सुधारक / पांडेय बेचन शर्मा 'उग्र'
डॉक्टर साहब ने उत्तेजित भाव से चश्मा पोंछकर, रतिलाल बाबू से सलाह ली - 'रामकिशोर मर गया, मगर मेरे इलाज के पैसे अभी न मिले। अपने पैसे तो आप मुर्दों के मुँह में से भी पा जाते हैं, कोई हिकमत मुझे भी सुझाइए।'
रति - 'रामकिशोर के घर में उसकी विधवा युवती है, और बाहर हजारों का कर्ज। वहाँ से आप कुछ भी नहीं पा सकते।'
डॉक्टर - 'आप कहते हैं, कुछ भी नहीं - मैं जोड़ता हूँ, बहुत कुछ।'
रति - 'कैसे?'
डॉक्टर - 'रामकिशोर की वह विधवा युवती है न? रुपए नहीं, तो उससे रुपया पाया जा सकता है।'
रति - 'गरीब था तो क्या, रामकिशोर अपना मित्र था। मित्र की विधवा पर बद नजर डालना ठीक नहीं।'
डॉक्टर - 'मर जानेवाले की कमाई और लुगाई उनकी होती है, जो जीवित बचें! विधवा तो किसी-न-किसी से फँसेगी ही - फिर मैं ही अपने दाम क्यों न वसूल कर लूँ?'
रति - 'सुना है, वह बड़ी सच्चरित्र है।'
डॉक्टर - 'प्रचंड पौरुष के सामने मैं तो औरत के चरित्र को अग्नि के सामने मोम ही मानता हूँ।'
रति - 'अरे भाई! तुम डॉक्टर ठहरे। नारियों को समझना तुम्हारा ही काम है। लेकिन यार! पिघले, तो जरा हमें भी रस लेने देना।'
डॉक्टर - 'शेर के शिकार में छोटे जानवरों के हिस्से का रस अनायास ही रहता है।'
डॉक्टर पूर्ण मर्दानी अकड़ से, विधवा पर जाल फेंकने के लिए, तत्काल स्वर्गीय रामकिशोर के घर की ओर झपटे।
'कौन?'
'दरवाजा खोलो। मैं हूँ डॉक्टर।'
अनाथ अबला के सूने घर का द्वार कंपित हाथों से खुला। रामकिशोर की विधवा घूँघट काढ़े सिर झुकाए नजर आई। डॉक्टर ने, सिर से पाँव तक घूरकर, विधवा की जवानी की जाँच की, और जैसे तगड़ी गाय परखकर कसाई खुश हो, वैसे ही मन-ही-मन नाच उठा।'
'दो सौ रुपए तुम्हारे मृत पति पर मेरे होते हैं।'
'मगर मेरे पास तो दो सौ कौड़ियाँ भी नहीं।'
'मुँह खोलकर बातें करो।' डॉक्टर ने मंत्र मारा - 'मैं तुम्हारा सहायक हूँ - कोई परदेशी नहीं।'
मगर हिंदू विधवा का मुँह नहीं खुला।
'पैसा कौड़ी नहीं है, तो तुम्हारा गुजर कैसे होगा?'
'ईश्वर हैं - सबकी लाज रखनेवाले।' बांसुरी-सी बेचारी विधवा बज उठी।
'तुम यदि बुरा न मानो तो,' झूठी माया पसारता हुआ डॉक्टर बोला - 'जिंदगी-भर मैं रामकिशोर की तरह तुम्हें सँभाल सकता हूँ। तुम अतीव सुंदरी हो!'
'जाने दीजिए - ऐसी बातें।' लज्जिता अबला बोली - 'ऐसी बातों से मैं अपना अपमान समझती हूँ।'
'मान रखना है, तो मेरे रुपए देने होंगे, या कुछ और, नहीं तो बात कचहरी तक जाएगी, और तुम जेल तक।'
जेल, कचहरी और अपमान की चर्चा से वह अनाश्रिता अबला रो उठी।
'तब मेरी बात मान जाओ! तुम निहायत सुंदरी हो - मैं तुम्हें पढ़ाऊँगा, लिखाऊँगा, नाचना-गाना सिखाकर अप-टू-डेट विदुषी बनाऊँगा सुंदरी!'
बेहया, वंचक डॉक्टर ने बेचारी विधवा के घूँघट पर एकाएक हाथ लगा दिया, और उसी वक्त वह पतिव्रता आग-आग हो उठी! एक घूँसा उसने डॉक्टर की छाती पर ऐसा जमाया कि वह चारों खाने चित्त ड्योढ़ी के बाहर आ गिरा।
विधवा ने भीतर से दरवाजा बंद कर लिया। अपने को तुरंत सँभाल डॉक्टर कचहरी की ओर बढ़ा।
उसी दिन शाम को युवती विधवा की खबर लेने बाबू रतिलाल भी आए।
'कौन रो रहा है घर में? दरवाजा खोलो।'
अभी तक डॉक्टर द्वारा अपमानित अनाथ रो रही थी। उसने भिन्न स्वर पहचानकर दरवाजा खोल दिया। रतिलाल ने देखा उसकी आँखें लाल थीं।
'क्यों रोती हो?' बाबू साहब ने भी अपनी माया बिखेरी - 'रामकिशोर नहीं रहे, तो क्या हुआ, मैं तो हूँ। क्या चाहिए तुम्हें, जो रो रही हो?'
'तेज जहर।'
'क्यों? तुम मेरे घर पर आराम से रह सकती हो - जहर खाए तुम्हारा मुद्दई।'
'मेरा मुद्दई है वह डॉक्टर, उसी को मारने के लिए मुझे ऐसा जहर चाहिए कि पापी को लहर भी न उठे।'
'क्या डॉक्टर को मारकर मेरी सेवा स्वीकार करोगी? मेरा दिल तुम्हें बेअख्तियार चाहता है।'
'मुझे तेज जहर चाहिए।'
'डॉक्टर को मारकर मुझे जिलाओगी मेरी...?'
'मुझे तेज जहर चाहिए।'
न-जाने कहाँ से लाकर एक छोटी पुडिया लोभी रतिलाल ने युवती विधवा को दी, और फिर जाकर डॉक्टर से मिला।
'मैं साली को जेल भेजकर दम लूँगा।' बिगड़ा छूटते ही पाजी डॉक्टर।
'मगर डॉक्टर साहब!' रतिलाल ने कहा - 'वह तो आप पर मरती है। औरत की आदत आप नहीं जानते।'
'क्या बकते हो? वह सती है - पगली हिंदू औरत, जो जिंदगी के मजे छोड़ मुर्दे के नाम पर तप करेगी!'
'अजी, उसने आपको बुलाया है। उसका आदमी हजरत को ढूँढ़ता मेरे घर पर आया था।'
'झूठ, दिल्लगी करते हो?'
'तुम भी क्या बुद्धू हो! औरत के बारे में मैं भला तुम्हें धोखा दे सकता हूँ। बस, जल्दी जाओ - लेकिन जरा मेरा भी ध्यान रखना।'
'जरूर, मगर एक बार फँसे भी तो। मैं जाऊँ? सच कहते हो, उसने बुलाया है?'
'हाँ, यार! वह मरती है तुम पर...'
फौरन ही डॉक्टर जरा-सा शरबत पीकर विधवा युवती के घर दौड़ा, और वाह! प्रसन्न हो उसने देखा, दरवाजा खुला है।
'वासकसज्जा मेरी प्रतीक्षा में है...!' डॉक्टर सरपट दौड़कर विधवा के दरवाजे पर पहुँचा।
डॉक्टर ने देखा, काठ के दीपाधार पर मिट्टी का दीपक जल रहा है। सोलहों श्रृंगार किए युवती विधवा एक दरी पर, दीवार से सटी, आँखें बंद किए, बैठी है, और उसके सामने कई गहने बिखरे पड़े हैं।
'माफ करना सुंदरी! झपटकर, विधवा की ठुड्डी छूकर डॉक्टर बोलते-बोलते चौंका! विधवा ठंडी थी, उसकी नाड़ी बंद थी।
'आत्महत्या!' काँपकर डॉक्टर गजों पीछे हट गया। क्षण-भर किंकर्तव्य-विमूढ़ रहने के बाद वह भागा उस सूने घर के बाहर।
मगर गली में आकर डॉक्टर रुका। कुछ सोचकर पुनः विधवा के शव के पास आया, और सारे गहने चोरों की तरह चुनकर चलता बना।