सुरमा सगुन बिचारै ना / राजकमल चौधरी

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अंधकार में पानी भरना

दालान के एक कोने पर ओलती में टंगा लालटेन थोड़ी ही देर में बुझ जाएगा। मामाजी चौकी पर बैठे कुएं की ओर देख रहे हैं। ध्यानमग्न। तेल नहीं है, बत्ती भी जल गई है। लालटेन बुझता जा रहा है। बड़ा कुआं। नजदीक में ही मौलसिरी का एक गाछ। मंजरयुक्त। अंधकार में कौन पानी भर रहा है? कौन हैं आप? रात-भर इसी तरह कोई पानी भरता रहेगा और सुबह होते-होते कुआं सूख जाएगा। सबेरे लोग कहेंगे-जाः, कुआं सूख गया! आश्चर्य से आंखें उलट जाएंगी। पानी नहीं, सुबह में कुएं से निकलेगा कीचड़-कादो, दो-चार अदद मरे हुए मेढक, एक अदद पीतल का लोटा। कुछ फूटी हुई चूड़ियां। एक स्लेट। फूटे घड़े का कनखा। दो गिलास। पांच कटोरा। जैसे समुद्र-मंथन से ऐरावत, भूरिश्रवा, विषकुंभ निकलते हों। लेकिन, लक्ष्मी नहीं निकलेंगी। लेकिन, पानी नहीं निकलेगा।

अपने चिंता-विचार पर स्वयं ही हंसी आती है। सूर्यास्त से पहले भांग पी ली थी। भक्क अभी भी नहीं टूटा है। कितनी रात हो गई है? सुनरा बुलाने नहीं आया है। कब आएगा?

कौन है कुएं पर? मामाजी ने बड़े स्नेह से पूछा। कोई उत्तर नहीं। कुएं पर अंधकार है, पछिया हवा है, दो गड़े हुए बांस, एक डोल (कुएं से पानी भरने के लिए छोटी बाल्टी) और एक मौलसिरी का गाछ, कोई आदमी नहीं। मैंने कहा-मामा! आपको भांग लग गई है, कुएं पर कोई नहीं है। मामा! कचहरी में क्या हुआ? तारीख पड़ी?

मामाजी ने आंखें बंद कर लीं। बहुत देर तक चुप ही रहे। फिर बोले-कुएं पर तुम्हारी मामी थी। ठीक इसी समय पानी भरने आती हैं। सीधा शिवलोक से आती हैं। कैलास-परबत से। भोलानाथ महादेव कहते हैं-बहू, एक बाल्टी पानी ले आइए, और तुम्हारी मामी बाल्टी उठाकर सीधा इसी कुएं पर चली आती हैं। ठीक इसी वक्त। अंधकार में पानी भरती हैं।

मामी के स्वर्गवास हुए पूरे-पूरे आठ महीने बीत गए हैं। मलेरिया हुआ था। टाइफाइड हो गया था। मर गईं। निस्संतान। मनोरथ साथ ही गया। मामी ने बहुत प्रयास किया कि मामाजी की दूसरी शादी उन्हीं की छोटी बहन से हो जाए। अपनी तो नहीं हुई, बहन की संतान को ही अपना समझूंगी। शांति कई बार अपनी बड़ी बहन की ससुराल आई भी थीं। चंपा फूल की कली-सी पवित्र और सुंदर। मुझे बहुत पसंद थी। फिर डर हुआ, यदि मामाजी अपनी साली से शादी कर ही लें? मामी ने कितने यत्न किए। शांति उनके लिए चाय बनाओ। शांति, उनके लिए भांग पीसो। सुनो शांति, शर्म मत करो, तुम तो उनकी साली हो। लेकिन, मामाजी ने एकबारगी ही कहा-सोनपट्टीवाली, आप अपनी मां को खबर भेज दीजिए। शांति के लिए एक ‘कथा‘ तय कर रखा है। पात्र बी.ए. पास हैं। पटना में नौकरी करते हैं। रुपए-पैसे नहीं लेंगे।

शांति की शादी हुई। मामाजी भांग पीते रहे, गोतियों के साथ मुकदमा लड़ते रहे। सप्ताह में दो बार पूर्णियां कचहरी आते हैं। कटिहार में हाट-बाजार करते हैं। मामी निस्संतान ही मर गईं। मामाजी दालान पर ही रहते हैं, और शाम को भांग पीकर, जो बीत गया उसकी, और जा नहीं बीता है उसकी, चिंता करते हैं। वर्तमान की कोई चिंता नहीं। वर्तमान को अपनी इच्छानुसार मोड़ लेने की, सुलझा लेने की कोई आशा नहीं, कोई उपाय नहीं। जो बीत गया उसके किस्से-कहानी मन को आनंदित करेंगी। जो बीत गया, वह बेहतर था, उचित था, श्रेयस्कर था। और, जो नहीं बीता है, उसकी चिंता करने से वर्तमान भूला और खोया रहता है।

सुनो कमल, एक किस्सा कहता हूं। किसी गांव में एक प्रकांड पंडित थे। समूचा महाभारत और भागवत कंठस्थ था। कथा बांचकर ढेरों संपत्ति जमा की। खेत-पथार ज्यादा नहीं खरीदे, लेकिन, बोरा का बोरा असली चांदी के रुपए मिट्टी में गाड़कर रखे। तदुपरांत स्वयं स्वर्गवासी हो गए। रह गई थी विधवा ब्राह्मणी, अनब्याही तीन बेटियां और छोटे-छोटे दो बेटे। ब्राह्मणी काशीवास करने चली गई। बेटे कलकत्ता अथवा मोरंग भाग गए। चांदी के रुपए मिट्टी में पड़े ही रह गए। रह गई तीन कुंआरी कन्याएं। तुमलो तो पढ़े-लिखे लोग हो। अब बताओ तो तीनों बहनों के क्या हाल हुए! कौन घाट लगीं?

मामाजी लालटेन की बुझती रोशनी में किस्सा कहते हैं। किस्सा नहीं सत्यकथा। मेरी मामी तीन बहनें थीं। पिता के मरने के बाद बिलटने लगीं। बड़ी बहन शोभा पागल हो गई थीं। किसी तरह शादी हुई, अब विधवा हैं। नैहर में रहकर ही गुजर कर रही हैं। मंझली बहन विभा मेरी मामी हुईं। शांति पटना में हैं, अपने स्वामी के साथ। तीनों बहनों के अलग-अलग किस्से। तीन नदी, तेरह धाराएं। एक नदी सूख गई। दूसरी नदी भी सूख गई। तीसरी नदी में बाढ़ आई है। कैसी बाढ़?

कुएं पर कौन खड़ा है?

सुनरा आ गया। बोला, “चलिए छोटे मालिक, भोजन तैयार हो गया। बड़े मालिक को निमंत्रण ही है। जोतसी (ज्योतिषी) काका बिझो कराने आए थे।”

हां, मुझे निमंत्रण है। रात में दही-चूड़ा खाना पड़ेगा। बुखार लग जाएगा। मर जाऊंगा, जोतसी काका माननेवाले व्यक्ति नहीं-मामाजी तंबाकू होठ में रखते हुए उठे और अलगनी से रेशमी चादर उठाकर कंधे पर रखे।

सुनरा के पीछे-पीछे मैं भी आंगन गया। एक ही क्रम से चार कोठरियां। आंगन बहुत बड़ा। चारों ओर दीवार। कहीं-कहीं टूटी हुई। एक ओर बगीचा। नीबू, अमरूद, शरीफा और हरश्रृंगार के गाछ। इतना बड़ा आंगन सूना। भांय-भांय करता हुआ। मौसी बरामदे पर थाली रख रही हैं। बाल विधवा मौसी सब दिन नैहर में ही रहीं। रसोई करती रहीं। जन-हलवाहों के लिए रोटी पकाना। धान उबालना। चूड़ा कूटना। मौसी ने कभी कोई तीर्थ-व्रत नहीं किया। वैद्यनाथ धाम नहीं गईं। भागवत-पुराण नहीं सुना। घर-परिवार की टूटी दीवार की लक्ष्मण-रेखा में घिरी रहीं। छोटी उम्र में शादी हुई। किसी भी दिन ससुराल का मुंह नहीं देखा। जैसे थीं, जीवन-भर वैसे ही रह गईं। लेकिन, मौसी को कोई दुःख, कोई आंतरिक व्यथा नहीं है। क्षतिहीन देह का भार आंखों में सम्हाले हुए, सफेद साड़ी की परिधि में मन को समेटते हुए, मौसी सतत व्यस्त रहती हैं।

काम में, रसोई में, होठों पर उतर आए किसी गीत के किसी आखर में मौसी उलझी रहती हैं। इस तरह उलझी रहती हैं कि किसी चिंता-विचार की फुर्सत नहीं रहती।

सुनरा बोला, “छोटे मालिक, आपको भूत-प्रेत पर विश्वास होता है? आज ही शाम को मधुसूदन बाबू ने बड़े पीपल के पास भूत देखा। बुखार लग गया है। अर्र-दर्र बोलते हैं। बड़े पीपल पर आजकल भूत का डेरा है। गांव-भर की डाइनें रात में वहां पूजा करने जाती हैं।”

सुनरा की बातें सुनकर मौसी हंसने लगीं। थाली में घी ढालती हुई बोलीं, बड़े पीपल क्यों, अपने दालान पर भूत-प्रेत रहते हैं-कुएं में। भाईजी भांग पीकर दालान पर बैठते हैं तो देखने में आता है कि कुएं पर कोई पानी भर रही है। और कोई नहीं, तो मेरी भौजी।

“मौसी, मेरे मामाजी भंगबताह नहीं हैं। आप उनसे मजाक न करें। मामी को मरे अभी साल भी नहीं बीता है”-मैंने कहा। लेकिन, मौसी की हंसी से पूरे आंगन-बरामदे में रोशनी फैलती रही। लाल-हरी रोशनी। एक इंद्रधनुष। सूने प्रांतर में एक मौलसिरी का गाछ। अंधेरे घर में कोई गीत। मौसी बोली-आप तो कमल बाबू, भूतप्रेत पर विश्वास ही नहीं करते हैं। लेकिन, कुएं पर मैंने भी एक-दो बार भौजी को देखा है। उजली साड़ी पहने, कुएं पर खड़ी, बाल्टी-का-बाल्टी पानी भरते।

और, इतनी देर के बाद फिर वही हंसी। वही रोशनी। वही मौलसिरी का गाछ। मौसी कहती जाती हैं-इस्स! एक रात तो अनर्थ हो जाता। मुझे बहुत जोर से प्यास लगी। नींद टूट गई। घड़े में एक बूंद पानी नहीं था। क्या करती, लोटा लेकर कुएं पर चली गई। पानी भरा। अंधेरी रात। डर होता था। तभी दालान पर भाईजी चिल्लाए, “कौन है कुएं पर? कौन हैं आप?” और, भाईजी इतना कहकर हड़बड़ाकर उठे, कुएं की ओर आने लगे। लेकिन, चारों ओर अंधेरा था। मैं अंधेरे में छिप गई। भागी-भागी आंगन चली आई।

“अर्थात्, उसी रात से मामाजी कुएं पर मामी को देखते हैं, यही कहेंगी न मौसी?”-मैंने पूछा। मौसी शरमा गईं। मौसी ने सुनरा को कहा, “तुम बैठे हो? कमल बाबू के लिए पान नहीं लाओगे?”

‘जाः, भूल ही गया‘-कहता हुआ सुनरा चला गया। मौसी आश्वस्त हुईं। दही परोसते वक्त बोलीं, “हमलोग भी तो एक प्रकार से भूत-प्रेत ही हैं कमल बाबू!”

सुरमा सगुन बिचारै ना

रात बीती। चिड़ियां चहकने लगीं। दालान पर मैं सोया हुआ हूं और मामाजी सोए हुए हैं। सुनरा दो गिलास चाय लेकर आता है, “छोटे मालिक, उठिए, चाय लीजिए!”

चाय पीते वक्त मामाजी पूछते हैं, “तुम्हारा कॉलेज कब खुलता है,...मेरा विचार है, एक बार जगन्नाथपुरी हो आएं। गायत्री को भी तीर्थ करा दूंगा। कभी कोई तीर्थ-व्रत नहीं किया है उन्होंने। मेरी भी तबीयत ठीक नहीं रहती है। रात में नींद नहीं आती है। लगता है, तुम्हारी मामी बुला रही है। डर होता है। एक बार जगन्नाथ धाम से हो आऊंगा। तुम्हारा क्या विचार?”

“मेरा क्या विचार होगा? गायत्री मौसी जीवन में पहली बार गांव से बाहर जाएंगी। तीर्थ करेंगी। देव-दर्शन से आत्मा को शांति मिलेगी। आपको भी मुकदमेबाजी से, खेत-पथार से, दुःस्वप्न से कुछ दिनों के लिए शांति मिलेगी”-मैंने शांत स्वर में कहा। मामाजी चाय पीते रहे। कुएं के पास मौलसिरी के गाछ की ओर देखते रहे।

अब दालान पर धूप आ रही है। मैं चाय पी रहा हूं, और मन-ही-मन गिन रहा हूं कि छुट्टी में अब कितने दिन बाकी हैं। छुट्टी में मातृक आता हूं तो मामाजी के स्नेह में, मौसी के लाड़ में शांति मिलती है। मामी थीं तो और भी सुख, और भी शांति मिलती थी।

लेकिन, अब शांति नहीं मिलेगी। न मातृक आने में, और न मातृक से चले जाने में। क्यों नहीं मिलेगी?

मूल मैथिली से अनूदित

मिथिला मिहिर, 09 मई 1965