सुबह का भूला / मनीषा कुलश्रेष्ठ
बेमन से मुंडेरों को कतार की कतार दीपों से सजाती हुई शैलजा इस बार दीपावली पर बच्चों के उत्साह के आगे उलझ कर रह गई।
क्या करती बड़े हो रहे बच्चों ने इस बार कह ही तो दिया था -
“मम्मी बहुत रो लीं हर बार दीपावली पर आप उस आदमी के लिये जो हमारा पापा है। अब हमारी खुशी के लिये दीपावली पर घर सजाओ, इस बार हम तीनों ही मिल कर धूमधाम से दीपावली मनाएँगे।”
यह कहने वाला उसका चौदह साल का बेटा था, पर प्यारी सी बारह साल की बेटी की चमकती आंखें भाई के उत्साह का अनुमोदन करती प्रतीत हो रही थीं। उसने भी बच्चों की मासूम खुशियों का ख्याल कर वह सब किया जो उन्होंने चाहा। अंतिम दीप को घर की देहरी पर रख शैलजा घर के अन्दर आ गई, दोनों बच्चे तैयार हो कर व्यस्त थे, बेटी पूजा की जगह पर रंगोली बनाने में, बेटा पटाखों के ढेर को सहेजने में।
मन में कहीं हूक सी उठी। पहली दीपावली याद आ गई वो दोनों बड़े उत्साह से राजन के घर कानपुर गये थे। वहाँ जाकर उसका सारा उत्साह तभी काफूर हो गया जब देखा राजन पूरे समय अपनी बडी भाभी के कमरे में रहता उनसे बतियाता उनके बच्चों से खेलता और वह सास के साथ रसोई में लगी रहती। यहाँ तक कि खाना भी वह भाभी जी के कमरे में खा लेताउसका उदार मन कुछ अवांछित बात सोचने को तैयार तो न था पर न जाने क्या था कि वह खुश हो ही ना सकी। पटाखे भी उसने बच्चों के साथ ही छुडाये, उसने प्यार से शिकायत की तो यह कह कर चुप कर दिया कि ये मेरे ही बच्चे हैं, तुम्हारे साथ तो पूरा समय रहूँगा ही यह समय उनका है, फिर उनके पिता दुबई से आ ही कितना पाते हैं?
फिर तो हर वर्ष वहीं और वैसे ही दीपावली मनती। जब उसे पहली बार राजन और भाभी के अजीबोगरीब सम्बंधों का पता चला तो वह चौंकी थी, चुपचुप सी साधारण सी दिखने वाली भाभी और राजन के बीच ऐसा कैसे हो सकता था? तब वह भाभी के कमरे के बाहर से बाथरूम जाने के लिये गुजरी तो उसे भाभी के पैरों पर चलते राजन के हाथ दिखे। उसका दिल धक्क से रह गया। फिर भाभी की अलमारी में उसे अपने जैसे मोती के कर्णफूल दिखे जो राजन ने पिछली दीपावली से पहले मुम्बई से ही खरीद कर दिये थे।
जब राजन और भाभी के सम्बंध स्पष्ट हो ही गये तो,उसने सास से बात की, सास ने यह कह कर टाल दिया कि -
“बडी ज़ाने कि राजन, अब हमें पूजा पाठ के दिनों में इस गन्दगी में न समेटो तो अच्छा। हम तो जाने कब से झेल रहे हैं बडी क़े चरित्तर!
कितनी आसनी से पल्ला झाड लिया था सास जी ने,सगाई के समय कैसे गले लगा के बोलीं थीं यही सास कि,
“आपकी बेटी जिस नाज से रही है आपके घर में वैसे ही हमारे घर रहेगी। वैसे भी राजन तो बम्बई रहता है ये भी वहीं रहेगी।”
तब तो जज की बेटी का लाखों का दहेज दिखा था उन्हें और सुन्दर सुशील बहू। और वह चौंकी तो थी जब सास बार बार उन्हें शादी के पहले ही सप्ताह बम्बई चले जाने को कहती रहीं थीं। बड़े भाई बस चार दिन को आकर चले गये और पूरी शादी में बडी बहू का मुंह फूला हुआ था।राजन बहुत उलझे लगे थे उखडे उखडे। विदा होकर जब आई तो वे गजलें चला कर कमरे में बंद होकर सो गये थे।कितना अजीब स्वागत था उसका, पर बाद में राजन उसके सौन्दर्य और सौम्य व्यक्तित्व में बंध ही गये थे।
कितने-कितने विचार और स्मृतियाँ मन की तहों से निकले आ रहे थे। और पिछली कुछ दीपावलियों पर जब उसने राजन को जाने से मना कर दिया तो राजन ने अकेले जाना शुरु कर दिया। पहली बार तो उसने गुस्से में दीपावली ही नहीं मनाई, लक्ष्मी पूजा कर बेमन से बस बच्चों को खाना खिला कर खुद कमरा बंद कर फूट फूट कर रोई थी, बच्चे सहम कर सो गये थे। अब जब दोनों में करार हो गया था कि जो भी है उसके साथ बच्चों के लिये जीना है बाकि दोनों मानसिक रुप से स्वतन्त्र हैं, तो वह दीपावली मना लेती है बच्चों की खुशी के लिये पर कहीं न कहीं मन बिखर जाता है। हालांकि साल भर में राजन कभी कानपुर जाने का नाम नहीं लेते, बस दीपावली के पन्द्रह दिन बडी भाभी के और उनके बच्चों के नाम हैं।
पहली बार जब आक्रामक होकर उसने राजन से पूछा था तो उसने कितनी आसानी से स्वीकार कर लिया था,
“शैल, ये सम्बंध बहुत पुराना है। मैं तो शादी ही न करता, भाभी ने ही जिद की”
“हाँ और आपने उनके कहने पर मेरे ऊपर दया करके मेरा उध्दार कर दिया! नहीं तो मेरी कहीं शादी नहीं होती है ना!”
“यह ग्लानि है मुझे परविवश हूँ।”
“आने दो बड़े भैया को”
“वे जानते हैं, वही वजह हैं इस सम्बंध की। वे भारत आना नहीं चाहते ।”
“तो पूरा खानदान ही नपुंसक है।”
“शैलजा! “
“चीखो मत राजन।”
“शैलजा, मैं अब तो कितना कम जाता हूँ बस दीपावली पर वे बच्चे मेरी प्रतीक्षा करते हैं। और हमतो तुम तो चल रही हो न।”
“नहीं राजन , अब से हम दीपावली अपने घर मनाएँगे।”
“यह असंभव है, तुम्हारे न जाने की स्थिति में भी मुझे जाना होगा, पहले जो कुछ भी रहा हो अब यह सम्बंध मेरी जिम्मेदारी बन गया है।”
एक ठण्डा मगर बहुत कडा और ठाना हुआ जवाब था राजन का। वह जान गयी थी वह उसे नहीं रोक सकेगी तो हंगामा खडा करने से क्या फायदा, अब तक वह दो मासूम बच्चों की मां थी, बच्चों के सामने वह विवश थी। मायका मां के न रहने से उजड सा ही गया था। मात्र बी ए पास शैल अलग होकर आत्मनिर्भर होने के नाम से घबराती थी।और प्रकृति से संयत, शांत राजन से उसे इस पन्द्रह दिन की घनघोर पीडा के अलावा और कोई दु:ख नहीं देता था।पर्याप्त से ज्यादा पैसा, ओ एन जी सी की ग्रेड वन सर्विस,शानदार घर, प्रतिष्ठा। अलग होने का साहस न कर पाने पर एक करार के तहत जीने लगी थी वह। पर दाम्पत्य सुख समाप्तप्राय: था, उसके छूने भर से उसे घृणा होती।उसने बच्चों में उलझा लिया था स्वयं को। बच्चे भी अब समझने लगे थे मां की पीडा, पापा को रोकते थे पर राजन बच्चों से कहते तुम चलो तो वे मम्मी को छोड क़र जाने को तैयार नहीं होते थे।
इस बार बच्चों ने ठान लिया था कि पापा के बिना भी खूब धूमधाम से दीपावली मनाएँगे और उन दोनों ने राजन को एक बार भी कानपुर न जाने को नहीं कहा। धनतेरस से ही उत्साह शुरू हो गया, सबने खूब शॉपिंग की, दोनों ने मिल कर शैल को मैसूर सिल्क की हल्की जामुनी चांदी की जरी वाली साडी ख़रीदवाई ही नहीं दीपावली पर पहनने की जिद भी की। शैल पूजा की तैयारियाँ करती बेटी सलोनी के पास आकर सात बड़े घी के दीपक जलाने ही चली थी कि फोन घनघनाया।
“मम्मी जीआप? कैसी हैं आप? दीपावली की शुभकामनाएँ।”
“बहू! क्या बताएँ, यहाँ तो ऐन दीवाली की सुबह कलेश हो गयी घर में! “
“कैसे! “
“वो राजन की और यश की जम कर लडाई हुई।”
“यश याने बब्बू, बडी भाभी का बडा बेटा?”
“हाँ।”
“अठारह साल का बेटा मां के कुलच्छन कैसे बरदाश्त कर सकता है? उसने अपने चाचा से कह दिया, हमें अपने हाल पर छोड दो, पापा नहीं आते न आएँ, आपके आने से हमें जो बदनामी झेलनी होती है वह पापा के भारत न आने के पेन से कहीं ज्यादा है। और बहू अपनी मां से तो वह रोज झगडता ही थामैं ने चार दिन पहले ही राजन को ऑफिस में फोन करके कहा था कि इस बार न ही आए तो अच्छा पर वह सुनता कहाँ है उस जादूगरनी के सम्मोहन में किसी की!”
उसके कान अब कुछ नहीं सुन पा रहे थे। मन घृणा से भर गया था। छि! सास पर भी उसे गुस्सा आ रहा था, अब तक रोक न सकीं। अब यह सब बता रही हैं। शायद वे विवश हों कि बडी बहू से बिगाड क़र वे कैसे अपनी वृध्दावस्था में कानपुर छोडने को विवश होतीं या जब तक पूरी बात खुली हो पता नहीं उनका बस ही न चला हो।पता नहीं क्या परिस्थिति हो पर उसके जीवन में तो कडवाहट भरने का जिम्मेदार पूरा खानदान ही है। वह तो मां के रहते कभी उन्हें कह ही ना सकी, हर बार लगता कि उन्हें दु:ख पहुंचा कर क्या होगा। उन्हें तो नाज है अपने शांत प्रकृति के दामाद पर।
“बहू, सुन रही है ना? राजन यहाँ से गुस्से में चला गया है, दिल्ली से फ्लाईट पकड बम्बई पहुंचता होगा। एकदम बिफर कर गया है, बेटी संभाल लेना उसे, सुबह का भूला समझ कर। देर तो बहुत हो गयी पर अब भी कुछ नहीं बिगडा है। “
सास के ये शब्द भी उसके मन में कोई हलचल नहीं कर सके। मन पर मनों बर्फ जमी थी। लौट कर फिर दीये जलाने लगी।
“मम्मी किसका फोन था? “
“दादी का।”
“अरे! क्या कहा दादी ने, आपने हमारी बात नहीं कराई। यश दादा, प्रिया दीदी को दीपावली विश करना था।”
“पापा वापस आ रहे हैं।”
“कब?”
“आज ही।”
“सच मम्मी।”
“हाँ सलोनी।”
दोनों बच्चे खुशी से चीखे। कहीं बर्फ की कठोर तह बच्चों की खुशी की गर्मी से पिघली। पर वह खुश नहीं हुई।
अनन्त ने पूछ ही लिया,
“मम्मी, आपको खुशी नहीं हो रही, बहुत सालों बाद पापा हमारे साथ दीपावली मनएँगे।”
“हाँ अनन्त मैं खुश हूँ।” भोला बेटा बस इस वाक्य से ही खुश हो गया।
दोनों सोत्साह जल्दी जल्दी तैयारी करने लगे। अनन्त ने एयरपोर्ट फोन कर दिल्ली से आने वाली फ्लाईट्स के टाइमिंग्स भी पूछ लिये।
पूजा बच्चों ने ही पापा के आने तक रोक ली। वह रसोई में आ गई और महाराज को पूरी का ज्यादा आटा गूंथने का निर्देश देने लगी। तभी बडा गेट खडक़ा, उसने किचन की खिडक़ी से झांका, वही थे थके, पस्तअटैची उठाएममता और रोष दोनों विपरीत भाव साथ जागे।
बच्चों के उत्साह ने राजन को गेट पर ही घेर लिया था”पापा पापाइस बार मजा आएगा दीपावली पर।” राजन के चेहरे का कोहरा छंटा उसने दोनों को कस लिया। वह खामोश वहीं खडी थी राजन ने जब जाना तो उसे देखा,उसे लगा कहीं पश्चाताप नमी की तरल परत बन उनकी आंखों में उतर आया है। उसने कुछ पूछने की आवश्यकता महसूस नहीं की। महाराज पानी और चाय साथ ही ले आया।
चाय के बाद राजन नहाने चले गये। लौटे तो धुले सफेद पजामे कुर्ते में सीधे पूजाघर में चले गये और वहीं से पुकारा,
“शैलजा, अरे गंगाजल कहाँ है? अरे भई आओ मुहूर्त निकला जा रहा है। बच्चे कहाँ हैं?”
उनकी आवाज बहुत अजनबी मगर बहुत गुनगुनी लगी।बर्फ की एक तह और पिघली।
वह बच्चों को ले पूजा घर में चली आई। और राजन के वामांग खाली पडी ज़गह पर बैठते हिचकी तो राजन ने हाथ पकड क़र बिठा लिया। पहली बार अपने घर में गूँजते राजन की गहरी आवाज में श्लोक उसके मन में गहर उतर रहे थे। वहाँ कानपुर में भाभी के पास बैठे राजन के यही श्लोक उसे अर्थहीन लगते थे। पूजा पाठ व्यर्थ लगता था।पर अब इन शांत पलों में वह यह सब नहीं सोचेगी। श्रध्दा के साथ उसने सर ढक लिया।
पूजा के बाद सबने खाना खाया, फिर राजन ने ही कहा पटाखे आकर चलाएँगे, पहले शहर की रोशनी देखने और कुछ खास मित्रों से मिलने चलते हैं। हर बार मां के साथ अकेले पड ज़ाने वाले बच्चों की खुशी का पारावार न था। शैलजा कुछ पूछ कर, राजन उन बातों को छेड क़र बच्चों के उत्साह को कम न करना चाहते थे। बहुत दिनों बाद पति के साथ खडे होकर खास मित्रों के बीच शैलजा अपनी सारी दुविधाएँ छोड चहकने लगी। लौटे तो बर्फ की कई कई सतहें गल कर बह गई थीं। पटाखे चलाने में राजन स्वयं बच्चा बन गये थे।
बच्चों को सुलाकर वह देर तक ब्रश करती रही, चेहरा साफ करती रही, बेडरूम में जाने को वह स्वयं को तैयार नहीं कर पा रही थी। फिर भी उसे कपडे बदलने जाना ही पडा।वह नाईटी पहन बच्चों के कमरे की और मुड़ी ही थी,
“शैल, मैं लौट आया हूँ।”
“जानती हूँ।”
“मुझे सहेज लो न।”
“राजन, अब बहुत देर हो गयी है।”
“हाँ शैल पर हम अब भी साथ ही हैं।”
“किसने कहा? राजन हम बच्चों की वजह से ही सिर्फ दिखावे भर को साथ हैं। मैं ने तुम्हें और तुमने मुझे कबका मुक्त कर दिया था। अब इतनी जलालत मुझे दे कर और स्वयं झेल कर लौटे हो तो क्या लौटे हो?”
“क्या फिर से नयी शुरूआत नहीं हो सकती।”
“नहीं!” शैलजा बिफर गयी
“अब जिन्दगी के उत्साह भरे साल गंवा कर अब नहीं।"
“जिन्दगी बीत तो नहीं गयी शैल, मैं सम्पूर्ण तुम्हारा होकर लौटा हूँ। सुबह का भूला हुआ मैं शाम लौट आया हूँ मुझे अपना लो! “
रो पडे राजन। शैल बिफरी बैठी रही, उसका सालों का आक्रोश उसके मन को धधका रहा था। उसने राजन को चुप नहीं करवाया पर वहीं बैठ गयी। राजन ने पानी पीकर स्वयं को संयत किया और शैल का हाथ पकड ज़बरन टेरेस पर बने झूले पर ले आए। कुछ दिये अब भी जल रहे थे,कुछ बुझ गये थे, राजन ने एक दिया ले सारी कतार फिर जला दी।
अब भी एक दो रॉकेट आकाश से टकरा कर फूटते और हरे गुलाबी फूलों में बिखर जाते।
दोनों देर तक चुप बैठे रहे। राजन ने शैलजा का हाथ हल्के से छुआ तो आक्रोश आंखों की राह बह निकला। थोडी देर बाद दोनों एक दूसरे के कन्धों से लगे रो रहे थे। जब सर्द हवाओं का रुख बदला तो दोनों अन्दर चले आए। बर्फ की अन्तिम सतह कब की पिघल चुकी थी। खिडक़ी पर रखे दीपकों की हल्की मध्दम आंच दोनों के तन मन में ऊष्मा भर रही थी।