सुनंदा की डायरी / अंतराल-2 / राजकिशोर
आज मेरा जन्म दिन था। बहुत दिनों से जन्म दिन मनाना मैंने छोड़ रखा है। शुरू में बड़ा उत्साह रहता था। इस दिन लगता था, मैं कुछ खास हूँ। ग्रीटिंग, उपहार आदि मिलते थे। हर आदमी विश करता था। धीरे-धीरे मैंने पाया कि यह तो हर एक के साथ हो रहा है। साल भर में कम से कम तीस-चालीस जन्मदिन हो ही जाते थे। तब यह एहसास पैदा हुआ कि हर आदमी अपने जन्म दिन पर खास होता है। जब ज्यादा लोग खास होते हैं, तो हर आदमी साधारण हो जाता है। इसके बाद मैंने जन्म दिन मनाना छोड़ दिया। हाँ, उस दिन कहीं बाहर रहूँ तो मम्मी-पापा का फोन जरूर आ जाता था।
आज सुबह ही घर से फोन आया था। पहले मम्मी ने, फिर पापा ने आशीर्वाद दिया। मेरा हालचाल पूछा। जानना चाहा कि मैं कहाँ हूँ और घर कब आऊँगी। मैंने बताया कि नैनीताल में हूँ और यहाँ मेरा मन लग गया है। फिर मैंने उन्हें सुमित के बारे में बताया कि एक अद्भुत व्यक्ति से मुलाकात हो गई है, जिससे बातचीत करने में बहुत आनंद आ रहा है। उसे जल्दी छोड़ने की इच्छा नहीं हो रही है। मम्मी ने दबी जबान से कहा कि बेटा, कब तक अकेली रहेगी? कोई मन लायक आदमी मिले, तो फिर से घर बसा ले। अकेली जिंदगी पहाड़ की तरह होती है।
हाँ, अकेली जिंदगी पहाड़ की तरह होती तो है। पर विवाहित जिंदगी में कौन-से लाल जड़े होते हैं? विवाह करने के बाद नदी पहले तो झरने की तरह उद्दाम वेग से बहने लगती है, फिर वह पहाड़ की तरह जड़ और भारी हो जाती है। मलय से मुक्त होने के बाद कई महीने तक समझ में नहीं आया कि क्या करूँ। ज्यादा समय इस उधेड़बुन में लगता था कि गलती कहाँ हुई। मलय के प्रति मेरी दोस्ती की भावना में कहीं कोई कमी नहीं आई थी। बल्कि अब मैंने उसका अतिरिक्त खयाल रखना शुरू कर दिया था। वह भी मुझे बहुत चाहता था। हमने भावावेश में विवाह नहीं किया था। काफी दिनों तक साथ रहे थे, एक-दूसरे को अच्छी तरह निरखा-परखा था। जब हम दोनों को ही यह लगने लगा कि अब हमें एक ही छत के नीचे रहना चाहिए, तब जा कर हमने विवाह किया। शायद गलती मेरी ही थी। मैंने मलय के व्यक्तित्व के साथ अपने व्यक्तित्व का विलय नहीं किया था। लेकिन यह तो उसने भी नहीं किया था। क्या सचमुच प्रेम ऐसी म्यान है 'जामे दुइ न समाय'? पर विलय की अपेक्षा भी क्यों? क्या ऐसा नहीं हो सकता कि दो व्यक्तित्वों के अंतरंग मिलन से ऐसे रसायन पैदा होने लगें जो दोनों को जितना समृद्ध करें उतनी ही मजबूती से जोड़े ? प्रेम को प्रेम ही तो चाहिए या कुछ और भी ?
सुमित के साथ मेरा अनुभव दूसरी तरह का था। हम दोनों क्रमशः नजदीक आते जा रहे थे। लेकिन उसके साथ मुझे एक क्षण के लिए भी यह एहसास नहीं हुआ कि उसकी ओर से समर्पण की माँग की जा रही है या हम एक-दूसरे के व्यक्तित्व के विलयन की अपेक्षा कर रहे हैं। वह अपनी जगह था और मैं अपनी जगह। मैं कभी भी अपनी जगह से उठ कर उसकी जगह पर जा सकती थी। इसी तरह, वह कभी भी अपनी जगह से उठ कर मेरी जगह आ सकता था। संधि कहिए या समास - मेरे खयाल से, यह संधि, कम समास ज्यादा था - ये क्षण असाधारण होते थे। अस्तित्व अकस्मात भारहीन हो जाता था। उसके बाद जुदाई की अवधि आती थी - कभी छोटी, कभी लंबी, मगर वह जुदाई नहीं लगती थी। लगता था, जैसे हम काफी देर तक साथ-साथ जगने के बाद सोने के लिए अपनी-अपनी दुनिया में लौट आए हैं - इस विश्वास के साथ कि अगली सुबह कोई नई सुबह नहीं होगी, जो दिन बीत चुका है, उसी का विस्तार होगा। भावनाओं को भी उद्दीप्त रहने के लिए विश्राम होना चाहिए। नहीं तो उनमें थकान आ जाती हैं और वे जिंदगी के नए पड़ावों का उत्साहपूर्वक स्वागत नहीं कर पातीं। जैसे उपवास स्वास्थ्य के लिए हमेशा लाभदायक होता है।
उनके कष्ट का अनुमान कर सकती हूँ जिनकी भावनाओं को लगातार उपवास में रहना पड़ता है। मैंने भी लंबा उपवास सहा है। बल्कि कभी-कभी तो लगता था, यह उपवास ही मेरा जीवन है। तभी तो मैं एक नौकरी से दूसरी नौकरी तक, एक स्थान से दूसरे स्थान तक भटकती रहती थी। दोस्त बहुत-से मिले, पर साथी एक भी नहीं।
कई वर्षों के बाद आज अपने जन्म दिन का भरा-पूरा एहसास हुआ। लगा कि मैंने एक बार फिर जन्म लिया है। भविष्य अतीत पर हावी हो रहा था। मन कर रहा था, झूम-झूम कर नाचूँ, तन्मय हो कर गाऊँ और अपने आसपास की हर चीज को चूम लूँ। सब मेरे हैं, मैं सभी की हूँ। वह जन्म अकारथ गया। यह जन्म अकारथ नहीं जाएगा।
इसी मनस्थिति में मैं सुमित के पास गई और उसे आलिंगन में ले लिया। वह मानो आलिंगित होने की प्रतीक्षा ही कर रहा था। मेरी आँखों से आँसू झरने लगे। उसकी गिरफ्त और मजबूत हो गई। वह मुझे धीरे-धीरे सहलाने लगा।
मन हुआ कि उसे बता दूँ कि आज मेरा जन्म दिन है; नहीं, मेरा नया जन्म है और इसका श्रेय सिर्फ तुम्हें है, सुमित, सिर्फ तुम्हें। पर शरम आने लगी। मैंने सिर्फ यह कहा, 'सुमित, आज हम कोई बहस नहीं करेंगे, बाहर जाएँगे, किसी अच्छी जगह खाना खाएँगे और शाम तक भटकेंगे।'
सुमित ने मेरे उल्लास का अनुभव किया, मगर चुप रहा। उसने कोई जिज्ञासा प्रगट नहीं की। बस चुपचाप मेरे साथ निकल आया।
शाम गए हम दोनों अलग हुए, तो मैं अपने आपको कृतकृत्य महसूस कर रही थी। रात को खाना नहीं खाया। सिर्फ दो बार कॉफी पी और गहरी नींद में सो गई।
देर रात तक जगे रह कर जीवन में पहली बार आए इस अवसर को सोच-विचार से मलिन करने की इच्छा नहीं हुई।