सुनीतितत्वशिक्षा क्यों आवश्यक है / बालकृष्ण भट्ट
जैसा प्रकृति के नियमों के विरुद्ध चलने से विरुद्ध खान पान आदि से जल वायु कृत अनेक शारीरिक रोग पैदा होता है जो देर तक शरीर को क्लेश पहुँचाते हैं। वैसा ही सुनीतितत्वशिक्षा 'मारलटी' संबंधी नियमों के तोड़ने से भी रोग होते हैं पर यह रोग उस तरह का नहीं है जो शरीर को क्लेश दे या बाहरी निदानों से उसकी पहचान न की जा सके। देर तक शबनम में बैठे रहिये प्रकृति के नियम आपको न छोड़ेंगे जरूर सर्दी हो जायेगी, कई दिनों तक नाक बहा करेगी और विरुद्ध आचरण करते रहो ज्वर आ जायेगा, सरदर्द पैदा हो जायेगा पैदा हो जायेगा अठवारों पड़े-पड़े खटिया सेवते रहोगे। वैसा ही सुनीति विरुद्ध चलने से 'मारलला' आप को न छोड़ेंगे। कितनों को हौसला रहता है बुढ़ापे तक जवानी की ताकत न घटे इस लिये तरह-तरह के कुश्ते भाँत-भाँत के रस पौष्टिक औषधियाँ सेवन करते हैं। खूबसूरती बढ़ाने को खिजाब लगाते हैं पियर्स सोप गोल्डेन आईल काम में लाते हैं। सेरों लवेंडर तरह-तरह के इत्र मला करते हैं जिसमें सौन्दर्य और फैशन में कहीं से किसी तरह की त्रुटि न होने पावे। किन्तु इसका कहीं जिकिर भी न सुना कि सुनीतितत्व संबंधी सौंदर्य Moral beauty सुनीति के नियमों पर चलने का बल Moral Strength क्या है उसकी कैसे अपने में लायें या उसे कैसे बढ़ायें। जैसा सौन्दर्य और शारीरिक बल बढ़ाने की चिंता में लोग व्यग्र रहते हैं वैसा यह कहीं सुनने में आया कि हममें डाह, मात्सर्य, पैशून्य, जाल, फरेब, बेईमानी, लालच, द्रोह, बुद्धि किस अंदाज से है जितना अब है उसमें से कुछ कम हो सकता है और कितने दिनों की मेहनत में किस कदर कम हो सकेगा। हम समझते हैं जिस बात पर अपने पढ़ने वालों का ध्यान हम लाना चाहते हैं उसमें ऐसे ही कोई बिरले बड़े बुद्धिमान धनी मानी या प्रभुता वाले होंगे जिनको अपने 'मारल्स' सुनीति तत्व के सुधारने और बढ़ाने की कभी को कुछ चिंता हुई होगी। सब तो यों है कि वास्तविक सुख बिना इस पर ख्याल किये हो ही नहीं सकता। हमारे मारल्स बिगड़े रहें और उस दशा में वास्तविक सुख की आशा वैसा ही असंभव है जैसा बालू से तेल का निकालना असंभव है। वैभव प्रभुता या संसार की वे बातें तो इज्जत और मरतबा बढ़ाने वाली मान ली गई हैं जिनके लिये हड्डी के एक टुकड़े के वास्ते कुत्ते की भाँति हम ललचा रहे हैं वे सब उसको अति तुच्छ हैं जो अपने 'मारल्स' का बड़ा पक्का है। जो आनंद इसमें मिलता है वह उस सुख के समान नहीं है जैसा विषय वासना के सुख का क्रम देखा जाता है क्योंकि विषय वासना के सुख उसके लिये हौसला रखने वाले की पहुँच के भीतर हैं पर सुनीति तत्व संबंधी अलौकिक सुख हमारी पहुँच के बाहर हैं। लाखों इस सुख के शिखर तक चढ़ने का हौसला करते हैं पर कोई एक ही दो इसकी चोटी तक पहुँचता है। सुनीति तत्व के सिद्धांतों पर लक्ष्य किये और प्रतिक्षण अपने दैनिक जीवन में उसका पालन करते हुए बुद्धि के आंकुस से प्रेरित हो मनुष्य इस आनंद का अनुभव कर सकता है पर इन लोहे के चनों का चबाना सर्व साधारण के लिये सहज नहीं है किन्तु इसके अधिकारी वे ही हो सकते हैं जिनको उनकी झोपड़ी ही महल है। जिनकी आभ्यन्तरिक शांति की दशा का बड़ी-बड़ी बादशाहत भी मूल्य में कम है। जो अपने सिद्धांतों के बड़े पक्के हैं उनसे एक बार किसी ने पूछा-साहब आपको दुनिया में औकात बसरी का क्या सहारा है? जवाब दिया अकिल, आप लोग विषय वासना लंपट हो, दुनियाबी सुख की गुलामी के पीछे दौड़ रहे हो मैं उसी को अपना गुलाम किये हुये हूँ। तब यह पूछना ही व्यर्थ है कि आप को अपनी प्राणयात्रा 'औकात बसरी' का क्या सहारा है सच है-
आशाया: खलुयेदासास्ते दासा जगतामपि।
आशादासी कृतंयेन तेन दासी कृतं जगत्।।
अशीमहि वयं भिक्षा आशा वासों वसीमहि।
शयीमहि महीपुष्ठे कुर्बीमहि किमीश्वरै:।।
सुकरात, अफलातूँ, अरस्तू तथा अक्षपाद, कर्णादि, गौतम सरीखे दार्शनिक बुद्धिमानों के पास जो रत्न था और जिस सुख के घनानन्द का अनुभव उन्हें था वह उसे कहाँ जो धन संपत्ति तथा सांसारिक विषय वासना की जहरीली चिंता से अहर्निश पूर्ण रहता है।
जुलाई-अगस्त, 1896 ई.