सुख-दु:ख का अलग अलग विवेचन / बालकृष्ण भट्ट
बुद्धिमानों ने सुख-दु:ख का निर्णय इस तरह पर किया है कि जो अपने को अनुकूल वेदनीय वह सुख है और जो प्रतिकूल वेदनीय हो वह दु:ख है। एक ही वस्तु एक को सुख का कारण होती है इसलिये कि वह सब भाँति उसके अनुकूल है, वही दूसरे की दुखदायी हो जाती है क्योंकि वह सब तरह पर उसके प्रतिकूल पड़ती है। प्राणी मात्र को एक ही वस्तु या एक ही विषय सुखद और दु:खद नहीं होते। माघ कवि ने कहा भी है-
"भिन्नरुचिर्हि लोक:"
इत्र जो हम लोगों को अत्यंत घ्राणतर्पण और मस्तिष्क को ताकत पहुँचाने वाला है गोबरैले को सुँघाने से वह मर जाता है। इस गृहस्थों को विषयास्वाद सुख का हेतु और जन्म का साफल्य है वही विरक्त वीतराग को उसमें हेय बुद्धि और जैसे हो सके उसका त्याग सुख और शांत का हेतु है। आलसी बेकाम पड़े रहने ही को सुख समझता है परिश्रमशील उद्योगी परिश्रम ही को सुख मानता है। उदार चेता की खाने खिलाने और किसी की अपने पास का चार पैसा दे देने में असीम सुख मिलता है। वही बुद्धमुष्टि कंजूस कदर्य की समझ में जो सुख की अंतिम सीमा हांव-हांव कर रुपया बटोरने में है वह इंद्र के अर्द्धासन के मिलने में भी कदाचित न होगी। खेलाड़ी आलसी लड़का पढ़ना महा दु:खदायी मानता है वही, परिश्रम, विद्यानुरागी नई-नई पुस्तकें और टटके लेख पढ़ने में अपने आनंद का उत्कर्ष और दिल बहलाव का एक मात्र वसीला मानता है। डरपोक कायर के लिए रण-क्षेत्र भय का स्थान है वही युद्धोत्साही वीर के लिये उससे बढ़ के कोई सुख हुई नहीं इत्यादि। जिस वस्तु को हम दु:खद मान उससे घिनाते हैं वह भी प्रकृति के नियम के अनुसार ईश्वर की सुधि में बड़े ही काम है। तो निश्चय हुआ वास्तव में सुख-दु:ख का अस्तित्व कल्पित है। हमारा मन जिस भावना से जिसे ग्रहण करता है उसी भावना का नाम सुख अथवा दु:ख है। गंभीर बुद्धि वाले विचारवान् का यह काम न समझा जायेगा कि थोड़ा-सा भी अपने प्रतिकूल होने से विकल हो धैर्य को पास फटकने का अवसर न देना और उस व्याकुली में भाग्य, अदृष्ट और ईश्वर पर समस्त दोष आरोपित कर देना। यदि अदृष्ट या ईश्वर का यह सब दोष ठहराया जाय तो उसके प्राकृतिक नियम किस लिये रखे गये हैं। प्रकृति के अनुकूल जो कुछ है वह कभी दु:ख का हेतु होगा ही नहीं-वरन् प्रकृति देवी की विश्व-विमोहिनी अपरिमित व्यापकता में सब कुछ समीचीन और अच्छा ही अच्छा है। ईश्वर की सृष्टि में निष्प्रयोजन तो कुछ है नहीं, न कोई काम या घटना निष्प्रयोजना होती है। ज्ञानातीत होने से उसका भेद या मर्म हमारी ओछी बुद्धि में नहीं आता तो यह हमारी ही अलपज्ञता का दोष है। ईश्वर को सर्वज्ञ, सर्वनियंता, सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान, आदि लड़ी के लड़ी विशेषता युक्त अपने प्रभु, उत्पादन पालन और संहारकर्ता मान उसे दोष लगाना कैसी अदूरर्शिता और मूर्खता है। इससे सुख-दुख में समभाव का होना ही परम सुख या सच्चा सुख है, योग सिद्धि का प्रधान अंग, शांति लाभ का एक माद्ध सहायक और स्थिर-धी का मुख्य लक्षण है-
"दु:खेष्वनुद्विग्नमना: सुखेषु विगतस्पृह:।
वीतरागभयक्रोध: स्थिरधीर्मुनिरुच्यते।।"
यह सुख-दु:ख की दशा महानता, उदार चेता बड़े लोगों के पहिचान की एक कसौटी है।
"संपत्सु महतां चित्तं भवत्युत्पलकोमलम्।
आपत्सुच महाशैलशिलासंघातकर्कशम्।।"
सुख और संपत्ति की दशा में बड़े लोगों का चित्त उत्पल जो अत्यंत कोमल होता है तत्सदृश मुलायम हो जाता है, अत्यंत विनीत और नम्र हो झुकने लगते हैं। वही जो ओछे, छोटे संकीर्ण हृदय हैं वे अभिमान में फूल बड़े कट्टर हो झुकना जानते ही नहीं-विपद्ग्रस्त दु:खित दशा में बड़े लोग धैर्य धर पत्थर से कड़े दिन बने रहते हैं, जो क्षुद्र हृदय हैं धीरज छोड़ गिड़गिड़ाने लगते हैं।