसका क्या कारण था?

- कुछ गिनी चुनी लघुकथाएँ ऐसी भी है, जिन्हें लिखने के बाद सन्तुष्टि नहीं मिली। खुद को ही उनमें कुछ कमी महसूस होती रही । इस तरह की कुछ रचनाएँ अभी तक लम्बित हैं। मुझे लगता है कि आगे जाकर अकस्मात् उनसे जुड़ी कोई घटना उन्हें मुकम्मल करने में जरूर सहायक होगी।

20-लघुकथा पूर्ण हो जाने के बाद आप कैसा महसूस करते हैं?

- लघुकथा पूर्ण हो जाने पर बहुत राहत मिलती है, खुशी होती है,पर यह क्षणिक ही होती है। कोई दूसरी रचना कागज पर उतरने के लिए दस्तक देने लगती है।

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