सुनहरी खिड़कियाँ / भाग 1 / गुरदीप सिंह सोहल
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सुनहरी खिड़कियों की सुन्दरता धीरे धीरे समाप्ति की ओर बढ़ रही है, असलियत प्रकट होने लगी है दिन प्रतिदिन कुरूप पत्थरों की तरह। सोने की लंका की असलियत का पता लगने लगा है और कालापन छाने लगा है।
और अब तो यह लगने लगा है जैसे कि मेरे पागल होने के बुरे दिन आ रहे है। सारी की सारी समझ मिटटी के नीचे दब कर रह गई है। संकट काले विपरीत बुद्धि की कहावत जो कभी लागू नहीं हुई थी अब वही अप्रत्याशित रूप से लागू होकर सच होती हुई प्रतीत हो रही है। आजकल मेरा मन बहुत ही बेचैन और बेबस रहता है। बार बार बे-लगाम घोड़े की तरह दौड़ने लगता है, घण्टों दौड़ता ही रहता है। जब मन के मन में आता है तो हमेशा ही मनमानी करता रहता है। मन से दौड़ता है तो रास्ता नहीं देखता कच्चा-पक्का, अच्छा-बुरा। रास्ता नहीं देखता तो भटक जाता है। भटक भटक कर दिग्भ्रमित हो जाता है। दिग्भ्रमित होता है तो सोचता है, सोचता है तो महसूस करता है कि क्या सही है और क्या गलत। कई बार तो दिमाग इतना अधिक पागल होकर खराब हो जाता है कि मेरा मन दौड़ दौड़ कर खूंटा उखाड़कर साथ ही ले भागना चाहता है। दौड़े भी क्यों न बेचारा? अक्सर बेचैन जो रहता है। फिर थक हार कर वापिस अपने खूंटे पर जाता है और कहावत सिद्ध कर देता है लौट के बुद्धु घर को आये।
आखिरकार इन्सान का दिल जब रोज रोज एक ही सूरत को देख-देख कर बोर हो जाता है, मन भर जाता है, अरमान मर जाते हैं तो दिल करता है कि वह अपनी पुरानी या भूतपूर्व अविवाहित अवस्था में आये और आजाद परिन्दे की तरह खुले आसमान में पहले की सी उन्मुक्त उड़ान भरे या अपनी सारी जंजीरों को तोड दे, सारे दायित्वों को त्याग दे, आजाद हो जाये और शादी के लड्डू के स्वाद को भुलाकर सन्यास लेकर, जंगल में जाकर मंगल योग में लीन हो जाये और सन्यास आश्रम से वानप्रस्थाश्रम तक का सफर करने के लिए सदा के लिए योगी हो जाये। गृहस्थी, भोगी या रोगी के चोले को फाड़कर उतार फैंके, घर की क्रांति को छोड़ दे और एकान्त में शान्ति की खोज कर और अपना ध्यान किसी भी सूरत से हटा ले लेकिन यहां पर विवाह, गृहस्थाश्रम मोतीचूर का एक एैसा लड्डू है जिसे खाने वाले तो पछताते ही है और न खाने वाले भी। न खाने वाले की जिज्ञासा बनी रहती है, वे स्वाद को ललचाते रहते है लेकिन खाने वाले कुनैन जैसे कड़वे स्वाद को जिंदगी भर नहीं भुला पाते। हर आदमी इसे खाने के लिए ही लालायित रहता है। इस लड्डू को खाकर ही पछताना चाहता है ताकि वह सीना ठोक कर कह सके कि उसने मीठे लड्डू खाकर देख लिया, शूगरप्रूफ कड़वा कुनैन जैसा स्वाद चख लिया लेकिन वह किसी अन्य के बताये हुए स्वाद पर विश्वास नहीं करना चाहता, वह नहीं चाहता कि कोई उसे लड्डू का स्वाद कड़वा बताकर गुमराह करे, वह खुद खाकर कड़वा स्वाद महसूस करना चाहता है कि इस लाजबाव लड्डू का स्वाद कितना लाभदायक है। विधानों में पराई स्त्री की तमन्ना करना एक पाप माना गया है। एैसा बन्धन बनाया गया है कि न चाहते हुए भी इनसान कभी कभी एैसा सोचने पर मजबूर हो जाता है जब उसे दूसरे की थाली का लड्डू अपेक्षाकृत ज्यादा बड़ा और स्वादिष्ट लगने लग जाता है। वह दुनिया का हर लड्डू खा लेना चाहता है लेकिन एक लड्डू के बन्धन से छूट जाना चाहता है। जैसा कि इन दिनों में मेरे साथ भी हो रहा है।
उम्र के 65 बरस अभी तक मेरे सामने हिमालय पर्वत की तरह तन कर अडिग खड़े हुए है जिन्हें देखकर ही जान सूखने लगती है और उसे पार कर पाना तो दुनियां से किनारा करने के समान ही है। अभी से मुझे लगने लगा है कि एक ही खूंटे से बरसों से बंधे हुए मेरा हाल उस पालतू कुत्ते की तरह हो रहा है जो केवल दूर दूर से ही घर में आने जाने वालो को भौंक तो सकता है लेकिन काट नहीं सकता। काटने की ताकत नहीं जुटा पाता। काटने की उसकी अपनी अलग विवश्ता है। गले में कसकर बांधा हुआ गृहस्थी का, नैतिकता का सफेद पट्टा उसे इस बाबत आजादी नहीं देता और मालिक के मजबूत खूंटे पर बंधा रहने को मजबूर ही रहते हुए घर और जान-माल की रखवाली करते रहने की ड्यूटी याद दिलाता रहता है। उसे बार-बार मन मार कर बंधा रहना पड़ता है। संयोग से अगर कभी पट्टा खींच कर, तोड़ कर किसी को काटने, चाटने, प्यार जताने की हिम्मत कर भी लेता है तो दोनो की जान पर बन सकती है, दोनो में से एक के पागल हो जाने की संभावना हमेशा ही बनी रहती है। सामने वाला हाइड्रोफोबिया का शिकार होकर जान से ही हाथ धो सकता है या फिर दोनो की जान चले जाने का खतरा बना रहता है।
वैवाहिक जीवन के 10 बरसों में जाने कितनी ही बार मैं यह महसूस कर चुका हूं कि लड्डू अगर न ही खाता तो कितना ही अच्छा होता। कम से कम दिल में इसे पाने और खाने की उत्सुकता और जिज्ञासा तो बनी रहती, तमन्ना बनी रहती। हलवाई की दुकान में रखे हुए इसे दूर-दूर से देखकर एक अदृष्य आकर्षण सा तो बना रहता। और फिर यदि मैंने इसे खा ही लिया है तो परिणाम से क्या डरना। समाज में रहना है तो लड्डू खाना ही पड़ेगा, लड्डू खाकर स्वाद चखना पड़ेगा चाहे जैसा भी हो मीठा या निवाकुनैन जैसा कड़वा। लड्डू खाने की सजा भुगतना भी तो हमारा परमधर्म है, कर्तव्य है। लड्डू खाना भी तो हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है। उम्र भर इसी खूंटे पर बंधे औरों को ताक ताक कर भोैंक भौक कर जी ललचाते रहना, पागल होते रहना है। काश, ये समाज न होता या फिर पट्टा न होता। या दोनो ही न होते। फिर लड्डू खाते जाते और पछताते जाते।
वैसे भी यह तो उम्र का, जीवन का एक विवादास्पद विषय है कि कभी कभी रूठना होता है तो कभी कभी मनाना। और फिर यह तो वैवाहिक जीवन का एक अभिन्न अंग है इसके बिना वैवाहिक जीवन नीरस, बेकार, बेस्वाद, रसहीन हो सकता है। बिना मिर्च मसाले की सब्जी हो सकता है। कभी मिर्च कम तो कभी नमक ज्यादा। कभी कभी तो यह रूठना और मनाना इतना उग्र रूप धारण कर लेता है कि दिल विषाद, वितृष्णा से भर जाता है और मजबूर होकर बेचैन हो जाता है, नखरों से ओवरफलो हो जाता है। मन दौड़ने लगता है। दौड़ता ही रहता है। इसे मेरी कमजोरी समझिये या फिर मजबूरी कि मन कभी भी दौड़े बिना मानता ही नहीं। दौड़ लगाकर वापस वहीं आ जाता है जहां से चला था, दौड़ना शुरू किया था। मैं यह बात बिल्कुल अच्छी तरह से जानता हूं कि मन का इस तरह से दौड़ लगाना और वापस आ जाना बिल्कुल ही ठीक नहीं है। मन को दौड़ाने के बारे में सोचना एक पाप है। लेकिन कभी कभी जानबूझ कर भी पापी बनने का इच्छा होती है, पाप करने को जी चाहता है। मन को दौड़ा दौड़ा कर मारने की इच्छा होती है। पाप की सजा भुगतने को मन हमेशा अपने आप को तैयार करने लग जाता है और समझने लगता है कि कभी न कभी तो यह सजा भुगतनी ही पड़ेगी जैसे कि सीमा पर सैनिक हमेशा लड़ने और मरने मारने को तैयार रहता है।
पिछले चार-पांच दिनों से मैं भी इसी दौर से गुजर रहा हूं। कभी कभार ये दौर आये इसमें से गुजरने में आनन्द आता है और तमन्ना भी रहती है कि जीवन में कभी कभी होली-दिवाली एैसा दौर आ भी जाना चाहिए, रोज रोज हलवा खाने के साथ साथ भुजिया या टेस्टी भी का स्वाद भी लेते रहना चाहिए परन्तु अगर यह दौर रोज रोज भुजिये की तरह, अमावस की काली रात की तरह, बिना बुलाये मेहमान की तरह दिल के द्वार पर अ-तिथि दस्तक दे दे और उसे मन मार मार कर आमन्त्रण देना पड़े, इसमें से गुजरना पड़े तो मन को काबू में रखना मुश्किल हो जाता है। दिमाग खराब हो जाता है। मन बेचैन हो जाता है। इच्छाएं मर खप जाती है। दिल के अरमान आंसुओं में बह जाया करते है। जीवन एक उम्र कैद लगने लग जाता है, शरीर एक काल कोठरी लगने लग जाता है जिंदा लाश के रूप में। शादी एक गुनाह लगने लग जाती है, एक एैसा गुनाह जो किया तो जवानी में जाता है लेकिन सजा बुढ़ापे में मिलती है। सारी जिंदगी तारीख पे तारीख के चक्कर में निकल जाती है लेकिन फैसला कभी हो ही नहीं पाता।
बीवी की अदालत में कभी भी खत्म न होन वाला मुकद्दमा चलता रहता है। हमेशा ही एक्सपार्टी फैसला होता है। उम्र कैद की सजा होती है। घर एक काल कोठरी, कैद खाना, जेल और बच्चे उसके सजग प्रहरी होते है जो कैमरे की तरह पल की खबर कमैंण्ट्री की तरह बीवी तक पहुंचाने का काम करते रहते है। यहां तक कि कभी कभी खुदकुशी करने तक की इच्छा भी होने लगती है या फिर घर से भाग जाने का मन बनने लगता है। जीवन के सब बन्धन तोड़ देने को उतारू होना पड़ता है लेकिन वास्तविक जीवन में एैसा हो ही नहीं पाता क्योंकि बीवी हमेशा ही किसी सब इंस्पैक्टर की तरह बच्चों की टीम के साथ गृहस्थी की गाड़ी में पीछा करती हुई घर की उम्र कैद में वापस खींचती हुई नजर आ जाती है और वह रिश्ता एक बार फिर फांसी का फन्दा बन कर रहा जाता है।
रात के लगभग 10 बजे का समय हो चुका है।ं मौसम ठीक ठाक सा ही है। न ठण्डा है और न ही गर्म। बिल्कुल गुनगुने पानी जैसा। रजाई में गर्मी लगती है और कम्बल में सर्दी। रजाई ओढ़ने की इच्छा नहीं होती और कम्बल छोड़ने की हिम्मत भी नहीं हो रही है। कमरे में जीरो वाट का बल्ब जगमगा रहा है। डबल बैड पर हम दोनो अगल अगल दिशाओं में मुहं करके लेटे हुए है। वन्दना मेरी तरफ पीठ करके लेटी हुई है। उसका पीठ करके लेटना उसकी किसी भयानक नाराजगी को प्रकट कर रहा है जो कि अभी तक मेरी समझ से बाहर ही है। मौसम गुनगुना है लेकिन रिश्तों के मौसम का अनुमान लगा पाना भी मुश्किल हो रहा है। कभी आंधी जैसा माहौल तो कभी बारिश जैसा। माहौल पल पल बदलता जाता है। शायद उसकी आंखों से आंसू बह रहे है। धीमी धीमी सिसकियां भी सुनाई दे रही है। कभी कभी वह हिचकियां भी ले लेती है। मैंने उसके हालात समझ कर अपनी करवट बदल ली है और पीठ के बल हो चुका हूं। उसका चेहरा दूसरी तरफ है और मैं छत की तरफ निहारते हुए सोच रहा हूं। यहां पर मेरे भी नाक का सवाल पैदा हो रहा है। एैसे समय में प्रेस्टिज पाइण्ट कुछ ज्यादा ही बड़ा दिखाई देने लगता है। रोज रोज की इन हरकतों से मैं भी तंग आ चुका हूं। इसने मेरा जीना दूभर कर दिया है। बिना मतलब यूंही रोज रोज मुंह फुला लेती है, नाराज हो जाती है, पीठ फेर कर लेटी रहती है, घण्टों आंसू बहाती है, हिचकियां लेती है, देर तक यूं ही सिसकती रहती है बिना किसी वार्तालाप के। मेरा हाल पूछने की बजाय वह अपना ही हाल दिखाती रहती है। इस बात पर मुझे भी गुस्सा आ जाता है। मुझे अपने हाल का फिक्र है और उसे तो अपनी ही पड़ी है। जब काफी देर तक उसकी गतिविधियों पर मेरी तरफ से किसी भी प्रकार की प्रतिक्रिया प्रकट होती हुई दिखाई नहीं देती तो अचानक वह आक्रामक होने लग जाती है। तूफान आने से पहले जिस प्रकार वातावरण शान्त रहता है उसी प्रकार वह भी तैयारी करती रहती है कि दिल के मकान का कौन सा हिस्सा ज्यादा कोमल है, कौन सा हिस्सा जल्दी तोडा जा सकता है। शायद उसे मेरी आदतों, मेरे स्वभाव का आभास हो चुका है। मेरी शराफत का नाजायज फायदा लेना चाहती है। वह यह भी अच्छी तरह जानती है कि उसने बिना मेरा कौन सहारा, वो मेरी मै उसका, हम दोनो एक दूसरे के। आखिर कभी न कभी तो मैं उसे मना ही लूंगा मगर वह शायद यह नहीं जानती कि काठ की हाण्डी सिर्फ एक बार ही चढ़ती है, बार बार नहीं। खिचड़ी जब जी चाहे जितनी बार भी पकाओ लेकिन हाण्डी को तो हर बार बदलना ही पड़ेगा। मैं भी किसी से कम नहीं हूं। वह नहीं बोलती तो न सही। रोज रोज उसे मैं बुला कर उसके भाव क्यों बढ़ाऊं। जब हवा शान्त हो जाती है तो बादल भी अपने आप ही बरसने लग जाया करते है। वह भी अपने आप ही बरसेगी सारी रात प्यार के रूप में। मैं ही क्यों कहूं कि आ बैल मुझे मार। जिसे जरूरत हो वही पहले बोले और जो बोले वो कुण्डी भी खोले प्यार की। कूंआ कभी भी प्यासे के पास जाकर यह नहीं कहता कि ले भई्र मुसाफिर अगर प्यास लगी है तो ये ले तू ठण्डा ठण्डा पानी पी ले। यहां तो प्यासे को ही कूंए के पास जाना पड़ेगा वरना पानी या तो सूख जायेगा या फिर सड़ने की कगार तक पहुंच जायेगा। पानी सड़ जाये तो बिमारियां फैलाता है और सूख जाये तो अकाल। दोनो ही नुक्सानदायक होते है। जब पानी ही नहीं रहेगा तो कुंआ भी महत्वहीन हो जायेगा। बिना पानी के कूंआ भी कुछ नहीं होता।
बैड पर लगी हुई मच्छरदानी मे घुसे हुए मच्छरों की तादाद देखने की कोशिश कर रहा हूं, साथ ही यह भी देखने का प्रयास कर रहा हूं कि अंधेरे में देखने लायक प्रकाश में मच्छरदानी के भीतर या बाहर कितने मच्छर उड़ाने भर रहे है ठीक बमवर्षक विमानों की तरह। सभी मच्छर घुसपैठ करने की फिराक में है दुशमन के गुप्तचरों की तरह। हमारी नींद की शंाति भग करने के लिए। उसकी सिसकियों और हिचकियों को ध्यान में रखते हुए तथा उसकी हरकतों पर नजर रखते हुए मैं बेखबरी का नाटक या सो जाने का बहाना करते हुए मेरा ध्यान उसकी सांसों की गति पर केन्द्रित है और मेरा मन बीते दिनों के प्यार और तकरार का हिसाब लगाने में लगा हुआ है। जब यह लगता है कि ज्यादा दिन प्यार में बीत चुके है तो कभी कभार तकरार का हो जाना बुरा नहीं है परन्तु जब यह लगता है कि तकरार के दिन बार बार आ रहे है तो दिल खूंटा ही ले भागने को उतारू हो जाता है और सोचने लगता है कि प्यार कम क्यों होता जा रहा है और तकरार बढती क्यों जा रही है। गृहस्थी की तरकारी में नमक मिर्च तेज क्यों होता जा रहा है, क्यों यह दिल बीपी का मरीज हो रहा है दिन ब दिन।
मस्तिष्क में बीते दिनों की घटनाएं चलचित्र की तरह दिखाई देने लगती है। पुरानी यादें अचानक ही रात में, एैसे समय में, तकरार के समय ताजा होने लगती है जिन्हे शायद कभी भी एैसे समय में ताजा नहीं होना चाहिए। इन घटनाओं को ताजा करने का अपराध केवल उसी का है वो अगर चाहे तो उन्हे हमेशा के लिए दबा कर रख सकती है। इन घटनाओं के बेवक्त ताजा होने में किसे कितना नुक्सान हो सकता है किसी को भी मालूम नहीं।
प्रातः काल साढ़े आठ बजे के आस पास का समय।
लंच बॉक्स कन्धे पर लटकाये हुए बस स्टैण्ड पर खड़ा हुआ मैं अपनी बस की प्रतीक्षा कर रहा हूं। मेरी निगाहे पुस्तक में है जो अक्सर मेैं समय काटने के लिए पढ़ता रहता हूं। बस से आते जाते हुए मुझे शायद सप्ताह भी का समय ही हुआ होगा।
”भाई साब आप क्या काम करते है।“
पुस्तक पढ़ते हुए सहसा ही मेरे कानों में किसी महिला का मधुर स्वर गूंजता है। वह एक अन्य नवयुवती के साथ है। आर्कषक और विवाहिता, पराई स्त्री। एक साथ तुरन्त दो काम होते है। पहला तो यह कि दिल में एक प्रकार की प्रसन्नता महसूस होती है कि मुझ जैसे अज्ञात व्यक्ति में भी किसी पराई स्त्री ने रूचि दिखाई है। बातचीत की पहल की है वरना मैं इतना अधिक संकोची प्राणी हूं कि दिल से चाहते हुए भी किसी भी पराई स्त्री से बातचीत की पहल किसी भी हाल में नहीं कर सकता चाहे उसके बारे में कल्पनाएं कितनी भी क्यों न करूं। साथ ही यह भी सोचता हूं कि अपने बस स्टैण्ड से भी कोई स्त्री साथ में जायेगी। उसकी सूरत देखकर या बातचीत करके, जैसे भी हो चलेगा। समय काटने का साधन मिल गया। दूसरा दुख इस बात से होता है कि वह मुझे भाई साब के नाम से सम्बोधित करती है। किसी भी पराई स्त्री का भाई कहलवाने में मुझे कोई आपत्ति नहीं है परन्तु जब किसी रिश्ते को दिल ही स्वीकार न करे तो वह रिश्ता बनाना ही बेकार है और फिर गरज यह कि आज का माहौल भी कुछ एैसा ही है कि मेरे दिल को पराई स्त्री को बहन बनाना बिल्कुल भी मंजूर नहीं। वो मुझे भाई बनाना चाहती है तो सो बार बनाये लेकिन मैं एक बार भी उसे बहन नहीं मान सकता। यही तो एक तरफा सम्बन्ध है। शायद ही कोई व्यक्ति होगा जो किसी भी पराई स्त्री को दिल से बहन बनाने या मानने की इच्छा रखता होगा। कम से कम मैं तो नहीं। उसे किसी भी प्रकार से सम्बोधित न करते हुए मैं भी टका सा जबाव देता हूं:-
”सरकारी नौकरी।”
”कहां पर ? किस विभाग में करते है“ ? वह फिर उत्सुक्ता से पूछती है।
”सी पी डब्ल्यू डी में।“ मैं भी संक्षिप्त सा उत्तर दे देता हूं।
”ये कौन सा डिपार्टमैण्ट है भाई साब?“ गृहिणी होने के कारण शायद उसे विभिन्न विभागों के नाम तथा काम के बारे में पूरी जानकारी नहीं है। उनके बारे में अधिक जानना चाहती है।
”केन्द्र सरकार के लिए भवन, सड़के आदि बनाने का काम करता है।“ मैं क्रमानुसार बताता जाता हूं। हालंाकि उसके बारे में भी मैं कुछ दिन पूर्व बस से आने जाने के दौरान ही कुछ न कुछ जान बूझ चुका था फिर भी समय काटने की गरज से मैं भी पूछने लगता हूंः-
”आपके बारे में जानना चाहता हूं। आप क्या करती है“?
”बी0 एड0।“
वह बताती है। उसके साथ वाली नवयुवती हम दोनो के वार्तालाप में कोई हिस्सा नहीं ले रही। केवल खडी खडी देख और सुन रही है।
”कितने साल की है।“
उसके चेहरे को निहारते हुए मैं फिर पूछता हूं। अच्छी तरह से सज धज कर आयी है वह। ठीक तरह से श्रृंगार करके। वह कितनी भी सती सावित्री है यह सब तो मैं नहीं जानना चाहता लेकिन सौन्दर्य से तो वह मुझे पूरी तरह प्रभावित कर ही चुकी है। मांग में सिंदूर, माथे पर बिंदिया, होंठो पर सुर्खी और चेहरे पर पूरा और भरपूर मेकअप अर्थात वह शतप्रतिशत सती सावित्री ही लग रही है दुल्हन के रूप में।
“सिर्फ एक साल की है।” वह कहती है
“कौन सा कॉलेज है?” यह जानते हुए भी कि शहर में केवल एक ही महाविद्यालय है महिलाओं का। फिर भी मैं जानबूझकर पूछ ही लेता हूं ताकि वह चुप न रहे। कम से कम वार्तालाप का सिलसिला जारी तो रहे हमारी बस के आने के समय तक।
“कन्या महाविद्यालय।” वह उसी तरह धीरे धीरे संक्षिप्त सा उत्तर दे रही है जैसे कि थोडी देर पूर्व मैंने भी दिये थे।
”आपकी वापसी कब तक होती है? आपके महाविद्यालय का समय कब से कब तक होता है? वापसी में ठीक तरह से बस की सुविधा तो मिलती है या नहीं?” प्रश्नोत्तर जारी रहता है।
“हमारे महाविद्यालय का समय बहुत ही कम होता है। केवल तीन या चार या फिर पंाच पीरियड लगते है। वापसी भी जल्दी ही हो जाती है। कभी लोकल बस मिल जाती है तो कभी एक्सप्रैस।” अब वह इस प्रकार से खुलकर, घुलमिल कर, बिना लागलपेट के जबाव दे रही है जैसे कि वह मेरी काफी घनिष्ठ हो या फिर मैं उसे बरसों से जानता हूं। जैसे कि हमारा मेलजोल, सम्बन्ध काफी पुराना हो चुका हो। जहां पहले वह कुछ हिचकिचा रही थी लेकिन अब संयत होकर बातचीत कर रही है। उसने नियमानुसार महाविद्यालय की पौषाक पहन रखी है। उस अप्रत्याशित बातचीत के बारे में मैंने कभी भी सोचा ही नहीं था केवल इच्छा ही रखा करता था। वह इच्छा इस प्रकार से यकायक पूरी हो जायेगी मैंने कभी सपने में भी नहीं सोचा था और वैसे भी किसी की इच्छा कभी कभार ही पूरी होती है। हमारी बातचीत का सिलसिला और आगे बढ़ पाता उससे पहले ही बस आकर स्टैण्ड पर रूक गई थी, न चाहते हुए भी बातों का क्रम बीच में ही तोडना पड़ा और हम तीनो को बस में सवार होना पड़ा था। वह अपनी कलास के दल के पास जा बैठी औ मैं अपने साथ आने जाने वाले दैनिक यात्रियों के पास। उस दिन के सफर में दुबारा उससे बातचीत नहीं हो पाई थी। पूरे सफर के दौरान मेरी निगाहों में उसका चेहरा घूमता रहा था। निगाहें बार बार उसी के चेहरे पर जाकर केन्द्रित हो जाती थी जैसे कि वहां पर कोई चुम्बक लगा हुआ हो जो बार बार मेरी निगाहों को अपनी तरफ खींच रहा हो।
दैनिक मुलाकातों के दौरान मैंने अपना परिचय देते हुए उसका नाम-धाम, पारिवारिक स्थिति आदि के बारे में सब कुछ जान लिया था। बिना किसी लाग-लपेट या संकोच के उसने मुझे सब कुछ बताने में कोई आपत्ति महसूस नहीं की थी। रोज रोज आपसी समस्याओं पर बातचीत का आदान-प्रदान होता रहा। किसी भी पराई स्त्री से बातचीत करने का वह मेरा प्रथम अवसर और अनुभव था। मैंने भी कभी कोई हिचकिचाहट या घबराहट महसूस नहीं की थी। पता नहीं ये कैसा अनाम रिश्ता है या मित्रता कि कभी वह बस स्टैण्ड पर दिखाई नहीं देती थ्ी तो मुझे भी एक अजीब सा खालीपन महसूस होने लगता, आंखों में उसकी तस्वीर रहती, उसी का रास्ता देखता रहता और प्रतिक्षा करता रहता। एैसा लगता जैसे कि कुछ खो सा गया हो। समझ में नहीं आता था कि ये कैसा अनाम सम्बन्ध है। लगता है जैसे कि उससे कोई लगाव सा हो गया है। विपरीत लिंग के प्रति ये कैसा आकर्षण है। उसे कभी एैसा महसूस हुआ या होता है कि नहीं यह मैं नहीं जानता लेकिन जो कुछ भी मै महसूस करता हूं वह प्यार है या कुछ और है यह केवल भगवान ही जानता है। यह एकतरफा मित्रता ही मेरे लिए एक सुनहरी खिड़की का रूप धारण करती जा रही है जो किसी और के घर का अभिन्न अंग है। उस घर की खिड़की की तरफ देखना, उसके बारे में सोचना, उसे पाने या अपने घर में लगाने की कल्पना करना या उसकी प्राप्ति की इच्छा करना ही तो अपनांे के साथ धोखा होता है, घर के साथ विश्वासघात होता है और समाज या कानून के साथ ठगी जो कि किसी को भी नहीं करनी चाहिए चाहे इसके विपरीत अपने घर की खिड़की कैसी भी क्यों न हो, चाहे वह लोहे या घटिया धातु की क्यों न बनी हुई हो। खिड़की तो खिडकी ही होती है चाहे वह सोने की हो या चांदी की। समय का प्रभाव हर खिड़की पर पड़ता है किसी पर कम तो किसी पर ज्यादा। किसी पर तुरन्त तो किसी पर देरी से। अप्रभावित कोई भी खिड़की नहीं रहती। एैसा ही खालीपन तब लगा करता था जब मेरी शादी सम्पन्न हुए कुछ ही समय व्यतीत हुआ था और वन्दना मेरे पास नहीं होती थी। मेरे घर की वही सुनहरी खिड़की अब जेल की लोहे के सलाखों जैसी हो चुकी है। मुझे उस समय बहुत आश्चर्य होता है जब पत्नियों का गृहस्थाश्रम बहुत जल्दी समाप्त होने लगता है और वे दुनियावी पति रूपी परमेश्वर को भुलाकर धार्मिक होकर मीराबाई बनकर गाने लगती है मेरेे तो गिरधर गोपाल दूसरों न कोई। वास्तव में जो पति उनके पास होता है उसे पहचानने से इनकार कर देती है और उस भगवान को जो निराकार है साकार नहीं है उसकी तलाश में जुट जाया करती है। मीरा बाई के भजन एैसी लागी लगन मीरा हो गई मगन वो तो घड़ी घड़ी हरि गुन गाने लगी गाकर अपनी जिंदगी व्यतीत कर देती है। या फिर वो गौतम ऋषि की पत्नि अहिल्या की तरह पत्थर की शिला जैसी हो जाती है। उसमें उमंग नाम की चीज नहीं रहती और पति देव उसकी उमंगो का इन्तजार करते करते सो जाया करते है। कई बार मैं परमपिता परमात्मा से विवश्ता की ईमानदारी से प्रार्थना करता हूं कि हे परमात्मा तू या तो मुझे उठा ले या इसे। कम से कम यह तो कहने लायक हो जाऐगा कि दोनो में से एक का जीवनसाथी नहीं है। हो कर भी ये क्या तीर मारती है। हो कर भी न होने जैसी। नहीं होगी तो कम से कम यह तो तसल्ली रहेगी कि बेचारा विधुर है। इसका होना या न होना एक बराबर है। ये तो अभी से अहिल्या बन गई है। न इसमें कोई उमंगा है न तरंग। केवल शिला है। बार बार इसे झंझोड़ने से क्या फायदा।
वन्दना की सिसकियों से लापरवाह, अनदेखा, अनसुना कर कई्र बार मुझे पराई और बाहर की महिलाओं में रूचि होने लगती है। बाहर की लोहे की खिडकी मुझे सुनहरी लगने लगती है। मैं लगातार सोचता ही रहता हूं कि शादी करने के बाद मुझे फायदा हुआ या नुक्सान। ये कभी कभी का नुक्सान ही तो व्यापार के तगड़े घाटे की तरह का है जो बरसों से जमे जमाये हुए व्यापार को एक ही झटके में बराबर कर देता है। किसी भी व्यापारी को पूरी उम्र सोचने और संभलने का मौका ही नहीं देता। सागर के ज्वारभाटे की तरह यह नुक्सान सब कुछ डुबो कर रख देता है।
यहां पर पत्नियों और बाहर की अन्य महिलाओं की तुलना मेैं विभिन्न प्रकार की खिडकियों से करने लग जाता हूं। ये पतियों के लिए कई प्रकार की खिडकियों के समान होने लग जाती है जिनमें से होकर रास्ता इनके दिलों को जाता है। ये रास्ता एक अंधेरी सुरंग की तरह है जिसमें प्रविष्ट होने के पश्चात आदमी न इधर का रहता है न उधर का। सुरंग में चलने के लिए महादेव की तरह तीसरी आंख का जुगाड करना पड़ता है, उसका उपयोग करना पड़ता है। ये सभी खिडकियां कई प्रकार की हो सकती है जैसे कि रेल की खिड़कियां, जेल की खिड़किया, खुली खिड़कियां, बन्द खिडकियां, छोटी खिडकियां, बड़ी खिडकियां, जालीदार खिडकियां, सैक्सन खिडकियां, सरियेदार विभाजित खिडकियां, लकड़ी की खिडकियां, पत्थर की खिडकियां, घरेलू खिडकियां, बाजारू खिडकियां, दुकान की खिडकियां, मिल की खिडकियां, कोठों की खिडकियां, स्कूलों की खिडकियां, भद्दी खिडकियां, रूचिकर खिडकियां, नीरस खिडकियां, बोर खिडकियां। इस सबमें से सर्वोत्तम खिडकियां है सुनहरी खिडकियां जिनके बारे में सोने का होने की कहानी प्रचलित है। वास्तव में ये वे कांच की खिडकियां है जो सूर्योदय/सूर्यास्त के समय पर सोने जैसा चमकती है, सुनहरी होने का भ्रम पैदा करती है। लोगों को लुभाती है। सत्यता से दूर किसी को भी दिगभ्रमित कर सकती है। सत्यता प्रकट होते ही आदमी कहीं का भी नहीं रहता।
शादी से पहले मुझे भी पूरा का पूरा ब्रह्माण्ड ही सोने का महल सा लगता था और तमाम खिडकियां सुनहरी। जिज्ञासा ही वह सूर्योदय या सूर्यास्त है जो बेकार से बेकार के कांच की खिडकियांे को सुनहरा बनाने का काम करती है, सुनहरा बना देती है और खिडकियां चमक चमक का सुनहरा होने का भ्रम पैदा करती रहती है। जैसे जैसे जिज्ञासा का सूर्यास्त होता जाता है, उत्सुकता समाप्त होती जाती है वैसे वैसे सुनहरी खिडकियों का राज भी खुलने लगती है। खिडकियों की असलियत सामने आने लगती है और पता चलता है कि जिन्हे हम आज तक सोने की खिड़की समझते रहे वह तो मात्र कांच है जो बाद में टुकड़े टुकड़े होकर दिल में उतर जाता है दिल को चीर देता है। चमकने वाली प्रत्येक वस्तु सोना नहीं होती केवल सोने का भ्रम ही पैदा करती रहती है। धोखा ही दे सकती है। दूर के ढोल सुहावने लगते है परन्तु जब कान के पास आकर बजते है तो कानों के पर्दे फाड़ देते है। खिडकियां फिर खिडकियां नहीं रहती केवल पत्थर हो जाती है जिन्हे एक ही मकान में लगाये रखना पड़ता है। उम्र भर ढोना पड़ता है।
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