सुबह की धूप:अनुभूति और अभिव्यक्ति का संतुलन / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’
मीडिया के आतंकित करने वाले आक्रमण का सबसे बड़ा शिकार हुआ है अक्षर- जगत्। इसमें भी सर्वाधिक प्रभावित हुई है कविता। बड़ी कही जाने वाली पत्रिकाओं में कविता के नाम पर जो छपता है, वह काव्य कम, वाग्जाल अधिक होता है। उसमें हृदय की अनुभूति का समावेश न के बराबर होता है। केवल बुद्धि- विलास या वाग्जाल से कविता नहीं बनती। दूर-दराज के अंचल में चुपचाप अपनी अनुभूतियों को शब्दाकार देने वाले कवि श्री आर. के. 'रवि' का ग़ज़ल संग्रह 'सुबह की धूप' प्रमाता का ध्यान खींचने में सक्षम है। रवि की गजलें अपनी अनुभूति और अभिव्यक्ति के संतुलन के साथ में व्यष्टि से समष्टि की यात्रा हैं । इन गजलों में वैयक्तिक सुख-दुःख, हर्ष-विषाद मर्मस्पर्शी ढंग से सामने आए हैं ।
समय का ही दूसरा नाम ईश्वर है। यदि समय विपरीत हो, तो सब कुछ विपरीत हो जाता है। स्वयं का अस्तित्व भी उस समय सहायक नहीं होता –
वक्त बिगड़े तो बदल जाता है सारा आलम। खुद के साये भी खुद से दूर नजर आते हैं।
मनुष्य की जिजीविषा कभी कम नहीं होती। एक-एक साँस का कम्पन हमें जिन्दगी के अहसास से जोड़ता है-
'साँस टूटने को हैं फिर भी / जीने का इरादा मचल रहा है।' मोहक मुस्कान और भंगिमा में आकर्षण के साथ ही है एक निर्बंन्धता । यही निर्वन्धता जीवन का सबसे बड़ा सुख है-
'उनको दिलकश अदा और उनका तबस्सुम ।
जैसे ख़त आवारा कोई मेरे नाम आया ।' प्रेमी अन्तिम समय तक प्रेम निभाना चाहता है। वह स्वेच्छया चाहत से किनारा नहीं करना चाहता। उसके प्रेम की गरिमा इसी में है कि वह प्रेम की लौ जलाए रखे, प्रिय की इच्छा पर ही उसे समाप्त करे, क्योंकि यही प्रिय की इच्छा है-
"दिल में जो चाहत का चिराग जल रहा है।
मुझको तू खबर करना, जब हो इसे बुझाना ॥'
यदि स्मृतियों का अवलम्बन हो तो घोर एकाकी जीवन भी एकाकी नहीं होता। स्मृतियों को उष्मा और खुशबू जीवन को नए आयाम देती हैं-
'माना कि मेरो जिन्दगी तन्हा उदास है। खुशबू तुम्हारी याद की हर वक्त पास है।'
रही बात सपने संजोने की, किसी से अपनत्व पाने की, ये सब चीजें सभी को नहीं मिलती-
'देखें हैं बहुत अपने, टूटे हैं बहुत सपने । तकदीर के मारों को महफिल नहीं मिलती ॥'
अन्तर्जगत के अलावा कवि का एक सामाजिक परिवेश भी है। सहृदय होने के नाते हर गतिविधि पर उसकी नजर है। अपने इसी सामाजिक सरोकार के कारण वह कह उठता है-
'बस्तियों की हर गली में, रावणों के हैं मक़ाँ । फिर यहाँ अब राम का अवतार होना चाहिए।
रावण और राम को कवि ने प्रतीक रूप में प्रयोग किया है । कवि की सबसे बड़ी पीड़ा यह है कि आज कोई देश के बारे में नहीं सोचता । स्वार्थीजन भ्रष्टाचार में लिप्त हैं-
'देश की खातिर भला अब कौन सोचे । लिप्त भ्रष्टाचार में स्वार्थी रहे हैं ।।'
इन सब के बीच कवि जीवन-जगत में सपनों के टूट जाने से खुद टूटना स्वीकार नहीं करता। वह निराशाओं के घटाटोप में भो आशा का दामन थामे हुए हैं-
'टूट जाते हैं सपन, फिर भी कोई बात नहीं। ख्वाब पलकों पे सजें, शाम और सवेरे भी ।
कवि की अभिव्यक्ति में कहीं कोई उलझाव नहीं। जो कुछ कहना है बिना शाब्दिक तामझाम के सोधे ढंग से बयान कर देते हैं । कवि का जितना अनुभव जगत है, उसे ईमानदारी से अभिव्यक्त किया है। अपनी ताजगी एवं सादगी के कारण यह 'सुबह की धूप' सभी को सहलाएगी, बहलाएगी, ऐसी आशा है।
'सुबह की धूप', कवि - आर. के. 'रवि’, मूल्य: 30रुपये, पृष्ठ: 40, संस्करण :1996, प्रकाशक: संवेदना प्रकाशन, एफ 23, नई कालोनी, कासिमपुर, अलीगढ़ -0-