सुभाष चंद्र बोस बायोपिक और हब्बा खातून / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 27 अगस्त 2019
श्रीजीत मुखर्जी ने महान नेताजी सुभाष चंद्र बोस के जीवन के एक भाग से प्रेरित 'गुमनाम' नामक फिल्म बनाई है, जो संभवत: इंटरनेट पर प्रसारण के लिए है। एक अन्य जगह फिल्म का नाम 'गुमनामी' बताया गया है। ज्ञातव्य है कि वर्षों पूर्व श्याम बेनेगल ने सुभाष चंद्र बोस के जीवन से प्रेरित चार घंटे लंबा वृतचित्र बनाया था। इस महान नेता की मृत्यु के विषय में तीन अनुमान लगाए जाते हैं। पहला अनुमान तो यह है कि हवाई जहाज दुर्घटना में उनकी मृत्यु हुई। दूसरा अनुमान यह है कि रूस में उनकी मृत्यु हुई।
ज्ञातव्य है कि उस दौर के अंग्रेजों की हुकूमत उन्हें भारत की आज़ादी के लिए सेना का गठन करने का दोषी मानती थी। कहा जाता है कि वे अफगानिस्तान होते हुए रूस पहुंचे थे। एक अनुमान यह भी है कि वे जर्मनी भी गए थे। जहां एक जर्मन कन्या उनसे प्रेम करने लगी थी। हिटलर से उन्होंने मुलाकात की थी। एक किंवदंती यह है कि सुभाष चंद्र बोस के अज्ञातवास के दिनों में एक बाबा कई जगह देखे गए परंतु वह कभी किसी से मिले नहीं। कुछ लोगों का अनुमान था कि बाबा के भेष में वे सुभाष चंद्र बोस ही थे। अगर यह सच होता तो भारत की स्वतंत्रता के पश्चात बोस महोदय स्वयं को उजागर कर देते। इसलिए गुमनामी बाबा की बात अविश्वसनीय है। अज्ञातवास और चमत्कारी बाबा हमारे सामूहिक अवचेतन में बहुत गहरे तक पैठे हुए हैं। हम भिखारी की कटोरी में पैसा फेंकते हैं परंतु साधु बाबा के चरण छूकर उन्हें पैसा देते हैं। स्वर्ग और नर्क के आकल्पन ने इस तरह की धारणाओं को जन्म दिया है और धरती अनदेखी रह जाती है। उसे हमने कूड़ादान बना दिया है। खबर आई है कि देश की राजधानी के निकट ही कूड़े कचरे का ढेर है, जो हिमालय की ऊंचाई का स्मरण कराता है। यह सब स्वच्छता पर्व मनाए जाने के काल में घटित हो रहा है।
यह कितने आश्चर्य की बात है कि महात्मा गांधी बायोपिक सर रिचर्ड एटनबरो ने बनाई। पंडित जवाहरलाल नेहरू का बायोपिक अभी तक नहीं बना है परंतु विदेशों में बनी कुछ फिल्मों में नेहरू के जीवन की कुछ झलकियां दिखाई गई हैं। महात्मा गांधी की छवि एक महान संत की रही है और उस पर आक्रमण नहीं किया जा सकता। शहीद भगत सिंह के जीवन से प्रेरित अनगिनत फिल्में बनी हैं, परंतु उनके मार्क्सवाद पर अटूट विश्वास की बात नहीं की जाती। मराठी भाषा में संतों पर बहुत फिल्में बनी हैं। यह अत्यंत सुखद है कि श्रीजीत मुखर्जी ने सुभाष चंद्र बोस के जीवन के एक भाग पर फिल्म बनाई है। शूजित सरकार की फिल्म 'मद्रास कैफे' राजीव गांधी की हत्या पर बनाई गई, जो शोध परक फिल्म है। खेल और खिलाड़ियों पर भी कुछ फिल्में बनी हैं। बाबा साहेब आंबेडकर के जीवन से प्रेरित फिल्म भी बनी परंतु आज भी रिचर्ड एटनबरो के समान प्रतिभाशाली निर्देशक ही डॉ. आंबेडकर के बायोपिक के साथ न्याय कर सकता है। इसके लिए मायावती को प्रयास करना चाहिए। यह आश्चर्य की बात है कि महान संत कवि तुलसीदास के जीवन से प्रेरित फिल्म नहीं बनाई गई। ज्ञातव्य है कि फिल्मकार महेश कौल यह करना चाहते थे। उन्होंने अपने मित्र एवं महान लेखक अमृतलाल नागर को मुंबई निमंत्रित किया था। दोनों ने चार माह तक विचार किया। अमृतलाल नागर अपने घर लौट आए और फाइनल ड्राफ्ट बनाने लगे। इसी बीच महेश कौल का निधन हो गया। अमृतलाल नागर ने उसी सामग्री का उपयोग करके उपन्यास लिखा 'मानस का हंस'। नागर साहब की पुत्री अचला ने भी फिल्मों में लेखन किया परंतु आश्चर्य है कि उन्होंने भी कभी 'मानस का हंस' से प्रेरित फिल्म का प्रयास नहीं किया।
कश्मीर में जन्मी हब्बा खातून कविताएं लिखती थीं और योद्धा भी रहीं। उन्होंने मुगल सेना को एक बार पराजित भी किया था। इंटरनेट पर उनके गीत उपलब्ध हैं। ज्ञातव्य है कि महबूब खान हब्बा खातून पर पटकथा लिख रहे थे। उनकी मृत्यु के कारण फिल्म नहीं बन सकी। 'उमरावजान' नामक फिल्म के लिए प्रसिद्ध मुजफ्फर अली ने विनोद खन्ना और डिंपल कपाड़िया अभिनीत 'जुनी' नामक फिल्म की चंद्र रीलें बना दीं, परन्तु न जाने क्यों उन्होंने इसे पूरा नहीं किया। जूनी हब्बा खातून की बायोपिक थी। ज्ञातव्य है कि कश्मीर में सेना के व्यवहार पर केएल राहुल अभिनीत 'शौर्या' नामक फिल्म वर्षों पहले प्रदर्शित हो चुकी है।