सुनो माधव / बलराम अग्रवाल
सेमिनार का पहला सत्र समाप्त हो चुका था। ज्यादातर श्रोता अपनी-अपनी सीट से उठकर हॉल से बाहर निकल आए। उनमें से कुछ लोग अपने घरों की ओर कूच कर गए तो कुछ इस इंतजार में कि शास्त्रीजी का एक बार और दर्शन करते जायँ, गलियारे में ही खड़े रह गए। संस्कृत-साहित्य के ऐसे अप्रतिम, अन्तर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त विद्वान को सुनना सौभाग्य की बात थी तो उन्हें निकट से देखना, उनसे हाथ मिलाना, चरण-स्पर्श करना उससे भी अधिक सौभाग्य और रोमांचपूर्णबात थी। इन सब से अलग कुछ ऐसे भी लोग थे जो शास्त्रीजी के ताजातरीन संभाषण पर विद्वतापूर्ण बहस में जुट गए थे—दो-दो, तीन-तीन, पाँच-पाँच के गुटों में खड़े होकर। एक गुट के कंठ से निकले शब्द दूसरे, तीसरे, चौथे, पाँचवें… गुट के शब्दों में घुलमिलकर चिख-चिख में बदल चुके थे। सत्र की सफलता से आह्लादित आयोजकों ने शास्त्रीजी के पारिश्रमिकस्वरूप यथेष्ट धन रखा लिफाफा उन्हें मंच पर ही ससम्मान पकड़ा दिया था। इस नगर तक आने-जाने का हवाई टिकट शास्त्रीजी को एक माह पहले कूरियर से मिल चुका था। उन्हें लिफाफा थमा देने के बाद आयोजकों ने उनकी ओर पीठ की और आगामी सत्र में मंच की शोभा बढ़ाने हेतु आमंत्रित विद्वज्जनों को मोबाइल भिड़ाना शुरू कर दिया था। यह कोई अप्रत्याशित व्यवहार नहीं था। शास्त्रीजी इसके अभ्यस्त थे। उन्होंने इसे अन्यथा नहीं लिया।
सेमिनार हॉल से निकलकर वे बाहर आए। घर न जाकर अथवा उधर-इधर खड़े होकर बहस में न उलझकर शास्त्रीजी की प्रतीक्षा कर रहे श्रद्धालु श्रोताओं में से कई ने आगे बढ़कर तो कई ने संकोच व श्रद्धा के मिलेजुले भाव के वशीभूत अपने स्थान पर खड़े-खड़े दूर से ही उन्हें अभिवादन किया। शास्त्रीजी ने यथायोग्य सभी के अभिवादन स्वीकारे, लेकिन उनमें से किसी के भी पास वे रुके नहीं। मन नहीं हुआ रुकने का। वे गलियारे से बाहर निकल आये। उन्हीं के वक्तव्य की पंक्तियों और शब्दों को लेकर शास्त्रार्थ में उलझे विद्वानों ने उनकी आमद को महसूस तो किया, लेकिन उन पर ध्यान देने की विशेष जरूरत उनमें से किसी ने महसूस नहीं की। उनकी ओर ध्यान देने की जरूरत वाले समय को वे हॉल के अन्दर ही गिरा-पड़ा छोड़ आए थे। विचारों का जो खजाना शास्त्रीजी सत्र के दौरान लुटा चुके थे, जब सिर्फ उतने को ही ग्रहण करने की ललक या सामर्थ्य उनमें नहीं थी तब मोटा-मोटा गोश्त गुद्दियों पर लादे फिरने वाले, शब्द और विचार से हीन वे गैंडे हॉल के बाहर उनसे किस बूते पर बतियाते! उनकी ओर लपकने से ज्यादा जरूरी उन्हें सत्र के दौरान सिर पर आ पड़े कुछेक शब्दों और विचारों से कुश्ती करना लग रहा था। उनमें से किसी ने भी शास्त्रीजी की ओर रुख नहीं किया।
बाहर चमकीली धूप थी। हल्की-हल्की हवा ने उसकी चुभन को गुनगुने अहसास में बदल दिया था। आसमान में, कहीं-कहीं साँवले-शेड वाली धुनी हुई सफेद-झक रुई से बने छोटे-बड़े कितने ही शेर-चीते-हाथी-घोड़े-भालू-भेड़िये और न जाने कौन-कौन-से पशु-पक्षी पश्चिम से पूरब की ओर तैरते जा रहे थे। पुरवा ने कब से नहीं छुआ, पछवाँ के आगे कौन इस बारे में सोचता है?
गलियारे को पार कर शास्त्रीजी हॉल के पिछले हिस्से की बियाबान-सी जगह की ओर निकल गए। पेशाब करने के लिए नहीं। कुछ पल एकांत में बिताने के लिए। यों, पार्किंग में टैक्सी खड़ी थी जिसे उनको एयरपोर्ट तक पहुँचाने के लिए आयोजकों द्वारा पहले से ही नियुक्त कर दिया गया था। लेकिन फ्लाइट से घंटों पहले एअरपोर्ट के शोरभरे वातावरण में जा घुसने की इच्छा नहीं हुई उनकी। घर के लिए निकलने से पहले दरअसल वे एकांत में बैठ लेना चाहते थे दो पल। मन के झंझावात को घर नहीं ले जाना चाहते थे।
विश्वविद्यालयों, महाविद्यालयों में अध्यापन का अवसर पा जाने, शिक्षा-कला-साहित्य एवं संस्कृति से जुड़ी संस्थाओं को अनुदान अनुमोदित कर सकने की क्षमता वाला ब्यूरोक्रेट बन जाने, ऐसे ब्यूरोक्रेट्स तक अपनी पहुँच बना लेने में सफल राजनीतिज्ञों, बापुओं, चाटुकारों की जमात में शामिल हो जाने की कलाकारी मात्र से विद्वान बन बैठे इतने लोग एक साथ उन्होंने पहली बार देखे हों, ऐसा नहीं था। बहुत से कार्यक्रमों में ऐसा देखने को मिलता रहा है; लेकिन आज पता नहीं क्यों मन क्षुब्ध अधिक हुआ। दस-बीस-पचास-सौ साधन-संपन्न मूर्खों के द्वारा आमंत्रित होकर, आने-जाने के हवाई-टिकट और पारिश्रमिकस्वरूप थोड़ी-सी धनराशि पाने मात्र से संतुष्ट हो उनके बीच मंच पर बैठकर, उन्हीं के हाथों विद्वता का पट्टा गले में लटकवाते रहना इस आयु में भी क्या उनकी गरिमा के अनुकूल है?—सोचते हुए वे चलते रहे।
एक पेड़ के नीचे पहुँचकर उन्होंने जूते उतार दिये। कन्धे पर लटके चौड़ी व लम्बी तनी वाले खादी के झोले को बायीं ओर रखकर वे सूखी घास पर बैठ गये। चाहते तो मोटे तने की टेक भी लगा सकते थे, लेकिन उस तरह बैठने की उन्होंने जरूरत नहीं समझी। हर जगह हर मुद्रा में नहीं बैठा जा सकता, इतना भी वे जानते-समझते ही थे। चेहरे से वे पूर्णत: शान्त और सहज लग रहे थे; बिल्कुल ऐसे, जैसे कि आज-सरीखे विद्वानों के बीच आने-बोलने का, मेधा की उपेक्षा से दो-चार होते रहने का उनको गहरा अनुभव हो।
“अगर आप खुद को डिस्टर्ब्ड महसूस न करें सर, तो क्या मैं दो मिनट आपके साथ बैठ सकता हूँ?” यहाँ बैठकर चैन की अभी पहली ही साँस उन्होंने ली थी कि गलियारा पार कर पेड़ की छाँह के एकदम किनारे पर आ खड़े हुए नई उम्र के एक लड़के ने उनसे पूछा।
उन्होंने निगाहें उठाकर देखा। बिना पूछे पास न आ बैठने और अनुमति मिलते तक खड़े-खड़े ही प्रतीक्षा करने की उसकी शालीनता कुछ समय पहले ही संस्कारहीनता के खिलाफ उनके मन में खड़ी हो गई काँच की परत पर जैसे हलके-से टकराई। छुए जाने पर वीणा के तार जैसे संगीत की तरंगें उन्पन्न कर देते हैं, मन और मस्तिष्क में वैसी ही संगीति इस टकराहट ने उत्पन्न की। अनायास ही हलकी-सी मुस्कराहट उनकी आँखों में फैल गई। मुँह से कुछ भी बोले बगैर उन्होंने दायीं हथेली से अपने निकट की जमीन को थपथपाकर उसे वहाँ आ बैठने का इशारा कर दिया।
“धन्यवाद सर।” वहाँ बैठते हुए युवक बोला।
पूर्ववत् मुस्कान से ही उन्होंने उसके धन्यवाद को स्वीकारा।
“मेरा नाम माधव है सर।” बैठ जाने के बाद उसने बताया,“पत्रकारिता में स्नातकोत्तर डिग्री प्राप्त की है। स्वतंत्र पत्रकार हूँ। अनुमति दें तो…मैं आपसे…।”
“श्श्…साथ बैठने की अनुमति चाही थी आपने।” शास्त्रीजी ने तुरन्त उसको टोका,“बातचीत की नहीं।”
“प्लीज सर,” वह गिड़गिड़ाया,“पाँच मिनट…केवल।”
“बैठने से पहले तो दो मिनट कहा था!” शास्त्रीजी मुस्कराए।
“छठा प्रश्न नहीं करूँगा…प्रॉमिस।” वह हाथ जोड़कर बोला।
“किस विषय से संबंधित?” बेमन से उन्होंने पूछा।
“आपके साहित्यिक जीवन और कृतित्व से संबंधित…उससे अलग और कुछ भी नहीं।”
उसकी बात पर वे एक पल को मौन रह गए। जिस उद्देश्य से वे यहाँ आकर बैठे थे, वह व्यर्थ होता जान पड़ा। जीवन और कृतित्व पर अब से पहले कई साहित्यकार और पत्रकार उनसे बातचीत कर प्रकाशित करा चुके हैं। वही घिसे-पिटे प्रश्न और बार-बार उनके एक-जैसे ही उत्तर दोहराना क्या स्व-प्रचार से अलग कुछ और है? एक ही जैसे प्रश्नों के चलते साक्षात्कार-जैसे विषय से ही उन्हें वितृष्णा हो गई है। तथाकथित विद्वत्वर्ग के खिलाफ खड़ी काँच की परत, थोड़ी देर पहले ही जिसने संगीति उत्पन्न की थी, पुन: अवसाद की ओस में घिरने-सी लगी। लेकिन इस नौजवान की शालीन प्रकृति ने उन पर कुछ ऐसा प्रभाव डाला कि अवसाद की इस ओस को उन्होंने गहरी-सी एक साँस लेकर चीर-सा डाला। फिर एक-और गहरी साँस लेकर होठों ही होठों में बुदबुदाए—ॐ विश्वानिदेव सवितुर्दुरितानि परासुव, यद्भद्रं तन्नासुव; तत्पश्चात उससे बोले,“पूछो, लेकिन एक बात का ध्यान रहे—प्रश्न…लीक से किंचित हटे हुए सीधे-सहज होने चाहिएँ, विद्वता से भरे नहीं। विद्वता से भरे किसी भी प्रश्न का उत्तर मैं नहीं दूँगा और उसे तुम दोहराओगे भी नहीं।”
“जी।” उसने हामी भरी।
“एक बात और…”
“जी!”
“छठा प्रश्न नहीं।”
“जी…शुरू करें?”
“हाँ।”
“पिछले लगभग पचास वर्षों से आप लगातार कुछ न कुछ लिखते आ रहे हैं। इन पचास वर्षों में लेखनी से आपने क्या कमाया?” उसने पहला प्रश्न किया।
“बहुत कुछ।” कहने के साथ ही वे उछलकर हवा में बहुत-ऊपर तैरते जा रहे रुई के एक बड़े-से शेर पर जा सवार हुए। फिर गाय की पीठ की तरह उसको सहलाते हुए बोले,“आदर और सम्मान देने-दिलाने वाले अनुपम मित्र मुझे लेखनी की कृपा सेही मिले।” यह कहते-कहते उन्होंने महसूस किया कि वे अब शेर या गाय पर नहीं, हाथी की पीठ पर बैठे हिचकोले खा रहे हैं।
“अपना अधिकांश समय आपने लेखन को समर्पित किया है; लेकिन देखा जा रहा है कि पिछले कुछ वर्षों से एक वक्ता के तौर पर भी आप सामने आ रहे हैं।” उसने आगे पूछा,“जान सकता हूँ कि वाणी ने आपको क्या दिया?”
“वाणी ने!…” यह प्रश्न सुनते ही उन्हें लगा कि आदर और सम्मान की अनुभूति देने वाला उनका वाहन बड़ी तेजी से एक मरियल कुत्ते में तब्दील होकर बिना किसी आवाज़ के उनके नीचे से निकल भागा है और वे आकाश से सीधे पृथ्वी पर आ पड़े हैं। उनकी उँगलियाँ अनजाने ही जमीन पर छितरी-सी लगभग सूख चुकी घास में घूमने लगीं। दरअसल, इस सेमिनार की समाप्ति के तुरन्त बाद ही उपस्थितों में से कई-एक ने उनके वक्तव्य में अपना नाम न सुन पाने या गलत उद्धृत करने पर नाराजगी जताई थी। बेहद कड़वे अन्दाज़ में शास्त्रीजी से उन लोगों ने पूछा था कि उनके आने-जाने-खाने-ठहरने पर इतना धन व्यय करने का प्रतिदान उन्होंने आखिर क्या दिया? विद्वता और आयु के कारण आदर की बात अगर भुला भी दी जाय तो आमन्त्रित अतिथि के रूप में औपचारिक सम्मान के अधिकारी तो वह थे ही। इसको भी भुलाकर वे लोग उनसे दूर हॉल के दूसरे छोर पर जा खड़े हुए थे। लेखनी ने जो अब तक उन्हें दिया था, आज वाणी ने उनसे छीन लिया था,शायद। वे सोचते रहे। उँगलियाँ स्वचालित-सी सूखी घास में घूमती रहीं, पूर्ववत्।
“क्षमा करना सर,” उन्हें चुप पाकर वह आगे बोला,“अगर मैं भूल नहीं रहा हूँ तो—कोई आपको न बोलने, आम तौर पर चुप रहने का, परामर्श देता रहता है—आपका ऐसा वक्तव्य मैंने कहीं पढ़ा या सुना है।”
“ठीक कह रहे है।”
“तो…उस सलाह पर आपने अमल किया?” अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए वह बोला,“नहीं—तो क्यों? हाँ—तो कितना?”
हवा अब रुक-सी गई थी। सारे के सारे जानवर रुई के ढेरों में बदल गए थे और बमुश्किल ही आगे को सरक पा रहे थे। धूप चुभने-सी लगी थी।
“ऐसे परामर्श…ऐसी सलाह पर…” इन प्रश्नों के उत्तर देने में अपने-आप को दुविधा की स्थिति में महसूसते-से उन्होंने अटक-अटककर बोलना शुरू किया,“पूरी तरह अमल कर पाना…मैं समझता हूँ कि किसी भी ऐसे आदमी के लिए असम्भव है जो रचनाशीलता से जुड़ा हो। इसलिए…”
“आज के अपमानजनक हादसे के बाद…क्षमा करना सर, उन क्षणों में मैं वहीं उपस्थित था…मैं समझता हूँ कि, आप अपने-आप को मंचों-सेमिनारों में वक्तव्य देने से यानी कि वाणी की दुनिया से पीछे हटा लेने का मन बना चुके होंगे।” वह शातिर-अंदाज़ में बोला,“अन्यथा, मुझे लगता है कि आप अपने अधिकतर मित्रों, हितैषियों और प्रशंसकों को खो देंगे।”
उन्होंने उसके इस अन्दाज़ को तुरन्त पहचाना। नजरें उठाकर एक पल उसकी ओर निहारा। उन्हें लगा कि प्रकृतित: शालीन न होकर यह युवक छद्मत: शालीन है। यह उनके आज के वक्तव्य में अपना नाम न सुनकर लगे-हाथ उनका अपमान कर भाग खड़े होनेवाले विद्वत्वर्ग द्वारा ही भेजा गया है जो इस साक्षात्कार के माध्यम से उनके साहसपूर्ण वक्तृत्व और नीर-क्षीर विवेक को चुनौती दे रहा है। दूसरे शब्दों में कहा जाय तो—परोक्षत: धमकी दे रहा है! वे थोड़ा सँभलकर बैठ गए। उन्होंने महसूस किया कि कुछ समय पहले जिस मानसिक-तनाव से वे गुजर रहे थे, उससे मुक्त हो जाने का अवसर अनायास ही इस युवक ने उन्हें दे दिया है। पछवाँ एकाएक ही जैसे मनभावन पुरवा में बदलने लगी। रोमछिद्रों में शीतलता का आभास होने लगा। कुछ समय तक वे उसके चेहरे को ताकते रहे, फिर एकदम ठोस आवाज़ में उससे बोले,“हाँ, प्रथम दृष्ट्या तो ऐसा लगना स्वाभाविक-सी बात है। कुछेक शक्ति-सम्पन्नों के दबाव में वाणी को शांत कर लेने की विवशता से इंकार नहीं किया जा सकता। लेकिन माधव… मैं लेखनी की दुनिया का आदमी हूँ। कल को वाणी जैसी ही आपत्ति कोई व्यक्ति अगर मेरी लेखनी पर भी दर्ज कराने लगा तो?…नहीं, मैं लेखनी को तो विश्राम नही दे सकता न!…और अगर ऐसा है, तो तुमविश्वास करो—मैं वाणी को भी अपने ही ढंग से जिऊँगा। बस।”