सुनो रेचल! सुनो / नीरजा हेमेन्द्र
शाम अत्यन्त मोहक हो रही थी। नभ में उन्मुक्त उड़ती चिड़ियों की चहचहाहट से दिशायं गुजायमान हो रही थीं। क्षितिज स्वर्ण रश्मियों से भर गया था। मार्च माह की बसंती बयार पूरी सृश्टि पर मानो मादकता का संचार कर रही थी। मैं आज भी विश्वविद्यालय के प्रांगण में पलाश की घनी छाँव में बेंच पर बैठ कर उसकी प्रतीक्षा कर रहा था। तो क्या वह आज भी नही आयेगी? मेरे मन में अनेक आशंकायें उठ रही थीं। कल भी मैंने यहीं बैठ कर उसकी प्रतीक्षा की थी। आज भी यहाँ बैठा हूँ। विगत् दो दिनों से मैं यहाँ बैठ कर उसकी प्रतीक्षा कर रहा हूँ। हर बार निराश हो कर घर चला जाता हूँ। उसे एक दृश्टि देख लेने भर के लिए हृदय व्याकुल हो रहा है। चार बज रहे हैं। इस विश्वविद्यालय की अधिकांश कक्षायें समाप्त हो चुकी हैं। अधिकतर विद्यार्थी विश्वविद्यालय के प्रांगण से जा चुके थे। कुछेक सांध्य कक्षायें चल रही हैं। उनमें पढ़ने वाले इक्का-दुक्का विद्यार्थी ही यहाँ दिख रहे हैं। वृक्षों की परछाँइयाँ लम्बी होने लगी हैं। पत्तों पर साँझ अपने पंख फैलाने लगी है। उसकी प्रतीक्षा करते-करते मेरे पूरे वजूद में निराशा फैलने लगी है। मैं धीरे से उठकर आसमान की ओर देख एक गहरी साँस लेकर तथा सुस्त कदमों से वाहन पार्किंग की ओर बढ़ने लगा हूँ। साथ ही मैं सोचता जा रहा हूँ कि मुझसे कौन-सी ऐसी त्रुटि हो गयी है कि वह दो दिनों से यहाँ नही आयी।
स्टैण्ड से बाइक निकालने के लिए मैं मुड़ा ही था कि सहसा किसी ने पीछे से मेरे कंधे पर हाथ रखा। मुझे समझते देर न लगी, कि यह स्पर्श रेचल का है। मैंने पलट कर देखा। मेरे सामने रेचल खड़ी थी। जिसकी मैं विगत् दो दिनों से प्रतीक्षा कर रहा था। मुझे विश्वास नही हो रहा था कि ऊपर वाला मुझ पर इतना शीघ्र दयालु हो सकता है?
“तुम कहाँ थी रेचल? “पलटते ही मैने तुरन्त उससे पूछा।
“मैं... .? मैं कहाँ थी? मुझे नही पता। कहीं मैं तुम्हारे हृदय तो नही थी। “उसकी बातों में व्यंग्य था... तल्खी थी। कारण मैं समझ नही पा रहा था। चुप रहा।
जो भी हो। इस समय मेरा बोझिल होता हुआ हृदय हल्का हो गया था। मेरी सम्पूर्ण व्याकुलता जाती रही। मैं स्टैण्ड से बाइक निकालना छोड़कर उसके साथ बाहर आ गया। उसके साथ मैं चलता रहा। वो मेरे साथ चलती रही। हम उसी स्थान पर आ गये जहाँ अब से कुछ समय पूर्व अकेला बैठा मैं उसकी प्रतीक्षा कर रहा था। रेचल और मैं दोनों उसी बैंच पर बैठ गये।
“कहाँ थी तुम दो दिनों तक? “मैंने पुनः उससे पूछा।
“क्या मैं तुम्हारे पास नही थी? “रेचल की बात सुन कर मैं उसकी ओर देखता रह गया। उसकी बातों में व्यंग्य व पीड़ा थी। वह मुझे कुछ उदिग्न भी लगी। कारण मैं समझ नही पा रहा हूँ। मेरे बार-बार पूछने पर भी वह कुछ बताने को तैयार नही है। रेचल मेरे साथ बैंच पर बैठी अवश्य थी। किन्तु वह खामोश बैठी जमीन की ओर देख रही थी। मैं रेचल से प्रेम करता हूँ तथा यह भी जानता हूँ कि रेचल भी मुझसे प्रेम करती है। किन्तु उसने आज तक अपने प्रेम को शब्दों के माध्यम से व्यक्त नही किया है।
“क्या तुम मेरे पास रहने को तैयार हो। “मैंने उसी के प्रश्नों में अपने प्रश्न का उत्तर पाना चाहा। वह चुप थी।
“अब तुम चुप क्यों हो?
“किस मामले में चुप हूँ? और क्यों ?”
“ क्या तुम मेरे साथ रहने के लिए तैयार हो। बनोगी तुम मेरी जीवन साथी। मुझे मेरी इस बात का उत्तर चाहिए। “मैं आज रेचल से उसके प्रेम की अभिव्यक्ति शब्दों के माध्यम से चाह रहा था। दोनों के मध्य कुछ देर तक सन्नाटा गया।
“मैं अब आगे की पढ़ाई नही कर पाऊँगी। मैं सदा के लिए यहाँ से दूर जा रही हूँ। “मैं सन्न रह गया रेचल की बात सुन कर। मैंने यह कभी नही सोचा था कि मेरे प्रेम की अभिव्यक्ति का यह प्रत्युत्तर हो सकता है? मुझे ऐसी अनुभूति होने लगी जैसे मेरा शरीर निर्जीव होता चला जा रहा था। कहीं रेचल मुझसे परिहास तो नही कर रही है?
“कहाँ जा रही हो तुम यहाँ से ? “मैंने अधीर होते हुए कहा।
रेचल ने कुछ न कहा। वह भूमि की ओर देखती रही पूर्ववत्। सहसा रेचल खड़ी हो गयी और जाने लगी। मैं हत्प्रभ था। वह चन्द कदम ही दूर गयी होगी कि मैं शीघ्रता से उसके पास गया। उसे इस प्रकार नाराज हो कर कैसे जाने दे सकता था मैं? उसे इस नाराजगी का कुछ तो कारण बताना होगा।
“सुनो रेचल! सुनो। बात क्या है? कुछ तो बताओ? “वह रूक गयी सहसा मेरी ओर पलट कर बोली, “तुम्हें....? तुमसे क्या बताऊँ मैं आर्यन भारद्वाज?
उसकी बातों से मुझे आभास हो गया था कि वह रूश्ट है मुझसे। किन्तु क्यों? कुछ ज्ञात तो हो?
उसकी नाराजगी का कारण मैं क्यों? यह सोच कर मैं व्याकुल हो गया।
“रेचल मुझे बताओ, बात क्या है? तुम रूश्ट हो क्या मुझसे?”
“तुमसे....? कतई नही। मैं तुमसे रूश्ट क्यों होऊंगी? “रेचल ने बेरूखी भरा उत्तर दिया। अब मुझे जानना और भी आवश्यक हो गया था कि अन्ततः बात क्या है?
मैंने रेचल का हाथ पकड़ने के लिए अपना हाथ बढ़ाया ही था कि वो अपना हाथ दूर हटाते हुए स्वंय भी दो कदम पीछे हट गयी।
“मुझे जाने दो। “कहते हुए रेचल आगे बढ़ गयी।
मैं जड़-सा वहीं खड़ा रह गया। रेचल चली जा रही थी। लम्बी, साँवली, इकहरे शरीर की, आकर्शक रेचल के कंधे पर फैले छोटे घुँघराले बाल हवा में लहरा रहे थे। उसकी चाल तीव्र थी जिसे रोक पाना कदाचित् सरल नही था। अतः मैं वहीं खड़ा उसे जाते हुए देखता रहा। वह कुछ दूर खड़ी अपनी स्कूटी की ओर बढ़ती जा रही थी। चन्द क्षणों में उसने स्कूटी स्टार्ट की और गेट के बाहर निकल गयी।
मैं कुछ देर तक खड़ा सोचता रहा कि अखिर ऐसा क्या हुआ कि वह दो दिनों से मेरा फोन नही उठा रही थी। आज आयी और बिना कारण बताये मुझसे रूश्ट हो कर चली गयी। मै स्वंय को संयत नही कर पा रहा था। पुनः उसी बेंच पर आ कर बैठ गया। मुझे वो दिन स्मरण आने लगे जब इस विश्वविद्यासलय में मैंने प्रथम बार बार रेचल को देखा था। उस वर्श उसने स्नातक प्रथम वर्श में प्रवेश लिया था। मैं स्नातक द्वितीय वर्श का छात्र था। साँवली- सलोनी-सी रेचल के आकर्शण में मैं प्रथम दिन से ही स्वंय को बँधा हुआ अनुभव करने लगा। मैंने ही सर्वप्रथम उसकी ओर मित्रता का हाथ बढ़ाया था। शर्मिली-सी रेचल शनै-शनै संकोच के साथ मुझसे थोड़ी-थोड़ी बातें करने लगी थी। प्रारम्भ में वह मेरी किसी बात का उत्तर नही देती थी। मात्र मुस्करा देती। मैं उसकी सादगी और सौन्दर्य की ओर आकर्शित होता चला गया। चार वर्श हो गये रेचल को मेरे जीवन में आये हुए। वह मेरी साँसों में रच-बस चुकी है। रेचल के बिना अपने जीवन की कल्पना मैं नही कर सकता। मुझे स्मरण है हमारी मित्रता के प्रारम्भिक दिनों की जब रेचल ने मुझसे मेरा नाम पूछा था-
“आर्यन भारद्वाज नाम है मेरा। “वह मुस्करा पड़ी। उसे मेरा नाम अच्छा लगा।
उसने भारद्वाज का अर्थ पूछा। मेरे यह बताने पर कि भारद्वाज हिन्दू ब्राह्नमण का एक वर्ग होता है, वह खामोश हो गयी। मैं जानता था कि वह ईसाई समुदाय से सम्बन्ध रखती है, अतः हिन्दू धर्म व उसके जातीय वर्गीकरण के विशय में उसकी अल्प जानकारी स्वाभाविक है।
रेचल लखनऊ के एक ईसाई बाहुल्य कालोनी में रहती थी। मैं रेचल के घर तो कभी नही गया किन्तु उसकी कॉलोनी में अनेक बार उसके साथ घूमा था। शहर के शोर -शराबे से दूर वहाँ का वातावरण अपेक्षाकृत शान्त था। वहाँ एक बड़ा-सा प्राचीन चर्च था जिसके प्रांगण में एक अनाथाश्रम व एक छोटा-सा अस्पताल था। मुझे वह कॉलोनी बहुत अच्छी लगती थी, कारण शहर के कोलाहल से दूर हरे-भरे वातावरण में थी, जिसकी जिसकी शान्त सड़कों पर मैं रेचल के साथ यदाकदा विचरण करता था। प्रत्येक ऋतुयें हमारे प्रेम की साक्षी थीं। ग्रीश्म की धूप-छाँव हो या वसंत मिश्रित पतझर, सावन के श्यामल बादलों के रिमझिम फुहार या जाड़े की गुनगुनी धूप रेचल ऋतुओं के साथ मेरे अस्तित्व में समाहित होती गयी।
दो दिनों पूर्व रेचल कॉलेज आयी थी। हमेशा की तरह उस दिन भी प्रसन्न थी। मुझसे बातें करती रही । पुस्तकालय में बैठ कर पुस्तकें पढ़ती रही। ओस भीगा अनछुआ-सा सौन्दर्य उसके चेहरे पर उस दिन भी विद्यमान था। कंधे तक लहराते बाल उसके सौन्दर्य को और भी बढ़ा रहे थे। मैं और वो साथ-साथ विश्वविद्यालय के वाहन स्टैण्ड तक आये। उस दिन वह अपनी पसन्दीदा नीली जीन्स व ब्राइट कुर्ती पहने हुए थी। दो दिनों में ही ऐसा क्या हुआ कि हमारे जीवन की राहें परिवर्तित होती दिख रही हैं। मैं घर आ गया। रेचल की स्मृतियाँ हृदय में लिए हुए किसी प्रकार रात व्यतीत हुई।
देर रात तक मैं रेचल के बारे में ही सोचता रहा। नेत्रों से निद्रा मीलों दूर थी। मैंने फोन पर रेचल से बात करनी चाही किन्तु उसने फोन नही उठाया। मेरे मन में यह विचार आया कि रेचल के घर जा कर उससे पूछूँ कि, ऐसा क्या हो गया? वह निश्ठुर क्यों हो गयी? “मैंने निश्चय किया रेचल से उसके घर जाकर उससे मिलने का। मैं सुबह होने की प्रतीक्षा करने लगा।
दूसरे दिन मैं रेचल के घर गया। वो एक पुराना बंगला था। कदाचित् अंग्रजों के समय का रहा होगा। घर के बाहर लगे लोहे के गेट में भीतर से लगे ताले को देख कर मैंने अनुमान लगाया कि घर के लोग अन्दर हैं। बाइक किनारे खड़ी कर मैंने गेट खटखटाया। घर के अन्दर से एक अधेड़ उम्र की महिला बाहर आती दिखायी दीं। लम्बा गाउन पहने हुए उस महिला के बालों में स्कार्फ़ बँधा था।
मेरे समीप आते ही उन्होंने पूछा, “किससे मिलना है? “उन भद्र महिला के चेहरे पर व्याकुलता स्पश्ट थी।
“जी, रेचल से। “मैंनेअभिवादन करते हुए कहा।
अब उनका चेहरा कठोर हो चुका था। मेरे अभिवादन का उत्तर दिये बिना ही उन्होंने अनेक प्रश्नों की झड़ी लगा दी। “क्या काम है रेचल से? तुम रेचल को कैसे जानते हो? कहाँ से आये हो?”
“जी... जी रेचल मेरे साथ विश्वविद्यालय में पढ़ती है। “मैंने कहा।
“तो? साथ में पढ़ने का क्या मतलब है? “उनका चेहरा अैर कठोर हो गया।
“मुझे रेचल से कुछ बात करनी है। उसे बुला दीजिए। “मैंने विनम्रतापूर्वक कहा।
“कौन हो तुम? मैं तुम्हारे कहने से रेचल को कैसे बुला दूँ? “उन्होंने अब तक गेट नही खोला था। हमारी बातों के मध्य लोहे का बन्द गेट ज्यों का त्यों था।
“मुझे बताओ! उससे काम क्या है? उससे क्या बात करनी है? मैं उसकी आण्टी हूँ “उन्होंने उसी शुश्क व कठोर लहजे में कहा।
मैं उनकी बातों का उत्तर रेचल से पूछे बिना कैसे दे सकता था। अतः चुप रहना ही सही समझा। मन ही मन सोच रहा था कि क्या मुझे आज रेचल से मिले बिना ही वापस जाना होगा? मैं निराशा के गर्त में डूबता जा रहा था। मेरा आज रेचल से बात करना अनिवार्य है। किन्तु उसकी आण्टी मुझे ग़लत व्यक्ति समझ उससे मिलने नही दे रही हैं। सहसा मुझे बंगले के बरामदे में रेचल आती दिखाई दी। कदाचित घर के अन्दर से उसने मेरी व आण्टी के मध्य होने वाली बातचीत सुन ली थी। मेरा स्वर भी उसने अवश्य पहचान लिया होगा। रेचल को आता देख मेरे चेहरे पर मुस्कराहट फैल गयी। उसने आकर गेट का ताला खोला और अन्दर आने का संकेत किया। मैं रेचल के पीछे-पीछे डाªइंगरूम में आ गया और सोफे पर बैठ गया। उसकी आण्टी हमारे साथ ही भीतर आयीं और वो भी साफे पर बैठ गयी थीं। कुछ देर पूर्व कठोर हो चुका आण्टी का चेहरा अभी तक वैसा ही था। रेचल असमंजस की स्थिति में ड्राइंग रूम में खड़ी थी।
“क्या हुआ? तुम मेरा फोन क्यों नही उठा रही हो? मुझसे रूश्ट हो क्या? “मैंने रेचल कर तरफ देखते हुए कहा। रेचल चुप रही। उसका चेहरा भाव शून्य हो रहा था।
“क्या कहूँ मैं तुमसे? मेरे पापा हास्पिटल में हैं। तुम नही समझ सकते हमारी पीड़ा। “रेचल रूआँसी हो रही थी।
आण्टी कमरे से जा चुकी थीं। अतः मैं रेचल से स्पश्ट पूछ सकता था।
“तुझे बताओ रेचल! मैं जानना चाहता हूँ। “मैंने कहा।
“मेरे पापा एक पिछड़े गाँव के चर्च में पादरी हैं। बेसहारा लोगों के लिए अनाथाश्रम भी चलाते हैं। दो दिनों पूर्व उन पर कुछ लागों ने लाठी, डडों, हथियारों से हमला कर उन्हें जान से मरने का प्रयत्न किया। वे अस्पताल में जीवन और मृत्यु के साथ संघर्श कर रहे हैं। मेरी माँ उनके पास गयी हैं। मैं आण्टी के साथ अकेली यहाँ हूँ। “कहते-कहते रेचल रो पड़ी।
मैं सन्न था, रेचल की बातें सुन कर। मुझे रेचल ने कभी बताया था कि उसके पापा किसी आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र के चर्च में पादरी हैं। जहाँ वे ग़रीबों व वृद्ध लोगों के लिए अनाथाश्रम भी चलाते हैं।
“जानते हो उन पर हमले कारण क्या था? “मुझे चुप देख रेचल ने कहा।
“क्यों? उन पर क्यों हमला किया गया? “मुझे जानने की चिन्ता व उत्सुकता हो रही थी।
“धर्म के ठेकेदारों ने... .कट्टर मानसिकता वालों ने.... उन पर हमला किया। “ रेचल का गला पुनः भर आया।
रेचल की बातें सुनकर मैं कुछ भी बोलने में स्वंय को असमर्थ पा रहा था। कमरे में एक अजीब-सा घुटन भरा सन्नाटा छा गया।
मैं अपने प्रेम की तलाश में यहाँ आया था। इन दुरूह मार्गों से होते हुए अपना प्रेम पा लेने की ही मेरी इच्छा है और कुछ नही। रेचल के परिवार पर आयी इस विपदा से मैं अन्दर तक हिला हुआ महसूस कर रहा था।
मेरे प्रेम के मार्ग में धर्म किसी प्रकार का अवरोध उत्पन्न न कर दे, इससे पूर्व मैं रेचल से अपने हृदय की बात बता देना चाहता हूँ।
“मैं तुमसे विवाह करना करना चाहता हूँ रेचल। “मैंने दृढ़ता से कहा।
“तुम मुझसे विवाह कैसे कर सकते हो? मेरे पिता व उनके सहयोगियों को धर्मान्ध लोगो ने मारा है। तुम्हारा व मेरा विवाह ये लोग कैसे होने दे सकते है? तुम मुझे भूल जाओ आर्यन! यहाँ से चले जाओ। “कहते-कहते रेचल की आँखें भर आयीं। उसने चेहरे को दूसरी ओर घुमा कर अश्रुओं को छुपाना चाहा। इतनी देर में उसकी आण्टी ने ड्राइंग रूम में प्रवेश किया। कदाचित् उन्होंने मेरे व रेचल के मध्य होने वाली बातचीत सुन ली थी।
“क्या बात है बेटा? “उन्होंने रेचल से मुखातिब होते हुए पूछा।
“मैं रेचल से विवाह करना चाहता हूँ। “मैंने रेचल की मुश्किल आसान करते हुए आण्टी से कहा।
“किन्तु रेचल ने तो तुम्हारे बारे में कभी भी हमें नही बताया? “आण्टी का चेहरा पुनः कठोर हो गया।
“मैं रेचल से प्रेम करता हूँ। कदाचित् वह भी मुझसे। “मैंने अपना व अपने परिवार का परिचय देते हुए आण्टी से कहा। आण्टी को मुझसे इस प्रकार स्पश्ट कथन की आशा न थी।
“क्या..? क्या कह रहे हो तुम? “मेरी बात सुन कर आण्टी से अधिक रेचल चौंक गयी। वह भौंचक-सी मेरी तरफ देख रही थी।
“रेचल ने तो अब से पहले तुम्हारे बारे में नही कहा। “उन्होंने पुनः कहा।
रेचल अब तक खामोश थी।
“हमारा व तुम्हारा धर्म अलग है। तुम हिन्दू हो और ऊपर से ब्राह्नमण। तुम्हारा घर, तुम्हारा समाज रेचल को क्यों स्वीकार करेगा? हमारा समाज भी ऐसा नही चाहेगा। “आण्टी ने कहा।
“मैं अपने माता-पिता को समझा लूँगा। वे दकियानूसी विचारों के नही हैं। “मैंने आण्टी को समझाते हुए कहा।
“रेचल तुमसे विवाह नही कर सकती। हम उसका विवाह तुमसे नही कर सकते। “आण्टी का सीधा-स्पश्ट उत्तर कर मैं हताशा व निराशा का अनुभव कर रहा था। आण्टी अपना निर्णय सुना कर पुनः घर के भीतर चली गयी थीं। रेचल मेरे समझ सोफे पर बैठी थी। प्रातः की अनछुई ओस की भाँति निश्छल रहने वाला उसका सुन्दर चेहरा इस समय निराशा के बादलों से ढँका प्रतीत हो रहा था। मैं उसके दुखों को दूर करना चाहता था। किन्तु कैसे?.... कैसे मैं उसे समझाऊँ? मुझे भय था कि इन दुरूह परिस्थितियों में वह मेरी बात समझ भी पायेगी या नही? फिर भी रेचल से बात तो करनी ही होगी। उसके बिना अपने जीवन की कल्पना मैं नही कर सकता।
“रेचल इन धर्म व जाति की परीधि से कहीं ऊपर व सच्चा है हमारा प्रेम! हमारे प्रेम पर इन छोटी-छोटी बातों व घटनाओं का प्रभाव नही पड़ना चाहिए। “मैंने रेचल की ओर देखते हुए कहा।
“छोटी बातें? उन्होंने हमारे पापा को बुरी तरह मारा है। चर्च में तोड़-फोड़ की है। उन्हें मृत समझ कर वो उन्हें चर्च में छोड़कर चले गये थे। “रेचल ने बिफरते हुए कहा।
“पापा मुझसे बहुत स्नेह करते हैं। वे मेरे लिए ही जीवित बच गये। उन्हें पता था कि मैं उनके बिना जी नही सकती। “रेचल ने सिसकते-सिसकते अपनी बात पूरी की। रेचल की बात सुनकर मैं निःशब्द हो गया।
“इस समय कहाँ हैं तुम्हारे पापा? “रेचल को समझाने का अपना प्रयास निरर्थक होता देख मैंने बातों का रूख दूसरी ओर मोड़ना चाहा।
दूसरे दिन मैं उस शहर में जा पहुँचा जहाँ के एक निजी अस्पताल में रेचल के पापा का उपचार चल रहा था। वहीं आसपास के किसी ग्रामीण क्षेत्र में उन पर हमला भी किया गया था। पूछते- पूछते मैं अस्पताल के आई0सी0 यू0 में पहुँचा। वहाँ पहुँच कर मेरे समझ जो घटना घटी वो मेरे लिए किसी व्यक्तिगत् क्षति से कम न थी। कुछ समय पूर्व ही रेचल के पापा अब इस दुनिया में नही थे। रेचल की माँ के साथ कुछ अन्य लोग वहाँ थे। धीरे-धीरे अस्पताल परिसर में प्रेस व पुलिस की गाड़ियाँ भी आ गयीं। मुझे वहाँ कोई भी पहचानता नही था, अतः मैं रेचल के आने की प्रतीक्षा करने लगा। रेचल वहाँ आयी। इस पूरे घटनाक्रम पर वह खामोश थी। उसकी खामोशी ही उसकी पीड़ा की अभिव्यक्ति थी। मैं रेचल के परिवार के साथ ही बना रहा। रेचल के पिता के अन्तिम संस्कार के समय वहाँ उपस्थित लोगों की तरफ से अपने क्रोध की अभिव्यक्ति भी की गयी। पीड़ा तो मेरे हृदय में भी थी। उस रात मैं उसी शहर के होटल में रूक गया। दूसरे दिन मैं पुनः वहाँ गया। रेचल से बातें कर मैं उसे सान्त्वना देना चाहता था। प्रेस व पुलिस कर्मियों की सक्रियता के कारण मुझे उससे बातें करने का अवसर नही मिल रहा था। उसके पिता की मौत संवेदनशील मुद्दा बनता जा रहा था। दोपहर हो गयी। मैं वहीं एक वृक्ष के नीचे बैठ गया था। कुछ देर के पश्चात् रेचल वहाँ आयी।
“अब तुम जाओ। सभी यहाँ तुम्हे प्रश्नवाचक दृश्टि से देख रहे हैं। “वह फफक कर रो पड़ी। मैं किंकर्तव्यविमूढ़-सा उसे देख रहा था।
“मैं क्या परिचय दूँ तुम्हारा? “अश्रुओं को हथेलियों से पोंछते हुए उसने कहा।
“मैं तुम्हारा अपराधी नही हूँ रेचल! तुम कहो तो मैं उन सबसे हमारे प्रेम के बारे में बता दूँ। यह भी कि मैं तुमसे विवाह करना चाहता हूँ। “मैंने उसके हाथें को स्पर्श करते हुए कहा।
“कैसे बता दोगे? आज के अखबारों में देखा तुमने क्या छपा है? मेरे पापा गाँव वालों को कुछ रूपये देकर धर्म परिवर्तन करा रहे थे। तुम हिन्दू ब्राह्नमण हो। तुम्हारा समाज मुझे व मेरा समाज तुम्हे कभी स्वीकार नही करेगा। मेरे पापा चर्च में पादरी थे। धर्म के ठेकेदार नही। वे प्रेम, शान्ति व अहिंसा वा संदेश प्रसारित करते थे। मेरे पापा की हत्या की गयी। और तो और उनकी मृत्ये के पश्चात् उन्हें अपराधी भी बना दिया गया। “रेचल की बातों की आघात की पीड़ा से मेरा हृदय कराह रहा था।
मैं रेचल को समझाना चाहता था कि मुझे जाति और धर्म जैसी तुच्छ बातों में नही पड़ना है। मैं अपने प्रेम की विजय चाहता हूँ।
“रेचल तुम मुझे तो जानती हो? मैं जाति, धर्म नही मानवता का उपासक हूँ। तुम्हारे साथ कितनी बार चर्च गया हूँ मैं। तुम्हारे हाथों को पकड़े हुए प्रभु के चरणों में मोमबत्ती जला कर अपने प्रेम की सफलता की कामना की है। “ मैं कहता जा रहा था किन्तु रेचल पर मेरी बातों का कोई प्रभाव पड़ता नही दिख रहा था। उसके नेत्र अश्रुओं से भीगते रहे। मैं उसे समझाता रहा। किन्तु... ....
अखबारों में इस घटना की भिन्न-भिन्न तरीके से प्रतिक्रियायें आयीं। कुछ ने इसे बढ़ा-चढ़ा कर कैसा विभत्स रूप दे दिया था। जब कि मैं जानता था इस घटना के पीछे छिपे यथार्थ को। घटना के इस विभत्स रूप को देखकर रेचल कदाचित् सहम गयी थी। रेचल की माँ ने उसे मुझसे मिलने को मना कर दिया था। हमारे प्रेम के मध्य धर्म अपनी कट्टरता के साथ खड़ा हो गया। खबरों की सुर्खियाँ बनी इस घटना व मेरी बदहाल मनोदशा देख मेरे घर में भी मेरे प्रेम के विरोधी उत्पन्न हो गये। मेरे पिता जो कि धार्मिक प्रवृत्ति के यज्ञ, हवन, पूजा-पाठ करने वाले व्यक्ति थे, उन्होंने तो मेरे लिए स्वजातीय लड़की की खोज भी प्रारम्भ कर दी। उन्हे ईसाई बहू कतई स्वीकार नही थी। उनका मन्तव्य मुझे वैवाहिक बन्धन में शीघ्र बाँध कर मुझे अपनी जाति व धर्म के वश में कर लेना था। मैंने किसी प्रकार उन्हें अपनी नौकरी मिल जाने तक रूकने के लिए मनाया। मैं जानता था कि वो अस्वस्थ रहते हैं। उन्हें मधुमेह, उच्च रक्तचाप की समस्या है। मेरा कोई भी हठ उनके स्वास्थ्य को हानि पहुँचा सकता है।
मेरे लिए रेचल को विस्मृत कर आगे बढ जाना असम्भव था। रेचल से मिलने की ताक में यदाकदा मैं उसके घर के चक्कर लगाया करता, किन्तु उससे मुलाकात नही हो पाती। रेचल ने विश्वविद्यालय आना छोड़ दिया था। आज भी मैं रेचल से मिलने के लिए उसकी कालोनी में प्रवेश कर ही रहा था कि कुछ लोगों ने मुझे रोक लिया। उन्होंने मुझे रेचल से मिलने को मना किया तथा यह भी कि रेचल मुझसे मिलना नही चाहती। मैंने रेचल से मिल कर उससे स्थिति स्पश्ट करने लिए उसके घर जाने देने के लिए अनुरोध किया। वे मुझे रेचल के घर जाने देने के लिए तैयार नही हुए। उनकी बातों को अनसुना कर मैंने बाइक रेचल के घर की ओर मोड़ते हुए उसकी रफ्तार बढा़ दी। कुछ क्षणों में मैं रेचल के घर के सामने था। गेट पर ताला बन्द था। मैंने गेट खटखटाया ताला उसकी आण्टी ने खोला।
“मैं रेचल से मिलना चाहता हूँ। “मैंने दृढ़तापूर्वक कहा।
“वह तुमसे मिलना नही चाहती। “ये रेचल की माँ के स्वर थे जो मेरी बात सुन कर बाहर आ चुकी थीं।
मैंने उनका अभिवादन करते हुए अत्यन्त विनम्रता से कहा, “मैं रेचल विवाह करना चाहता हूँ।”
“विवाह...? विवाह करना क्या इतना सरल है? तुम्हारा-हमारा धर्म अलग है। ये बात तुम क्यों नही समझते?”
“मेरा प्रेम धर्म से ऊँचा है। मैं उससे विवाह कर उस लेकर यहाँ से अन्यत्र चला जाऊँगा। “मैंने उन्हें समझाते हुए कहा।
“यह असम्भव है। तुम अब कभी यहाँ मत आना। रेचल तुमसे मिलना नही चाहती। “उसकी माँ ने कहा।
हमारी बातें सुन रेचल अपने कक्ष से बाहर आ गयी। इस समय वह अत्यन्त थकी हुई व सुस्त लग रही थी। “मैं तुमसे प्रेम करती हूँ आर्यन! यह बात मैं अपने परिवार के समक्ष स्वीकरती हूँ। किन्तु मेरा प्रेम मेरे पिता से अधिक मूल्यवान व महत्वपूर्ण नही है मेरे लिए। मैं तुमसे विवाह नही करूँगी। किन्तु मैं किसी अन्य से भी विवाह नही करूँगी। तुम्हारा स्थान जो मेरे हृदय में है वहाँ किसी और का आना असम्भव है। “कहते-कहते रेचल के स्वर सिसकियों में डूब गये। रेचल का दीप्त रहने वाला चेहरा इस समय बुझा हुआ था। सिसकती हुई रेचल शीघ्रता से मुड़ी और अन्दर चली गयी।
“सुनो रेचल! सुनो। “कहता हुआ मैं उसकी ओर बढ़ा। किन्तु वह जा चुकी थी।
कई वर्शों पश्चात्--
आज भी मैं लखनऊ विश्वविद्यालय के प्रंागण में प्रवेश कर उसी वृक्ष के नीचे आ कर बैठ गया हूँ। चौदह वर्श पूर्व की वो स्मृतियाँ... .जैसे अभी कल की ही बात हो। जब उस दिन रेचल इस विश्वविद्यालय में अन्तिम बार मुझसे मिलने आयी थी। मेरी स्मृतियों में ताजे गुलाब की महक-सा समाया है वो दिन... ..वो स्मृतियाँ....। एक क्षण के लिए भी तो नही भूला मैं रेचल को... उसकी स्मृतियों को।
मैं प्रतिदिन यहाँ आ कर बैठता हूँ। रेचल को अपने समीप पाता हूँ। उसे अनुभव करता हूँ। सोचता हूँ... ..तब से आज तक कितना कुछ परिवर्तित हुआ है मेरे आसपास। इस शहर की... .इस देश की हवाओं में कितना कुछ बदल गया है। लोगों द्वारा, राजनीतिज्ञों द्वारा, धर्म के ठेकेदारों द्वारा मात्र आदर्श भरी खोखली बातें हो रही हैं। उन बातों से मानवीय संवेदनायें विलुप्त हो गयी हैं। स्वंय से प्रश्न करता हूँ मेरा प्रेम ही क्यों भेंट चढ़ गया एक अर्नगल व्यवस्था का। आज भी जाति व धर्म का राजनीतिकरण होते देख मेरा हृदय व्यथित है। जो भी हो इन सबके पीछे छुपी राजनीतिक चालें व धर्म के ठेकेदारों द्वारा बिछाई अधर्म की बिसात पर मेरा प्रेम हार गया, कहीं बिला गया।
आज भी मैं रेचल को अपने समीप पा रहा हूँ। मैं जानता हूँ वो यहाँ नही है। रेचल कर स्मृतियाँ... ..? नही, स्मृतियाँ तो उनकी आती हैं जिन्हें हम विस्मृत कर देते हैं। रेचल को मैं तो मैं एक पल के लिए भी विस्मृत नही कर पाया। जब भी हृदय उदिग्न होता है, मैं कार्यालय से छूटने के पश्चात् लखनऊ विश्वविद्यालय के प्रागंण में आ कर बैठ जाता हूँ। यहाँ आ कर मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि रेचल यहीं कहीं मेरे इर्द-गिर्द है। अतः कार्यालय से छूटने के पश्चात् यहाँ आकर बैठना मेरी दिनचर्या में शामिल है। वैसे भी घर में मेरे लिए कुछ भी नही है। पापा के हठ पर मैंने नौकरी अवश्य ज्वाइन कर ली, किन्तु विवाह नही किया। माँ-पापा दोनो ही मेरे विवाह की अपूर्ण इच्छा लिए इस संसार से चले गये। किन्तु रेचल का स्थान मैंने किसी को लेने नही दिया है।
मैं कई बार रेचल के घर गया, किन्तु उसके घर में ताला बन्द मिला। लोगों ने बताया कि वो लोग कहीं चले गये हैं। कहाँ? किसी को ज्ञात नही। आज भी मैं विश्वविद्यालय में उसी स्थान पर बेंच पर बैठा रेचल की स्मृतियों में खोया हूँ। मेरे नेत्र बन्द हैं। सहसा किसी ने मेरे कंधे पर अपना हाथ रखा। मुझे ऐसा प्रतीत हुआ जैसे यह रेचल के हाथों का स्पर्श है। पुनः मन में विचार आया कि यह यह मात्र मेरा भ्रम है। मेरे कंधे पर मखमली हाथों का स्पर्श बढ़ता जा रहा है। मैंने अपने नेत्र खोल दिए। मुझे सहसा विश्वास नही हो रहा है कि रेचल मेरे समक्ष खड़ी है। यहाँ रेचल कैसे हो सकती है? किन्तु यह भ्रम नही सत्य था। इतने वर्शों के पश्चात् रेचल मेरे समक्ष खड़ी थी। उसे सामने देख मैं विद्युत की गति से खड़ा हो गया। मैंने रेचल का हाथ पकड़ कर उसका हाल पूछना चाहा। किन्तु यह सोच कर रूक गया कि कहीं मैंने रेचल पर अपना अधिकार खो तो नही दिया है। रेचल मुस्कराती रही और मेरी ओर देखती रही।
“रेचल तुम?...यहाँ? “मैंने आश्चर्य के साथ उससे पूछा।
“तुम इतने वर्शों से यहाँ मेरी प्रतीक्षा कर सकते हो, तो मैं यहाँ तुम्हारे पास क्यों नही आ सकती? “रेचल मुस्करा रही थी। प्रातः के ओस में भीगी-सी वही निश्छल मुस्कराहट उसके चेहरे पर विद्यमान थी।
मैं चल पड़ा। रेचल मेरे साथ चलने लगी। मैं कुछ भी बोल सकने में असमर्थ हो रहा था। हम दोनों कुछ कदम निःशब्द चलते रहे।
“अभी तक तुम प्रतिदिन यहाँ आकर मेरी प्रतीक्षा करते थे? “रेचल मेरी तरफ देखते हुए बोल रही थी। उसके चेहरे पर मुस्कराहट थी पूर्ववत्।
“हाँ! और तुमने भी तो मुझे यहाँ ढूँढ लिया। “मैंने सकुचाते हुए उत्तर दिया।
“तुम चाहो तो मेरा हाथ पकड़ सकते हो। इस पर तुम्हारा अधिकार है। मात्र तुम्हारा। “रेचल के शब्द सुन कर चलते-चलते मैं रूक गया। रेचल भी मेरे साथ रूक गयी।
“तुम कहाँ थी इतने दिन? मैंने बहुत तलाश की तुम्हारी। “मैंने अपने हृदय की पीडा़ को व्यक्त करने के प्रयास में कहा।
“पापा के साथ घटी दुर्घटना को भुलाने के प्रयास में मैं यहाँ से दूर चली गयी थी। किन्तु स्थान परिवर्तित कर देने मात्र से किसी का भाग्य तो परिवर्तित नही हो जाता? न ही किसी को हम अपनी स्मृतियों से बाहर कर सकते? वही जाति, वही धर्म और सबकी अपने-अपने वर्चस्व की लड़ाई, उनका विकृत रूप, राजनीति में उसका दुरूपयोग और उन सबके मध्य पिसता साधारण व्यक्ति। सभी जगह सब कुछ वैसा ही है। “कह कर रेचल सहसा चुप हो गयी। उसके चेहरे पर पीड़ा उभर आयी।
“रेचल, अब भी बहुत कुछ अच्छा शेश है, और बहुत कुछ अच्छा हो सकता है। आओ हम मिल कर इस समाज के लिए कुछ अच्छा करें। “मैंने रेचल से कहा। रेचल ने मुस्कराते हुए सहमति में सिर हिला दिया था। मैं रेचल के हाथों को पकड़े हुए विश्वविद्यालय कैम्पस के बाहर निकल आया था। रेचल ने भी मेरे हाथों को मजबूती के साथ पकड़ रखा था।