सुचित्रा सेन: अतीत से कैसी मुक्ति ? / जयप्रकाश चौकसे

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सुचित्रा सेन: अतीत से कैसी मुक्ति ?
प्रकाशन तिथि : 06 जनवरी 2014


विगत कुछ दिनों से बयासी वर्ष की सुचित्रा सेन अस्पताल में भर्ती हैं। आज का युवा वर्ग उन्हें नहीं जानता क्योंकि सन् 78 में उन्होंने फिल्में छोड़ी और आज की युवा पीढ़ी उस वक्त पैदा भी नहीं हुई थी। सुचित्रा और उत्तम कुमार की जोड़ी बंगाल में उतनी ही लोकप्रिय थी जितनी शेष भारत में राजकपूर-नरगिस, दिलीपकुमार-मधुबाला या देवआनंद-सुरैया की जोडिय़ां थीं और परदे पर इनके प्रेम दृश्य दर्शकों में उन्माद भर देते थे। उस समय मीडिया में सितारों के बीच 'रसायन' अर्थात 'केमेस्ट्री' उतना लोकप्रिय ढंग नहीं था इश्क को बयां करने का और मजे की बात यह है कि 'केमिस्ट्री' का चलन शरीर प्रदर्शन के युग में हुआ। आज तो 'एनॉटोमी' उजागर की जाती है।

बहरहाल बम्बई में उन्होंने विमलराय की 'देवदास' 1955, राज खोसला की 'बम्बई का बाबू' और सरहद 1960 तथा असित सेन की 'ममता' 1966 और गुलजार की 'आंधी' 1975। सुचित्रा सेन हिंदी में केवल पांच फिल्में की और पच्चीस अस्वीकार कीं। बंगाल में दर्जनों फिल्में की हैं और फिल्म व्यवसाय में उनका किसी फिल्म में होना फिल्म की लागत मय मुनाफे के वापस आएगी इसका यकीन दिलाती थी। बॉक्स ऑफिस पर उनकी तूती बोलती थी।

हिंदुस्तानी सिनेमा में प्राय: अत्यंत खूबसूरत सितारों का जिक्र होता है और विलक्षण सौंदर्य का सिलसिला मधुबाला से शुरू होकर माधुरी और ऐश्वर्या राय तक जाता है परंतु इस राह पर सबसे दिलकश मोड़ सुचित्रा सेन है। जब विमल राय की देवदास में दिलीप कुमार पारो को देखकर कहते हैं 'तुम चांद से ज्यादा सुंदर हो, उसमें दाग लगा देता हूं' और उसके माथे पर छड़ी मारकर जख्म बना देते हैं। सचमुच सुचित्रा जैसा बेदाग सौंदर्य कभी-कभी ही परदे पर देखा गया है। यह भी गौरतलब है कि इन परियों में सबसे सशक्त अभिनेत्री सुचित्रा सेन ही रही हैं और उन्हें नजर नहीं लगे इसलिए कई फिल्मों में उनके माथे पर जख्म दिया जाता है। गुलजार की 'आंधी' में चुनावी रणनीति का गुरु ओमप्रकाश अपने ही आदमी से उन्हें जख्मी करा देता है और सहानुभूति की लहर उनके पक्ष में चली जाती है। उस जमाने की राजनीति में जो काम पत्थर करते वो काम आज शब्दों द्वारा होता है। सारे प्रतिद्वन्द्वी एक जैसी भाषा बोलते हैं। सुचित्रा सेन अभिनीत बंगाली फिल्म को हिंदी में 'खामोशी' के नाम से बनाया था। मूल कथा उस नर्स की है जो दिमागी कमतरी या 'कैमिकल लोचा' के बीमारों को अपनी मोहब्बत और सेवा से तंदुरुस्त कर देती है परंतु निरोग होते ही वे लोग इलाज प्रक्रिया के प्रेम को भूल जाते हैं अत: प्रेम की इस प्रयोगशाला में लगातार आजमाये जाने के कारण एक दिन नर्स खुद उसी रोग का शिकार हो जाता है जिसकी कभी वह दवा हुआ करती थी। सुचित्रा सेन ने विलक्षण अभिनय किया था। इसी तरह 'ममता' और उसके बंगाली मूल 'सात पाके बाधा' में सुचित्रा सेन मां और बेटी की दोहरी भूमिकाएं निभाई थी। मां के पात्र को उसका पति ही अन्य पुरुषों को बेचता था और उसे तवायफ बनना पड़ा परंतु उसने अपनी बेटी को अपने वातावरण से दूर रखा और उच्च शिक्षा दी। क्लाइमैक्स में बेटी अपने द्वारा किए गए कत्ल की सजा से बचाती है। मां वाले पात्र ने अपने उस 'दलाल' पति को गोली मार दी क्योंकि वह उसकी बेटी को भी कोठे पर बैठाना चाहता था।

बहरहाल सन् 78 में अभिनय छोडऩे के बाद सुचित्रा सेन ने अपनी निजता की रक्षा की खातिर दादा फाल्के पुरस्कार स्वयं जाकर लेने से इनकार कर दिया। कुछ वर्ष पूर्व उनका 'बायोपिक' बतौर सीरियल बनाया जा रहा था तो सुचित्रा सेन की आपत्ति पर वह निरस्त कर दिया गया। उसका बस चलता तो वह अपनी फिल्मों की टेलीकास्टिंग भी रुकवा देती। पारम्परिक मूल्यों को मानने वाले शिक्षक करुनामोय दासगुप्ता की बेटी सुचित्रा का विवाह आदिनाथ सेन से सन् 1947 में हुआ जब वे मात्र सोलह वर्ष की थी। विवाह के चार वर्ष बाद उसकी असफलता को ढोना छोड़कर सुचित्रा सेन ने अभिनय यात्रा प्रारंभ की। उनकी और उत्तम कुमार के प्रेम की बातें हमेशा उछाली गई परंतु दोनों ने कभी इकरार किया और ना इनकार किया। आज अस्पताल में यादों का क्लोरोफार्म लिए सुचित्र सेन जाने किन यादों में खो जाती होंगी। क्या अपने द्वारा अभिनीत भूमिकाएं उन्हें याद आती होंगी। उन्होंने अपनी प्रत्यवेसी की रक्षा इतनी शिद्दत से क्यों की, क्या वर्षों उजागर होने से उन्हें चिढ़ हो गई या उस दौर की कोई बात है जिससे सुचित्रा सेन भागती रहीं हैं? अतीत का हिरण समय के दरखतों के बीच छलांग लगाकर वर्तमान में आकर भविष्य तक जाता है।