सुग्गी क्या करे / लतिका बत्रा
माँ पता नही कितनी बार यही सब बातें दुहराती है । बार बार वही बातें ।और हर बार वही दुपट्टे से आँख नाक पौंचते जाना , शून्य में टिकटिकी लग कर ताकते रहना , ऐसे जैसे कि दूर किसी अदृश्य पटल पर वो एक एक घटना , एक एक बात ज्यों की त्यों साक्षात देख देख रही हो । जो कहानी वो सुग्गी को सुना रही है ,उसी का चलचित्र । सुग्गी को माँ का एक एक शब्द एक एक क्रिया एक एक भाव भंगिमा रटी हुई है । जैसे ही माँ बोलना शुरू करती है , सुग्गी के मन में एक टेप साथ साथ चलना शुरू हो जाती है । “ पता है सुग्गी पहले तो हर हफ़्ते दस दिन में आता था फ़ोन तेरे बापू का । “ सुग्गी के मन में चलती टेप इस के आगे का दृश्य उसे दिखा रही होती । सुग्गी को पता होता था अब माँ की आँखों मे एक चमक उभर आये गी । सुग्गी को ये भी पता था कि शून्य में ताकती माँ के कानों में बापू के सालों पहले कहे शब्द गूँज रहे हैं । .....अगले ही क्षण टप टप बारिश की बूँदे बरसें गी माँ की आँखों से । फिर अगला वाक्य होगा .... “ हाय , पता नही किस की नज़र लग गई । अब माँ के माथे पर पड़ी शिकनें काँपेंगी और झुरियां कुछ और गहरी हो उठें गी । “ सब कहते थे दम्मो का भाग्य पलट गया “ सुग्गी जानती है अब माँ अपने उस विगत बडभाग्य के सुख में खोई कुछ क्षण के लिये सब कुछ भूल जायेगी , और दुख की गहरी लकीरों को फाड़ कर गर्व की लाली उस के चेहरे पर चौंध मार जाये गा । “ ढेरों रूपये भेजता था तेरा बापू ।” अब माँ के उभरी नसों से भरे शुष्क हाथ दुप्पटें का कोना खोजोगें ।पहले माँ नाक सुनके गी फिर आँखें पौंचे गी । “ अब तो कितने साल बीत गये “ इस के बाद के शब्द माँ की सिसकियाँ में डूब जाते है ।माँ कि ये सिसकियाँ विलाप क़िस्से कहानियाँ सुनते सुनते नन्ही सुग्गी बचपन की दहलीज़ लाँघ कर कब यौवन की चौखट पर आ खड़ी हुई है , इस का भान ना तो माँ को है ना सुग्गी को ही ।इस घर की हवा ठहर गई है जैसे अतीत में , जहाँ बापू छोड़ कर गया था उन्हें ।माँ का मन यादों की सुरंग में भटक भटक कर लहुलुहान हो उठता है ।सुग्गी का दम घुटता है अब ।छटपटाहट होती है , पर अटकी हुई सांसे जैसे चलती ही नही । माँ ख़ुद तो रूका बैठी है , वहीं , जहाँ “ वो “ उसे छोड़ गया था । पर सुग्गी ? सुग्गी माँ की परछाईं बना कर चिपका दी गई है उसी मोड़ पर ।
माँ रात भर डिबरी जला कर रखती है । कहती है , इस से परौने ( पाहुने ) रास्ता नही भटकते । मन ही मन हँसती है सुग्गी । “कौन से परौने माँ ? “ कालिख पुते आले पर काँपती मद्धिम सी लौ रात भर , तरह -तरह की काली स्याह आकृतियाँ बनाती मिटाती रहती है उन के कमरे की बदरंग भुरभुरी दिवारों पर ।सुग्गी डरती है इन परछाईयों से । उसे लगता है कि वो क़ैद है किसी सीलन भरी घुप्प अंधेरी काल कोठरी में ।ठीक वैसे ही जैसे उस का बापू , कहीं किसी दूर अनजान देश में क़ैद होगा , जेल की काल कोठरी में । बापू सलाखों के पीछे डरा सहमा सा बैठा होगा । कैदखाने के सूने ठण्डे गलियारों में सिपाही अपने फ़ौजी बूटों को ठक ठक करते घूम रहे होंगे ।इन्हीं परछाईयों की तरह जो उस की दीवारों पर बनती मिटती रहती हैं ।डिबरी थक कर फड़फड़ाती है और बुझ जाती है ।ठीक माँ की उम्मीदों की तरह ।माँ जो “ उस “के आने की आस ले कर ही सोती है , जागती है , पल पल जीती है , मरती है । माँ थकती नहीं ? सुग्गी तो थक चुकी है पीछे मुड़ मुड़ कर देखते । पता नही पीछे छूटा समय कभी सामने आ कर खड़ा होगा भी या नही ।
सुग्गी को याद है जब तक उसके दादा ज़िन्दा थे , वो करते रहे दौड़धूप उसके बापू को खोजने की ।दिल्ली तक हो आये थे ।पता नही किस किस दफ़्तर में अर्ज़ियाँ भेजते थे ।विदेशमंत्रालय और हाई कमीशन के चक्कर काटते थे , आपने बेटे की खोज ख़बर निकलवाने के लिये ।कमर टूट गई थी उन की ।सुग्गी को पूरी कहानी मुँह ज़ुबानी याद है ।
बापू पहले खेती करते थे ।2-3 किल्ले ज़मीन थी । किसी एजेंट के बहकाने में आ गये ।विदेश की नौकरी । एजेंट के दिखाये सुनेहरे सपनों के जाल में फँस कर उस ने सारी ज़मीन बेच दी । गाँव के और भी 8-10 उस जैसे किसानी करने वाले बंदों ने यही काम किया । सब ने ऐजैंट को मोटी रक़म कमीशन की दी ।उस ने सब को भेज दिया दुबई । नौकरी पर । शुरू शुरू में तो सब ठीक था । फ़ोन भी आते थे और पैसे भी । फिर धीरे धीरे सब बंद होगया ।बापू की ही नहीं , साथ गये लोंगो की भी कोई खोज ख़बर ना आई थी कई महीनों तक । फिर जब आस पास के गाँवों से भी अपने विदेश गये बेटों की भी कोई खोज ख़बर ना आने की ख़बरें गर्माने लगी तो हलचल मचनी शुरू हुई । पुलिस तक बात पंहुची जिस एजेंट ने सब को भेजा था वो फ़रार था ! उस के दफ़्तर पर ताला लगा था । कितने दिनों तक धरना दे कर बैठे रहे थे सब उस के दफ़्तर के आगे । पता चला कि जाली काग़ज़ातों पर भेजता था वो लड़कों को दुबई , क़तर , ओमान , कुवैत ।सब ने विदेश में नौकरी के लालच में मोटी रक़में दी थी उसे ।सुग्गी को ग़ुस्सा आता कि इतने बड़े हो कर कैसे फँस गये सब उस के झाँसे में ।।अब क्या पता कि सुग्गी का बापू आख़िर गया किस देश था । अवैध घुसपैठियों की ख़बर आख़िर कौन सी सरकार रखती है । सुग्गी सोचती ।
कोई कहता कि बिना पूरे काग़ज़ों के वे लोग जल्द ही पकडे गये हों गे । माँ का कलेजा धक धक करने लगता ।माँ ख़ुद को तसल्ली देती , “नहीं नहीं । पहले तो आती थी उसकी ख़बर । पैसे भी भेजता था वो । “ उस के बाद ! कहते हैं उन देशों का क़ानून बड़ा सख़्त है ।ज़रूर जेल में हों के ।बड़ी यातनायें देते होंगे । कौन सुनवाई करता होगा निरीह मिस्त्री मज़दूरों की । सुग्गी क़ानूनी दाँवपेंच नहीं जानती । पर इतना तो उसे पता ही है कि अपने यहाँ तो जब क़ैदियों पर मुक़दमे चलता है तो सरकारी वक़ील उन की पैरवीकरता है । पता नहीं उन दूसरे देशों में क्या हिसाब किताब है । सुना है बड़ी क्रूरता बरतते है । ठण्डें पसीने छूट जाते हैं सुग्गी के ।हे वाहेगुरू ये क्या सोच रही है वो । माँ को भनक भी लग गई इन बातों की तो क्या होगा । उस ने देखीहै माँ की तड़प । रात रात भर अंधेरे में घूरती पता नहीं क्या बड़बड़ाती रहती है । कभी कभी तो वो सुग्गी को नीम पागल लगती है ।अधजगी रातों में अपने दुख के जालों में उलझती , तड़पती , जितना छटपटाती है उतना ही और उलझती जाती है । रात वाली माँ , कितनी अलग है दिन वाली माँ से ।सुग्गी को हैरानी होती है ।कितना शान्त कितना ठहरा हुआ लगता है माँ का चेहरा सुबह । बेशक झुर्रियाँ गहरी हो चुकी हैं देह पर, बालों में सफ़ेदी ने डेरा डाला हुआ है , पर हाथ रूकते नहीं उस के दिन भर । घर का नाम निबटा कर अड़ोस पड़ोस के काम निबटवाने निकल पड़ती है ।किसी के आचार पापड़ बना दिये ,किसी का आँगन लीप दिया । किसी के कपड़े सिल दिये । गाँव के लड़के लड़कियों के ब्याह में तो कई कई दिन पहले से ही माँ कि बुलवाहट हो जाती है । दो जनों के पेट का जुगाड़ हो जाता है । माँ का दिन तो खटते हुयी बीत जाता है , रात घिरते ही आकाश से दर्द झर झर कर माँ के रोम रोम में बसने लगता है ।
एक दिन कोई ख़बर लाया कि दिल्ली में , कोई 60-70 मज़दूरों की खेप आई है वापिस । कहीं खाड़ी देशों से । चैकिंग में सब के पास सोने के बिस्कुट मिले है । कस्टम वालों ने घर लिया है सब को ।उन्हें शक है कि ये सोना इन मज़दूरों , कामगारों का नही अपितु किसी स्मगलर का है जो इन निरीह मजदूरों के हाथ स्मगल करवाया जा रहा है ।कहते है गुरदासपुर के भी है कुछ लोग । माँ को पर लग गये । “हाय ओ रबा , वो भी हो उन में ।” सौ सौ मन्नतें माँग डाली माँ ने । पहली बार माँ को सुग्गी के लड़की होने का अफ़सोस हुआ । लड़का होती तो दौड़भाग करती सुग्गी । झट से बस में बैठ कर दिल्ली पहुँच जाती । जुगाड़ लगाती , अफ़सरों से पूछताछ करती । कुछ तो पता चलता । माँ बुआ के घर दौड़ी गई । उस के लड़के को भेजा दिल्ली । बुआ ने कहा —” दम्मो , वीरे की एक फ़ोटो दे दे लडकें को । ढूँढने में आसानी होगी । “ बुआ के बेटे को भी कहाँ याद थी सुग्गी के पिता की । कितना छोटा था वो भी , जब वो सब को छोड़ कर चले गये थे । माँ ने टीन की संदूकची खोल कर एक पुरानी फ़ोटो निकाली । काली सफ़ेद , तुडी मुड़ी , दरारें पड़ी फोटों माँ ने करतारे को ऐसे सौंपी जैसे कि अपनी सारी उम्र का संचित घन उसे सौंप दे रही हो । दिल्ली जा कर करतारे ने बहुत पूछताछ की । अफ़सरों से मिला । वापिस आये मज़दूरों कों भी सुग्गी के बापू की फ़ोटो दिखा कर पूछताछ की पर कुछ पता नही चला ।
आस ही नही , माँ की तो कमर ही टूट गई । करतारे ने वापिस आ कर सब कुछ बताया । माँ तो ऐसा लगा कि जैसे उसने एक बार फिर , नये सिरे से बापू को खो दिया है । ताज़ा ताज़ा , अभी का नया घाव ठीक उसी पुराने नासूर के उपर आ लगा था ।बुआ रात भर माँ के पास ही रूकी थी ।दोनों नन्द भोजाई आँख नाक से बहते पानी को पोंछती एक दूसरे का दर्द बाँटती रही थी रात भर । जवान ज़हान सुग्गी को देख बुआ के दिल में हौल उठते । माँ को तो अपनी होश नही , सुग्गी की ओर ध्यान कहाँ से जाता । कब छींट वाली कुर्तियां छोटी पड़ने लगी। कब क़द बढ़ कर घर की चारदीवारी से भी ऊँचा हो चला माँ को ख़बर ही नही । कब मिचमिचाती आँखों और बहती नाक वाला चेहरा चाँदनी में नहा उठा , ख़ुद सुग्गी ने भी कभी जाना ही नही था । वो तो प्रभजोत ही था , जिसने पता नही कब , कॉलेज आती जाती सुग्गी के भीतर अछूती अनजानी अनुभूतियों को हरहरा कर जगा दिया था ।सुग्गी बुआ की नज़रों से बचती , अपने दुप्पटे को और कस कर लपेट लेती है सीने पर । कहीं उसके ह्रदय की गहराइयों में छिपे राज बुआ जान ना ले । सुग्गी अपना दर्द बाँटें भी तो किस से बाँटे । सुग्गी सचेत है कि कहीं बुआ उसकी आँखें ना पढ़ ले । बुआ एकटक उसे देखती है , और कहती है , “ परजाई , देख ना , सुग्गी की कदकाठी बिलकुल अपने रत्ने पर गई है । मेरा वीरा रत्ना ऐसा ही तो दिखता था बिलकुल । वही दुध धुला रंग , वही आँखें । ये कुड़िया चिड़िया कब बड़ी हो जाती है पता ही नही चलता । “ माँ ने नजरभर कर देखा , पता नही उसे या उसकी शक्ल के पीछे छुपे बापू को । “ पता नही कितने साल हो गये ....... । “ माँ बुदबुदाई । पूरे बीस साल हो गये है, सुग्गी नज़रे चुराती मन ही मन कहती है । कोई दो तीन साल की रही होगी वो जब बापू .............
पूरी २२-२३साल की हो गई है सुग्गी । अपने सारे सपनों , अरमानों पर कीलें ठोक कर बैठी है सुग्गी । कॉलेज आती जाती है तो बस इस लिये कि पढ़ लिख कर कुछ बन जाये । नौकरी कर सके । यहाँ से बहुत दूर किसी दूसरे शहर । सुग्गी की सोच को उसकी अपनी ही परछाईं कोड़ा मार कर लहुलुहान कर देती है ............जैसे तेरा बापू गया था ..........दूसरे देश नौकरी करने ..............सुग्गी जड़ हो जाती है । टीसते घाव ले कर बहती जाती है धारे के साथ । उधर प्रभजोत अटल है । कहता है कुडमाई तो सुग्गी के साथ ही करे गा । अब तो कॉलेज जाने में भी डर लगता है सुग्गी को । सुग्गी को लगता है जैसे वो माँ की हर बात खुद ही जान जाती है , माँ भी उस के भीतर ठाँसें मारते समुन्दर को सूंघ ले गी । वो छिपती फिरती है माँ से भी । सुग्गी की देह ही बस अलग है माँ से । दिल दिमाग़ , आत्मा , इच्छाये तो अलग हैं ही नही जैसे । सब बंधी हैं माँ के साथ ।प्रभजोत ये बात नही समझता । कहता है इन्तज़ार करे गा । सुग्गी की रूहकांप जाती है । किसका इन्तज़ार करे गा प्रभजोत । जैसे माँ करती है बापू का ?या इन्तज़ार करेगा माँ के मरने का , कि सुग्गी मुक्त हो सके माँ के साये से ! साफ़ पानी की मच्छी जैसे खारे सागर में डाल दी हो , ऐसे छटपटाती है सुग्गी । जहाँ तक नज़र जाये , बस दर्द का गरजता तड़पता ठाँठे मारता जवारभाटा । कही कोईकूल किनारा नही । उस का कुंद कलेजा माँ के दर्द की लक्ष्मण रेखा से बाहर निकलता ही नही । प्रभजोत कादर्द वो क्या जाने ।
कभी कभी सुग्गी सोचती है , इस से तो अच्छा था कि बापू की लाश ही आ जाती , कभी किसी दूर देश से । जैसे ताबूत में बंद , फोजियों की आती है गाँव में कभी काभार। जितना रोना तड़पना है सब एक बार रो लें दिल चीर कर । उसके बाद बस । ये आस तो धार विहीन आरे की तरह धीरे घिरे काट रही है 20 सालों से माँ बेटी को । चर् चर् चर् । ना तो पूरी तरह कटती मिटती है , ना पूरी। होती दिखती है ।
अनाप शनाप सोचती सुग्गी की चुल्हे पर चढ़ी दाल जल कर कब गंध छोड़ने लगी , उसे कुछ पता ना चला । उस की सहेली रज्जो ने अचानक आ कर अपने दुप्पटे से सड़ सड़ करती पतीली को नीचे उतारा तो अचकचा गई सुग्गी ।जैसे किसीने उसे रंगे हाथो पकड़ लिया हो ।रज्जो सब जानती है प्रभजोत के बारे में । वो डर गई कि कहीं उसे प्रभजोत ने ही ना भेजा हो यहाँ । सुग्गी डर गई । जब से करतारा बिना बापू की ख़बर लिये दिल्ली से लौटा है , सुग्गी कॉलेज नही गई है । वो माँ को एक पल भी अकेला नही छोड़ना चाहती ।पर रज्जो किसी और काम से आई थी । उस का चाचा आया है कनाडा से । रज्जो के दादा ने पूरे गाँव को दावत दी है इस ख़ुशी में । इतने सालों बाद राजा बन कर लौटा है रज्जो का चाचा । ख़ूब अटेची भर भर कर कमाया है । इतना कि घर में अटाये ना अटे । पूरे गाँव को न्योता भेज रहे है रज्जो के दादा । सुग्गी और उस की माँ को भी बुलाया है दावत में । सुग्गी मुँह बाय देख रही है । पता नही ये सब सुन कर माँ की क्या प्रतिक्रिया। होगी ? माँ का कुछ पता ही नही चलता । कभी तो बड़ी से बड़ी बात यूँ ही सह जाती है , कभी छोटी छोटी बातों पर सतलुज चनाब बहने लगते है आँखों से ।
“सहगलों का चन्दर आया है । “ माँ सुन आई है ख़बर । वो ख़ुशी से बौखलाई बता रही है । “वापिस आ गया है चन्दर ।” सुग्गी धम से नीचे बैठ गई । उस का कलेजा डूबने लगा । वो माँ की खुशीका राज समझ रही है आस फिर से कुलबुला उठी है माँ के सीने में । आँखों में सौ सौ सूरज जगमगा उठे थे । चन्दर आ गया है , “ वो “ भी आ जायेगा । माँ बाहर से आते ही हाथ मुँह धो कर , बाल काढ कर तैयार होने लगी । “ चल सुग्गी , सहगलों के घर जाना है । “ बड़ी मुश्किल से रोका सुग्गी ने । “रात को किसी के घर ऐसे जाना ठीक नही । सुबह का न्यौता है , तभी जायें गें । “
पूरा गाँव इक्कठा था सहगलों के घर । कनातें लगी थी घर के बाहर । हलवाई बिठा रखे थे । सूट बूट में चन्दर साहब लग रहा था । रज्जो की माँ और दादी गुलाबी फुलकारी का गोटे वालादुप्पटा ओढ़े हर किसी का स्वागत कर रही हैं उधर पिता औरदादा छाती चौड़ी किये गर्व से भरे है । रज्जो का भाई अपने दोस्तों से घिरा , चाचा के कनाडा के क़िस्से सुना रहा है । खाना पीना चल रहा है । हर और ख़ुशी , हँसी ठ्टठा । माँ कोकहां भा रहा था ये सब रौनक़ मेला । वो तो बस चन्दर से मिलना चाहती है । चन्दर को पता होगा “उस “ का । दोनों बचपन के दोस्त हैं आख़िर । ये अलग बात है कि दम्मो के गौंने से पहले ही चन्दर चला गया था कनाडा । पर उस से क्या फ़र्क़ पड़ता है । चन्दर ज़रूर जानता होगा कि सुग्गी के बापू कहाँ हैं । बचपन के दोस्त अब भी साथ ही होंगे ऐसा माँ को विश्वास है । अपने पसीजे हाथों में सुग्गी का हाथ कस कर पकड़े माँ मौक़ा ताड़ रही थी कि कब चन्दर मर्दों की बैठक से बाहर आये तो वो उस से कुछ पूछताछ कर सके ।
उधर रज्जो का भाई एक दिवार पर सफ़ेद चादर टाँग कर , प्रोजैक्टर सेट कर रहा है । सब को चाचा के कनाडा की फोटूऐं दिखानी है । मशीन चलते ही रंग बिरंगी तस्वीरें पर्दे पर नाचने लगी । पूरा गाँव दाँतो तले उगली दबाये देख रहा है । “देखो ये चाचा का घर है , इतना बड़ा , बंगले जैसा । लम्बी लम्बी दो गाड़ियाँ , और ये देखो कित्नी बर्फ़ गिरती है वहाँ । पूरी सड़क सफ़ेद हो रखी है। ये अड़ोस पड़ोस के घर .... अंग्रेज़ ,,,,,,,,,,, मेमें ,, बाग़ मे खेलते चाचा के बच्चे और उन के अंग्रेज़ दोस्त । और ये तस्वीर देखों ..”। रज्जो का भाई अति उत्साही में डूबा सब को तस्वीरें दिखा रहा था । “ कनाडा के मॉल में चाचा और उस के अंग्रेज़ दोस्त और मेमें .........नये साल की पार्टी ......... ये चाचा के गाँव देस के पुराने यार दोस्त जो अब वहीं कनाडा में रहते हैं .........उन की बीबियां और बच्चे । “ भतीजा अपने चाचा के कनैडा की दुनियाँ का विचित्र तिलिस्म एक एक कर खोल रहा था उन तस्वीरों में । सब मन्त्र मुग्ध थे । माँ की आँखें भी पर्दे पर जमी थी । “ गाँव देस के पुराने यार दोस्त “ शब्द सुनते ही माँ के रोम रोम को आँखें लग गई । सौ सौ आँखें फाड़ कर वो तस्वीर पर झपट पड़ी । पर्दे पर हाथ मार मार कर तस्वीर टटोलने लगी । तस्वीरें पर्दे पर से ग़ायब हो कर उस की पीठ और दुप्पटे पर गडमड सी हो कर नाचने लगी । पर्दे पर माँ की काली हड़बड़ाई हुई परछाईं डोलने लगी । “बेबे , तस्वीरें पर्दे पर नही , इस मशीन में से निकल कर दिखाई दे रही हैं । तू सामने खड़ी हो जाये गी तो कैसे दिखाई देगा कुछ । “ रज्जो के भाई ने समझाया माँ को । “पुत्त , वो कहाँ गई फ़ोटू , चन्दर के यार दोस्तों वाली । .......सुग्गी के बापू भी होगे उस फ़ोटू में । बचपन के दोस्त है दोनों । ............ कहाँ गई वो फोटू । “ माँ पागलों की तरहा उस ‘मशीन’ के उपर नीचे हाथ मारने लगी । सामने के काँच में मुँह घुसा कर देखने लगी । “औ झल्लिये , ये कनैडा की फौटूऐ है । तेरा रत्ना तो दुबई गया था ना । “ कोई बोला । “बेचारी दम्मों । कमली हो गई है रत्नों के इन्तज़ार में । जिस ने आना होता हैं आ जाता है _अब क्या आये गा वो । सब कुछ ना कुछ बोल रहे थे । किसी को माँ के साथ सहानुभूति है तो कोई बापू को कोस रहा है ।सुग्गी की आँखों मे घटाटोप बदली ने आ डेरा जमाया । ग्लानि और शर्म से वो धरती में गड़ी जा रही है ।माँ को झकझोर कर सचेत किया उसने ।। “बेबे , ले यहाँ बैठ कर आराम से देख । “ रज्जो के भाई ने वहीं पर्दे के पास आड़ी करके एक कुर्सी रख दी और वही फ़ोटो फिर से लगा दी । _ ये रत्ना ही तो है । _हां लग तो वही रहा है । _नही नही ये रत्ना कैसे हो सकता है । गाँव की नई पौध दावत में उठे इस बवाल से परेशान थी । पुरानी पीढ़ी के अधेड़ और बूढ़े , जिन्हों ने बचपन से जवानी तक रत्ने को देखा था , कोई हाँ में हाँ मिलाता कोई ना ना करता । कोई कहता क़द काठी तो रत्ने सी ही है , पर कहाँ उज्जड गँवार रत्ना कहाँ ये खाते पीते घर का सुनेहरे चश्मे और सूट बूट वाला बंदा । कोई मेल ही नही है जी । औ चन्दर , बाहर तो आ ज़रा । देख , बता तो ये बंदा कौन है । उधर माँ को किसी गवाही की ज़रूरत ही नही थी । “ हाय औ रबा !सुग्गी देख , तेरा बापू । राज़ी ख़ुशी है तेरा बापू । मैं कहती थी ना । शुक्र है औ मेरेया रबा , मेरे वारे गुरू ।” माँ बड़बड़ा रही थी …सिसक रही थी …इतने बरस जिस की ख़ैर की दुआयें माँगी , मन्नतें माँगी …पल पल मर कर वो बरसों जीती रही …बस एक फ़ोटो , एक निशानी को कलेजा से लगाये पूरी जवानी काट दी …उसे पर्दे पर हँसता मुस्कुराता देख कर बरसों से कलेजा में दफ़्न सारा दर्द मानों उसके हौकों में सिमट आया है ।
चन्दर ने मोहर लगा दी ।
रत्ना और उसके साथ के तीन चार लोग , पहले तो कुछ महीने दुबई में ही रहे । मज़दूरी करते थे वहाँ । पहले कुछ दिन सब ठीक था , पर धीरे धीरे मालिकों ने अपना रंग दिखाना शुरू किया । बेगार करवाते थे । बस रोटी कपड़ा और रहने को एक शेड था जिस में लोग ठूँसे रहते थे । फ़िराक़ दिन वे लोग जुगाड़ लगा कर वहाँ से भाग खड़े हुए । एक क्रूज पर खलासी की नौकरी की पहुँच गये कनैडा।चन्दर तोशुरू से वहीं था । क़िस्मत से एक दिन टकरा गये एक दूसरे से । उसी ने उन्हें आसरा दिया , नौकरी लगवाई । फिर रत्ने ने शादी कर ली वहीं की एक मेम से । ना करता तो टिकता कैसे वहाँ । अब बस वहीं का हो गया है । मेम से दो बच्चे भी है उस के । चन्दर को रत्ने ने बताया था गाँव मे अपनी घरवाली और बच्ची के बारे में । पर चन्दर को ये नही पता था कि वो घरवाली और बच्ची , यही सुग्गी और उस की माँ हैं ।
साये सायें करता सन्नाटा छा गया भीतर बाहर । सुग्गी ने तड़प कर माँ की ओर देखा । दम्मो के चेहरे पर पल भर पहले तक छाई वहश्त जैसे कहीं तिरोहित हो गई थी । रगों को तोड़ता झकझोरता दर्द कहीं बह गया था पिघल कर ।।वो जैसे कि अपने आस पास उग आई हलचल , फुसफुसाहट तथा शोर से दूर निकल आई थी । उस का रूका हुआ , ठहरा हुआ सा पीला चेहरा लाल नीले बल्बों की रौशनी में अजीब , पत्थर सा लग रहा था । सुग्गी। ने हाथ बढ़ा कर बुत सी बैठी माँ की ठुड्डी पकड़ कर चेहरा उपर उठाया । चेहरा तप रहा था ।
सुग्गी माँ को घर ले आई । गरजती बरसती स्याह रात में अपने दर्द की सीली थिगलियां समेटे दोनों माँ बेटी सड़कें नाप रही है , एक अपने अतीत की , दूजी अपने भविष्य की । सुग्गी माँ मे अपना भविष्य देख रही है ।जब प्रभजोत थक जाये गा इन्तज़ार करते करते ………और थक कर वो भी ……………… सुग्गी नही सोच पाती इस के आगे ।
माँ ने आज रात डिबरी नही जलाई है । सिर सुग्गी के कंधों पर टिका है माँ का । जलती हुई लाल भभूका आँखों से पता नही क्या टटोल रही है सुग्गी अंधेरों में । माँ के पास तो वो है , माँ टिकी है उस के कंधों पर , पर सुग्गी ! सुग्गी क्या करे ?