सुभाष घई और ओशो बायोपिक / जयप्रकाश चौकसे

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सुभाष घई और ओशो बायोपिक
प्रकाशन तिथि : 26 मई 2018


सुभाष घई आचार्य रजनीश पर ओशो बायोपिक बनाने जा रहे हैं, जिसके लिए उन्होंने यूरोप के एक निर्देशक से बात की है। आचार्य रजनीश जबलपुर में शिक्षक रहे हैं परंतु अपनी शिष्यों की संख्या को विराट बनाने के लिए उन्होेंने पुणे में एक आश्रम की स्थापना की जहां देश-विदेश से लोग ज्ञान की खोज के लिए आते थे। बाद में आचार्य रजनीश ने अमेरिका में एक उपनगर बसाया और शिष्यों की संख्या में खूब विस्तार किया। आचार्य रजनीश अपने शिष्य के हाथ में कोई पारम्परिक गंडा नहीं बांधते थे, क्योंकि सभी बंधनों से मुक्ति दिलाना उनका उद्‌देश्य रहा है।

आचार्य रजनीश की जीवन शैली को लेकर अनेक विवाद हुए। दुनिया की सबसे महंगी कारें उन्होंने प्राप्त कीं। दरअसल, उनका विचार था कि भौतिकता को भोगते हुए भी आध्यात्मिक लक्ष्य पाया जा सकता है। उनकी विवादास्पद किताब थी 'संभोग से समाधि तक।' इस क्षेत्र में भी उनका कहना था कि गहन अंतरंगता के क्षणों में स्वयं को दिमागी रूप से मुक्त रखने का प्रयास करना चाहिए।

दरअसल, ओशो तमाम पुरातन आख्यानों पर पड़ी समय की धूल को बुहारकर उनके सही अर्थ को खोजने का संदेश देते थे। वे पुरातन ग्रंथों का वैज्ञानिक अनुसंधान व अनुशीलन करते थे। उनका कहना था कि किसी भी धारणा को इसलिए स्वीकार नहीं करें कि वह सदियों से स्वीकारी जा रही है। तर्क की तराजू पर जड़ मान्यताओं को तौलने की वे सलाह देते थे। मसलन, कबीर का पद 'घूंघट के पट खोल तोहे पीह मिलेंगे' की व्याख्या उन्होंने की कि ईश्वर किसी घूंघट के पीछे अपने को छिपाए हुए नहीं है। घूंघट तो हमारी आंखों पर पड़ा है। यह घूंघट कई प्रकार का होता है। धन का घूंघट, ऐश्वर्य का घुंघट, मान-सम्मान का घूंघट। अवाम ने जाने कितने परदे अपनी आंखों पर डाल रखे हैं। ईश्वर सत्य है, उसे किसी घूंघट की आवश्यकता ही नहीं है। इसी व्याख्या से प्रेरित फिल्म 'घूंघटके पट खोल' राज कपूर बनाना चाहते थे और उन्होंने मनोहर श्याम जोशी को इसे लिखने का अनुरोध किया था। यहां से जाने वाला हर व्यक्ति जाने कितने काम अधूरे छोड़कर जाता है। अधूरे सपनों के मामले में साधनहीन आम आदमी से अधिक 'धनवान' कोई नहीं होता। उसके असंतोष किसी चिता में नहीं जलते, न ही जमीन की छाती इतनी विराट है कि वह इन तमन्नाओं को जगह दे सके। मात्र मनुष्य शरीर ही जमींदोज हो पाता है।

आचार्य रजनीश के भाषण टेप रिकॉर्ड किए गए हैं और अनगिनत लोगों ने उन्हें खरीदा है। वे पुस्तक के रूप में भी उपलब्ध हैं। विचार कभी मरते नहीं, वे बड़े बहुरुपिया हैं। जाने कैसे अभिव्यक्त होते रहते हैं। एक दौर में आचार्य रजनीश का स्वयं को ईश्वर घोषित करना अनेक लोगों को हजम नहीं हुआ। उनका कहना था कि स्वयं को जानते ही आप ईश्वर हो जाते हैं। यह उस पुरातन मंत्र 'आत्मन: विदी' यानी स्वयं को जाने की अभिव्यक्ति थी। लोकप्रिय उपन्यास 'अलकेमिस्ट' में भी नायक सारे संसार में भटककर यही जान पाता है कि यात्रा भीतर की ओर होनी चाहिए। धर्मवीर भारती कहते हैं, भटकोगे बेबात कहीं, लौटोगे हर यात्रा के बाद यहीं'। सबसे लंबा फासला मनुष्य का अपने तक पहुंचने का ही है।

फिल्म उद्योग में महेश भट्‌ट, विजय आनंद, विनोद खन्ना, परवीन बॉबी इत्यादि लोग रजनीश से मिलने जाते थे। महेश भट्‌ट ने आचार्य रजनीश के प्रवचनों का गहरा अध्ययन किया है। वे यूजी कृष्णमू्र्ति से भी प्रभावित हुए हैं। सब जगह भटककर उन्होंने तय किया कि ढेरों फिल्में बनाएं और अपने बड़े परिवार के हर सदस्य को काम दें। संभवत: उनके जीवन का यह दौर ही सबसे अधिक सार्थक है। आज उनकी सुपुत्री आलिया भट्‌ट ने अपना मकाम स्वयं अपने परिश्रम से हासिल किया है। महेश भट्‌ट ने उन्हें प्रस्तुत करने वाली फिल्म नहीं बनाई परंतु आलिया अपनी पारिवारिक फिल्म संस्था की सहायता कर सकती है, क्योंकि लंबे समय से भट्‌ट निर्माण संस्था से कोई सफल फिल्म नहीं आई है। दरअसल, महेश भट्‌ट अपनी फिल्म निर्माण संस्था के लंबे समय तक टिके रहने का एक उत्सव इस ओशोयाना अंदाज में मना सकते हैं कि संस्था द्वारा अवसर पाए सभी लोग सामने आएं अौर गुरु दक्षिणा के रूप में फिल्में बनाएं।

इसी तरह 'बॉम्बे टॉकीज' नामक महान संस्था को पुन: खड़ा करने के लिए अशोक कुमार ने सभी को एकत्रित करके एक फिल्म बनाई, जो असफल रही। पुराने भवनों की मरम्मत का प्रयास सराहनीय है परंतु नए भवन का निर्माण ही श्रद्धा अभिव्यक्ति का एकमात्र 'ओशोवियन' मार्ग है। आधुनिक लोग चाहें तो इसे 'टू वे ट्रैफिक' कह सकते हैं।