सुबह की सैर / निर्मल वर्मा
वे छड़ी उठाते हैं, सीढ़ियाँ दाएँ पैर से उतरना शुरू करते हैं; उनका यह विश्वास है कि दिन दाएँ पैर पर उठाया जाए, तो वे किसी विपत्ति में नहीं गिर सकते। वे सुबह उठते भी दाईं करवट से हैं और जब उनकी बाईं आँख फड़कती है, तो उन्हें अपने लड़के का खयाल आता है, जो बरसों से विदेश में पड़ा है।
छड़ी घुमाते हुए वे नाले की तरफ चलने लगते हैं। वहाँ अब नाला नहीं है। तीन बरस पहले कमेटी ने उसे पाट दिया था, लेकिन आस-पड़ोस के लोग अब भी उनके घर को ‘नालेवाला मकान’ कहते हैं। पुराने दोस्तों की चिट्ठियाँ अब भी इस पते पर आती हैं : कर्नल निहालचंद्र, नालेवाला मकान; और डाकिया भी उन चिट्ठियों को सीधा उनके घर ले आता है।
वे चलते जाते हैं। नाले के परे एक छोटी-सी पुलिया है, सफेद चूने में चमचमाती हुई। यहाँ आ कर वे ठहर जाते हैं - यह उनकी सुबह की सैर का पहला स्टेशन है। वे अपनी छड़ी को पुलिया के सहारे टिका देते हैं, थैले को कंधे से उतार कर मूठ पर लटका देते हैं, सीधे खड़े हो जाते हैं, लगभग अटेंशन की मुद्रा में। एक साँस खींचते हैं, भीतर ले जाते हैं, फिर एक गाँठ में कस कर बाहर फेंक देते हैं। फिर दूसरी साँस खींचते हैं, वही कसावट, वही गाँठ, वही ढील। फिर तीसरी साँस... इससे उन्हें कोई आराम मिलता है? किसी को नहीं मालूम। वे अपने से पूछते नहीं और कोई दूसरा उनसे पूछनेवाला नहीं।
उन्हें यह भी चिंता नहीं कि पुलिया के नीचे स्कूल जानेवाले लड़के उन्हें देख कर हैरत में खड़े हो जाते हैं - एक पतली सींक-सा लंबा आदमी, हवा में साँस खींचता हुआ, बाँस-सा हिलता हुआ।
‘कर्नल सा’ब, कर्नल सा’ब...
कहाँ है आपकी बंदूक-तलवार?’
हँसते, चीखते, डरते हुए वे भागते जाते हैं। बारिश के पानी में उनके पैर छप-छप करते हैं और हवा में घास सरसराती रहती है।
उस दिन निहालचंद्र के कानों में देर तक बच्चों की आवाजें गूँजती रहीं। फिर सब कुछ शांत हो गया। उन्होंने आखिरी साँस खींची, जो एक गीली-सी उच्छ्वास बन कर बाहर निकल आई। पुलिया से अपनी छड़ी उठाई और रूमाल से उसकी मूठ साफ करने लगे। उसी रूमाल में अपनी नाक सिनकी और आँखें पोंछी। फिर थैला उठा कर कंधे पर लटका दिया। गले में सूखी-सी किरक चुभने लगी। धुँधला-सा खयाल आया, शायद कहीं भीतर कोई तकलीफ है, लेकिन इतनी जुर्रत नहीं हुई कि इस तकलीफ को ‘प्यास’ का नाम दे सकें। वे तकलीफों की धुंध में रहते थे, नाम देने का मतलब था, पिंडारे की पिटारी खोलना, जिसके भीतर से पता नहीं कितनी दूसरी तकलीफें बाहर निकल पड़ेंगी। ना भाई, इससे बेहतर यह धुंध है, जहाँ सब कुछ एक जैसा है।
निहालचंद्र पुलिया पार करने लगे।
नीचे, आगे, पीछे - चारों तरफ मैदान फैला है। पूरा मैदान भी नहीं; आधा हिस्सा धोबीघाट है, बाकी हिस्सा पेड़ों में ढँक गया है। वह नाला जिसे शहर में ढँक दिया गया था, अब यहाँ बेशर्मी से नंग-धड़ंग बहता है। किनारे पर चौड़े सपाट पत्थर बिखरे हैं, जो आँखों में शूल-से चुभते हैं। निहालचंद्र ने थैले से धूप का चश्मा निकाला, पहन कर चारों तरफ देखा, तो ठंडा-सा अँधेरा दिखाई दिया, रात का ठहरा हुआ अँधेरा जैसा नहीं, बल्कि काली रोशनी का दरिया, वे धीरे-धीरे उसमें उतरते हैं और पत्थरों से बच-बच कर चलने लगते हैं।
कहाँ जा रहे हैं कर्नल बाबू?
पत्थरों पर कपड़े पीटती हुई धोबिनों की आँखें ऊपर उठती हैं; हाथ हवा में ठिठक जाते हैं; धोबियों के कुत्ते - घर के न घाट के - कर्नल निहालचंद्र की एकनिष्ठ, नीरव, मंद चाल को देख कर कुछ ज्यादा ही भभक आते हैं, दाँत निपोरते, खँखारते हुए उनके पीछे भागते हैं, किंतु उनके पास आने की हिम्मत नहीं करते; उनकी मीटर-भर लंबी छड़ी को देख कर बीच में मीटर-भर का फासला छोड़ना नहीं भूलते। और निहालचंद्र? उनके लिए जैसे चिंघाड़ते बच्चे, वैसे रिरियाते कुत्ते, सब एक चलते हुए दृश्य का हिस्सा हैं, एक धुएँ-सी धवनि, जिसमें सब कुछ समा जाता है...
यह नजारा अगर टूटता है, तो सिर्फ एक जगह - जहाँ जंगल शुरू होता है। वहाँ कोई आवाज नहीं, न कोई रंग, न रोशनी... सिर्फ पेड़ों की लंबी कतार के नीचे धूप के धब्बे टिमटिमाते हैं। यहाँ काले चश्मे की कोई जरूरत नहीं। निहालचंद्र कंधे से थैला उठा कर दूसरे कंधे पर लटका लेते हैं। कोट के बटन खोलते हैं, तो नवंबर की हवा सर्र-सर्र करती देह को खटखटाने लगती है। ऊपर पेड़, नीचे झाड़ियाँ, बीच-बीच में गुलमोहर की सुर्ख, लहराती लपटें, सुर्र-सुर्र-सी आवाजें, जिन्हें सुन कर निहालचंद्र को ग्वालियर के जंगल याद आ जाते, जहाँ वे अपने फौजी दोस्तों के साथ शिकार पर जाते थे। वे अब उसे याद भी नहीं करते थे। खट-से कोई स्लाइड पर्दे पर चमक जाती थी... पुरानी जिंदगी का एक हिस्सा साँस लेने ऊपर आता था - फिर छप से अँधेरे में डूब जाता - और निहालचंद्र तेजी से कदम बढ़ाते हुए जंगल में गुम हो जाते।
कुछ देर तक पता भी नहीं चलता था, वह कहाँ हैं, किधर गायब हो गए? सिर्फ झाड़ियों में हल्की-सी सरसराहट सुनाई देती - जैसे कोई जानवर भागा जा रहा हो - और तब अचानक उनका सिर दिखाई देता। अभी यहाँ, अभी वहाँ! कोई छिप कर उन्हें देखता, तो हैरत में पड़ जाता कि इतनी उम्र में भी वे इतनी तेजी से भाग सकते हैं, छड़ी और थैले के साथ। किंतु निहालचंद्र के लिए यह मामूली-सी कसरत होती। महज कसरत नहीं - एक तरह का ध्यान। उनका चेहरा एक अलौकिक-सी तल्लीनता में डूबा रहता। एक अजीब-सा भ्रम होता, मानो वे एक जगह स्थिर हों, सिर्फ उनकी लंबी, सीकियाँ टाँगें भागी जा रही हों, फिर धीरे-धीरे उनकी टाँगें भी स्थिर हो जातीं, सिर्फ बूढ़ा दिल हड्डियों के सींकचे पर टकराता रहता और... वे रुक जाते, अधमुँदी पलकों को खोल देते, चारों तरफ देखने लगते।
सामने हवामहल दिखाई देता, पीले पत्थरों का मुगलिया मानूमेंट। नवंबर की मंद धूप में सुलगता हुआ...।
निहालचंद्र के सफेद बालों से पसीने का परनाला बहता हुआ उनकी कनपटियों पर चूने लगता। वे सिर को झटका देते, रूमाल से माथा पोंछते, छड़ी और थैले को हवामहल की सीढ़ियों पर टिका देते। साँस लेते। सैर की थकान उनकी देह से टूट कर टूटे हुए खंडहर से जुड़ जाती।
यह उनकी सैर का दूसरा स्टेशन होता।
यह हवाघर बहुत पहले शायद सचमुच कोई ‘स्टेशन’ रहा हो, एक पड़ाव, जहाँ मुगल सेनाएँ दिल्ली से मार्च करती, यहाँ घड़ी-दो घड़ी डेरा डालती होंगी। स्वयं शहंशाह शायद यहाँ छुट्टी के दिन पिकनिक के लिए आते हों? वरना इस उजाड़ जंगल में इतने नखरे-नक्काशीवाली इमारत ही क्यों बनाते? निहालचंद्र को यह छिपा खजाना अचानक ही मिल गया था-एक दिन सैर करते- करते यहाँ आ भटके और आँख उठाते ही हवा से हवाघर उतर आया। सफेद सीढ़ियाँ, झालरदार झरोखे, बड़ी-बड़ी आँखों-से रोशनदान - किंतु जो चीज निहालचंद्र को हमेशा अचंभे में डाल देती थी, वह था नीला गुंबद, भूरे पीले जंगल में वह नीलापन उनकी आँखों को अजीब-सी राहत देता था - एक ठंडे, स्वच्छ हीरे-सा झिलमिलाता हुआ।
उस दिन भी निहालचंद्र गुंबद को निहारते रहे। फिर एक लंबी साँस खींची, जो ‘आह’ और ‘हे ईश्वर’ के बीच जैसी कराहट में बुझ गई। फिर थैले से एक खाकी रंग की बरसाती निकाली और हवाघर की सीढ़ियों तले करीने से बिछा दी। यह उनकी प्रिय जगह थी... झरोखों से आती हवा में डोलता गुंबद, नवंबर की धूप - और क्या चाहिए?
कुछ भी नहीं। सारी हलचल बंद। न कोई आवाज, न शोर, न किसी तरह की हलचल। एक तिनका भी हिलता तो उसकी गूँज निहालचंद्र की नसों को खटखटा जाती। कभी-कभी किसी जंगली परिंदे की चीत्कार हवा में थरथरा जाती, जैसे वह अपनी भूखी चीख से निहालचंद्र की दबी भूख को कुरेद रहा हो। उसकी चीख सुन कर निहालचंद्र को अपना लंच याद हो आया और उनका हाथ अनायास अपनी पोटली की तरफ मुड़ गया।
उबला हुआ अंडा, टमाटर और खीरे की सैंडविचेज, थर्मस में कॉफी-देवीसिंह हर चीज बड़े करीने से रखता था, मानो वह सुबह की सैर के लिए नहीं, जिंदगी के सफर पर निकल रहे हों। उस पहाड़ी छोकरे को सब कुछ याद रहता था, यहाँ तक कि वह नमक और काली मिर्च की पुड़िया भी रखना नहीं भूलता था। थैले के दूसरे कोने में ट्रांजिस्टर भी दुबका होता था, जिसे मुन्नू विदेश से उनके लिए लाया था - जर्मन ट्रांजिस्टर - उनकी हिंदुस्तानी ऊब और शून्यता को भरने के लिए। वे उसे शायद ही कभी खोलते। कई बार इच्छा हुई थी कि उसे देवीसिंह को दे दें - वह भी तो दिन-भर साँय-साँय करते मकान में ऊँघा करता है, घड़ी-दो घड़ी इस खिलौने से ही खेल लिया करेगा। किंतु फिर वे अपनी इच्छा दबा डालते; गूँगे ट्रांजिस्टर से बेटे की आवाज सुनाई देती, ‘आप दिन-भर खाली बैठे रहते हैं, जरा इसे ही सुना कीजिएगा।’ और तब उन्हें अजीब-सा सन्नाटा घेर लेता, दम-तोड़ती जम्हाई खींचते हुए वह बुड़बुड़ाने लगते, ‘खाली कहाँ प्रभु, मुझे एक मिनट की फुरसत नहीं।’
पता नहीं, यह बात वे अपने बेटे से कहते, जो विदेश में था, या अपनी पत्नी से, जो परलोक में थी या सचमुच प्रभु से, जो कहीं न था। उन्हें शायद खुद भी पता नहीं होता था कि वे अपने से क्या कहते हैं, हवा में जहाँ इतनी आवाजें बहती हैं, वहाँ उन्हें अपनी बातें भी उड़ती जान पड़ती थीं - कोई उनसे पूछता, आपको एक मिनट की फुरसत नहीं, आखिर आप करते क्या हैं? तो वह झट कह देते, देखते नहीं, खाना खा रहा हूँ। और यह सच भी होता-खाना, देखना, चलना, सोना... जीने के साथ-साथ ये काम एक रौ में चलते थे - और निहालचंद्र इस बीच अपने से बातें भी करते थे और अपने को ही सुनते थे।
सुनना। वह सोते हुए भी होता था। खाने के बाद आँखें मुँदने लगतीं। निहालचंद्र डबलरोटी के कंडल और अंडे के छिलके अखबार में बटोर कर अलग रख देते, थैले की गुड़मुड़ी बना कर, बरसाती के सिरहाने टिका देते, पैर पसार कर लेट जाते - किंतु इससे पहले कि नींद आती, परिंदों का रेला उनकी जूठन पर टूट पड़ता। खट, खट, खट -निहालचंद्र को लगता, जैसे उनकी चोंचें अखबार पर नहीं, उनकी नींद में सुराख भेद रही हों। चिड़ियों के पीछे चीलें आतीं और उन्हें खदेड़ कर बचे-खुचे टुकड़ों को दबोच कर गायब हो जातीं। हवा में उनकी डाइव और उठाईगीरी उड़ान के बीच छपाक-सी आवाज होती - जैसे नींद के बीचोबीच किसी ने छलाँग लगाई हो - सिमटते हुए सपने तितर-बितर हो जाते। बादलों की सरकती छाया में नीला गुंबद कुछ टेढ़ा-सा हो जाता और निहालचंद्र को लगता जैसे वे सब कुछ एक डोलते पर्दे के पीछे से देख रहे हों; एक लेटा हुआ आदमी, सिरहाने पर दबा थैला, हवा में फड़फड़ाती बरसाती - और तब उनका दिल तेजी से धड़कने लगता। वे प्रतीक्षा करने लगते।
वह ऐसे ही आ जाती थी। वह आ कर कुछ दूर फासले पर ठिठक जाती थी। गले में झूमती रस्सी, बेचैन-से टटोलते हाथ, झरोखों के भीतर झाँकती आँखें - उस आदमी पर टिकी हुई, जो सीढ़ियों के नीचे खुद एक सीढ़ी-सा लेटा था।
‘निहाली रे, ओ निहाली!
तेरी सारी जेबें खाली
हाय निहाली
क्या सचमुच खाली?’
निहालचंद्र लेटे रहते, आवाज को अपनी गति से पास आने देते, न हिलते, न डुलते, दम साध कर दिल को ढाँपे रखते; उन्हें अंदेशा होता, जरा-सी भी हरकत करेंगे तो वह बिदक जाएगी, जंगल की अन्य अनर्गल आवाजों में खो जाएगी। असली बात विश्वास की है; जब लड़की को विश्वास हो जाता - कि आसपास कोई जोखिम नहीं है तो वह धीरे-धीरे पास आती, चौकन्नी, सतर्क और झिझकती हुई, इसलिए नहीं कि निहालचंद्र पर उसे भरोसा न हो, बल्कि इसलिए कि वे जीवित हैं, निरीह भी, खतरनाक भी; दोनों ही... इसीलिए वह एकदम पास नहीं आती थी, एक हाथ की दूरी बनाए रखती थी, दूसरा हाथ आगे बढ़ाती थी, उनकी जेबों को टटोलने लगती थी, आर्मी ओवरकोट की लंबी अँधेरी जेबें, जिन्हें उसकी अँगुलियाँ धीरे-धीरे सहलाने लगतीं, ‘निहाली, ओ निहाली?’
क्या पूछ रही है, कौन-सा भेद, जिसे वह खींच रही है, खाली जेबों के बीच ? उसकी छुअन लगते ही खून सुलगने लगता, दौड़ने लगता पागल बैल की तरह अंधाधुंध, बदहवास, लगी-बँधी लीकों को तोड़ता हुआ, दिल को अपने साथ घसीटता हुआ, पुरानी हड्डियों से टकराता हुआ और निहालचंद्र अपनी उम्र के बाद सींकचे उठा देते, देह-पिंजर को खुला छोड़ देते, जाने दो, कोई भीतर कहता, भागने दो, कब तक इसे बचा कर रखोगे?
वह शांत घड़ी होती। नवंबर की मुरझाई धूप हवाघर के कंकाली खंडहर पर धीरे-धीरे सरकने लगती। पेड़, पत्ते, झाड़ियाँ निस्पंद खड़े रहते। निहालचंद्र दम रोके प्रतीक्षा करते, एक तिनका भी हिलता तो उनकी देह तन जाती। पलकों को कस कर भींच लेते, जिनके भीतर आँखों के डेले धूप में रंग-बिरंगे गोले-से नाचने लगते और तब एक झटके से वे अपने से छूट जाते - देह अलग पड़ी रहती। और निहालचंद्र? वे दूसरी तरफ चले जाते, जहाँ उनका तीसरा और - अंतिम स्टेशन होता।
वहाँ उन्हें कोई देखनेवाला नहीं था; न डर, न खटका, न कोई गवाह। खंडहर की छाया में उनकी देह औंधी पड़ी रहती। वह उनके पास सरक आती, अपनी चुन्नी को छाती से उड़का कर कंधों पर फेंक देती, उनसे सट कर उकड़ूँ बैठ जाती और तब निहालचंद्र को भ्रम होता कि पलकों के पीछे जो धूप के धब्बे थे, वे असल में सलवार-कमीज की सुर्ख सुलगती बुँदकियाँ हैं - बिल्कुल सामने, वे चाहें, तो उन्हें छू सकते थे। लेकिन वे अपने को रोके रखते। बहाना करते कि वे कुछ भी नहीं देख रहे; उसकी अँगुलियों को अपनी देह से खेलने देते, ‘ओ निहाली, क्या सब कुछ खाली?’
नहीं, आज उनकी जेबें खाली नहीं थीं; आज मैं सब कुछ साथ लाया हूँ। देखोगी? वे अपना सिर थोड़ा-सा ऊपर उठाते, तो उसकी काली, कलपती आँखें उन्हें लीलने लगतीं; आँखें, जो पिछली जिंदगी की धोखाधाड़ी को एक निगाह में तौल लेती हैं।
क्या दिखाएगा, भोंदू! सड़ा हुआ अलूचा, मरा हुआ तीतर या... किसी झींगुर की झरी लोथ? यही चीजें तो वह बहुत पहले लड़की को दिखाता था, निकर की जेबों में ठूँस कर लाता था, एक-एक करके निकालता था, किसी बिल्ली की मूँछ, बुढ़िया का बाल?
कुछ भी नहीं। उस दिन जेब में से एक भी चीज ऐसी नहीं निकली, जिसे वह पहचान सकती। सिर्फ कागजों के ढेर। बैंक की पासबुक, नई-ताजी चिट्ठियाँ, जायदाद के कागज... और एक नीली-सी नन्हीं किताब, जिस पर उसकी निगाहें जम गईं : कर्नल निहालचंद्र का पासपोर्ट जिसे वे हमेशा साथ ले कर चलते थे। सड़क पर कुछ हो जाए तो पुलिस उनकी फोटो, नाम-पता देख कर घर-ठिकाने का पता तो लगा ही सकती है। हर तीन साल बाद पासपोर्ट ऑफिस जा कर उसे रिन्यू करवाते थे; सोचते थे,कभी लड़के से मिलने गए तो काम आएगा। तेरी लालसा मरी नहीं, निहाली?
लालसा! एक तितली-सा उड़ता हुआ वह शब्द निहालचंद्र के इर्द-गिर्द घूमने लगा। क्या कोई ऐसी चीज बची रह गई है, जहाँ वे एक क्षण बैठ सकें... जो सचमुच लालसा हो, जहाँ वे अपने पंख समेट कर आराम से, अकेले में घट सकें? उन्होंने अपने भीतर झाँका, तो वहाँ लालसा नहीं, लड़की बैठी थी – कौन है यह? गले में फँसी चुन्नी, पीला-सा गोल चेहरा, धूल में सनी लटें और रस्सी-कूदनेवाली। रस्सी, जो मानो पिछले पचास सालों से उसके साथ घिसट रही थी। उसका सिर नीचे झुका था और वह एकटक आँखों से उस फोटो को निहार रही थी जो अचानक कागजों के ढेर से बाहर निकल आई थी। निहालचंद्र अपनी उत्सुकता नहीं दबा सके। देखने के लिए नीचे सिर झुकाया तो लड़की की आँखें ऊपर उठ आईं।
‘कौन है यह औरत?’
औरत! उन्हें झटका-सा लगा।
‘मेरी पत्नी,’ उन्होंने कहा।
‘सच?’
‘हाँ, सच, नहीं तो क्या ऐसे ही।’ निहालचंद्र का स्वर कुछ संकुचित-सा हो आया... भीतर-ही-भीतर कुछ दहलने-सा लगा।
‘और ये पहाड़?’
‘पहाड़?’ निहालचंद्र का ध्यान भटकने लगा। नहीं, यह सपना नहीं था। पीछे सचमुच पहाड़ थे, नंगे और धूप में चमकते हुए। उन दिनों उनकी पोस्टिंग लद्दाख में हुई थी। पीछे मानेस्टरी थी, और वहाँ दो बौद्ध भिक्षु उनकी पत्नी को देखते हुए सीढ़ियाँ उतर रहे थे और वह बाजार की तरफ देख रही थी... कैमरे से बिल्कुल बेखबर।
उनकी पत्नी? हाँ, यह वही थी : फोटो पर निहारता चेहरा, जिस पर आखिरी बीमारी का अंदेशा अभी नहीं बैठा था। पीड़ा बहुत आगे थी... क्या वह उसे देख रही थी? नहीं, नहीं, यह तुम देखते हो निहालचंद्र, वह नहीं। कैमरे का क्षण ही उसका चेहरा था, होंठ हल्के-से खुले थे और वह जानती थी कि तुम हो,पहाड़ है, सीढ़ियों पर पैर रखते हुए बौद्ध भिक्षु, दुकानों पर टँगे हुए सेकेंडहैंड कपड़े, हवा में फड़फड़ाते हुए; उस दिन कितनी हवा थी, साड़ी का पल्लू बार-बार उड़ता हुआ उसके चेहरे को ढँक लेता था... लेकिन आश्चर्य! फोटो में सब कुछ शांत था। वहाँ कोई हवा नहीं थी।
वहाँ सिर्फ लड़की की अँगुली थी, धूल में सनी हुई, उस चेहरे पर गड़ी हुई जो उनकी पत्नी थी, मैला कागज था, एक गोल सिफर, फोटो की छाँह...
‘निहाली’, लड़की का स्वर बहुत धीमा था, ‘क्या वे कभी आते हैं?’
‘कौन?’ उन्होंने कुछ विस्मय से पूछा, ‘कौन आते हैं?’
‘तुम्हारा लड़का?’
‘वह बाहर है।’
‘और यह?’ लड़की ने फोटो को देखा।
‘पागल!’ निहालचंद्र उसकी बेवकूफी पर हँस दिए, ‘वह अब इस दुनिया में नहीं है।’
‘फिर तुम?’
‘मैं क्या कट्टो?’
पहली बार उनके मुँह से लड़की का नाम निकला - दहशत में, ‘मैं क्या? क्या मतलब है इसका?’ लड़की हकबकी आँखों से उन्हें देखने लगी। मुँह थोड़ा-सा खुला रह गया।
‘निहाली?’
‘क्या?’
‘मुझे देखते हो?’
निहालचंद्र उसे भूखी, खाली निगाहों से ताकते रहे। अचानक ध्यान आया, इतने बरसों बाद भी कट्टो कितनी ठिगनी और छोटी दिखाई देती है - बौनी-सी। मुद्दत पहले जब वह उम्र में सचमुच छोटी थी, तो कितनी लंबी-जवान दिखाई देती थी, क्या समय उल्टा चलता है? नहीं, यह उनका भ्रम है। शायद बचपन में हर चीज बड़ी दिखाई देती है... घर, पेड़, माँ-बाप और - अचानक निहालचंद्र चौंक गए जैसे लड़की ने पीछे मुड़ कर उनके कानों में फुसफुसाया हो, ‘और - प्रेम, नहीं तो क्या?’
‘प्रेम? क्या तुम किसी से प्रेम कर सके निहाली? कर्नल निहालचंद्र?’
एक धक्का-सा खा कर वे होश में आए। किसकी आवाज थी यह - या सिर्फ छल और धोखा था। भीतर की अटपटी पुकार, जो बुढ़ापे के जंगल में उठती है, लावारिस-सी तपती आवाज, दरवाजा खटखटाती है, खोलो, तो कुछ नहीं, शून्य का अनंत विस्तार दिखाई देता है, दूर-दूर तक कोई नहीं, भीतर का लहू बाहर की झुलसती लू पर धधकता है, न प्रेम, न लगाव, न मोह की पीड़ा - पीड़ा भी नहीं, कुछ भी दिखाई नहीं देता, पत्नी का चेहरा और बेटे की याद, कुछ भी नहीं - सिर्फ मैं। तुम कौन निहालचंद्र, क्या हो तुम?
खट-खट-खट... वह रस्सी कूद रही थी। ऊपर-नीचे, नीचे-ऊपर... खंडहर के सूने में उसके पैरों की गूँज निहालचंद्र की मुँदी पलकों को छपछपाने लगी।
वे सो रहे थे। खाने के बाद वे घड़ी-दो घड़ी जरूर सो लेते थे। जब वे सो रहे होते, चीलों-चिड़ियों का झुंड हवाघर के झरोखों पर बैठ जाता। निहालचंद्र की जूठन खा कर अब उनकी निगाहें निहालचंद्र की देह पर चिपक जातीं - मानो सोच रहे हों, क्या यह देह भी उनके आहार में शामिल है? उन्हें काफी निराशा हुई, जब निहालचंद्र ने आँखें खोल दीं। सबसे पहले आकाश दिखाई दिया... नवंबर का नीला टुकड़ा। वह उनकी नींद से निकल कर गुंबद पर आ अटका था। नीला और सफेद; सर्दी की धुंध में स्वप्न के फाहे-सा; वह नींद की धुंध थी - जिसमें आधी देह सोई रहती है, आधी सिर बाहर निकाल कर दुनिया को देखती है... देवीसिंह! उन्होंने धीरे से आवाज लगाई, फिर अचानक याद आया, वे घर में नहीं, बाहर लेटे हैं। लेटे-ही-लेटे हाथ बढ़ा कर थैले को टटोला; वे थर्मस निकाल कर बची हुई कॉफी से गला तर करना चाहते थे; किंतु उनका हाथ थैले पर नहीं - कागजों के ढेर पर जा पड़ा।
वे हवा में सरसरा रहे थे। पेंशन के दस्तावेज, फोटो, खत, खुला हुआ पासपोर्ट। निहालचंद्र ने झटके से सिर मोड़ा... ये यहाँ कैसे निकल आए? उन्हें ठीक से याद नहीं पड़ा, कब उन्हें अपनी जेबों से बाहर निकाला था? कुछ चीजें उनकी चेतना की चौहद्दी के बाहर हो जाती थीं... अनदेखे घट जाती थीं - अपनी मौजूदगी को अचानक उनके सामने पटक देती थीं... देखो, ये हम हैं, तुम्हारे सामने, और तुम्हें पता भी नहीं? और निहालचंद्र खिसियाने-से हो कर उन्हें स्वीकार कर लेते हैं; कभी यह पूछने का साहस नहीं हुआ, मैंने तो तुम्हें जेब में रखा था, तुम बाहर कैसे निकल आईं? सच पूछो तो निहालचंद्र को चीजें आदमियों से कहीं ज्यादा सगी और समझदार जान पड़ती थीं - पालतू जानवरों-सी-वे बरसों उनके साथ रही थीं और कभी उन्हें धोखा नहीं दिया था। वे आँख मूँद कर सिर्फ छूने-भर से उनकी पुरानी, पपड़ाई पहचान को पकड़ लेते थे - यह मुन्नू का पत्र है और यह है बैंक की पासबुक, यह लद्दाख का फोटो है - और यह? अचानक उनकी टटोलती अँगुलियाँ ठिठक गईं। आँखें खोलीं तो देवीसिंह का पोस्टकार्ड दिखाई दिया, जो उसने छुट्टियों में गाँव से भेजा था...
देवीसिंह का ध्यान आते ही वे हड़बड़ा-से गए। वह बरामदे में गुड़मुड़ी-सा बना बैठा होगा - पता नहीं कितनी बार खाने को गर्म किया होगा, दरवाजा खोल कर बाहर झाँका होगा। उन्हें अक्सर देर हो जाती थी और अपनी बड़ी पहाड़ी आँखें उठा कर गहरे आश्चर्य में देखता था; कहता कुछ नहीं था, किंतु हर बार एक ही प्रश्न उसकी गूँगी निगाहों में झलक जाता था - आप कहाँ जाते हैं? सुबह की सैर और शाम तक गायब - अगर आपको कुछ हो गया, तो मैं कहाँ आपको ढूँढ़ता फिरूँगा? निहालचंद्र हर रोज कोई-न-कोई बहाना खोज निकालते - लेकिन भीतर एक धुकधुकी-सी मची रहती कि कहीं वह उनकी शिकायत मुन्नू को न लिख भेजे। विदेश जाने से पहले वह बार-बार उनसे कह गया था, ‘देवीसिंह के अलावा आपके पास कोई नहीं... वह चला गया, तो आप अपाहिज हो जाएँगे।’ अपाहिज! ठीक है, हो जाऊँगा। तुम तो देखने नहीं आओगे। बरामदे में खटिया डाल कर पड़ा रहूँगा - मुझे अब किसी की जरूरत नहीं। मेरे लिए अब सब कुछ एक-जैसा है... जैसी रात, वैसा दिन... उनका गुस्सा बहने लगा, एक रुआँसा बेबस क्रोध, उस पानी की तरह बाँझ और बेतुका, जो रेगिस्तान की झुलसती जमीन पर बरसता है, बह जाता है, सूख जाता है, अपने पीछे रत्ती-भर हरियाली नहीं छोड़ता।
रेगिस्तान! उनके हाथ बिखरे हुए कागज पर ठिठक गए। उनकी अंतिम पोस्टिंग वहीं हुई थी, राजस्थान और पाकिस्तान के बॉर्डर पर; चारों तरफ रेगिस्तान फैला था। अब सोचते हैं, तो हँसी आती है, लेकिन उन दिनों वहीं बस जाने की इच्छा होती थी। लगता था, वे अपनी जिंदगी के आखिरी पड़ाव पर आ पहुँचे हैं। घंटों रेगिस्तान में घूमते रहते, रेत के कँगूरों पर बैठे रहते, न पत्नी की याद आती, न लड़के की, अकेली घड़ियों में लगता, जैसे वे धीरे-धीरे किसी सत्य की तरफ पहुँच रहे हैं, उस अँधेरे कुएँ की थाह को छू रहे हैं, जो उम्र के अंतिम छोर पर उन्हें इतना अकेला छोड़ गया था... कभी-कभी हैरानी भी होती थी कि जो सत्य लद्दाख में बौद्ध भिक्षुओं से नहीं मिल सका, वह आखिर में रेगिस्तान की साँय-साँय करती उड़ती धूल में दिख गया?... कैसा सत्य निहाली?
निहालचंद्र ने सिर मोड़ा, वे कुछ कहना चाहते थे, कोई बात, जो बरसों से भीतर घुमड़ती रही थी - लबालब गले में भर जाती थी, थकान, उम्र और हिचकिचाहट को काटती हुई... किंतु वहाँ कोई न था। झाड़ियों पर नवंबर की धूप गिर रही थी। हवाघर का गुंबद एक निस्पंद और नीली मुट्ठी-सा हवा में उठा था... न चील, न चिड़िया, न कोई आवाज। रस्सी कूदने की खटखट भी नहीं। सिर्फ एक पथराई सर्द रोशनी थी... जो अब एक मुरझाई सफेदी-सी सारे जंगल पर फैली थी।
निहालचंद्र कुछ देर बिना हिले-डुले बैठे रहे... फिर उन्होंने जबर्दस्ती अपने को खड़ा किया, जैसे वह अपनी नहीं, किसी दूसरे की देह को घसीट रहे हों। पोटली, छड़ी, थर्मस... जेबों में ठुँसे कागज। जब निहालचंद्र चलने लगे, तो सब कुछ उनके पास था। वह कुछ भी नहीं भूले थे। और पीछे कुछ भी नहीं छूटा था।
पीछे मुड़ने का रास्ता वही था, जिस पर वे चल कर आए थे। पथरीली पगडंडी, झाड़-झंखाड़, दूर-दूर तक खड़े मिट्टी के ढूह, पीले और सफेद दागों से दगे हुए जिन पर परिंदो ने बीट कर दी थी। वे कब पीछे छूट गए, निहालचंद्र को पता भी न चला। वे कुछ खास सोच भी नहीं रहे थे, जो उनका मन भटका देता, सिर्फ कोई भटका-सा खयाल आ जाता, जो उनके मन को छूता हुआ निकल जाता, देवीसिंह का चेहरा, घर का कमरा, जेब में ठुँसे कागजों की खड़-खड़ - इन सबकी छोटी-छोटी चिंदियाँ उनके रास्ते पर उड़ती जातीं; वे एक को पकड़ते, तो दूसरी उन्हें पकड़ लेती। सुबह की एकाग्र तन्मयता अब खत्म हो चुकी थी, जब वे आँखें मूँदे हवाघर की ओर भागते जा रहे थे; अब सिर्फ बदहवासी थी, जिसमें आँखें खुली रहती हैं और दिखाई कुछ नहीं देता।
फिर जंगल का टुकड़ा आया और निहालचंद्र को लगा, जैसे वे धूप की सफेदी से उतर कर एक लंबी छाँह में चले आए हैं। आँखों को राहत मिली। पत्तों पर पैर आसानी से पड़ते जाते, कभी कोई झाड़ी उनके कोट से अटक जाती, तो वह खड़े हो जाते, बहुत कोमलता से अपने को रिहा करते, एक अजीब-सा भ्रम होता, जैसे कोई दबे पाँव उनके पीछे आ रहा है। वे मुड़ कर पीछे देखते तो कोई दिखाई नहीं देता - सिर उठाए पेड़, नीचे झुकी झाड़ियाँ... बीच में नाचते धूप के छल्ले। उन्हें लगता, मानो ऐसा कभी पहले भी हुआ है... मुद्दत पहले - जब वह उनके पीछे गायब हो जाती थी और वे अपने घर के बाग में अकेले चक्कर लगाते थे - कट्टो? वह आवाज देने की कोशिश करते, किंतु कोई उनका गला पकड़ लेता - जाने दो, उनके भीतर का शैतान कहता, तुम्हारे आगे सारी जिंदगी पड़ी है। आगे और आगे... वह उन्हें घसीटता हुआ यहाँ तक ले आया था...
कैसी जिंदगी?
ऊपर हल्की-सी फड़फड़ाहट हुई और उनके पैर सहसा ठिठक गए। सिर उठाया, तो पहले क्षण कुछ दिखाई नहीं दिया। दोनों तरफ के पेड़ एक-दूसरे पर झुके थे। पत्तों के बीच आकाश की नीली फाँक चमक जाती थी। उन्हें समझ में नहीं आया, यह आवाज कहाँ से आई है; फिर सोचा, ऊपर की कोई शाख हिली है, एक डाल से जब कोई पक्षी उड़ता है, तो वह काँपती है, किंतु दूसरी डाल भी थोड़ा-सा हिलती है, जिस पर वह बैठता है, लेकिन ऊपर कोई पक्षी दिखाई नहीं दिया - उस अजीब-सी खड़खड़ाहट के बाद सब कुछ शांत हो गया था।
निहालचंद्र आगे बढ़े - और तब उन्हें एक बार किसी ने फिर रोक लिया। इस बार कोई आवाज नहीं थी। सिर्फ उनकी आँखों के सामने कुछ डोल रहा था। उन्होंने अपने चश्मे को सीधा किया, जो ऊपर देखने से नीचे खिसक आया था - इस बार उनकी आँखें उठीं, तो वहीं थिर हो कर रह गईं।
वह बरगद का छतनार पेड़ था। उसकी शाख नीचे झुकी थी, एक बूढ़ी बाँह की तरह मुड़ी हुई, जिसके किनारे पर एक रस्सी लटकी थी, धीरे-धीरे हवा में डोल रही थी, जैसे कोई साँप बीन सुनता हुआ फन हिलाता है। उन्हें कुछ आश्चर्य हुआ कि रस्सी को पेड़ से बाँधा नहीं गया था, सिर्फ टहनी पर फेंक दिया गया था और वह वहाँ अटक गई थी, अधार में लटकी हुई, दोनों सिरों को हवा में झुलाती हुई। रस्सी के किनारों पर दो नन्हें मेहँदी रँगे हाथों से बेलन जुड़े थे, काठ के बेलन, हथेलियों की रगड़, धूल और पसीने से घिसे हुए...
पता नहीं, कितनी देर निहालचंद्र उसे निहारते रहे, जैसे वह रस्सी न हो कर कोई मायापाश हो... नवंबर की धूप में झूलती मृगतृष्णा। हवा ठहर गई थी, सारा जंगल एक घोंसले-सा सिमट आया था... अपने भीतर ही साँसें खींचता हुआ। वह सिर उठाए निश्चल खड़े थे। कोई उन्हें देखता तो भ्रम होता कि वह आदमी नहीं है - जंगल का ही कोई बूढ़ा, लंबा जंतु कोई अनहोनी-सी आहट सुन कर बीच पगडंडी पर खड़ा हो गया है। उनका कद इतना लंबा था कि जरा-सा हाथ उठाते ही वे रस्सी को छू सकते थे, पकड़ कर नीचे खींच सकते थे, किंतु वे बिना हिले-डुले खड़े रहे; कट्टो - उन्होंने धीरे से फुसफुसाया, फिर आवाज कुछ ऊपर उठ गई, छाती की बलगम के बीच एक खँखारती पुकार, जो भीतर की दलदल से बाहर निकलने को छटपटा रही थी। कुछ देर अभेद्य सन्नाटा सनसनाता रहा... फिर अचानक उन्हें अपनी चीख सुनाई दी, जो किसी तरह बाहर निकल आई थी, और इस बार किसी ने उनको नहीं रोका, गला दबा कर उन्हें चुप नहीं कराया, और वे उसे सुनते रहे, जो उनकी आवाज थी, जंगल के आर-पार, झाड़ियों और पेड़ों के बीच, बचपन के एक सिरे से बुढ़ापे के दूसरे सिरे तक गूँजती हुई...
कोई जवाब नहीं मिला। आसपास कहीं कोई न था। हवा उठी थी और पेड़ सरसरा रहे थे... रस्सी के दोनों सिरे नशे में झूल रहे थे। कुछ देर तक वे इस आशा में खड़े रहे कि वह अचानक झाड़ियों के बीच प्रकट हो जाएगी, अपनी रस्सी लेने दोबारा लौट आएगी... किंतु बहुत देर तक कहीं कोई दिखाई नहीं दिया, न उसकी हँसी, न झाड़ियों की खड़खड़ -कुछ भी ऐसा नहीं जो उन्हें विश्वास दिला सके कि वह उस दोपहर उनके पास आई थी, उनसे सट कर बैठी थी, जेबों की तलाशी ली थी, जब वे सो रहे थे; और उनके कागज बाहर बिखरे थे, जब वे जागे थे...
निहालचंद्र? क्या तुम सचमुच जागे थे?
अँधेरा होते ही हवा रुक गई। कुछ भी नहीं हिल रहा था; न झाड़ी, न पत्ता, न पेड़। कभी-कभी जंगल के भीतर से एक गर्म उसाँस-सी निकलती थी, सिर-सिर करती एक सीटी बजाती थी - ऊपर उठ जाती थी - धोबीघाट के ऊपर... कुत्तों को चौंकाती हुई आगे बढ़ जाती थी, गंदे नाले पर उतर जाती थी और धीरे-धीरे सरकती हुई निहालचंद्र के घर के फाटक पर आ कर रुक जाती थी।
देवीसिंह उसे ऊँघते हुए सुनता-और रह-रह कर हुड़क जाता। वह पहाड़ी था और बचपन से इस तरह की अँधेरी, स्वरहीन आवाजों को सुनता आया था - जो आवाजें भी नहीं थीं - केवल जंगल की देह की गूँगी वासनाएँ, जो पशुओं और पेड़ों की कराहों में सिसका करती थीं। वह बार-बार दरवाजे की तरफ भागता, बाहर झाँकता और फिर वैसे ही भागता हुआ रसोई में लौट आता।
उस रात वह रसोई में ही लेटा था। रात का खाना दो बार गर्म हो कर अब ठंडा पड़ गया था। ऐसा बहुत कम होता था कि कर्नल साहब सुबह की सैर को निकलें और दोपहर तक घर न लौट आएँ। देरी हो जाती तो भी अँधेरा होने से पहले जरूर लौट आते थे। सीढ़ियों पर छड़ी की खटखटाहट से ही देवीसिंह पहचान जाता था कि वे लौट आए हैं। कभी-कभी गुस्से में भरा वह रसोई में ही लेटा रहता, जैसे उनकी आहट सुनी ही न हो, ऐसे दिनों में निहालचंद्र उसे बुलाते नहीं थे, उसकी आँखें बचा कर दबे पाँवों से अपने कमरे में घुस जाते, बिस्तर पर लेट जाते - और तब देवीसिंह का मन हुलसने लगता, जल्दी से चाय बना कर उनके कमरे में ले आता और वह आँखें मूँद कर बहाना करते, जैसे उसे देखा ही न हो।
किंतु उस रात उनका कमरा खाली था, पलँग के नीचे उनकी चप्पलें पड़ी थीं। कोने में चिलमची और गर्म पानी का जग, जो अब एकदम ठंडा पड़ गया था। देवीसिंह ने कमरे की अँगीठी में आग जला दी, ताकि जब वे आएँ, तो उसे परेशान न करें, खाना खा कर तुरंत सो जाएँ। खुद उसकी आँखें बोझिल हो रही थीं - एक बार इच्छा हुई कि पड़ोस के मकान में खबर दे आए कि कर्नल साहब अभी तक नहीं लौटे, किंतु फिर पैर रुक गए। शहर में छोटी-से-छोटी बात पर पुलिस आ धमकती है। देवीसिंह को पुलिस देखते ही कँपकँपी छूटने लगती थी। चुप रहना ही बेहतर था। अभी नहीं, कुछ देर में आते होंगे, अकेले आदमी, जाएँगे कहाँ? और इस उम्र में भला?
यह बहुत बड़ी सांत्वना थी। निहालचंद्र सचमुच ही कहीं नहीं जा सकते थे। सिर्फ लौट सकते थे - हर दोपहर साल में तीन सौ पैंसठ बार। बेनागा, उम्र के आखिरी दिन तक।
धीरे से कुछ खड़का, तो वह चौंक गया। क्या दरवाजा खटका है, या सिर्फ हवा है? देवीसिंह कुछ देर अँधेरे में बैठा रहा, फिर दबे पाँव निहालचंद्र के कमरे में गया। आग में सुलगती लकड़ियाँ कड़क उठती थीं, जिनकी आवाज ने उसे जगा दिया था। अँगीठी के पास रखी लोहे की सलाख से उसने नीचे दबी लकड़ियों को ऊपर खिसकाया, राख को कुरेदा और जब वे बल-बल करती हुई दोबारा जलने लगीं तो वहीं लेट गया, निहालचंद्र के पलँग के नीचे, आग की लपकती लपटों की गरमाई कब उसकी नींद को घेर लाई, उसे पता भी नहीं चला। यह भी पता नहीं चला कि कब वह दरवाजे की साँकल खोल कर बाहर चला आया, उसी रास्ते पर चलने लगा, जिस पर हर रोज निहालचंद्र सैर के लिए जाते थे, गंदा नाला, धोबीघाट का मैदान, नहर की चमकीली, सँकरी धारा...
पेड़ों के ऊपर चाँद निकल आया था और सारा जंगल एक अद्भुत उजाले में चमक रहा था। कुछ दूर पर वह दिखाई दिए, दोनों हाथों को हवा में डुलाते हुए। देवीसिंह के पैर ठिठक गए। उसे कुछ अजीब-सा लगा कि कर्नल साहब का वही चेहरा-मोहरा है, वही देह, वही कपड़े - लेकिन उस क्षण वे चौदह बरस के लड़के दिखाई दे रहे थे। साफ, कुँआरा, उत्सुक चेहरा - वे अपने दोनों हाथ हवा में हिला रहे थे। वे उसे बुला रहे थे - और तब वह निडर हो कर भागने लगा। बिल्कुल उनके पास चला आया, वहीं खड़ा हो गया, जहाँ वे पेड़ के नीचे झूल रहे थे।
निहालचंद्र के गले में रस्सी फँसी थी और रस्सी का सिरा पेड़ की टहनी से बँधा था। टहनी हिल रही थी और निहालचंद्र लटक रहे थे। नीचे घास पर उनका थैला, उनकी थर्मस, उनकी आर्मी का कोट पड़ा था, दोनों जेबें उघड़ी पड़ी थीं - नंगी और उल्टी, बिल्कुल खाली। खट-खट... खट... उसे अजीब-सी आवाज सुनाई दी, सिर उठाया, तो बच्चों के कूदनेवाली रस्सी दिखाई दी, चाँदनी में हिलते हुए दो नन्हें पीले बेलन, जो टहनी के हिलने से बार-बार निहालचंद्र के झूलते सिर से टकरा जाते थे।