सुनंदा की डायरी / प्रस्तावना / राजकिशोर
यह मेरी रचना नहीं , सुनंदा की डायरी है । पिछले साल छुट्टी बिताने के लिए मैं परिवार सहित नैनीताल गया हुआ था। वहाँ के एक गेस्ट हाउस के जिस कमरे में हम ठहरे थे , उसी की कपड़ों की आलमारी के सबसे नीचेवाले खंड में यह डायरी मिली। एक कोने में दुबकी हुई। पता नहीं हमसे पहले ठहरनेवालों को इसका आभास क्यों नहीं हुआ। निहायत खूबसूरत अक्षर। सवाल हरे रंग में थे और जवाब नीले रंग में । डायरी में कहीं कोई तारीख नहीं लिखी थी। पर स्याही की चमक से लग रहा था कि वह ज्यादा पुरानी नहीं थी। पढ़ने लगा , तो रात भर पढ़ता ही रह गया।
सुमित से सुनंदा की मुलाकात इसी गेस्ट हाउस में हुई थी। उसने सुमित के बारे में बहुत-सी बातें लिखी हैं। इनमें से बहुत कुछ व्यक्तिगत है। इनसे पता चलता है कि सुमित चालीस-पैंतालिस साल का फक्कड़ आदमी था। किताबें पढ़ता था , संगीत सुनता था , चित्र बनाता था और देर रात तक शराब पीता था। सुमित की आय का अपना कोई स्रोतनहीं था। सुमित के मित्र उसकी सहायता करते थे। पर वह पैसे बरबाद नहीं करता था। उसके पास सिर्फ दो जोड़ी कपड़े थे। सैंडिल घिसे हुए। इसी गेस्ट हाउस में सुमित और सुनंदा की बैठकें होती थीं। दोनों सभी विषयों पर विचार करते थे। अकसर सुनंदा प्रश्न करती थी और सुमित उत्तर देता था।कुछ विषयों पर सुनंदा भी अपनी राय रखती थी।
सुमित और सुनंदा का पता लगाने की मैंने बहुत कोशिश की। जिस गेस्ट हाउस में हम ठहरे थे , उसके सभी कर्मचारियों से बात की कि शायद किसी को उनके प्रवास की स्मृति हो। पता चला कि गेस्ट हाउस का मैनेजर बदल गया था और उसने सारा स्टाफ बदल दिया था। पुराने कर्मचारियों का कोई अता-पता नहीं था। पहले का एक गार्ड बचा हुआ था, पर उससे बात करने पर कुछ मालूम न हो सका। दो-तीन साल के रजिस्टर देखे , तो सुमित का तो पता नहीं मिला , पर सुनंदा का पता मिल गया। वह दिल्ली से आई थी। सुमित के नाम के आगे लिखा हुआ था : द्वारा वसंत मिश्र।
सुनंदा के पते की तसदीक करने के लिए मैंने अपने एक मित्र को टेलीफोन किया। अगले दिन उसका जवाब मिला कि यह एक सिख परिवार की कोठी का पता है। वे बीस वर्षों से यहाँ रह रहे हैं। उनका कहना है कि उन्होंने अपनी कोठी न किसी को किराए पर दी , न किसी को पेइंग गेस्ट रखा। इसलिए यहाँ किसी सुनंदा के रहने का सवाल ही नहीं उठता। सुमित और सुनंदा का पता लगाने के लिए मैं नैनीताल के दूसरे गेस्ट हाउसों और होटलों में भी गया। पर कहीं के भी रजिस्टर में इनके नाम नहीं मिले।
बहरहाल , यह प्रश्नोत्तर मुझे बहुत दिलचस्प लगा। कई नए बिन्दुओं कीतरफ ध्यान गया। इस बातचीत को प्रकाशित करना चाहिए या नहीं,इस पर मैं कई दिनों तक सोचता रहा। अंत में निर्णय किया किछपवा ही देना चाहिए। शायद कुछ लोगों को इससे लाभ हो। शायदइस प्रकाशन से ही सुमित या सुनंदा का कोई सुराग मिल जाए।
बातचीत जैसी मिली , उसी रूप में आपके सामने है। मैंने कहीं-कहीं भाषा कासंपादन जरूर किया है, पर विचारों में कहीं दखल नहीं दियाहै। इसके साथ ही मैं यह भी स्पष्ट करना चाहता हूँ किइस बातचीत में कही हुई बातों से मैं काफी हद तक सहमत हूँ, पर हर बात से इत्तफाक नहीं रखता।
--- राजकिशोर
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