सुभाष चंदर से बातचीत / लालित्य ललित
हिंदी व्यंग्य के इतिहासकार और प्रसिद्ध व्यंग्य शिल्पी सुभाष चंदर से डॉ. लालित्य ललित की बातचीत
लालित्य ललित: आप व्यंग्यकार बेहतर हैं या आलोचक ?
सुभाष चंदर: सच तो यह है कि मैं अभी सीखने की प्रक्रिया में हूं। मैं व्यंग्य और आलोचना दोनों ही क्षेत्रों में विद्यार्थी हूं। हां... यह जरूर है कि मेरा मन व्यंग्य लेखन में रमता है। व्यंग्य की आलोचना में तो मुझे विवशता में आना पड़ा। तथाकथित मुख्यधारा के कुछ स्वनामधन्य आलोचकों ने व्यंग्य की आलोचना को लेकर कुछ अपमानजनक टिप्पणियां की थीं जिनमें एक टिप्पणी, उसके इतिहास को लेकर थी। बस तभी सोच लिया था कि बाकी कुछ कुछ कर पाऊं या नहीं, पर ‘हिंदी व्यंग्य का इतिहास’ जरूर लिखूंगा। बस यही कुछ कारण थे, जिनके कारण व्यंग्य का इतिहास और व्यंग्य का छुटपुट समीक्षात्मक लेखन हो पाया। पर इसकी एक हानि जरूर हुई कि व्यंग्य लेखन पीछे छूट गया। अब नये सिरे से व्यंग्य की अग्रसर हुआ हूं, देखिये शायद कुछ किताबें जल्दी आयें।
लालित्य ललित: आपकी कृति ‘हिंदी व्यंग्य का इतिहास’ बहुत चर्चित हुई है। व्यंग्य के शोधार्थियों के लिए तो उसे बेहद जरूरी पुस्तक बताया जा रहा है। पर कुछ विद्वानों का मानना है कि उसमें आपने व्यंग्य कविता को छोड़ दिया। यह केवल हिंदी गद्य व्यंग्य का इतिहास रह गया। आप इस पर कुछ कहना चाहेंगे ?
सुभाष चंदर: ललित जी, आप बिल्कुल ठीक कह रहे हैं। यह कृति वास्तव में हिंदी गद्य व्यंग्य का इतिहास ही है। प्रकाशक मित्र ने ही उसे हिंदी व्यंग्य का इतिहास का नाम दिया। मैं उसे गद्य व्यंग्य का इतिहास ही कहना चाहूंगा। वैसे भी हिंदी व्यंग्य कविता का इतिहास कई सौ वर्ष पुराना है जबकि गद्य व्यंग्य की उम्र अभी दो सौ वर्ष की नहीं हुई है। अगर मैं गद्य और पद्य दोनों के साथ लेकर चलता तो किसी के साथ भी न्याय नहीं कर सकता था। आलोचना करना आसाना है लेकिन काम की समस्याओं को वही जानता है जो काम करता है। बाहर से देखने वाले उसकी समस्याओं का सही आकलन नहीं कर सकते। काल विभाजन से लेकर परम्परा, युगीन परिस्थितियां, रचनाधर्मिता के मापदण्ड अनेक ऐसे कारक थे जिनके कारण व्यंग्य कविता को जोड़ना संभव नहीं था। हां... मैं एक वादा जरूर करना चाहता हूं कि मैं ‘हिंदी व्यंग्य कविता का इतिहास’ जरूर लिखूंगा पर अलग से।
लालित्य ललित: पाठक तो ‘हिंदी व्यंग्य के इतिहास’ की प्रतीक्षा बहुत दिन से कर रहे हैं। उनकी यह प्रतीक्षा कब पूरी होगी ?
सुभाष चंदर: कुछ समय तो जरूर लगेगा। पहले मुझे अपने दो व्यंग्य उपन्यास पूरे करने हैं। उसके बाद ‘हिंदी व्यंग्य का इतिहास’ का दूसरा खंड तैयार करना है। समकालीन व्यंग्य पर मैंने काफी कुछ लिखा है। व्यंग्य की भाषा, उसके सरोकारों स्तंभ लेखन आदि को केंद्रित बनाकर एक किताब तैयार करनी की योजना है। इसके बाद निश्चित रूप से व्यंग्य कविता के इतिहास पर काम करूंगा। वैसे इस काम में कम से कम 7-8 वर्ष तो लग ही जायेंगे। पता नहीं, पूरा भी कर पाऊंगा या नहीं। उम्र तब तक साथ, यह भी तो जरूरी है।
लालित्य ललित: आपके व्यंग्य उपन्यास ‘पाण्डुराम हवलदार’ के कुछ अंश मैंने किसी पत्रिका में पढ़े हैं। पिछले कई वर्षों से उसकी चर्चा भी सुन रहा हूं। यह उपन्यास अभी और कितने समय तक अप्रकाशित रहेगा ? कब तक पूरा कर पायेंगे उसे ?
सुभाष चंदर: आप सही कह रहे हैं। इस काम में वाकई बहुत देर हो गयी। सच तो यह है कि मैंने यह उपन्यास दस साल पहले लिखना शुरू किया था। शुरुआत मुछे अच्छी लगी थी, 40-50 पेज लिखे भी गये। फिर बीच में व्यंग्य का इतिहास और रेडियो, टीवी लेखन आ गया। अब दुबारा उस पर काम कर रहा हूं। ईश्वार ने चाहा तो यह कृति अगले वर्ष आपके हाथों में होगी।
लालित्य ललित: चलिए, अब व्यंग्य की आलोचना की बहुत बात हो गयी। अब आपके व्यंग्यकार स्वरूप पर बात करते हैं। आपसे एक सवाल-सुभाष चंदर व्यंग्य क्यों लिखते हैं।
सुभाष चंदर: ललित भाई, सवाल पुराना है पर जवाब भी बहुत नया नहीं है। बस इतना कहूंगा कि मैं सिर्फ लिखने के लिए नहीं लिखता। जब कोई घटना या बात मुझे अंदर तक छील देती है, इतना छील देती है कि मैं बुरी तरह तड़प उठता हूं। उस समय मेरी अभिव्यक्ति व्यंग्य को चुनती है। मेरा मानना है कि आक्रोश की उत्कृष्ट अभिव्यक्ति व्यंग्य में ही संभव है। थाने में बयान, अकाल भोज, इंसानियत का शो, बेबी किलर, लायक औलाद, दानं परमोधर्म जैसी रचनाएं इसी चुभन का परिणाम है। उद्वेलन के बिना व्यंग्य नहीं लिखा जा सकता।
लालित्य ललित: यह तो बात हुई व्यंग्य की। आपने तो हास्य रचनाएं भी काफी तादाद में लिखी है, उनका फलसफा क्या है ?
सुभाष चंदर: मित्र, व्यंग्य और हास्य दोनों अलग चीजें हैं। व्यंग्य विसंगति के प्रति आपकी आक्रोशजन्य अभिव्यक्ति है जो भाषा के प्रचलित मानदण्डों के साथ खिलवा करते हुए एक ऐसी रचना उपजाती है जो समापन बिन्दु तक आते आते आपको आक्रोश या खीझ से भर देती है। हास्य अलग मनःस्थिति की रचना है, जब आप शरारती मूड में होते हैं, आपका मन पाठकों को गुदगुदाने का करना है तो आप हास्य रचना लिखते हैं। वैसे मैं मानता हूं कि हास्य-शुद्ध हास्य लिखना बेहद कठिन काम है। श्रीनारायण चतुर्वेदी ने एक बार कहा था कि शुद्ध हास्य लिखना हवा में गांठ बांधने जैसा है। हमारे यहां श्रीनारायण चतुर्वेदी, प्रतापनारायण मिश्र, बद्रीनारायण चौधरी ‘प्रेमधन’ जी.पी. श्रीवास्तव, अन्नपूर्णांनन्द वर्मा जैसे श्रेष्ठ हास्य लेखकों की परम्पर रही है। रवीन्द्रनाथ त्यागी, शरद जोशी, ज्ञान चतुर्वेदी, डा. हरीश नवल ने भी कुछ श्रेष्ठ हास्य कथाएं लिखी हैं।
लालित्य ललित: अगर आप से कहा जाये कि संक्षिप्त में परसाईं, शरद जोशी, श्रीलाल शुक्ल, रवीन्द्रनाथ त्यागी पर अपनी टिप्पणी कीजिए तो...
सुभाष चंदर: परसाईं निःसंदेह सर्वश्रेष्ठ व्यंग्यकार हैं। जहां भी विसंगति है, वहां परसाईं हैं। समाज, राजनीति, अर्थ, धर्म किसी भी क्षेत्र का विदू्रप हो, वहां परर्साइं। अपने व्यंग्य बाणों के साथ मौजूद मिलेंगे। सरोकारों के प्रति गंभीरता, जनोन्मुख और प्रहारात्मकता परसाईं जी को विशिष्ठ बनाती है। वे थोड़ा निराश सिर्फ वहीं करे हैं जब वह कम्युनिस्ट पार्ठी का लाल रंग का चश्मा लगार चीजों को देखने की कोशिश करते हैं। शदर जोशी में वैविध्य हैं, शैलीगत चातुर्य है, पर उन्होंने बहुत बार सिर्फ लिखने के लिए लिखा है। रवीन्द्रनाथ त्यागी ने व्यंग्य कम और हास्य बल्कि शिष्ट हास्य का सर्जन अधिक किया है। वह स्वातत्र्योत्तर युग के सर्वश्रेष्ठ हास्य लेखक हैं। उनकी डिनर, चन्द्र्रमा की सच्च कथा, सिंदबाद की अन्तिम यात्रा जैसी रचनाएं अविस्मरणीय है। रही बात श्रीलाल शुक्ल की तो, उनके पास ‘राग दरबारी’ है जिसे मैं भाषा, शिल्प, सरोकार सभी स्तरों पर विश्व साहित्य की सर्वश्रेष्ठ व्यंग्य कृति मानता हूं। लेकिन राग दरबारी के बाद... कुछ खास आया नहीं। मुझ समेत सैकड़ों पाठक बस प्रतीक्षा ही करते रहे गये।
लालित्य ललित: इस चौकड़ी के बाद के व्यंग्यकारों पर कुछ कहना चाहेंगे ?
सुभाष चंदर: हा... हा... लगता है आप मुझे किसी विवाद में उलझाने की कोशिश कर रहे हैं। चौकड़ी के बाद के रचनाकारों में नरेंद्र कोहली, लतीफ घोंघी, शंकर पुणतांबेकर, सुदर्शन मजीठिया आदि बहुत से नाम हैं जिन्होंने व्यंग्य की उस समृद्ध परम्परा को आगे बढ़ाया है। बाद की पीढ़ी में ज्ञान चतुर्वेदी सर्वश्रेष्ठ है। हास्य और व्यंग्य दोनों पर उनकी जबरदस्त पकड़ है। 1990 के बाद के समय को मैं ‘ज्ञान चतुर्वेदी युग’ कहता हूं। उनके ‘बारामासी’ और ‘नरक यात्रा’ व्यंग्य उपन्यास, व्यंग्य साहित्य की अनूठी कृतियां हैं।
सच तो यह है कि समकालीन व्यंग्य परिदृश्य को कुछ और ज्ञान चतुर्वेदियों की आवश्यकता है। उनके अलावा डॉ. हरीश नवल, प्रेम जनमेजय, गोपाल चतुर्वेदी, विष्णु नागर, महावीर चाचान आदि अनेक रचनाकार हैं जिन्होंने बढ़िया लिखा हे।
लालित्य ललित: नयी पीढ़ी के रचनाकारों के आपने नाम नहीं लिये ?
सुभाष चंदर: ऐसा नहीं है। नई पीढ़ी में यशवंत व्यास, गिरिश पंकज, आलोक पुराणिक, श्रीकांत आप्टे, सत्यपाल सुष्म आदि बहुत अच्छा लिख रहे हैं। यशवंत व्यास तो प्रयोगधर्मी रचनाकार हैं। उनके उपनस ‘चिंता घर’ और ‘कामरेड गोडसे’ उनकी प्रयोगधर्मिता को नये आयाम देते हैं। गिरीश पंकज ने व्यंग्य संग्रहों और उपन्यासों दोनों में प्रभावित किया। कई अन्य व्यंग्यकार भी हैं जिनका स्थानाभाव के कारण नाम नहीं ले पा रहा हूं। हां आप भी तो इन दिनों चुटीला व्यंग्य कर रहे हैं।
लालित्य ललित: समकालीन व्यंग्य परिदृश्य से क्या आप संतुष्ट हैं ?
सुभाष चंदर: एक शब्द में कहूं तो नहीं। समकालीन व्यंग्य कमोबशी स्तंभ लेखन की बैसाखियों पर टिका है। अखबारी नीतियों को देखकर व्यंग्य लिखा जा रहा है। चटखारेदार राजनैतिक टिप्पणियां व्यंगय का स्थान लेती जा रही हैं। कम मेहनत, अधिक प्रकाशन का आकर्षण अगंचीर रचनाकारों को की इस क्षेत्र में ले आया है जिनकी लालसा कम समय में चर्चित हो जाना है। सरोकारों के प्रति उनका दृष्टिकोण सतही है, यही कारण है कि अधिकांश व्यंग्य स्तंभ निराश ही करते हैं। जरूरत इस बात की है कि व्यंग्य को बैठे-ठाले का शगल न माना जाये, उसकी शक्ति, उसकी गंभीरता पर ध्यान दिया जाए। व्यंग्य मजाक नहीं है, वह विदू्रपों से उपजी पीड़ा है, उसकी अभिव्यक्ति अगर सतही होगी तो लक्ष्य पर शर-संधान केसे होगा ? गनीमत है कि हमारे पास कुछ समर्पित रचनाकारों की एक पीढ़ी है जो व्यंग्य से जुड़े हमारे सपनों को टूटने से बचाये हुए हैं।