सुबह होने तक / दीपक श्रीवास्तव

Gadya Kosh से
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सराय मलिक गाँव की नींव, राजा मलिक की रखैल हुस्न बानो के रहने के लिए राजा ने रखी थी। टेढ़े पंडित ने यह पुरातात्विक स्थापना करतारपुर चौराहे पर चाय सुड़सुड़ाते लोगों के बीच की तो लोगों की गालियों के केंद्र में आ गए।

टेढ़े पंडित बगल के गाँव भदऊ के रहने वाले हैं। उनका भला-सा नाम रामशंकर तिवारी है, लेकिन मेरी जानकारी में उन्हें इस नाम से कोई नहीं बुलाता है। उनकी प्रसिद्धि, अपने पिता राधे पंडित की वजह से है, जो समलैंगिक संबंधों के लिए कुख्यात थे। उनकी मौत दो साल पहले हो गई है। उन्होंने लंबी उम्र पाई थी। बुढ़ापे में लड़के उन्हें परेशान करते थे। जाहिर है, बड़ों के उकसाने पर। इसलिए अधिकतर समय खिन्न रहते थे और गालियाँ बका करते थे। वह जब गाली नहीं दे रहे होते थे तब उनके चेहरे पर रहस्य भरी मुस्कान रहती थी। दूरदर्शन पर जब मैनें 'महाभारत' सीरियल देखा, उसमें श्री कृष्ण का अभिनय करने वाले अभिनेता के चेहरे पर भी वही मुस्कान थी।

टेढ़े पंडित की यह नई खोज, सरायमलिक वालों पर भारी पड़ रही थी। रखैल की विरासत सँभालने को कोई तैयार नहीं था। वाद-प्रतिवाद का दौर शुरू हो गया। भदऊ वालों की गोल, टेढ़े पंडित के समर्थन में आ गई। सराय मलिक वालों की कप्तानी मेरे चाचा हरिहरनाथ कर रहे थे। उन्होंने इस समवेत चीखपुकार के बीच राधे पंडित का उल्लेख किया और अपनी टीपें दीं कि राधे ने अपने लड़के को भी नहीं छोड़ा था। संत भाव से टेढ़े पंडित निर्विकार बैठे रहे। लग रहे आरोपों से वहाँ की भाषा में उनका रोवाँ भी टेड़ा नहीं हो रहा था। चिल्लहट के बीच लोगों को शांत करने के प्रयास किए बिना ही उन्होंने अपनी स्थापना के समर्थन में तर्क देने आरंभ किए।

उनका पहला सवाल था, 'सराय मलिक में भुतइया बाग है।'

लोगों ने कहा है, 'हाँ है।'

'वहाँ लाखौरी ईंटों वाला खंडहर है।' लोगों ने सहमति में सिर हिलाया, इस बीच दो-तीन बयान आए कि विशुन महराज और कोदई महराज ने खंडहर की ईंटों का इस्तेमाल अपने घर में कर लिया। धत्-धत् की सामूहिक भर्त्सना के बीच टेढ़े पंडित एक कुशल आलोचक की तरह माहौल में विषय को उभारने में सफल हो रहे थे।

वो खड़े हो गए और नाटकीय अंदाज में बोले, 'बताइए तो, खंडहर के सामने जो आम का पेड़ है, जिसका मुँहवा लाल होता है, उस आम का नाम बताइए।'

कुतर्की तो शांत रहे लेकिन भकुवा लोगों के मुँह से निकल ही गया, 'हुस्नपरी'।

टेढ़े पंडित बैठ गए। उन्होंने अपने सारे अस्त्र चला दिए थे। मजमा पहले शांत रहा, पहले कुछ लोगों को समझ में आया तो वो हँसे, बाद में समवेत ठहाका लगा।

'इ सरवा कुछ न कुछ खुराफात ढूँढ़ता रहता है।' के समवेत निंदा प्रस्ताव के बाद प्रकरण का पटाक्षेप हुआ। चाय के बाद की सुर्ती बनी और सामूहिक वितरण के बाद पुरानी गोल धीरे-धीरे विसर्जित होने लगी।

मैं नरेन की कोचिंग के बाहर कुर्सी निकाल कर बैठा था और वहीं से मुजरा कर रहा था। पिछले दो-तीन साल से करतारपुर चौराहा विकसित हो रहा है। सराय मलिक, भदऊ, नेवरी, लखनपुर आदि गाँवों के केंद्र में करतारपुर है। यहाँ से जिला सड़क गुजरती है जो चकेसर ब्लाक को तहसील से मिलाती है। चकेसर ब्लाक, हमारे यहाँ से तीन किलोमीटर ही है और सराय मलिक वालों की मुख्य बाजार है। करतारपुर चौराहे वाला जमावाड़ा पहले चकेसर को जाता था। करतारपुर में दुकानें बन जाने से आस-पास के लोग यहीं आने लगे। नई और पुरानी गोल की बैठकी अलग-अलग होती है। पुरानी गोल के लोगों के विमर्श मुख्य रूप से व्यक्तिगत चुहल, राजनितिक चर्चा, परनिंदा, धर्म का महत्व आदि विषयों तक सीमित रहते हैं। वहीं युवा व नवयुवा समूह हर तरह के विषयों की समीक्षा करते हैं। अँधेरा होने के साथ-साथ दुकानें बंद होने लगती हैं। हाँ, दोनों गोलों के सम्मानित सुरा प्रेमी एक व अनेक दलों में संबद्ध होकर जुगाड़ अथवा नकद से अपनी सेवाएँ लेते हैं।

मैं जब से दिल्ली से आया हूँ, मेरा शाम का समय यही कटता है। मैं व नरेन, इलाहाबाद में बी.ए. में सहपाठी थे। बी.ए. के बाद मैं दिल्ली चला गया। वहाँ एम.ए. तथा एम.फिल. के बाद एक अच्छे रोजगार और भविष्य की संभावनाएँ तलाश रहा हूँ। सक्रिय अध्ययन समाप्त हुए तीन वर्ष हो गए। कई प्रतियोगी परीक्षाओं की उम्र निकल गई। दिल्ली संभावनाओं की नगरी है। मुझे नहीं पता, मेरे लिए वो द्वार कब खुलेंगे। दिल्ली के फरफराते लड़के-लड़कियों के बीच मैं कहाँ पिछड़ जाता हूँ, कायदे से अभी यही नहीं समझ पाया। अब कोशिश है कि किसी एनजीओ या प्रोजेक्ट मे ही लग जाऊँ तो दिल्ली रहने का मकसद बना रहे।

नरेन इलाहाबाद में संघर्षरत रहने के बाद वापस गाँव आ गया और यहीं करतारपुर में उसने कोचिंग खोल लीं। गर्मियों में दिल्ली में बिना किसी प्रयोजन के रुकना मेरे लिए असह्य होता है। इसलिए गर्मियों में गाँव या पिताजी के पास बाराबंकी चला जाता हूँ, जो वहाँ डिग्री कालेज में प्राध्यापक हैं। पिताजी को मेरा गाँव जाना पसंद नहीं है। मुझे पिताजी के पास बाराबंकी जाना अच्छा नहीं लगता है। वहाँ इतनी अनुशासित मर्यादा रहती है कि मैं वहाँ फालतू लगने लगता हूँ। माँ को गुजरे पाँच साल हो गए। पिताजी के कालेज का चपरासी सफाई व खाने का इंतजाम कर देता है। पिताजी अपने को हमेशा आत्मनिर्भर दिखाने की कोशिश करते हैं। इसलिए भी मेरी जरूरत वहाँ नहीं रहती।

शाम गहराने लगी थी। नरेन ने कोचिंग बंद की, अपनी साइकिल निकाली फिर मुझसे पूछा, 'तुम्हें घर छोड़ दूँ।'

तभी मुझे आसरे दिख गया। आसरे जाति का दलित है, मुझसे आठ-नौ साल बड़ा होगा। वह दिल्ली कमाता है। मैने आसरे को आवाज दी और नरेन से कहा, 'मैं आसरे के साथ निकल जाऊँगा।'

आसरे मेरी आवाज पर रुक गया। मैं उसके पास पहुँचा तब हम साथ-साथ चलने लगे। उसने बीड़ी सुलगा ली।

चलते हुए मैंने पूछा, 'दिल्ली में क्या करते हो, आसरे।'

धुआँ छोड़ते हुए उसने कहा, 'भैया, जूता फैकटरी में हैं।'

'क्या जूता बना लेते हो।'

'नहीं! अभी तो हेल्परी करते हैं। कारीगर नहीं बने हैं।' वह हँसा।

'निहोर क्या करता है।' निहोर उसका छोटा भाई है और मेरा समवयस्क है।

'उ तो ड्राइबरी करता है। मालिक का कार चलाता है। देखेंगे तो पहचान नहीं पाएगें।' वह निहोर के विकास से प्रसन्न था।

'दिल्ली में कहाँ रहते हो।' मेरे इस सवाल पर वह थोड़ी देर खामोश रहा, फिर धीरे से बोला, 'सहादतपुरी में।'

इस बारे में वह कोई बात नहीं करना चाहता था।

'खेती यहाँ कौन करता है।'

'हम लोगों के पास खेत कहाँ है।' वह मेरी अज्ञानता पर मुस्कराया।

फिर सूचना दी, 'दो बिस्वा उसरा (बंजर) पर पट्टा में मिला था, होना ना होना बराबर है।' मैं खिसिया गया।

हम उसरा से ही गुजर रहे थे। पहले यहाँ रेह से भरी जमीन थी। एक तालाब है और किनारे बंजर मैदान है। मैदान खेल गतिविधियों का केंद्र था। एक समय सराय मलिक की फुटबाल टीम पूरे क्षेत्र में प्रसिद्ध थी। अपने उत्कर्ष काल में गाँव के कई उदीयमान खिलाड़ी टीम की शोभा हुआ करते थे। आसरे, फुलबैक खेला करता था। टीम का गोलकीपर फिरतू चमार था। मैंने बाद के समय में कई विश्वकप और क्लब मैच टीवी पर देखे, लेकिन फिरतू जैसा चपल और तकनीकी सिद्धता वाला गोलची नहीं देखा, जो चिल्ला-चिल्ला कर अपनी टीम की रक्षा रणनीति संयोजित करता और गोल के सामने अभेद दीवार की तरह खड़ा रहता।

सराय मलिक की टीम जब बाहर खेलने जाती थी, तब सराय मलिक और आस-पास के गाँव से सौ-सवा सौ लोग टीम के साथ जाते थे। उनका एक उद्देश्य खेल का आनंद लेना होता था लेकिन दूसरा व मुख्य उद्देश्य टीम की सुरक्षा होती थी। हमारे क्षेत्र में उस समय मैच फिक्स नहीं होते थे बल्कि अपहृत और बलकृत कर लिए जाते थे। इसलिए गाँव के गौरव के लिए संख्या बल का होना जरूरी होता था। अब परंपरागत खेल धीरे-धीरे बंद हो गए। उनकी जगह नए खेलो ने ले ली है। उसरा भी छोटा हो गया। वहाँ ग्राम पंचायत ने काफी जमीन पट्टा कर दिया। पट्टादारों ने वहाँ खेत तैयार कर किए। मैंने आसरे के चेहरे की तरफ देखा। उसने निर्लिप्त भाव से दूसरी बीड़ी सुलगा ली थी। उसे पता था कि मैं भी दिल्ली में रहता हूँ लेकिन इस बारे में उसने कोई सवाल नहीं किया।

'फिरतू क्या करता है।' मैंने पूछा।

'कानपुर में ठेला खींचता है।' कहकर वह भी उसरा की तरफ देखने लगा। हम फिर शेष रास्ते खामोश रहे। उसरा के बाद खोर थी जो आगे दो रास्तों में बँट गई थी। एक चमरौटी की तरफ चली गई थी और एक मेरे घर की ओर।

सामने मेरा गाँव सराय मलिक है। अँधेरे के धब्बों के बीच पेड़ो के झुरमुट में गाँव के सीवान पर पहला घर हमीं लोगों का है।

हमारे पुरखे गदर के समय बनारस से भाग कर इस गाँव में अपने दूर के रिश्तेदार के यहाँ शरणार्थी बन कर आए थे। गाँव के बाहर बाग में उन्हें शरण मिली थी। मेरे परबाबा और बाबा पटवारी थे। उन्होंने ही अपनी चालाकी और कौशल से ग्यारह पक्के बीघे की जमीन बना ली। जिसके वर्तमान वारिस मेरे पिता व चाचा हैं। संयुक्त रूप में हम गाँव के बड़े जोतदारों में हैं। वर्तमान समय में अधिकांश खेती अधिया पर होती है। खेती का प्रबंधन मुख्य रूप से चाची, आंशिक रूप से चाचा और नीतिगत रूप में पिताजी के पास रहती है। खेती की जमीन, पिताजी के गाँव से संबंध जोड़े रखने का एक महत्वपूर्ण कारण है। नरेन के शब्दों में हम एनआरवी प्रजाति अर्थात नान रेजिडेंट विलेजर हैं, जो संपत्ति के लालच में गाँव से जुड़े रहने को अभिशप्त हैं।

पिता और चाचा विपरीत ध्रुवी हैं। जबसे मैं समझने लायक हुआ तब से दोनों के बीच तनाव ही पलते देखा है। सबके सामने दोनों भाई, आदर्श भाइयों जैसा दिखाते हैं। लेकिन अपने विश्वासी मित्रों के सामने, एक दूसरे की जमकर बुराई करते हैं। पिताजी को गर्व है कि इस जाहिल गाँव से उठकर उन्होंने उच्च शिक्षा, एक सम्मानजनक कैरियर और आर्थिक स्वायत्तता प्राप्त किया। चाचा को भी पढ़ाने के लिए पिता उन्हें अपने साथ ले गए थे। उस समय दादी जिंदा थीं। शायद, दो साल बाद ही चाचा लड़-झगड़ कर वापस गाँव आ गए। चकेसर इंटर कालेज में अपने और साथियों के कई महती प्रयासों के बाद भी हाईस्कूल की बाधा नहीं प्राप्त कर पाए। हाँ, वहाँ अपने नशे के ट्रेनिंग स्कूल की स्थापना जरूर की ली।

पिता के सफल शैक्षिक उपलब्धियों की चमक ने चाचा के अँधेरे को और गाढ़ा कर दिया था। सुर्ती-बीड़ी से शुरू हुआ उनका सफर भाँग, गाँजा, शराब और नित नए प्रयोगों के साथ बढ़ता गया। चाचा उनकी आर्थिक पूर्ति के लिए अन्य कार्यों के लिए प्रेरित हुए। सुधारने के शादी वाले टोटके में उनकी शादी चाची से हुई। कैरियर बनाने के उपक्रम में चाचा ने कई शहरों व महानगरों की यात्रा की, हर जगह से लुटकर और लूट कर, पिट कर और पीट कर वापस सराय मलिक में शरण पाए। चाचा की पहचान गाँव के लफाड़िया लोगों में होती है जिनका विश्वास कोई आखिरी दाँव के रूप में ही करता है।

दादी जब तक जिंदा रही अपने छोटे लड़के का स्यापा करती रहीं। पिता रिश्तेदारों या गाँव के लोगों के बीच, जब, अपने छोटे भाई के बरबाद होने और उसे सुधारने के अपने अभिनव प्रयासों की चर्चा करते, इस बीच समूह पिता की गौरव गाथा की टेक लगाती रहती, तब, पिता के चेहरे पर चमक और भी बढ़ जाती। माँ जब तक थीं, पिताजी पर अंकुश था। माँ की रणनीती दूसरी थी। वह गाँव से कम सबंध रखती थीं। जिससे यहाँ की जिम्मेदारियों से भी बचा जा सके। माँ के गुजरने के बाद पिता को खुली छूट मिल गई। उन्होंने गाँव के सारे निर्णय अपने अधिकार में रख लिए। चाचा को गैर जिम्मेदार सिद्ध करने का वो हर सायास प्रयास करते। चाचा की बड़ी होती लड़कियों के सामने उनका मजाक उड़ाते और चाची को चाचा की चालबाजियों से बचने की सलाह देते। चाचा इधर कुछ समय से इन सब को जज्ब करने लगे थे। उनकी तीन लड़कियाँ थीं, गाँव के लिहाज से उनके विवाह की उम्र भी हो रही थी। पिताजी आर्थिक रूप से सक्षम थे। उनके मदद के तलबगार चाचा, पिताजी के गाँव रहने पर लड़कियों को पिताजी की सेवा करने के लिए उकसाते रहते हैं। पहले मेरी बहनें पिताजी को काका कहती थीं, अब बड़े पिताजी कहने लगीं हैं। पिताजी ने कई बार ऐसा भी सोचा था कि अपने खेत अलग कर लें, लेकिन गाँव की सामाजिक व राजनैतिक गणित जटिल थी और पिताजी दूरगामी रणनिति के तहत ऐसा नहीं कर पाते थे।

अँधेरा तो पहले ही हो चुका था। घर पहुँचने तक और गाढ़ा हो गया। चाचा मड़हा में तख्त पर अधलेटे थे। उनके सामने जगराम अहिर बैठा था। दोनों, होने वाले परधानी चुनाव की चर्चा में, गाँव के हर घर की समीक्षा कर रहे थे। चुनाव में खड़े होने वाले संभावित उम्मीदवारों और उनके संभावित समर्थकों के कयास लगाए जा रहे थे। वो मुहावरे के दृष्टव्य उदाहरण की तरह एक दूसरे के मुँह से कान सटाए हुए थे। उनकी बातचीत का स्वर कभी सामान्य रहता, कभी भुनभुनाहट और कभी फुसफुसाहट में बदल जाता। चाचा घोषित तौर पर वर्तमान परधान के समर्थक हैं। आस्था का चरित्र, इस गाँव में गतिशील है और वह रातों रात कहीं से कहीं बैठ सकता है। परधानी चुनाव होने की संभावना कुछ महीनों बाद थी, उसके समीकरण बनने लगे थे।

मैं जाकर दूसरे तख्त पर बैठ गया। यह मड़हा चाचा का सूचना केंद्र है। मुख्य गाँव को जोड़ने वाली खोर, मड़हे के बगल से जाती है। चाचा को सभी सूचनाएँ और किस्से/गासिप आते-जाते लोगों से मिलते रहते है। मड़हे के एक कोने में मियाइन, चाची के पास बैठी अपनी छेंड़(बकरी) के खो जाने और वापस मिल जाने का आख्यान सिलसिलेवार, हर-एक, मोटे-महीन ब्योरे के साथ, तफसील से सुना रही थी। यह प्रसंग मैं दोपहर में सुन चुका था। अब उसका पुर्नप्रसारण हो रहा था। बीच-बीच में अपने काल्पनिक विरोधियों के कीड़े पड़ने के अरमान की टेर भी लगा रही थी।

मियाइन के ससुर रज्जाक मिस्त्री राम अवध सिंह का पक्का मकान बनवाने बतौर राज मिस्त्री कलकत्ता से आजादी के आस-पास आए थे। फिर यहीं बस गए। वर्तमान मियाइन की सास पहले मियाइन कहलाती थी। उनके मरने के बाद यह पदवी उनकी बड़ी बहू को मिल गई। सराय मलिक का यह अकेला मुस्लिम परिवार है। मियाइन का स्वर अब घटना के विश्लेषण पर आ गया। सहव्यवसाय के रूप में बकरी और उसके बच्चे पालने को वह गाँव में ही हो रहे, सूअर पालन से बेहतर और पाक धंधा बता रही थी।

चाची तटस्थ भाव से हाँ-हूँ कर रही थी। तटस्थता चाची का स्थायी भाव है। पच्चीस साल पहले की ईंटर पास चाची, चाचा की अकर्मणयता और तीन लड़कियों की चिंता को तटस्थ होकर सँभालती हैं। खेती का हिसाब-किताब भी वही देखती हैं। अधियारी से गल्ला लेना, उसको बखार में रखवाना, बनिया बुला कर बेचना, उनके खेत बदलते रहना, आदि काम वही देखती हैं। पिताजी को भी हिसाब वही देती हैं। मैं उनके साथ उनके मायके भी गया हूँ। चाची, मियाइन की बातों से उब चुकी थीं।

मेरी तरफ मुखातिब हुई और बोली, 'बबुआ खाना निकालें?'

बबुआ के सहमति देते ही मियाइन उठ गईं और चाचा ने जगराम से भी विदा संदेश कहा। जगराम के जाते ही मड़हा शांत हो गया। दरवाजे के पास रखी एकमात्र ढिबरी (दीपक) लेकर चाची अंदर चली गई। पूरा मड़हा अँधेरे से भर गया। चाचा उठे और लोटे का पानी लेकर हाथ मुँह धोने लगे। उसके बाद उन्होंने अपनी पायजामा उतार कर खूंटी पर टाँग दिया। कुर्ता वो पहले ही उतार चुके थे। फिर बनियान उठाकर पेट खुजलाने लगे।

चाचा कभी शांत नहीं बैठते हैं। उनका हाथ-पैर चलता ही रहता है। जब कुछ नहीं मिलता तो पत्थर उठाकर घूमते कुत्तों को ही मार कर भगाने लगते हैं। कोई बैचैन और व्यथित आत्मा उनके अंदर वास करती है। शांत वो तभी रहतें हैं जब दुखी रहते हैं। दुखी वो तब होते हैं जब पिताजी उनकी दुखती नस को जोर से दबाते हैं। एक बार ऐसे ही दुखी क्षणों में उन्होंने मुझसे पूछा था, 'बताओ तो बबुआ, जो पढ़ न पाए, क्या उसको जीने का अधिकार नहीं है।

मैं उनको बता नहीं पाया। मुझे इसके लिए उनको मनुष्य के क्रमिक विकास का सिद्धांत बताना पड़ता, शिक्षा और उसकी उपादेयता समझाना पड़ता, नैसर्गिक मानव चरित्र से हटकर शिक्षित मानव चरित्र के महत्व को रेखांकित करना पड़ता। इन सबके लिए समय की आवश्यकता होती। चाचा इतने दुखी थे कि उनके पास समय नहीं था और मेरे पास उनको यह सब बताने का सामर्थ्य।

पेट खोलकर खुजलाते चाचा आज दुखी नहीं थे। उनका आने वाला समय आनंद से बीतने वाला था। परधानी का चुनाव सामने है और चाचा जैसी प्रतिभाएँ उसके एक-एक क्षण को आनंद उत्सव में बदलने वाले थे। इस बीच चाचा कुछ गुनगुनाने लगे।

खाना लेकर प्रभा आई। प्रभा सबसे बड़ी है, वो इंटर में पढ़ती है। आज सुबह मैंने देखा था कि उसका सलवार-कुर्ता काफी पुराना और एक-दो जगह से फटा हुआ है। अपनी बहन को फटे कपड़ों में देखने पर मैं विचारमग्न हो गया। खाना खाते हुए मुझे हँसी आ गई - एक कायर - विचारमग्न भाई। स्थिति को यदि और स्पष्ट करना हो तो बेहया भी जोड़ना होगा। एक कायर - बेहया - विचारमग्न भाई।

मैं और चाचा मड़हा में ही सोते हैं। चाची लड़कियों के साथ घर के आँगन में सोती है। जब मेरी नींद खुली तब अँधेरा गहरा था। चाँद अपनी सेवा देकर चला गया था। यह बीमारी मुझे एक साल से दिल्ली प्रवास के दौरान लगी थी। बीच रात में मेरी नींद खुल जाती है और तमाम कोशिशों के बावजूद फिर नींद नहीं लगती। दिल्ली में एक डाक्टर को दिखाया था उसने डिप्रेशन की शुरुआत बताया। उसने सलाह दी कि प्रसन्न रहिए और सोचना कम करिए।

मैं न सोचने के विचार से तख्त से उठा और हल्का होने के लिए मड़हा से आगे निकला।

चाचा निर्द्वंद्व अपने तख्त पर पैर पूरी तरह फैला कर सो रहे थे। तख्त उनका साम्राज्य था और दोनो पैर उसके पहरेदार। सम पर खर्राटे की आवाज बज रही थी। मेरे मड़हा से निकलते ही मोतिया कुकुर भी पूँछ हिलाते मेरे साथ हो लिया।

अँधेरे के डर से मैं आगे नहीं गया। सामने खेत थे। पहली चकबंदी से ही हमारे सारे खेत घर के सामने हैं। जून के समय सारे खेत खाली थे। दस विस्वा खेत में रमेसर ने अरुई बोई थी। अरुई के पत्ते बड़े हो गए थे। पछुआ हवा धीरे-धीरे चल रही थी। पंक्तिबद्ध और हिलते अरुई के पत्ते किसी गारद की परेड का आभास दे रहे थे।

ये सारे खेत शरणार्थी बन आए मेरे पूर्वजों ने किन परिस्थितियों में बनाए होंगे। मैं इनका संभावित वारिस हूँ। और मैं, दिल्ली में बेहतर रोजगार के विकल्प खोज रहा हूँ।

मुझे बचपन का एक प्रसंग याद आया। मैं जब बारह-तेरह साल का था। घर पर एक चारपाई बननी थी। हमारे गाँव में लोहार नहीं है। हमारी तरफ लोहार ही चारपाई बनाते हैं। भदऊ गाँव के दुखरन लोहार की यजमानी हमारे यहाँ है। लकड़ी-बाँस वगैरह जा चुका था। चाची ने मुझे रस्सी का बाध लेकर दुखरन के यहाँ भेजा। भदऊ की सीमा पर ही मुझे राधे पंडित मिल गए। वही भुवन-मोहनी मुस्कान उनके चेहने पर थी।

उन्होंने मुझे रोक लिया और कहा, 'किसके लड़के हो।'

मैंने कहा, 'विश्वेसरनाथ का।'

'अच्छा', कह कर वह हँसे।

'मैंने उसे पढ़ाया है - बड़ा ही जहीन बच्चा था।' कहते हुए उनकी जीभ नियंत्रण के अभाव में अंदर-बाहर कर रही थी।

वह प्राइमरी स्कूल में अध्यापक थे - यह मैं जानता था। उनकी उपस्थिति मेरे लिए असहनीय हो रही थी।

'तुम पढ़ने में अच्छे ही होगे, आखिर विश्वेसरनाथ के लड़के हो।' कहते हुए उन्होंने मेरा हाथ पकड़ लिया।

उनके बूढ़े हाथों पर झुर्रियों की चूड़ियाँ पड़ गई थीं। शायद, उन्होंने वात्सल्य भाव से अपने पुराने शिष्य के पुत्र को अपना आर्शीवाद देना चाहा हो, उनका दूसरा हाथ मेरे सर के उपर आ गया। उनका इतिहास, बूढ़ा पोपला चेहरा और पूरे परिदृश्य ने मेरे अंदर वितृष्णा का भाव भर दिया। मैंने अपने दूसरे हाथ से जिसमें रस्सी का बाध था, एक जोर का झटका दिया और पलट कर भागा। वह शायद गिर गए थे। मैं अपने घर पर आकर ही रूका। उस दिन जो मैं भागा था आज तक भाग ही रहा हूँ।

चाचा उसी अवस्था में सो रहे थे। मैं तख्त पर आकर लेट गया। इस उम्मीद से कि नींद आ जाएगी या सुबह हो जाएगी। वैसे भी गाँव में सुबह जल्दी हो जाती है।