सुख / अमरेन्द्र

Gadya Kosh से
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"बस आयके भर तेॅ। कल फरचोॅ होतै नै होतै कि हम्में बोरिया-बिस्तर समेटी लेवै। अबकी तीन दिन नै आना छै। लदनी घोड़ा नाँखी खटवोॅ सें आराम मिली जाय छै तेॅ देहो-हाथ टनमनैलोॅ लागै छै। आरो कैन्हें नी--जीरबामाय हाथोॅ के बनैलोॅ खाना खाय केॅ के नै टनमनाय जाय। जेन्होॅ तन्तोॅ सें खाना बनाय छै, होने तन्तोॅ सें खाना खिलैबो करै छै। जब तांय खाना रोॅ एक्को कौर पत्ता में पड़लोॅ रहै छै, टसकै नै छै। हमरोॅ एकेक कौर पर ओकरोॅ चेहरा खिलतेॅ रहै छै, जेना, कै दिनोॅ के बेमारी सें उठलोॅ रोगी पत्थ देखी। जखनी आखरी कौर मुँहोॅ में राखी गिलास उठाय छियै तेॅ अघाय-अघाय जाय छै जीरबा माय। यही स्नेह तेॅ ओकरोॅ छेकै कि ई ठूँठ जग्घा में रहै के एक ज़रा मोॅन नै करै छै...इखनी भागौं कि तखनी भागौं ...जों गामे में जीयै लायक खर्ची निकली ऐतियै तेॅ ई परदेश कथी लेॅ जोगतियौं।" रिकशा पर बैठलोॅ अजमेरी ई सब याद करी गेलै।

अजमेरी आय चार महीना सें भागलपुरोॅ में रिकशा चलाय छै। तीस-पैंतीस संे ज़्यादा के होतै। काठी-कुठी मजबूत। मौका पड़लोॅ तेॅ दू-तीन सवारी के जग्घा में चार-चार तक खीची लेलकोॅ। एक तेॅ देह सें अलग, दुसरोॅ ओकरोॅ रिकशो हेनोॅ कि केकरो मोॅन ललची जाय वै पर बैठै लेॅ। कमाय के पैसा काटी-काटी केॅ वैं ई रिकशा खरीदनें छै। यहाँ नै, दुमका में। आरो वांही सें चलैतें-चलैतें भागलपुर लै आनलकै। चार-चार ठो सवारी बिना कसमकुस के बैठेॅ पारेॅ। दू आगू में आरो दू पीछू में। सीट के पीछू एक काठ के पट्टी राखी केॅ सीट बनैलोॅ गेलोॅ छै।

हेना केॅ तेॅ छोॅटोॅ-मोटोॅ सवारी ओकरोॅ रिकशा के तड़क-भड़क देखिये केॅ संकोच में पड़ी जाय छै--पता नै कत्तेॅ किराया माँगी बैठेॅ, मोल-मोलाय करवोॅ उचित नै समझै, कुछ बोली नै देॅ।

होन्हौ केॅ अजमेरी सवारी देखिये केॅ रिकशा पर बैठलकोॅ। दिन भरी में चार-पाँच लम्बा सवारी मिली गेलोॅ तेॅ रिकशा खटालोॅ में जाय केॅ लगाय देलकोॅ। खटालोॅ में रिकशा लगाय केॅ ही ओकरोॅ दस टाका रोज दैलेॅ लागै छै। ऊ तेॅ खैर कहूँ सुती लिएॅ पारेॅ, मजकि रिकशा केना कहूँ छोड़ी देतै--नीन खुलै के पहिलें कोय रिकशे खोली लै जाय! रिकशा खटालोॅ में आरो कमैलोॅ टाका हमेशे कमीज के नीचें गंजी वाला जेबी में, जेकरा वैं कभियो नै खोलै छै। हफ्ता भरी के जमा पूंजी ओकरै में।

ई कोय नै जानै छै कि साँझ केॅ रिकशा लगैला के बाद अजमेरी रहै छै कहाँ। ठीक सात बजे ऊ खलीफाबाग के चित्रशाला लुग आवी केॅ खाड़ोॅ होय छै। स्टूडियो के मालिक रंजन जी, ओकरोॅ आखरी सवारी होय छै। आरो ठीक आठ बजे बाद, जखनी ऊ खलीफाबाग लौटै छै, बिना रिकशा के होय छै। खाली हाथ डोलैनें।

आवी केॅ चित्रशाला के संगमरमर वाला बाहरी पिण्डा पर बैठी जाय छै। बस बैठवे भर के देर कि त्रिफला सबसें पहिलें ओकरे सामना में पत्तल परोसलकोॅ। भले कोय रिकशावाला ओकरा सें पहिलें कैन्हें नी ऐलोॅ रहेॅ। ई चौराहा पर बीसो रिकशा खाड़ोॅ होय छै आरो बीसो रिकशावाला केॅ त्रिफलैं खाना खिलाय छै। ऐलोॅ गेेलोॅ, खैलेॅ गेलोॅ, मजकि अजमेरी आपने टैम पर आवै छै--ठीक आठ बजे.

आय हुवेॅ सकै छै, वैं त्रिफला हाथोॅ के खाना नहियो खावेॅ सकेॅ; जीरवे माय के हाथोॅ सें बनलोॅ खाना खाय। बस दू-चार टा मोटोॅ-मोटोॅ सवारी तेॅ मिली जाव। सौ, सवा सौ होय जाय, तेॅ की कहना--वैं मने-मन सोचलकै--एकरा सें कम आमदनी होलै तेॅ ऊ आय घोॅर नै लौटतै। आयकोॅ रात यहीं। एक रात त्रिफला हाथोॅ के खाना आरो, फेनू तेॅ तीन दिन नहिये नी। होन्हौ केॅ त्रिफलां जीरबा माय सें की कम मनोॅ सें खिलावै छै खाना।

"की हो, मायागंज चलवौ? अस्पताल चलना छै।"

अजमेरी के ध्यान टुटलै। सामना में एक जनानी एक बूढ़ा के हाथ पकड़ने ठाड़ी छेलै। कपड़ा-लत्ता देखला सें बुझावै छेलै कि कोय पढ़लोॅ-लिखलोॅ घराना के छेकै। अभी ओकरोॅ मनोॅ में ई सवाल उठवे करतियै कि--पता नै... कि तभिये जनानी फेनू बोललै, "बेटा, किराया के चिन्ता नै करियोॅ, जे टा तोरोॅ किराया होय छौं, ओकरा सें दुगने देभौं, कम नै, बस आहिस्ता-आहिस्ता हमरा मायागंज पहुँचाय दा।"

अजमेरी झट सीटोॅ सें उतरी गेलै--किराया केॅ सुनी नै, ऊ जनानी के भद्र बोली सुनी केॅ आरो जबेॅ दोनों सवारी लै केॅ ऊ चललै तेॅ ओकरोॅ गोड़ पैडिल पर होन्हे कलेॅ-कलेॅ चलेॅ लागलै, जेना ओकरोॅ गोड़ नै रहेॅ, एक चाल में चलैवाला बैलगाड़ी के चक्का रहेॅ--सड़क के बायां दिश रसेॅ-रसेॅ चलतें।

होन्हौ केॅ अजमेरी जबेॅ खांचा-खूंची वाला सड़कोॅ पर रिकशा हाँकलकोॅ तेॅ रस्हैं-रसेॅ--आपनोॅ रिकशा छेकै, कोनो किराया पर नै। फेनू भागलपुर रोॅ सड़क तेॅ जेना एक्के चेहरा पर गोटियो के गड्ढा आरो ऐलाहो के माँस--दोनों। चेती केॅ नै चलावोॅ तेॅ निनौन पुरी जाय रिकशा के. आरो इखनी तेॅ हेनोॅ सवारी बैठलोॅ छेलै कि जरियो टा झोल पड़ेॅ तेॅ सवारी नीचेॅ। से अजमेरी आगू ताकै, तेॅ घुरी-घुरी केॅ पिछुवो ताकी लै।

"मालकिन, बूढ़ा मालिक केॅ ठीक सें पकड़लेॅ राखोॅ। ई तेॅ हेनोॅ सड़क छै कि रिकशा खाड़ो रहेॅ, तभियो सवारी उछली केॅ सड़कोॅ पर गिरी पड़ेॅ।" सराय होय केॅ जबेॅ भी अजमेरी रिकशा निकालै छै, सवारी सें ई कहवोॅ नै भूलै। तखनी है बात कहै में ओकरोॅ चेहरा अजीबे रं होय जाय छै।

कै दाफी तेॅ कसम खैलेॅ छै कि भले दस मिनिट देर लागेॅ, हिन्नें सें नै जाना। मजकि करवो करै की, जों पसैंजर यूनीवरसिटी तरफोॅ के मिली जाय। आरो विहानकोॅ बेरा तेॅ अधिकतर सवारी हिनरके मिलै छै। एक्को प्रोफेसर-टीचर मिली गेलोॅ तेॅ भीखनपुर सें मारवाड़ी कॉलेज तांय के पन्द्रह-बीस टाका। अय्यो होने सवारी सुथरी गेलै तेॅ आब्है लेॅ पड़लै।

प्रोफेसर कॉलोनी सें मायागंज जाय में ओकरा पूरे घंटा भर लागी गेलै। रुकलै, तेॅ हैंडिल में फँसलोॅ रबड़ केॅ ब्रेक सें फंसैतें वै बूढ़ा केॅ उतरै में मदद करलकै। सोचलेॅ तेॅ यहेॅ छेलै कि सवारी उतरतै आरो ओकरा छोड़ी देतै, मजकि हेनोॅ नै होलै। जनानी ओकरा रुकले रहै के बात कही वृद्ध साथें अस्पताल के हाता में घुसी गेलै।

एकरोॅ मतलब छै, आबेॅ आधोॅ घंटा देर--अजमेरीं सोचलकै आरो फेनू रिकशा एक दिशोॅ में लगाय, वैं पर जमी गेलै। मने-मन हिसाब लगावेॅ लागलै--यूनीवरसिटी सें मायागंज--कत्तो कम-सें-कम तेॅ पच्चीस टाका, रोकै के मतलब होलै, फेनू लौटती--पच्चीस। पचास टाका तेॅ हेन्हैं होय गेलै...कहलेॅ छै दुगना देभौं। दुगना देतै की हेन्है, घंटा, आध घंटा रुकतै तेॅ पचीस टाका होन्हौ केॅ होय गेलै--जों देब्हौ करतै तेॅ पचीसे टाका ज्यादाहै नी...एत्तेॅ बचाय-बचाय केॅ लानै में एतना देना ही चाही...जे सोची केॅ हम्में गदगद होय रहलोॅ छेलियै, से हेन्होॅ कोय बात नै छै। मेहनतानै भर मिली रहलोॅ छै। हों, ई होलै कि एक्के सवारी हेनोॅ मिली गेलोॅ छै कि आबेॅ दुसरोॅ सवारी उठाय के ज़रूरते नै पड़तै। बस आराम सें रिकशा लगाना छै आरो नौगछिया वाली गाड़ी पकड़ी केॅ सीधे कटिहार। कत्तो देर-सवेर होतै तेॅ आठ बजे रात तांय पहुँचिये जैवै...अच्छे होतै...जखनी जिरबामांय हमरा हठाते ऐलोॅ देखतै, तेॅ केन्होॅ गुदगुदाय जैतै--ई बात सोचत्हैं अजमेरी आपन्हैं ई रकम गुदगुदाय उठलै कि मत पूछोॅ। चेहरा पर एक अजीबे चमक उठी केॅ फैली गेलै।

की-की नै सोचतें रहलै ऊ--जब तांय सवारी लौटी नै ऐलै। अनुमानो सें ज़्यादा देर करी केॅ ऐलोॅ छेलै--पौने घंटा बाद।

--चलोॅ कोय बात नै छै, हिन्नें सें तेॅ ढलुव्वे ढलाव छै। बीचोॅ-बीचोॅ में एकाध पैडिल मारना छै आरो सीधे खलीफाबाग, फेनू सराय चौक सें भैरवा तालाब तांय तेॅ कोय दिक्कते नै--ऊ मने-मन बुदबुदैलै आरो सवारी केॅ सावधान करतें कहलकै, "दोनों आदमी, टप्पर के बत्ती केॅ पकड़ी लिऐ, ढलाव छै नी, कत्तो कल्लेॅ-कल्लेॅ चलैवै, तेज होय्ये जैतै।"

रास्ता भर वैं भरसक कोशिश करतें रहलै कि गाड़ी तेज न चलेॅ, नै तेॅ हेनोॅ ढलाव पर ओकरोॅ रिकशा केॅ पंख लागी जाय छै--पंखवाला गाड़ी आरो अजमेरी ओकरा पर सवार। तखनी ओकरा सवारी के कोय ख्याल नै रही जाय छै। मजकि की मजाल कि रिकशा रास्ता सें जरिया टा बेरास्ता होय जाय।

आधो घंटा नै लगलोॅ होतै कि रिकशा फेनू वहेॅ जग्घा पर। आरो जखनी ओकरोॅ हाथोॅ में भाड़ा के सौ टाका पड़लै तेॅ ऊ खुशी सें गनगनाय उठलै। बड़ी गौर सें दोनों सवारी केॅ देखलकै, पहलें एत्तेॅ ध्याने नै देलेॅ छेलै--जनानी रेशमी साड़ी में आरो मरदाना रेशमी कुर्त्ता में, शांतिपुरी धोती--एकदम चकचक, कोय बहुत बड़ोॅ घराना के बुझाय छै। आपनोॅ कार नै होतै, ई बात हुऐ नै पारेॅ, या तेॅ गाड़ी में कोय खराबी आवी गेलोॅ होतै आकि ड्रायवरे नै ऐलोॅ होतै, तहीं से रिकशा करै लेॅ लागलै--एक क्षण में वैं बहुत कुछ अनुमान लगाय लेलकै।

सवारी एक नमरी थमाय केॅ हेने आगू बढ़ी गेलै, जेना वैं कुछ ज़्यादा नै देलेॅ रहेॅ, ओकरोॅ वाजिबे भाड़ा भर।

अजमेरीं नमरी केॅ निरयासी केॅ देखलकै, उलटैलकै, पलटैलकै, आँखी के आगू लानी केॅ कुछ मिलैलकै आरो फेनू जतन सें मोड़ी केॅ गंजीवाला जेबोॅ में राखी लेलकै, जेकरा वैं बदन सें कभियो नै उतारै--बस चार-पाँच रोजोॅ के बादे, घोॅर पहुँचलै पर।

--आबेॅ की कमाना छै। होय गेलै। जीरबामाय के हाथोॅ में जखनी पाँच सौ टाका राखवै, तखनिकोॅ ओकरोॅ खुशी के लिखेॅ पारेॅ। मजकि पाँच सौ टाका वास्तें तेॅ ओकरोॅ पास आरो पचीस टाका होतियै, तब्हैं नी। पाँच सौ हटैला पर तेॅ ओकरोॅ पास पचासे बचै छै, यै में खटाल मालिको केॅ देना छै आरो भाड़ाओ. बस एक-दू पसैंजर आरो उठाय लियै तेॅ बीस-पचीस होय जाना दायां-बांया के बात छेकैै। फेनू हेनोॅ रिकशा पर तेॅ हुभौं आदमी चढ़ैलेॅ चाहै छै--मने-मन सोची ऊ मुस्कैलै आरो रिकशा मोड़ी लेलकै।

खलीफाबाग दिश नै जाय केॅ नया बाज़ार दिश मुड़ी गेलै।

चढ़ाव पर भाड़ा दू पैसा लगैय्ये केॅ मिलै छै। आवेॅ जों गाड़ी निकालिये लेलेॅ छियै तेॅ की आधोॅ दिन आरो गोठोॅ बेरा...मतरकि नै, सवारी मिललोॅ जाय छै तेॅ की, आय उठायवाला नै छियै, भले आय घोॅर नै जावं तेॅ नै, मजकि गाड़ी एक बजे तेॅ लगैय्ये देना छै। लगाना छै आरो बस बैठी रहना छै सिनेमा हॉलोॅ में--उड़ी-उड़ी बैठै मरवड़िया दुकनियाँ...इस्स, एकेक गाना जोरदार छै, दू बार देखलियै, मोॅन नै भरलै, की पता, लौटी केॅ आवौं आरो फ़िल्मे गायब। भीड़ो तेॅ नै जुटै छै, मजकि जे पूछोॅ--नौटंकीवाली के नखरा आरो गाना एकदम झकझोरी दै वाला छै--सोचत्हैं अजीबे स्थिति होय गेलै अजमेरीं के--आँखी में मेला के नाच, कानोॅ में ढोलक के थाप आरो मुँहोॅ पर रही-रही वहेॅ गीत के एक पंक्ति--उठी-उठी बैठै मरवड़िया दुकनियाँ।

आरो ठिक्के एक बजे रिकशा खटाली में लगाय केॅ अजमेरी सिनेमा हौलोॅ में जाय केॅ बैठी रहलै। जबेॅ सिनेमा हौलोॅ सें निकललै तेॅ ओकरा नमरी सिनी याद ऐलै। गंजीवाला जेबी में हाथ डाललकै, कुछ हेनोॅ ढंग सें कि कोय है नै समझेॅ--टाका समेटी रहलोॅ छै, समझेॅ तेॅ यहेॅ समझेॅ कि पनखोका में खुजली उठी गेलोॅ छै, वही खुजलाय छै। देखैय्ये लेली वैं दू-तीन दाफी पनखोका खुजलैलेॅ छेलै--कोॅन ठिकानोॅ, ऊ नौटंकी वाली केॅ देखै में मशगूल रहेॅ आरो हिन्नें टेवा में पाकिटमार...बाप रे बाप, जों टिपिये लेलेॅ होतै तेॅ वैं जिरबामाय के हाथोॅ में की देतै, जेकरा हम्में केना जमा करै छियै, हम्मी जानै छियै--सोचत्हैं ओकरोॅ माथोॅ ठनकी गेलै। चुटकी ससारी-ससारी नमरी झब-झब गिनलकै--एक, दू, तीन, चार, पाँच। निश्चिन्त होलै तेॅ फेनू वहा रं वैं हिन्नें-हुन्नें देह-हाथ खुजलैलेॅ छेलै।

ॉॉ

हाता सें बाहर निकललै तेॅ साढ़े आठ बजे रात होय छेलै आरो जखनी त्रिफला लुग पहुँचलै तेॅ नोेॅ बजेॅ लागलोॅ छेलै।

"की, आय एत्तेॅ बेर? कोय दुसरोॅ त्रिफला मिली गेलै राह-बाट में की?"

त्रिफला के ई बात सुनी केॅ अजमेरी जानेॅ तेॅ कोॅन रसोॅ सें भीतर तांय भीगी गेलै। बोललै कुछ नै, मुस्की केॅ रही गेलै। त्रिफलौं जानै छै कि शनिच्चर आरो रविवार केॅ ऊ शहर में नै रहै छै, आपनोॅ गाँव चललोॅ जाय छै--घर वास्तें कुछ कीनै लेॅ निकली गेलोॅ होतै। कत्तेॅ हाय-हाय करतै, हेनोॅ हाय-हाय में परिवारोॅ के सुक्खे नसाय जाय--यही सें अजमेरी कत्तो ओला-पानी कैन्हें नी पड़ौ, ओकरा कोय आंधियो तूफान नै रोकेॅ पारेॅ।

"बहुत देर होय गेलौं। सच पूछौ तेॅ तोरे लेॅ दुकान अभी तांय नै बढ़ैलेॅ छियै। नै तेॅ जेकरा-जेकरा खाना छेलै, ऊ खाय केॅ जैवो करलै।" त्रिफलां बड़ी नेहोॅ सें धोलोॅ थरिया केॅ साफ कपड़ा सें पोछतें कहलकै। पोछी-पाछी ओकरोॅ आगू करी वैमें भात रखलकै। सड़ियैलकै। गोल करी गड्ढा करलकै कि दाल डालेॅ तेॅ पसरेॅ नै। दाल डाललकै आरो फेनू थरिया में दू तरकारी राखतें कहलकै, "आलू के भरता-भुजिया तेॅ खैतैं रहलोॅ छौ। आय आलूदम खाय केॅ देखौ। तोरोॅ मनपसन्द के बनैलेॅ छियै--खटरुस वाला--टमाटर दै केॅ। तोहें हेनोॅ तरकारी तेॅ जी-जानोॅ सें चाहै छौ।" सब एक्के सांस में कही गेलै--आलूदम वाला कटोरी ओकरोॅ आगू राखतें।

ओकरा मालूम छै, आयकोॅ बाद अजमेरी आबेॅ दू रोज बादे दिखतै। ओकरोॅ थाली में कुछ कम होवो नै करै कि त्रिफलां ओकरोॅ मना के बादो ऊ चीज जबरदस्ती राखी दै, "जी-जानोॅ सें खटै छौ तेॅ रुचो के जी भरी खैवो नै करवौ। गाड़ी खींचै के मतलब होलै बरदोॅ रं मजबूत देहो राखोॅ, खाय-पीयै में लाज की। कहै छै नी--एक घड़ी के बेशरमी, चौबीस घड़ी आराम।"

त्रिफला के बात सुनत्हैं अजमेरी केॅ जिरबामाय के याद आवी गेलै--हेन्है केॅ तेॅ वैं खाना खिलाय छै, जोर-जबरदस्ती करी केॅ। यहेॅ रं के बात वहूँ कहै छै--'देह हाथ सलामत रहथौं, तबेॅ नी घोॅर-गृहस्थी के भार। जों समांगे नै रहतौं ...'

ओकरा याद ऐलै--जिरबामाय हेन्है केॅ तेॅ हमरोॅ वास्तें देर तांय आसरा देखतें बैठले रही जाय छै आरो कोय खाना बनावेॅ न बनावेॅ, झोरवाला कोय खटरुस तरकारी ओकरोॅ वास्तें ज़रूरे बनैतै, जानै छै, ई होला सें दू कौर ज़्यादा खाय लै छियै...ई बात त्रिफला केॅ केना मालूम होय गेलै...जनानी छेकै, सौ दिन खाय छियै तेॅ रुच जानी लेवोॅ कोय बड़का बात नै...

अजमेरी तेॅ एकदम विभोर होय उठलै। एक-एक कौर पर गुनी रहलोॅ छेलै--त्रिफला बारे में। ओकरा एकरोॅ सुधे नै रहलै कि ऊ घरोॅ पर नै--चौराहा वाला चित्रशाला के पिण्डा पर बैठलोॅ खाय रहलोॅ छै आरो जिरबामांय नै, त्रिफलां ओकरा खाना खिलाय रहलोॅ छै।

त्रिफलौ केॅ कुछ समझै में नै ऐलै कि आखिर आय अजमेरी कुछ जवाब कैन्हें नी दै रहलोॅ छै। ऊ परेशान होय उठलै, मजकि पूछलकै आगू कुछवे नै।

अजमेरी के खाना खतम होय गेलोॅ छेलै। एतेॅ दिनोॅ में ई पहले दाफी होलै कि वैं थरिये में हाथ धोलकै। दोनों हाथ के अंगुली सिनी क्रम सें मुट्ठी में बांधतें दू-तीन बार हेनोॅ घुमैलकै कि भींजलोॅ हथेली सूखी जाय। त्रिफलां देखलकै, मजकि बोललै कुछवो नै। बस, थाली एक दिश हटाय केॅ हड़िया-पतली झब-झब समेटेॅ लागलै। समेटी-उमेटी जबेॅ जुट्ठोॅ थाली दिश आपनोॅ हाथ बढ़ैले छेलै कि अजमेरी ओकरोॅ हाथोॅ में आपनोॅ कमाय थमाय देलकै।

त्रिफलां देखलकै, ओकरोॅ हाथोॅ में दस टाका के बदला पाँच नमरी छेलै। ओकरोॅ आँख फाटी केॅ रही गेलै। अजमेरी दिश देखलकै, हजार-हजार सवाल वाला आँखी सें, मजकि अजमेरी त्रिफला केॅ देखत्हौं कहाँ देखी रहलोॅ छेलै। बेसुध होय रहलोॅ छै। टाका केॅ राखतें नै देखलकै तेॅ अजमेरी कहलकै, "राखी लेॅ, सब दिन की समांग एक्के रं रहै छै।" कहतैं-कहतैं जबरदस्ती नमरी सिनी त्रिफला के मुट्ठी में बांधी देलकै आरो झब-झब घंटाघर दिश अन्हरिया रातोॅ में बढ़ी गेलै।