सुनो मांडव / पंकज सुबीर
'और यहाँ से रूपमती रोज़ नर्मदा को देखती थी। उसके बाद ही वह खाना खाती थी।' समीर ने दूर इशारा करते हुए बताया। प्रिया ने देखा कि दूर धुंध और कुहासे में क्षितिज की सीमा रेखा पर नर्मदा की हल्की झाँई-सी दिख रही है। वैसी ही जैसी कि गूगल अर्थ से देखने पर दिखाई देती है। समीर और प्रिया रूपमती महल के छत पर बने मंडप में बैठे हैं। पर्यटकों की संख्या कम होने के कारण छत पर शांति छाई हुई है।
'और बाज बहादुर, वह क्या करता था उस समय?' प्रिया ने उसी प्रकार नर्मदा को देखते हुए प्रश्न किया।
'कहते हैं कि उस वक़्त वह अपने महल में बैठा रूपमती को देखता रहता था। जब रानी अपने मंडप में होती थी तो बाज बहादुर अपने महल के झरोखे से, रूपमती को देखता रहता था।' समीर ने उत्तर दिया।
'हूँ सुनने में तो बहुत अच्छा लग रहा है। पर क्या सचमुच ऐसा होता होगा। विश्वास नहीं होता इस सब पर।' प्रिया ने कहा।
'क्यों विश्वास नहीं होता, क्या है ऐसा जो तुमको अविश्वसनीय लग रहा है?' समीर की जगह पास ही मुंडेर से टिक कर खड़ी हुई एक पर्यटक महिला ने प्रश्न किया। किसी तीसरे को अपनी बातों में दखल देते देख दोनों सकपका गये। प्रश्न करने वाली एक तीस पैंतीस साल की युवती थी, जो उन दोनों से ज़रा-सा दूरी पर खड़ी होकर उनकी ही तरह दूर नज़र आ रही नर्मदा को निहार रही थी। समीर ने इधर उधर देखा, पूरी छत सूनी थी, उन तीनों के अलावा और कोई नहीं था।
'विश्वास इस पर ही नहीं हो रहा है कि क्या उस युद्ध के दौर में बाजबहादुर के पास इतना समय था कि वह बैठ कर रूपमती को प्रेम से निहारता रहे।' कुछ अनिच्छा से प्रिया ने उत्तर दिया।
'युद्ध के हर दौर में प्रेम अपनी जगह तलाश लेता है। बल्कि युद्ध के ही दौर में प्रेम पूरी शिद्दत के साथ अपने होने के प्रमाण देता है। प्रेम की आवश्यकता ही युद्ध के दौर में होती है, शांति के दौर में नहीं।' युवती ने कुछ मुस्कुराते हुए उत्तर दिया।
'प्रेम जैसा कुछ होता है सचमुच?' प्रिया ने पलट कर दूसरा प्रश्न किया।
'क्यों नहीं होता। तुम दोनों एकांत में यहाँ इस सूनी छत पर जिस कारण से खड़े हो वह क्या है। क्या वह प्रेम नहीं है।' युवती का स्वर संतुलित और सधा हुआ था।
'नहीं है। ये प्रेम नहीं है। ये केवल और केवल देह है। एकांत में केवल देह होती है प्रेम नहीं होता। जो एकांत तलाशती है वह देह होती है, जिसे हम प्रेम का नाम दे देते हैं।' प्रिया के स्वर में उसकी पूरी की पूरी ज़िद उतर आई है। समीर केवल श्रोता बना सुन रहा है। उसे पता है कि प्रिया से बहस करने को कोई मतलब है ही नहीं। प्रिया के उत्तर पर वह युवती मुस्कुराई और उसने अपनी सफेद बूटों वाली साड़ी का पल्लू कुछ सहेज कर कंधे पर रख लिया।
'हूँ...! तो यहाँ तुम दोनों को केवल देह ही तलाश ही लाई है। लेकिन देह की तलाश तो वहाँ, इन्दौर के उस हॉस्टल के सूने कमरे में भी पूरी हो जाती है, उसके लिये यहाँ इतनी दूर आने की क्या ज़रूरत है?' युवती के चेहरे की मुस्कुराहट कुछ और चौड़ी हो गई थी। युवती की बात पर दोनों चौंक पड़े।
'आपको कैसे मालूम है वह सब कुछ, आप हमें जानती हैं क्या?' प्रिया की आवाज़ में लरजिश घुली हुई थी।
'व्यक्तिगत रूप से तो नहीं, लेकिन हाँ तुम्हारी उम्र को, तुम्हारी पीढ़ी को अच्छी तरह से जानती हूँ। तुम लोग देह की बात करते हो और प्रेम की तलाश करते हो। अपने आप से झूठ बोलते हुए कि प्रेम व्रेम कुछ नहीं होता।' युवती गंभीर हो गई।
'और आप? आप क्यों आती हैं यहाँ?' प्रिया को कुछ न सूझा तो उसने प्रश्न किया।
'मैं, मैं माँडव से कहने आती हूँ कि सुनो माँडव, संभाल कर रखना इन पत्थरों को। इन पत्थरों को जिन्हें लोग रूपमती का महल और बाज बहादुर का महल कहते हैं। क्योंकि इन पत्थरों की बहुत ज़रूरत पड़ने वाली है आने वाले समय में। जब जवान देह से और बूढ़े युद्ध से थक जाएँगे तो बहुत ज़रूरत होगी प्रेम की। प्रेम जो इन पत्थरों पर स्पर्श की भाषा में लिखा है। तब यहीं आएँगे लोग इनको पढ़ने।' युवती की आवाज़ गहरी होती जा रही थी। युवती के चुप के बाद एक चुप छत पर फैल गई। शाम रानी रूपमती के महल के किनारों से उतर रही थी और रात के दामन में खोने की कोशिश कर रही थी। समीर और प्रिया चुपचाप खड़े रहे।
'प्रेम में देह भी होती है, लेकिन प्रेम में देह ही होती हो ऐसा भी नहीं है। हॉस्टल के उस अंधेरे कमरे में जो कुछ तुम तलाशते हो वह निसंदेह देह ही है, लेकिन जिसकी तलाश में तुम यहाँ तक आये हो वह प्रेम है। दोनों साथ-साथ चलते हैं।' युवती ने ही उस चुप को फिर से तोड़ा।
'आप कहाँ से आईं हैं?' प्रिया ने बात पलटने के लिये प्रश्न किया।
'मैं अभी तो सारंगपुर से आई हूँ। बहुत पहले यहीं माँडव में ही रहती थी। बहुत दिनों यहाँ रही मगर अब बहुत दिनों से वहीं हूँ सारंगपुर में। मगर जब भी जी करता है यहाँ चली आती हूँ। इन पत्थरों के बीच बैठना, यहाँ से नर्मदा को देखना बहुत अच्छा लगता है। जब भीड़ कम होती है तो यहाँ का सूनापन बातें करने लगता है।' प्रिया ने पहली बार ध्यान दिया कि युवती की आवाज़ घंटियों की तरह मीठी और मधुर है।
'चलें, रात होने वाली है।' समीर ने धीरे से कहा।
'हाँ...! हाँ चलो चलते हैं। अच्छा हम लोग चलेंगे अब रात हो रही है।' प्रिया ने उस युवती की ओर हल्की-सी मुस्कुराहट के साथ देखते हुए कहा।
'हाँ जाओ अब रात हो रही है।' युवती ने उत्तर दिया।
'आप नहीं चलेंगीं?' प्रिया ने पूछा।
'बस आती हूँ मैं भी, किसी का इंतज़ार है, वह आ जाये तो आती हूँ। तुम लोग चलो।' युवती ने उत्तर दिया। युवती के कहते ही वे दोनों मुड़े और सीढ़ियों की ओर बढ़ गये।
चुप चुप से दोनों सीढ़ियाँ उतर रहे थे। अचानक प्रिया रुकी और पलटी।
'क्या हुआ?' समीर ने पूछा।
'कुछ नहीं, आती हूँ।' कहती हुई प्रिया वापस छत की तरफ़ बढ़ गई। हैरान-सा समीर भी पीछे-पीछे बढ़ गया। छत पर शाम का हल्का धुँधलका बिछा था और कुछ भी नहीं था। पूरी छत सूनी पड़ी थी। दोनों तेज़ क़दमों से मंडप तक आये। धुँए की एक हल्की लकीर सरीखी महल की मुंडेर से क्षितिज के कुहासे तक फैली हुई थी, नर्मदा की दिशा में। मानो नर्मदा में कोई छोटी नदी आसमान से उतर कर समा रही हो। शाम के मौन में घंटियों-सी हल्की-हल्की आवाज़ मद्धम-मद्धम आ रही थी 'सुनो माँडव, संभाल कर रखना इन पत्थरों को'।