सुनंदा की डायरी / रास्ता / राजकिशोर
आज अचानक रात में नींद खुल गई। घड़ी देखी, तो तीन बजे थे। सोने में मैं उस्ताद भले ही न होऊं, पर नींद मुझे अच्छी आती है। ऐसा कभी-कभी ही हुआ है कि बिस्तर पर जा पड़ने के बाद मुझे नींद न आई हो। आज कोई खास बात तो हुई नहीं थी। दिन अच्छा ही कटा था। दुपहर तक शरत बाबू का उपन्यास शेष प्रश्न पढ़ती रही। सुमित के साथ खाना खाया। अपने कमरे में आ कर उपन्यास को फिर हाथ में लिया और छह बजते-बजते उसे पढ़ डाला। स्त्री की स्वाधीनता पर यह एक अद्भुत उपन्यास है। मेरे पास पैसा हो, तो इसकी हजारों प्रतियां खरीद कर महिलाओं में बांट दूं।
शाम को टहलते हुए सुमित से इस उपन्यास पर ही बात होती रही। उसने यह उपन्यास नहीं पढ़ा था। जब मैंने उसे शेष प्रश्न की सबसे ज्वलंत और उज्ज्वल पात्र कमल के बारे में बताया, तो वह चौंक पड़ा। फिर ऐसे कई पात्रों की चर्चा होती रही और बात इस पर टूटी कि सभ्यता अभी भी कुल मिला कर एक प्रयोगशाला ही है। गेस्ट हाउस आ कर हमने खाना खाया। सुमित कुछ देर के लिए मेरे कमरे में आया। बैठा-बैठा एक कागज पर यों ही कुछ रेखाएं खींचता रहा। मुझे लगा, इस समय वह कुछ अनमना हो आया है। मैंने उसे छेड़ना नहीं चाहा। कागज कूड़ेदान में फेंक कर वह अचानक उठ गया और बोला, चलता हूं, कल मिलेंगे।
उसे उसके कमरे तक छोड़ आने के बाद मैं लौटी, तो उत्सुकतावश मैंने कूड़ेदान से वह कागज निकाला और उसे देखने लगी। यहां-वहां गोल, आड़ी-तिरछी रेखाएं बनी हुई थीं। बीच में किसी स्त्री का चेहरा बना हुआ था। उस स्त्री के बाल उलझे हुए थे। माथे पर बिंदी थी। होठों पर एक अजीब तरह की मुसकान थी, जिसमें अनुराग और उदासी दोनों घुले-मिले थे। आंखें अधमुंदी थीं। जो चीज सबसे अधिक ध्यान खींचने वाली थी, वह था पूरे पन्ने पर लिखा हुआ - यस और नो। कहीं-कहीं यस को काट कर नो लिख दिया गया था और कहीं-कहीं नो को काट कर यस। दो-चार जगहों पर प्रश्नचिह्न (?) और संबोधन चिह्न (!) आंके हुए थे। मेरी समझ में कुछ नहीं आया। यह शायद उसके मन की कोई उलझन थी, जिसे वह सुलझा नहीं पा रहा था। बाद में पूछूंगी, यह सोच कर उस पन्ने मोड़ कर को पास पड़ी एक किताब में जबा दिया। उसके बाद मुझे नींद आ गई।
थोड़ी देर में सपना शुरू हो गया। आसमान में रंग-रंग की सैकड़ों पतंगें उड़ रही थी और लड़कों का झुंड उनके धागों के पकड़ कर उन्हें अपनी ओर खींचने का प्रयास कर रहा था। किसी को भी सफलता नहीं मिल पा रही थी। कुछ इधर-उधर भाग भी रहे थे और धागा बदल रहे थे। उनमें एक छोटा-सा बच्चा भी था। वह इतना छोटा था कि उछलते रहने के बाद भी कोई धागा उसकी पकड़ में नहीं आ रहा था। तभी उधर से गुजर रहे एक आदमी ने एक धागा पकड़ कर उसकी मुट्ठी में डाल दिया। लेकिन बच्चे ने तुरंत उस धागे को छोड़ दिया और रोते-रोते कहा, मुझे यह पतंग नहीं लेनी। मेरी पतंग वह है। आदमी उधर लपका और बच्चे ने जिस पतंग की ओर इशारा किया था, उसकी डोर खींच कर बच्चे को थमा दी। इस बार फिर बच्चे ने धागे को छोड़ दिया और कहा, यह नहीं, वो वाली, वो वाली। आदमी इस नई पतंग की तरफ बढ़ा। तभी आसमान में बिजली चमकी और जोर की बारिश शुरू हो गई। बादलों के अंधेरे में सारी पतंगें गायब हो गईं। बारिश से बचने के लिए लड़के भागने लगे। भागते हुए वे बार-बार पीछे मुड़ कर देख रहे थे। उस आदमी ने बच्चे को अपने कंधों पर बैठा लिया और तेजी से कदम बढ़ाने लगा। बच्चा भी बार-बार मुड़ कर देख रहा था और आदमी से कह रहा था, अंकल, बारिश रुक जाने पर मेरी वाली पतंग मिल जाएगी न ! तभी आदमी के पैर फिसल गए और वह बच्चे को लिए-दिए जमीन पर आ गिरा।
मेरी आंख खुल गई। मैं इस ऊटपटांग सपने पर गौर करने लगी। कुछ समझ में नहीं आया। मन में आया, उठ कर कुछ पढ़ूं या रेडियो चला हूं। पर आलस भी कम नहीं था। बिस्तर पर पड़ी रही। खाली दिमाग नींद का घर। मुझे फिर नींद आ गई। उठी तब जब कोई कुछ-कुछ क्षणों के अंतराल से कॉल बेल बजा रहा था। मैंने पहले घड़ी देखी। बारह बजे थे। कमरे में धूप बिखरी हुई थी। मन ही मन 'बाप रे, मैं कितना सोई !' कहते हुए दरवाजे की ओर लपकी। सुमित था। उसने हंस कर कहा, 'तो तुम जिंदा हो ! मैंने तो तय कर लिया था कि दो बार और बेल बजाने के बाद सीधे थाने जाऊंगा और पुलिस से कहूंगा कि वह दरवाजा तोड़ कर अंदर घुसे और देखे कि मामला क्या है।' मेरी इतनी चिंता करने के लिए मैंने उसे धन्यवाद दिया और चाय पहुंचा जाने के लिए रूम सर्विस को फोन कर दिया।
मैंने सुमित को अपने सपने के बारे में बताया और उसका मतलब पूछा।
सुमित कुछ देर तक सोचता रहा, फिर बोला, 'ऐसा है कि सपनों का अर्थ कोई नहीं बता सकता। वह हमारी चेतना का अंडरवर्ल्ड है। ऊपर से हमारा जीवन व्यवस्थित दिखाई देता है, पर भीतर सब कुछ गड्ड-मड्ड है। पूरी तरह से अराजक। फिर भी इस दुनिया को समझने की कोशिश की जाती रही है। शायद फ्रायड को सबसे ज्यादा सफलता मिली। लेकिन वह महापुरुष सेक्स से कुछ ज्यादा ही आक्रांत था। इसलिए मुझे लगता है कि वह सपनों का एक ही आयाम देख सका। लेकिन कौन जानता है! जब तक हम सपनों का अर्थ खोलने की स्थिति में नहीं आ जाते, तब तक किसी को सही या गलत कैसे कह सकते हैं? हो सकता है, फ्रायड ही सही हो।'
फिर भी अपनी ओर से तुम कुछ कोशिश करो न, मैंने आग्रह किया।
सुमित छत की ओर देखने लगा। उसकी आंखें मुंद गईं। प्रकृतस्थ होने के बाद कहने लगा, 'देखो, समझ में तो मेरे भी कुछ नहीं आ रहा हो। ज्यादा संभावना यह है कि पतंगें हमारी रंग-बिरंगी इच्छाओं की प्रतीक हैं। वे अनंत हैं और हमारी पकड़ से परे भी। हमारे पास उनकी डोर जरूर है, पर हम पतंग को खींच नहीं पाते। सो डोर पकड़ कर उन्हें अपनी ओर खींचने की कोशिश करते रहते हैं। कई बार ऐसा भी होता है कि जिंदगी के आसमान में चारों ओर मेघ छा जाते हैं और मूसलाधार बारिश होने लगती हैं। हमारी पतंगें लुप्त हो जाती हैं और हम हताश हो कर जिंदगी के मैदान से भागने लगते हैं।'
मैंने प्रश्न किया, और वह बच्चा? वह किस चीज का प्रतीक है?
सुमित बोला, 'पता नहीं। हो सकता है, वह किसी ऐसे युवा को प्रतिबिंबित कर रहा है जिसके सामने साफ नहीं है कि उसकी अपनी पतंग कौन-सी है। जो भी पतंग उसे पकड़ा दी जाती है, उसे लगता है कि वह उसकी नहीं है। इस तरह वह विभिन्न पतंगों के बीच भटकता रहता है। यह भी हो सकता है कि उसने कोई खास पतंग पसंद की हो और वह उसके हाथ न आ रही हो। यह भी कह सकते हैं कि आदमी व्यवस्था का प्रतीक है और बच्चा नई पीढ़ी का प्रतिनिधि जिसे इस व्यवस्था में अपना रास्ता दिखाई नहीं पड़ रहा है। जो उससे बड़े लड़के हैं, वे अपनी आकांक्षाओं का पीछा कर रहे हैं, पर उनके हाथ कुछ लग नहीं रहा है।'
मैं सोचने लगी।
सुमित ने कहा, 'अब जल्दी से नहा-धो लो। मेरे पेट में चूहे कूद रहे हैं।'
भूख मुझे भी लग आई थी। फटाफट तैयार हुई और हम डाइनिंग रूम की ओर चल दिए।
बाहर मेरा मुंह चल रहा था और भीतर मेरा दिमाग।
शाम को जब हम फिर साथ बैठे, तो एक नया परिदृश्य उभर आया। बातचीत कुछ यों चली।
सुमित, मेरा खयाल है, इस सपने का एक अर्थ यह भी हो सकता है कि युवा पीढ़ी के सामने रास्ते कई हैं, पर वह यह तय नहीं कर पा रही है कि सही रास्ता क्या है। पतंगें विभिन्न रास्तों का प्रतिनिधित्व करती हैं।
हो सकता है।
वैसे इस मामले में मैं भी बहुत कन्फ्यूज्ड हूं। हम लोगों ने इतने विषयों पर बातचीत की। तुमने जो समाधान बताए हैं, उनमें से सभी नहीं तो ज्यादातर का संबंध भविष्य से है। वह भविष्य हमसे बहुत दूर है। पता नहीं कभी आएगा भी या नहीं। असली सवाल यह है कि हम आज क्या करें ? अभी हमारे सामने रास्ता क्या है ?
रास्ता? मैं कौन होता हूं रास्ता बताने वाला?
क्यों ? आखिर आदमी के सामने कोई एक रास्ता तो होना चाहिए, जिस पर वह चल सके। जाहिर है, जब तुमने इतने विषयों पर सोचा है, तो इस बारे में भी कुछ सोचा ही होगा।
असल में, मैं इस बारे में कुछ कहने का अधिकारी नहीं हूं मैं। मैं यह दावा कतई नहीं कर सकता कि जो रास्ता मैंने अपने लिए चुना है, वह सभी के लिए श्रेयस्कर है। एक विशेष परिस्थिति में यह रास्ता बना है। सब की परिस्थितियां अलग-अलग हैं, इसलिए सब के रास्ते अलग-अलग होंगे।
लेकिन अतीत के सभी धर्मगुरुओं ने सभी के लिए कोई एक कॉमन रास्ता बताया है। महान विचारकों ने भी यही किया है। आज के सार्वजनिक शिक्षक भी यही करते हैं। वे बताते हैं कि हमें किस तरह जीवन बिताना चाहिए।
मैं धर्मगुरु नहीं हूं। विद्वान या विचारक भी नहीं हूं। मुझे कोई पंथ नहीं चलाना है। तब कोई मुझसे इस तरह का मार्गदर्शन क्यों चाहे?
दूसरों को छोड़ो। मुझे तो सलाह दे ही सकते हो। तुम मेरी परिस्थिति को अच्छी तरह समझते हो। मैंने तुमसे कुछ भी नहीं छिपाया है। मेरे लिए तुम्हारा संदेश क्या है ?
तुम्हारे लिए? पहला संदेश तो यही है कि विवाह कभी मत करना। प्रेम करना, दोस्ती करना, जो अच्छा लगे, उसके साथ रहना, लेकिन विवाह हर्गिज न करना। यहां तक कि मैं भी प्रपोज करता हूं, तो मुझे भी ठुकरा देना। आदमी की स्वतंत्रता गिरवी रखने के लिए नहीं है।
दूसरा विवाह करने की तो मैं कभी सोचती भी नहीं। वन्स इज एनफ़ । लेकिन एक इच्छा मेरे भीतर से जाती नहीं है ।
क्या है वह ?
मैं मां बनना चाहती हूं ।
तो इसमें दिक्कत क्या है ? किसी भी शहर में स्वस्थ-सुंदर पुरुषों की कमी नहीं है। जिससे भी अनुरोध करोगी, वह तुम्हें मां बना देगा । अब तो वीर्य बैंक भी खुल गए हैं।
मजाक मत करो । जिससे मेरा कोई भावनात्मक रिश्ता नहीं, जिसे मैं जानती-पहचानती नहीं, उसकी संतान को अपने पेट में कैसे पाल सकती हूं ? माफ करना, यह अपनी कमाई नहीं, काला धन होगा। ।
तब तो एक ही रास्ता है । किसी बच्चे को गोद ले लो। देश में इतने अनाथालय हैं, कहीं भी जा कर अपना बच्चा चुन सकती हो।
मैं भी कुछ ऐसा ही सोच रही थी ।
इस बारे में मैं एक बात जरूर कहूंगा। कानून के अनुसार तुम्हें लड़का नहीं, लड़की ही मिल सकती है। तो तुम चाहे जिस अनाथालय में जाओ, वहां अपने लिए उस लड़की को ही चुनना जो सबसे गरीब, सबसे कमजोर और सबसे कुरूप हो।
ऐसा क्यों ?
ऐसा इसलिए कि जैसे तुम्हें बच्चे की जरूरत है, वैसे ही किसी बच्ची को मां की जरूरत है। जो बच्ची जितनी गरीब गरीब, जितनी कमजोर, देखने में जितनी ज्यादा खराब है, उसे मां पाने का उतना ही ज्यादा अधिकार है। गोरे-चिट्टे बच्चे तो सभी छांट कर ले जाते हैं। असुंदर बच्चों की देखभाल कौन करेगा? तुम्हें मां बनना है, तो तुम्हारा प्रेम और तुम्हारी करुणा उसके लिए सबसे ज्यादा होनी चाहिए जो सबसे ज्यादा दुर्भाग्यग्रस्त है। मेरा बस चले, तो मैं अनाथालय से बच्चा छांटने का अधिकार ही रद्द कर दूं। बच्चे का चुनाव गोभी-बैंगन की तरह नहीं किया जा सकता। इसकी जगह लॉटरी प्रणाली अपनाई जा सकती है। जिसकी किस्मत में जो आया, उसे स्वीकार करना पड़ेगा। और यह भी कि एक आदमी के लिए एक ही बार लॉटरी खोली जाएगी। गोद लेना पुण्य का काम है, इस पर पाप की छाया नहीं पड़नी चाहिए।
मान गई। अब दूसरा संदेश ?
दूसरा संदेश यह है कि आर्थिक दृष्टि से हमेशा आत्मनिर्भर बने रहना। बिना मेहनत किए अन्न खाना अपराध है। अभी तक तुमने ज्यादातर परजीवी जीवन जिया है। सौभाग्यशाली हो कि इसके परिणामस्वरूप तुम्हें किसी बंधन में नहीं पड़ना पड़ा। लेकिन सभी देने वाले इतने उदार नहीं होते। वे पाव भर देते हैं, तो सेर भर मांगते हैं। इसलिए स्वतंत्रता के लिए आर्थिक स्वावलंबन अनिवार्य है।
लेकिन परजीवी तो आप भी हैं !
बिलकुल हूं। आज नहीं, बहुत वर्षों से हूं। बीच-बीच में पर-निर्भरता से आजाद होने की सोचता हूं। पर मुझसे बड़ा आलसी शायद ही कोई हो। यह कोई अच्छा जीवन नहीं है। मैं अपनी जिंदगी को किसी भी दृष्टि से आदर्श जिंदगी नहीं मानता। इसलिए ऐसी जिंदगी जीने की सलाह किसी को नहीं दे सकता। मगर तुम अभी युवा हो। तुममे मुझसे कहीं ज्यादा ऊर्जा है। इसलिए तुम चाहो, तो अपने ऊपर नियंत्रण रख सकती हो। अपने को पर-निर्भर होने से बचा सकती हो।
लेकिन जिस रास्ते पर आप खुद नहीं चल पाए या नहीं चल पा रहे हैं, उस रास्ते पर चलने के लिए किसी और को कैसे प्रेरित कर सकते हैं ? मेरे खयाल से, इसका कोई असर नहीं होगा।
न हो। इसमें मेरा क्या जाता है ? मैं कोई चौराहे पर खड़ा हो कर ज्ञान थोड़े ही बांट रहा हूं? जीने के हजार रास्ते हैं। जिसको जो अच्छा लगे, वह उस पर चले। यही आजादी तुम्हें भी है।
समझ गई। यह बात बाबा आदम के जमाने से कही जाती रही है कि हमें दूसरों की बुराइयों को नहीं, अच्छाइयों को अपनाना चाहिए। पर हम इस पर अमल नहीं करते। दूसरों में सबसे पहले हम उसकी बुराइयों को ही खोजते हैं। अगर जीने का रास्ता वही बता सकता है जिसमें एक भी दोष या कमी न हो, जो हर तरह से संपूर्ण हो, तब तो कोई किसी को किसी भी चीज के लिए प्रेरणा नहीं दे सकता।
मैं तो ऐसा ही मानता हूं।
लेकिन सुमित, आत्मनिर्भर होने के दो ही तरीके हैं। या तो अपना व्यवसाय शुरू करो या किसी की नौकरी करो। अब दुकान खोलना, कल-कारखाना चलाना तो सबके बस की बात नहीं है। सभी डॉक्टर या वकील भी नहीं बन सकते। इसलिए वास्तविक विकल्प कहीं न कहीं नौकरी करना ही बच जाता है। मैंने कई नौकरियां की हैं और छोड़ी हैं। मेरा अनुभव यही कहता है कि किसी भी नौकरी में व्यक्ति की गरिमा सुरक्षित नहीं है। जहां भी जाओ, कुछ न कुछ घपला नजर आता है।
तुम ठीक कह रही हो। हालांकि मैंने कभी किसी की नौकरी नहीं की - मैं तो अपनी आत्मा का नौकर हूं, पर मेरा अनुमान और जानकारी, दोनों वही कहते हैं, जो तुम्हारा अनुभव है। दरअसल, पूंजीवादी व्यवस्था में जहां भी ज्यादा पैसा है, समझो वह पाप का पैसा है। इसलिए हर नौकरी एक समझौता है। कहीं अधिक समझौता है, कहीं कम। लेकिन इससे बचाव नहीं है।
तो फिर ?
चूंकि जीविका तो उत्पादन की वर्तमान विधियों से जुड़ी होती है और हरएक को जीविका तो चाहिए ही, नहीं तो वह भूखों मरने लगेगा, इसलिए वर्तमान व्यवस्था में हम पाप की छाया में जीने के लिए अभिशप्त हैं। मगर हम इतना तो कर ही सकते हैं कि इस पाप में खुशी-खुशी भागीदार न बनें। हमें जो काम दिया गया है, उसे ईमानदारी से करें और बाकी समय अपनी रुचियों के अनुसार बिताएं। जहां पाप बहुत ज्यादा हो, वहां से उठ कर चल दें और कोई नया काम खोजें।
तो तुम्हारा कहना यह है कि वर्तमान व्यवस्था में नैतिक जीवन नहीं बिताया जा सकता ?
नहीं बिताया जा सकता। नैतिक होने के लिए अपनी इच्छा ही काफी नहीं है, वह परिवेश भी चाहिए जिसमें नैतिक हुआ जा सके। यह जो साधू लोग या तरह-तरह के आदर्शवादी अपने श्रोताओं को नैतिकता का उपदेश देते फिरते हैं, वे पूरा सच नहीं बताते। उनकी वाणी अलग-अलग होती है, पर सार एक ही होता है। उनकी बातों का सार यह है कि कोयले की कोठरी से कोयला मत हटाओ, बस अपने कपड़े साफ रखो। यह कैसे हो सकता है? इन बाबाओं की निजी जिंदगी की छानबीन करो, तो पता लगेगा कि इनके कपड़े आम आदमी की तुलना में ज्यादा दागदार हैं। साधारण आदमी जो कुछ मजबूरी में करता है, बाबा लोग वही नहीं, बल्कि उससे कहीं ज्यादा अपने ऐशो-आराम लिए करते हैं।
एक रजनीश थे। वे सभी को अध्यात्म की शिक्षा देते थे, पर खुद चरम भौतिकता से लिपटे रहते थे। पता नहीं, उनके शिष्यों की निगाह इस तरफ क्यों नहीं जाती थी।
क्योंकि उनकी निगाह पर परदा पड़ा हुआ था। किसी व्यक्ति के प्रति अतिशय भक्ति या किसी विचारधारा के प्रति अतिशय प्रतिबद्धता आदमी को पूरा नहीं तो तीन-चौथाई अंधा बना डालती है। इसलिए मैं तीसरी बात यह कहना चाहता हूं कि अपनी तर्क या विवेचना शक्ति को कभी स्थगित मत करो। आंख-कान-दिमाग सब खुला रखो और प्रत्येक कृत्य के पहले विचार करो कि वह करने लायक है या नहीं। कोई बाबा कहता है, कोई नेता कहता है, कोई ग्रंथ कहता है, कोई विचारधारा कहती है, कोई संगठन कहता है, कोई दोस्त कहता है, कोई रिश्तेदार कहता है, इसलिए कोई काम मत करो। सब कुछ सुनने-समझने के बाद अपनी अंतरात्मा से पूछो कि वह क्या कहती है। वह हां कहती है, तो हां है, ना कहती है तो ना है।
अगर अंतरात्मा संशय में पड़ जाए तब ?
तब कुछ समय के लिए रुक जाओ। या, जो कर रही थी, उसे करती रहो। तब संशय मिट जाए, तब अपना रास्ता चुन लेना।
तुमसे मिलने के बाद तो मेरा मन करने लगा है कि अपने को क्रांति के काम में झोंक दूं। ऐसी जिंदगी जीने से क्या फायदा, जो यथास्थिति को मजबूत करती हो। यह तो अपने ही खिलाफ चल रही लड़ाई में शरीक होना है।
वाह ! यह बात इतने अच्छे तरीके से तो मैं भी नहीं कह सकता था। क्रांति आकर्षित करती है, तो झोंक दो उसमें अपने आप को। इससे बढ़िया और क्या हो सकता है? अपने लिए तो सभी जीते हैं। सबके लिए जीने में ज्यादा सुख है।
यार, तबीयत तो करती है, पर हिम्मत नहीं पड़ती। क्रांतिकारी की जिंदगी मुझसे जी नहीं जाएगी। बहुत, बहुत मुश्किल है।
देखो, सच्ची बात यह है कि यह सब बहानेबाजी है। जैसे सिगरेट पीने वाले वास्तव में सिगरेट छोड़ना नहीं चाहते, बस कहते रहते हैं कि बहुत कोशिश करता हूं, पर छूट नहीं पा रही है।
ऐसा ही समझ लो। मेरे खयाल से, यही तर्क तुम पर भी लागू होता है।
लागू होता है न ! इसीलिए मैं अपने बारे में कोई दावा नहीं करता। वैसे भी, सभी से यह उम्मीद भी नहीं की जा सकती न करनी चाहिए कि वे क्रांतिकारी जीवन जी कर दिखाएंगे। जिनमें इतना साहस नहीं है, वे क्रांति के पक्ष में प्रचार तो कर सकते हैं। जहां तक संभव है, वे क्रांतिकारी विचारों को अपने जीवन में उतार तो सकते हैं।
कैसे ?
क्रांति कोई ऐसी चीज तो है नहीं जो बम की तरह अचानक एक दिन फट पड़े। हम क्रमशः उसकी तरफ बढ़ते हैं। सामूहिक रूप से भी और व्यक्तिगत स्तर पर भी। तो व्यक्तिगत स्तर पर जितना कर सकें, हमें करना चाहिए।
व्यक्तिगत स्तर पर मैं क्या कर सकती हूं ? कोई उदाहरण दो।
जैसे अपनी जरूरतें कम से कम करना। जिसकी जरूरतें जितनी कम होंगी, वह उतना ही स्वाधीन रहेगा। वस्तुएं भी दास बनाती हैं। हर तरह की विलासिता प्रतिक्रियावाद है। उसमें सामंतवाद का तत्व है। जब धरती पर पाई जाने वाली या तकनीक से बनाई जाने वाली सभी चीजों की एक निश्चित सीमा है, तो कोई भी व्यक्ति या मुल्क विलासी जीवन कैसे जी सकता है? वह जरूर किसी और व्यक्ति या समूह के हिस्से की चीजें हथिया रहा है। मैं समझता हूं, देश और दुनिया में गरीबी और अभाव का यह भी एक कारण है।
इसलिए अपने ऊपर कम से कम खर्च करना एक क्रांतिकारी कर्म बन जाता है।
जरूर।
अगर किसी की आय इससे कहीं ज्यादा हो, तब ?
तब उसे बाकी पैसा सामाजिक कामों में खर्च कर देना चाहिए। आखिर समाज के कारण ही तो उसे इतनी आमदनी हो रही है। तो जितनी जरूरत है, रख लो, बाकी समाज को लौटा दो।
और ?
सभी के साथ बराबरी का बरताव करो। क्रांति के मूल में समानता का ही विचार है। वर्तमान व्यवस्था में हर तरह की विषमता है - जाति की, वर्ग की, पद की, स्त्री या पुरुष होने के आधार पर, धर्म और संप्रदाय के आधार पर, चमड़ी के रंग के आधार पर, पेशे के आधार पर, यहां तक कि भाषा और क्षेत्र के आधार पर भी...। विषमता में विश्वास करने वाला व्यक्ति अलग-अलग लोगों के साथ अलग-अलग व्यवहार करता है। वह कहीं शेर बन जाता है, कहीं गीदड़। मैंने बहुतों को कुत्ता बनते भी देखा है। इससे बचने की जरूरत है। क्रांतिकारी विचार वाला आदमी सभी के साथ एक जैसा व्यवहार करेगा। वह प्रधान मंत्री के साथ जैसा व्यवहार करेगा, वैसा ही व्यवहार झाड़ू लगाने वाले के साथ भी करेगा।
थोड़ा-बहुत तो मैं ऐसा ही करती रही हूं। अब और ज्यादा सतर्क रहूंगी। लेकिन एक बात बताओ। कोई आला दरजे का संगीतकार या चित्रकार है। क्या उसके साथ भी मुझे वैसा ही व्यवहार करना चाहिए जैसा मैं किसी बेयरे या बढ़ई के साथ करूंगी ?
सिद्धांत तो यही कहता है। लेकिन कुछ व्यक्ति विशेष आदर के पात्र होते हैं। कला, साहित्य, समाज सेवा, शिक्षा आदि के क्षेत्र में उनकी विशिष्ट उपलब्धियां होती हैं। उनका अतिरिक्त आदर करने में कोई हर्ज नहीं है। बल्कि ऐसा करना ही चाहिए। समानता का विचार कोई जड़ विचार नहीं है। लेकिन पद, पैसा, प्रभाव आदि के कारण किसी का अतिरिक्त सम्मान करना उचित नहीं है। कलात्मक या नैतिक ऊंचाई एक चीज है, पैसे या पद की उपासना दूसरी चीज। मेरे लिए तो एक छोटा-सा लेखक या कलाकार भी किसी उद्योगपति या मंत्री से ज्यादा आदरणीय है।
चलिए, अब अगले बिंदु पर आया जाए।
अगला बिंदु इसी का विस्तार है। राजनीति में ही नहीं, समाज, परिवार, मित्रता - सभी स्तरों पर लोकतंत्र होना चाहिए। हमारे देश में किसी भी स्तर पर लोकतंत्र नहीं है। सब जगह तानाशाही है - कहीं कम कहीं ज्यादा। कहीं व्यक्ति की तानाशाही है, कहीं संगठन की, कहीं विचार की और कहीं नैतिकता के किसी खास रूप की। यहां तक कि जो लोकतंत्र का दम भरते हैं, वे भी कहीं न कहीं तानाशाह होते हैं। इसलिए जीने का जो भी रास्ता चुना जाए, वह पूरी तरह लोकतांत्रिक होना चाहिए।
लोकतांत्रिक होने से तुम्हारा क्या अभिप्राय है ?
जहां तक मैं समझ पाया हूं, लोकतंत्र का अर्थ है दूसरों के विचार का सम्मान करना। सम्मान करने का अर्थ यह नहीं है कि उसे मान ही लिया जाए। इसका अर्थ यह है कि समाज, संगठन, परिवार सर्वत्र विमत या मतांतर के लिए जगह होनी चाहिए। जो मुझसे असहमत है, वह मेरा दुश्मन है या मूर्ख है या बदमाश है, यह बात किसी के दिमाग में नहीं आनी चाहिए। इसका मतलब यह भी है कि विचार को विचार से काटना चाहिए, न कि विचार की अभिव्यक्ति पर रोक लगा कर या दमन करके। जब हम दूसरों को अपनी बात कहने का मौका देंगे, तभी हम अपने लिए ऐसे मौके की आशा कर सकते हैं।
क्या लोकतंत्र का मामला सिर्फ विचार की अभिव्यक्ति तक सीमित है ?
नहीं, हमारे संबंध भी लोकतांत्रिक होने चाहिए। इसका अर्थ है, दूसरों की इच्छाओं का सम्मान करना। अगर हम किसी पर अपनी इच्छा लादते हैं, तो उसके लोकतांत्रिक अधिकार का हनन करते हैं।
लेकिन प्यार या दोस्ती में ऐसा कहां हो पाता है ? जिससे हमारा लगाव होता है, उसकी खुशी के लिए अनेक बार हमें अपनी इच्छाओं का दमन करना पड़ता है। इसी तरह, बच्चों की जिद भी, चाहे वह गलत ही क्यों न हो, पूरी करनी पड़ती है।
जो जिद करे, समझो वह बच्चा ही है। वयस्क आदमी जिद नहीं करता। वह हां और नहीं, दोनों को एक जैसी भावना के साथ स्वीकार करता है।
मुझे तो ज्यादातर मर्द बच्चे ही लगते हैं।
लगते नहीं, होते हैं। स्त्रियां भी भीतर से बच्ची ही होती हैं। असल में, प्रत्येक व्यक्ति में एक बच्चा छिपा होता है। और तुम जानती हो, हर बच्चा तानाशाह होता है। चाहो तो अराजक कह सकती हो। बच्चे के लिए उसकी अपनी इच्छा ही सर्वोपरि होती है। दूसरों की इच्छाओं की उसे कतई परवाह नहीं होती। किसी न किसी रूप में यह बच्चा जिंदगी भर हमारे भीतर जीवित रहता है।
वाकई वयस्क होना बेहत कठिन काम है। मैं तो कहूंगी, यह लगभग असंभव है।
असल में, मनुष्य का बचपन इतना लंबा होता है कि उस दौरान बने हुए संस्कार पूरी जिंदगी पर छा जाते हैं। ठीक ही माना जाता है कि जिसे बचपन में प्यार नहीं मिला, वह बड़ा हो कर किसी को भी प्यार नहीं दे सकता।
लेकिन प्यार में तो गलत जिद को भी मानना पड़ता है।
यही तो मुश्किल है। गलत जिद मानने से संबंध में असंतुलन आ जाता है। असंतुलन जब एक बार स्थापित हो जाता है, तब बाद में उसका इलाज नहीं किया जा सकता। आदत से लड़ना सबसे कठिन होता है। इसीलिए आदत को दूसरा स्वभाव कहा गया है।
यह भी तो सोचो, जहां आत्म-बलिदान की भावना नहीं, वहां प्यार कैसा ?
जी नहीं, यह आत्म-बलिदान नहीं, आत्म-समर्पण है। इसके पीछे कई तरह की चीजें होती हैं - मसलन अतिशय मोह, किसी भी शर्त पर संबंध को बनाए रखने की लालसा, हीनता ग्रथि वगैरह-वगैरह। इसे मैं प्रेम की गुलामी कहता हूं।
प्रेम की गुलामी ?
हां, प्रेम की तानाशाही होती है, तो प्रेम की गुलामी भी होती है। असल में, दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। एक पक्ष गुलामी को स्वीकार कर लेता है, तभी दूसरे पक्ष की तानाशाही चल पाती है।
मैंने देखा है, सिर्फ पुरुष ही तानाशाह नहीं होता, स्त्रियां भी तानाशाह होती हैं।
इंदिरा गांधी थीं न ! यह जरूर है कि स्त्रियों की तुलना में पुरुष ज्यादा तानाशाह होते हैं।
क्योंकि उनके पास सत्ता होती है।
इसीलिए तो मेरा मानना है कि नैतिक सत्ता के अलावा अन्य किसी भी प्रकार की सत्ता नहीं होनी चाहिए। इसलिए लोकतांत्रिक जीवन यही है कि हम न सत्ता हासिल करें न किसी और की सत्ता के आगे झुकें।
पर जीवन में समझौते भी तो करने पड़ते हैं !
क्यों नहीं। ईमानदारी यह स्वीकार करने में है कि जीवन समझौते का ही नाम है। चूंकि कोई दो व्यक्ति एक जैसे नहीं हो सकते, इसलिए साथ रहने के लिए दोनों को ही एक-दूसरे से समझौता करना पड़ता है।
तुम्हारी ही बात को आगे बढ़ाऊं, तो छोटी-मोटी बातों में समझौता करने में कोई बुराई नहीं है। पति कहता है, आज गोभी बनेगी, पत्नी कहती है, आज कटहल बनेगा। अब या तो दोनों बनाओ या किसी एक की बात मान लो।
ऐसी छोटी-छोटी चीजों को समझौता कहने का कोई मतलब नहीं है। इस तरह के दर्जनों सामंजस्य रोज करने पड़ते हैं। इससे बड़ी बातों पर भी समझौता करना पड़ सकता है। इससे घबराना नहीं चाहिए।
जैसे ?
जैसे यह कि बेटे को हिन्दी माध्यम से पढ़ाया जाए या अंग्रेजी माध्यम से, पति-पत्नी दोनों नौकरी करें या सिर्फ एक करे।
तो फिर सिद्धांत के मामले क्या बच गए ?
सिद्धांत का मामला यह है कि पति मांसाहार करता है और अपनी शाकाहारी पत्नी को मांस खाने के लिए मजबूर करता है। पति रिश्वत की कमाई घर लाता है और पत्नी मना करती है। ऐसे मामलों में घुटने टेकने का कोई मतलब नहीं है।
तब तो संबंध टूट जाएंगे !
जरूरी नहीं कि टूट जाएं। जिसके सिद्धांत का हनन हो रहा है, वह अपनी बात पर टिका रह सकता है। सत्याग्रह और अनशन कर सकता है। सिर्फ इस बिना पर अलग होने का तर्क नहीं बनता। दोनों अपने-अपने सिद्धांत पर अड़े रहें, तब भी एक-दूसरे के प्रति प्रेम या आदर के साथ जी सकते हैं, अगर इरादा चोट पहुंचाने का नहीं हो। दरअसल, यही लोकतंत्र है। इसके मूल में युद्ध नहीं, प्रेम है।
लेकिन इस तरह का मतभेद लगातार बना रहता है, बल्कि उग्रतर होता जाता है, तब ?
तब सोचना चाहिए कि क्या किया जा सकता है। संबंध विच्छेद को हमेशा अंतिम उपाय मानना चाहिए। बड़ी मुश्किल से कोई संबंध बनता है। जहां तक संभव है, उसे बचाने की कोशिश करनी चाहिए।
और?
और यह कि अपने को स्वस्थ बनाए रखना अपने प्रति पहली जिम्मेदारी है। बीमार आदमी कोई भी काम ठीक से नहीं कर सकता।
और ?
और की अम्मा ! क्या मुझे एनसाइक्लोपीडिया समझ रखा है? तुम्हारे पास भी दिमाग है। उसे भी काम पर लगाओ।
अपने दिमाग को काम पर लगाती हूं, तभी तो मन में इतने सारे सवाल पैदा होते रहते हैं।
जो सवाल पूछ सकता है, वह उत्तर भी खोज सकता है। मुश्किल यह है कि हम सवाल पूछना नहीं जानते। या यों कहो कि हम सही सवाल पूछना नहीं जानते। झूठे सवालों के उत्तर भी झूठे ही होंगे।
यह भी जीने का एक सूत्र हुआ। इस तरह के कुछ सूत्र और बचे हों, तो उन्हें भी शेअर कर डालो।
भाड़ में जाएं तुम्हारे रास्ते और सूत्र। आज मेरा मन कुछ गुनगुनाने का था। तुमने मुझे 'यह करना चाहिए', 'यह नहीं करना चाहिए' के चक्कर में डाल दिया। मैं बाबा रामदेव नहीं हूं।
मैं बताऊं ? तुम रामदेव नहीं, कामदेव हो।
अच्छा ! तो जरा अपने पर्स से शीशा निकालो। मैं भी देख लूं कि कामदेव का चेहरा कैसा होता है।
नो वे। अपनी नजर से नहीं, मेरी नजर से देखोगे, तब पता चलेगा।
छोड़ो इन फालतू बातों को। गीत सुनोगी?
सुनाओ न। मना किसने किया है ?
सुमित ने आंखें मूंद लीं और गुनगुनाने लगा :
प्राण, कह दो, आज तुम मेरे लिए हो
मैं जगत के ताप से डरता नहीं अब ,
मैं समय के शाप से डरता नहीं अब ,
आज कुंतल छाँह मुझपर तुम किए हो
प्राण , कह दो , आज तुम मेरे लिए हो ।
रात मेरी , रात का श्रृंगार मेरा ,
आज आधे विश्व से अभिसार मेरा ,
तुम मुझे अधिकार अधरों पर दिए हो
प्राण , कह दो , आज तुम मेरे लिए हो।
वह बड़ी गंभीरता से गा रहा था और मेरी हंसी छूट रही थी।
कुछ देर बाद, जब मैं अपने कमरे की ओर लौट रही थी, मैं भी गुनगुना रही थी -
प्राण, कह दो, आज तुम मेरे लिए हो