सुरंग / विकेश निझावन
वह चलती गाड़ी में लपक कर चढ़ा था। हालाँकि उसे पता था कि गाड़ी पूरे छः बजे छूटती है परन्तु दफ्तर का काम इतना ज्यादा था कि वह इसी सोच में बैठा रहा था कि थोड़ा- बहुत और निबटा लिया जाये।
आखिरी पैंतालीस मिनट तो ऐसे निकले थे जैसे किसी ने घड़ी की सूइयों को अपने हाथ से घुमा दिया हो। एकाएक नज़र घड़ी की ओर गयी तो वह हड़बड़ा कर उठ खड़ा हुआ था- ओह! माई गॉड!
फाईलें जल्दी से दराज़ में समेट वह बाहर की ओर भागा था। प्लेटफार्म के भीतर कदम रखा ही था कि गाड़ी ने आखिरी व्हिसल दे दी थी। वह चलती गाड़ी में लपक कर तो चढ़ गया था लेकिन अब सीट मिले तब न!
उसने गर्दन आगे कर गाड़ी में भीतर तक झाँका। सभी डिब्बे एक- दूसरे के बीच खुल रहे थे। इतनी लम्बी गाड़ी में उसे कहीं तो सीट मिल ही जायेगी।
लेकिन आगे बढ़ने के लिये जगह ही कहाँ है! कितने लोग खड़े- खड़े झूल रहे हैं। और जिनमें खड़े रहने की ताकत नहीं वे छिपकलियों की तरह सीटों के कोनों से चिपके पड़े हैं। और कुछ तो फर्श पर ही ऐसे पथल्ला मार कर बैठ गये हैं जैसे किसी ड्राईंगरूम में बेशकीमती गलीचे के ऊपर बैठे हों।
एक पल के लिये वह मुस्करा दिया। लेकिन अगले ही पल उसे अपनी मुस्कराहट स्वयं को बेमानी लगी। अगर उसमें खड़े रहने की ताकत चुक गयी होती तो क्या वह भी ऐसे ही न बैठा होता। और अभी तो सफर लम्बा है। जाने आगे क्या होगा?
- भाई साहब आप किधर जा रहे हैं? साथ चलते व्यक्ति ने पूछ लिया तो उसे लगा उसके कानों में किसी ने पिघलता सीसा उँडेल दिया है।
पिछले पाँच वर्षो से वह इसी तरह रोज़ाना घर से दफ्तर और दफ्तर से घर आ जा रहा है। और इन पाँच वर्षो में न जाने कितनी बार उससे यह सवाल किया जा चुका होगा।
कई बार तो बड़ी सहजता से जवाब दे देता है वह। कई बार खामोश बना रहता है। और कई बार तो बुरी तरह से खीज उठता है।
शायद आज भी वह खीज कर कोई जवाब दे देता परन्तु अगले ही पल पास वाली सीट पर बैठे व्यक्ति ने बड़े अदब से उसकी ओर इशारा करते हुए कहा था- आप इधर आ कर बैठ जाइये न!
वह चौंका था। इतने लोग खड़े हैं इस व्यक्ति ने उसे ही बैठने के लिये क्यों कहा? शायद उसे पहचानता हो। रोज़ आने- जाने वालों को एक यह भी तो फायदा होता है।
उन महाशय ने अपने को थोड़ा सा धकेलते हुए उसे एक कोने में बिठा लिया। उसे बैठते देख बाकी लोग क्या सोचते होंगे। वह कहीं भीतर से आत्मग्लानी महसूस करने लगा। लेकिन उसे किसी से क्या लेना! उसे अपने बारे में सोचना चाहिये। मन ही मन वह उन महाशय का शुक्रिया अदा करने लगा।
- आप कहाँ तक जाएँगे? उन महाशय ने पूछा था। इस बार उसे ज़रा भी बुरा नहीं लगा। जिस व्यक्ति ने उसके बारे में इतना सोचा अब उनका कुछ भी पूछ लेने का अधिकार बन जाता है।
- जी रायपुर तक जाना है। अपना जवाब देने के साथ- साथ उसने भी औपचारिकता निभा दी- और आप?
- उतरना तो हमें भी रायपुर ही है लेकिन वहाँ से धीरपुर की बस पकडेंगे।
- तो आप धीरपुर रहते हैं?
- जी!
- रायपुर तो आते ही होंगे?
- अक्सर आना होता रहता है। जो चीज़ धीरपुर में न मिले उसे लेने के लिये रायपुर ही आना पड़ता है। और फिर कई दोस्त- सम्बन्धी रायपुर में ही रहते हैं।
- अच्छा! किस जगह पर? उसने उत्सुकता जाहिर की।
- गाँधी नगर में।
- गाँऽधी नगर! वह अचकचाया था- अजी मैं भी तो वहीं रहता हूँ।
अब उन महाशय ने गौर से उसकी तरफ देखा। उसने भी एक नज़र भर कर उनकी ओर देखा। जाने क्यों दोनों को लगा कि वे एक- दूसरे से कतराने लगे हैं। दोनों के बीच एक चुप्पी बँध गयी।
एक चित्र उसकी आँखों के आगे उभर आया। इन महाशय को उसने मास्टर जी के घर में देखा था। उन्हीं के कोई रिश्तेदार ही तो हैं। ज़रा रुक कर पूछ ही लिया- आप मास्टरजी के...?
उसने प्रश्न तो रख दिया लेकिन खुद ही सकपका गया।
- हमारे बहनोई हैं। पर अब तो कहते हुए भी शर्म आती है। उन महाशय का स्वर काफी धीमा था। निःसन्देह वह ऐसा क्यों चाहेंगे कि उनकी इस बात को कोई तीसरा भी सुने। कितनी शर्मनाक बात है। बात तो वे उससे भी छिपा जाते परन्तु वह व्यक्ति जो उसी मोहल्ले में रहता है भला उससे क्या छिपा होगा।
- मास्टरजी को पिछले साल जेल हो गयी थी। तीन साल के लिये। अपने एक विद्यार्थी के साथ दुष्कर्म कर बैठे थे।
- छिः! कितनी गंदी बात थी। एकाएक उसके मुँह से निकल आया- मास्टरजी ने अच्छा नहीं किया।
वे महाशय उसकी ओर देखने लगे। वह पुनः बोला- अध्यापक को तो माता पिता से ऊपर का दर्जा दिया जाता है।
अब तो वे महाशय जैसे पूरे के पूरे ज़मीन में गढ़ गये। उन्होंने मुँह घुमा लिया।
एक छोटा सा स्टेशन आ गया था। गाड़ी की गति धीमी हुई लेकिन गाड़ी रुकी नहीं। स्टेशन के निकलते ही गाड़ी ने पुनः गति पकड़ ली।
कब तक वे महाशय मुँह घुमाये रहते। उन्होंने गर्दन सीधी की तो उसने पुनः प्रश्न रख दिया- क्या सच में मास्टरजी ने बहुत बड़ा गुनाह नहीं किया?
उन महाशय के होंठ जैसे सूख रहे थे। बोले- कोई भी गुनाह छोटा या बड़ा नहीं होता। गुनाह तो गुनाह ही है।
वह उनके चेहरे की ओर देखने लगा। उसे लगा वे किसी किताब का कोई रटा- रटाया वाक्य बोल रहे हैं। यह वाक्य उसने पहले किसी किताब में भी पढ़ रखा है।
अब वे दोनों चुप थे। लेकिन इस खचाखच भरी गाड़ी में दोनों की चुप्पी भला क्या मायने रखती। खिड़की के पास बैठी लड़की जो नीले दुपटटे में लिपटी सिमट कर बैठी हुई थी एकाएक चीख पड़ी। इसे क्या हुआ? उस लड़की के पास बैठा आदमी जो शायद उसका बाप था उसकी तरफ कोई ध्यान ही नहीं दे रहा था।
- बाजी यह लड़की चीखी क्यों? उससे रहा नहीं गया तो उसने उचक कर पूछा।
वह बुजुर्ग कुछ नहीं बोला। सामने वाली सीट पर बैठी औरत की ओर देखने लगा।
वह समझ गया कि यह औरत भी इन्हीं के साथ है। शायद लड़की की माँ है। उस औरत ने झट से लड़की को अपनी ओर खींच लिया और उसका चेहरा अपनी गोद में सटा लिया।
अब लड़की सिसकने लग पड़ी थी। एक अच्छा- खासा दृष्य उभरा था गाड़ी के इस डिब्बे में जो बाद में एक लम्बे सन्नाटे में खिंच गया।
किसी ओर ने उसके रोने का कारण नहीं पूछा। कम- से- कम औपचारिकता भी तो कोई चीज़ होती है।
वह भी अजीब है। अब हर किसी से क्या कोई औपचारिकता निभाये। ख्वामखाह उलझन में पड़ रहा है। कोई शारीरिक तकलीफ होगी इसे। शरीर में तकलीफ ज्यादा हो तो रोना तो आ ही जाता है। कोई जनाना तकलीफ भी हो सकती है। अब क्या कोई पूछे और और क्या कोई बताए।
स्टेशन आते जा रहे थे और पीछे छूटते जा रहे थे। जाने कितने लोग गाड़ी से उतरते और कितने लोग और चढ़ जाते। उसे लग रहा था लोग वही हैं बस चेहरे बदल रहे हैं।
सामने बैठी दूसरी औरत ने दोनों बच्चों को बगल में सटाया हुआ था। किसी वक्त तो वह उन्हें ऐसे दबोच लेती जैसे वे पक्षी हैं और किसी भी वक्त पंख फड़फड़ाते हुए उड़ जाएँगे। लेकिन ऐसे में इनका दम घुट गया तो! वह पूछने ही लगा था कि उससे पहले ऊपर वाली बर्थ पर बैठा आदमी बोल उठा- बहन जी बच्चों को ढीला छोड़ दीजिये।
- नहीं! ये बच्चे मेरे हैं।
- हाँ- हाँ बच्चे तो आपके ही हैं। क्या इन्हें दबोच ही डालेंगी?
- इन्हें ढीला छोड़ दिया तो वह छीन कर ले जायेगा।
- कौन?
- इनका बाप। वह कहता है ये बच्चे उसके हैं।
- तो आप अपने पति से भाग कर आ रही हैं।
- हाँ!
- जा कहाँ रही हैं?
- अपने माँ-बाप के पास।
- वह वहाँ भी आ गया तो?
- वहाँ से भी भाग जाऊँगी।
- कहाँ?
- जहाँ वह न पहुँच सके।
ऊपर वाली बर्थ पर बैठा आदमी ठहाका मार कर हँस दिया। कितना बेशर्म आदमी है। दूसरों के दुख पर हँसता है। लेकिन उसका वह ठहाका तो हर थोड़ी देर बाद गाड़ी के भीतर गूँजने लगा।
- भाई साहब आप बेवजह हँसते जा रहे हैं?
- हाँ।
- क्यों?
- आप देख नहीं रहे मैं ताश खेल रहा हूँ।
- ताश! अकेले ही। हमें ही साथ मिला लिया होता।
- नहीं ! मैं किसी के साथ नहीं खेलता। अकेला ही खेलता हूँ।
- ऐसा क्यों?
- दूसरे के साथ खेलने पर हार जीत का डर रहता है।
- डर तो हार का होता है जीत का कैसा डर?
- मैं इन दोनों बंधनों से मुक्त रहना चाहता हूँ।
कैसा सनकी आदमी है। उन दोनों के बीच कुछ और भी बात हुई थी लेकिन गाड़ी की सीटी की आवाज़ में बाकी का सब दब गया। कोई बड़ा स्टेशन आ गया था। अब तो भागमभाग मच गयी।
उसकी सीट से किसी व्यक्ति के उठने की वजह से वह थोड़ा फैल सा गया। लेकिन कुछ पल बाद ही उसे फिर सिकुड़ना पड़ा।
एक बुढ़िया उसके पास आ खड़ी हुई थी। गाड़ी के झटकों से वह कभी भी गिर सकती थी। उसी ने बुढ़िया को बैठने की जगह दे दी।
- कहाँ तक जाओगी अम्मा? बुढ़िया के बैठते ही उसने प्रश्न रख दिया।
- बुढ़िया ने कोई जवाब नहीं दिया तो उसे लगा बुढ़िया ऊँचा सुनती है। वह पुनः ऊँचे से बोला- अम्मा कहाँ तक जाओगी?
- जहाँ किस्मत ले जाएगी।
- वह हँस पड़ा। बोला- यह किस्मत की गाड़ी नहीं है अम्मा। यह तो सरकार की गाड़ी है। कहीं पर भी उतार फैंकेगी तेरे को।
- जब किस्मत की गाड़ी ने ही उतार फैंका तो फिर कोई भी गाड़ी उतार फैंके उससे क्या फर्क पड़ता है।
किस्मत को क्यों कोसती हो अम्मा। अपनों ने घर निकाला दे दिया होगा। बहू बेटे ने बेघर कर दिया होगा यही न!
अब वह कुछ नहीं बोली। आँसू जार- जार उसकी आँखों से बहने लगे।
एकाएक गाड़ी धीमी हो आयी और फिर रुक गयी। कमाल है गाड़ी जंगल में ही रुक गयी। सभी एक दूसरे की ओर देखते हुए सरकार को कोसने लगे। गाड़ी पहले ही एक घंटा लेट है अब और लेट हो जाएगी।
पाँच मिनट... दस मिनट ... आधा घंटा । आखिर गाड़ी के रुकने का कारण भी तो पता चले। अब तक कितने लोग गाड़ी से उतर पटरी पर इधर उधर भागने लगे थे। ये लोग भाग क्यों रहे हैं? उसने ऊँची आवाज़ में गाड़ी से बाहर खड़े एक व्यक्ति से पूछा।
सुना है एक औरत दो बच्चों के साथ गाड़ी के नीचे आ गयी है।
दो बच्चों के साथ एक औरत! वह चौंका था। उसके पूरे बदन में एक कंपन हुई। जो औरत उसके सामने वाली सीट पर दो बच्चों को बगल में दबाए बेठी थी वह कहाँ गयी? सच में वह अपनी सीट पर नहीं है। अभी थोड़ी देर पहले तो वह यहीं पर थी। वह यहाँ से कब उठी पता ही नहीं चला। लेकिन हो सकता है गाड़ी के नीचे जो औरत आयी है वह कोई ओर हो। उसने गाड़ी से उतर कर आगे जा कर देखना चाहा लेकिन वह तो हिल ही नहीं पा रहा था। उसे लगा बिल्कुल बेजान हो गया है वह। पत्थर बन गया है वह।
गाड़ी कब आगे सरकने लगी उसे नहीं पता। वह इधर- उधर देखने लगा तो मास्टरजी का साला बोला- बस अपना स्टेशन आने वाला है। आप भी जूतों को कस लीजियेगा।
वह कुछ नहीं बोला। चुपचाप खिड़की की ओर देखने लगा। वह लड़की जो रोती-रोती सो गयी थी जग चुकी थी। उसका बाप उसके सर पर हाथ फेरने लगा तो लड़की ने उसका हाथ झटक दिया।
बुज़ुर्ग आदमी और औरत एक दूसरे का चेहरा देखने लगे। लड़की दुपटटे से सर को पूरी तरह से ढाँपती हुई खिड़की के औेर पास सट गयी। उसने सर हाथों मे छिपा लिया। एकाएक वह फिर सिसक उठी। थोड़ी ही देर में उसकी सिसकियाँ रुदन में बदल गयीं।
- यह क्यों रो रही है? वह बुजुर्ग व्यक्ति के कंधे पर हाथ रखता बोला।
उस बुजुर्ग ने सभी के चेहरों की ओर देखा। फिर बोला- यह लड़की नहीं हमारा पाप रो रहा है।
यह कैसा जवाब था। सभी लोग एक दूसरे के चेहरों की ओर सवालिया दृष्टि से देखने लगे।
- कैसा पाप? उसने हिम्मत करते हुए पूछा।
- सबसे बड़ा पाप जो हमने किया था।
- सबसे बड़ा पाप! मास्टरजी के साले ने तो बड़े विश्वास से कहा था कि पाप पाप होता है। वह छोटा या बड़ा नहीं होता। लेकिन इन महाशय का कहना है कि इन्होंने सबसे बड़ा पाप किया है। आज तो सच में पता चल जायेगा कि सबसे बड़ा पाप कौन सा होता है। और वह कितना बड़ा होता है।
- क्या बीमार है आपकी लड़की? एक स्वर उभरा था।
- हाँ ! बीमार है।
- क्या बीमारी है इसे?
- संस्कारों के अभाव की बीमारी।
- यह कौन सी बीमारी होती है?
- पागलपन की बीमारी।
- अगर यह बचपन से पागल थी तो इसका इलाज क्यों नहीं कराया? किसी डाक्टर से दिखाया होता।
- कोई भी पैदा होते ही पागल नहीं होता। परवरिश ढंग से न हो तो व्यक्ति पागल बन जाता है।
- तब?
- यह कम्बखत कब बड़ी हो गयी पता ही नहीं चला। औेर उन अभावों के बीज कब इसके अन्दर फैलते चले गये वह भी नज़र नहीं आया।
- आजकल तो हर चीज़ का इलाज है। बहुत प्रगति कर ली है मैडिकल साईंस ने। भगवान से प्रार्थना की होती। बड़ों से राय ली होती। आपकी बेटी ठीक हो सकती थी।
- हाँ! बहुत प्रगति कर ली है साईंस ने। इस मुई को तो बिजली के झटके भी न ठीक कर सके। प्रार्थनाएँ भी बहुत कीं। लेकिन भगवान कितना सुन पाते हैं पता नहीं। बड़ों से भी राय ली थी। ये बड़े लोगों ने कहा था इसकी शादी कर दो। अपने आप ठीक हो जायेगी। और हमने इसकी शादी कर दी। अपने सर का बोझ हल्का करने के लिये इसे दूसरे के सर मढ़ दिया। ... अरे जो लड़की हमें नोचती रही वह भला दूसरे को कैसा सुख दे सकती थी। ... इसका आदमी बेचारा तो रोता था। कहता था इसे ले जाओ। हमने उसकी एक न सुनी। आखिर बेचारे ने आत्महत्या कर ली। उसका तेरहवां करके ही लौट रहे हैं।
लड़की का रोना चीखों में बदल चुका था।
- भाई साहब उठिये। रायपुर आ गया है। मास्टरजी का साला उसे उठा रहा था।
वह उठा और उतरने के लिये आगे बढ़ा। वह बढ़ता चला गया था। लेकिन उतरने के लिये कहीं कोई दरवाज़ा नहीं था। गाड़ी एक लम्बी अंधेरी सुरंग में बदल चुकी थी। मास्टरजी / दो बच्चों को बगल में दबोचे वह औरत / अकेला ताश खेलता आदमी / बेघर कर दी गयी बुढ़िया और उस लड़की की चीखें बराबर उसका पीछा करने लगी थीं।