सुरम्य गढ़वाल: देवालय एवं तीर्थ / कविता भट्ट

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महान कवि कालिदास ने कुमारसम्भव नामक ग्रन्थ के प्रथम सर्ग में लिखा है कि पुराणों में वर्णित, भारतवर्ष के उत्तर में जो पर्वतराज हिमालय है; वह देवताओं की आत्मा के समान है। यह असीम जल का भण्डार है तथा सम्पूर्ण पृथ्वी का मानदण्ड है। देवतात्मा कहे जाने वाले हिमालय को धार्मिक ग्रन्थों, पुराणों एवं शास्त्रों में समग्र रूप से ही तीर्थ की संज्ञा दी गई है। यह श्लोक इस प्रकार है-

अस्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा, हिमालयो नाम नगाधिराजः। पूर्वापरौ तोयनिधी वगाह्यः स्थितः पृथिव्या इव मानदण्डः।। हिन्दू ही नहीं लगभव विश्व के समस्त धर्मावलम्बी महान विदेशी लेखकांे, कवियों, इतिहासकारों व पर्यटकों ने इसकी महान महिमा का वर्णन अपने ग्रन्थों में किया है। विशाल हिमालय तो अनेक उत्तरी राज्यों में फैला हुआ है किन्तु गौरव का विषय है कि हिमालय के अत्यंत महत्ता वाले तीर्थराज जैसी संज्ञा हिमालय के गढवाल क्षेत्र को दी जाती है। यहाँ के तीर्थों में पंचबदरी, पंचकेदार, पंचप्रयाग, गंगोत्तरी, यमुनोत्तरी एवं अनेक मठों-मन्दिरों के दरों पर भारतीय ही नहीं अपितु विदेशियों के मस्तक भी श्रद्धा से नतमस्तक होते रहे हैं।

भाषा के दृष्टिकोण से तीर्थ का अर्थ होता है पवित्र स्थान। इस सम्बन्ध में समग्र हिमालय को ही तीर्थ कह देना इसलिए उचित है चूंकि यहाँ के कण-कण में असीम आध्यात्मिक ऊर्जा तथा प्रत्येक स्थान से जुड़ी पौराणिक कहानियां हैं। साथ ही यहाँ से निकलने वाली नदियों का पवित्र जल समस्त भारतवर्ष को जीवन प्रदान करता है। हिमाच्छादित पर्वत श्रृंखलाओं, फूलों से सजी सुगन्धित वादियों, कल-कल करती नदियों, अनुपम सौन्दर्य युक्त वनों, हरी घास की हरितिमा युक्त कालीनों से सुसज्जित गढवाल हिमालय पुरातन गाथाओं के स्वर्ग की संज्ञा से युक्त होने के साथ ही भारतवर्ष के चमकते मुकुट के रूप में गौरवान्वित है। गढवाल हिमालय रामायण व महाभारत काल के साहित्य में वर्णित अनेक पौराणिक, धार्मिक, ऐतिहासिक व सांस्कृतिक विरासतों को समेटे हुए अनेक सुन्दर तीर्थस्थलों से परिपूर्ण है।

ऐसी अद्भुत सौन्दर्यस्थली एवं तीर्थस्थली चिरकाल से अनेक तपस्वियों, मनीषियों, योगियों, धर्म के मर्मज्ञों, आध्यात्मिक जिज्ञासुओं के साथ ही प्राकृतिक सौन्दर्य व रहस्यों के पुजारियों हेतु भी आकर्षण का केन्द्र रही है। भौतिक मनोरंजन व प्रकृति की अद्भुत अनुभूतियों के अतिरिक्त ऐसा अनुकूल एवं उत्कृष्टतम वातावरण योगसाधना व आध्यात्मिक आनन्द हेतु भी उत्तराखण्ड की विशिष्ट पहचान रही है। यही कारण है कि प्राचीन समय से ही गढवाल हिमालय ऋषि-मुनियों एवं तपस्वियांे की निवासस्थली रहा है। इसे देवभूमि की संज्ञा भी इसीलिए दी गई है क्योंकि सृष्टि के प्रारम्भिक काल से ही आदिदेव महादेव, माता-पार्वती, भगवान विष्णु के निवासस्थान के रूप में यह पूजनीय है। इसलिए समस्त गढवाल क्षेत्र के विभिन्न तीर्थ पूजनीय कहे गए हैं।

पौराणिक जनों ने हिमालय के पांच भाग बताए हैं- नेपाल, कूर्मांचल, केदारखण्ड, जलन्धर खण्ड एवं काश्मीर। कूर्मांचल एवं केदारखण्ड संयुक्त रूप से उत्तराखण्ड के रूप में में प्रसिद्ध है। समस्त केदारखण्ड गढवाल के अन्तर्गत आता है। गढवाल हिमालय का प्रवेश द्वार है- हरिद्वार अर्थात् भगवान का द्वार जैसी संज्ञा से युक्त यह शहर विश्वप्रसिद्ध है। हरिद्वार को गंगाद्वार, कपिलाद्वार, स्वर्गद्वार, कुटिलदर्रा व चौपाली दर्रा के नाम से भी वर्णित किया गया है। गढवाल हिमालय के तीर्थों का प्रारम्भ यहीं से होता है। यहाँ से पतितपावनी गंगा अपने मायके हिमालय से विशुद्ध मैदानी भाग में प्रवेश करती है। प्रत्येक बारह वर्ष बाद कुम्भ एवं छह वर्ष बाद अर्धकुम्भ के लिए यह जगत्प्रसिद्ध तीर्थ है। कहा जाता है कि यहाँ के संगम पर प्राचीन समय में अमृत की बूंदे गिरी थी, इसलिए मनुष्य यहाँ के संगम पर स्नान करके समस्त पापों से मुक्त हो जाता है। यहाँ के पवित्र स्थनों में दक्षप्रजापति का यज्ञस्थल कनखल, मायापुर, ब्रह्मकुण्ड, हरि की पैड़ी, कुशावर्त घाट, महामाया मन्दिर, रामेश्वर महादेव, दक्षेश्वर मन्दिर, सतीकुण्ड, सतीघाट, गोरखनाथ मन्दिर, ज्वालापुर, चण्डी देवी एवं मनसादेवी आदि हैं।

हरिद्वार से तीस किलोमीटर की दूरी पर स्थित ऋषिकेश गढवाल का अत्यंत पावन दूसरा तीर्थ है, यह कुब्जाम्रक नाम से भी जाना जाता था। इसका वर्णन पद्मपुराण में भी मिलता है, यह विष्णु का भी नाम है। यह अब शहर में परिवर्तित हो गया है, जो विश्वस्तर पर योग के राजधानी के रूप में विख्यात है। यहाँ पर सत्यनारायण, वीरभद्र, महादेव, भैरव, रघुनाथ, शत्रुघ्न, वेंकटेश्वर, चन्द्रमौलेश्वर जैसे अत्यंत पौराणिक मन्दिर तथा माया कुण्ड, तपोवन तथा त्रिवेणीघाट जैसे पवित्र स्थल हैं। इसके साथ ही यहाँ स्वर्गाश्रम, गीताश्रम, परमार्थ निकेतन, महर्षि ध्यान पीठ, वेद-निकेतन, वशिष्ठ गुफा भी है।

ऋषिकेश से 70 किमी उत्तर की ओर अगला तीर्थ है देवप्रयाग। जो पंचप्रयागों में से एक है और यहाँ भागीरथी का अलकनंदा से संगम होता है। प्रयाग का अर्थ होता है जो यज्ञों से भी बढकर हो प्रयाग दो पवित्र नदियों का संगम होता है। मान्यता है कि प्रयागों में स्नान करने से व्यक्ति समस्त पापों से मुक्त हो जाता है। यहाँ प्राचीन रघुनाथ मन्दिर, वशिष्ठकुण्ड, रामकुण्ड एवं ब्रह्मकुण्ड आदि हैं। इसके पश्चात् तीर्थों की श्रेणी में दूसरा प्रयाग आता है- रूद्रप्रयाग जो मन्दाकिनी एवं अलकनन्दा का संगमस्थल है। यहाँ पर रूद्रनाथ, रूद्रप्रयागचट्टी, कोटेश्वर महादेव एवं रूद्रावर्त पर्वत जैसे पौराणिक तीर्थ हैं व यह आदिशिव की तपस्थली है। यहीं से अलग-अलग मार्ग बदरीनाथ व केदारनाथ के लिए जाते हैं। संगम को पार करते हुए मार्ग केदारनाथ को जाता है तथा सीधा मार्ग बदरीनाथ को। बदरीनाथ वाले मार्ग पर ही तीसरा प्रयाग आता है कर्णप्रयाग जहाँ पिण्डर व अलकनन्दा नदियों का संगम होता है। यहाँ पर सूर्य, उमादेवी के मन्दिर व कर्ण कुण्ड हैं। इससे आगे बढते हुए नन्दप्रयाग नामक चौथा प्रयाग है, जहाँ नन्दाकिनी एवं अलकनन्दा का संगम है। यहाँ पर वशिष्ठदेश जैसा दुर्लभ शिवलिंग, रावण की तपस्थली दसौली, भारत की एकमात्र उत्तरवाहिनी नदी विरही गंगा, विरहेश्वर महादेव व परमगोपनीय नन्दा देवी के मन्दिरों के साथ ही वैरासकुण्ड भी है। अन्तिम पाँचवाँप्रयाग है विष्णुप्रयाग- जहाँ धौली व विष्णुगंगा का संगम होता है। यहीं पर नारद ने अष्टाक्षरी मंत्र ओम नमो भगवते वासुदेवाय को सिद्ध किया था। यहाँ पर ब्रह्म, गणेश, ऋंगी, ऋषि, सूर्य, दुर्गा, धनदा, प्रह्लाद, गन्धमादन, नारायण नाम से दस कुण्ड एवं विष्णुमन्दिर हैं।

यहीं से होते हुए बदरीनाथ जाते हैं, जो भारतवर्ष के चारधामों में से एक धाम है। हरिद्वार से लगभग तीन सौ किमी दूर नर-नारायण पर्वतों की गोद में बसा यह भगवान विष्णु का धाम है। प्रत्येक वर्ष लाखों श्रद्धालु यहाँ दर्शनार्थ आते हैं। बद्रीनाथ के पास से ही अलकनन्दा नदी का उद्गम भी होता है। बदरीनाथ में भगवान विष्णु के योगनारायण मन्दिर के साथ ही तप्त व नारद कुण्ड, पंचशिला, ब्रह्मकपाल, चरणपादुका तीर्थ हैं। बदरीनाथ सहित पंचबदरी के अन्तर्गत अणिमठ, ध्यानबदरी, योगबदरी व आदिबदरी पावन तीर्थ हैं। अणिमठ बदरीनाथ मार्ग से 2 किमी पैदल हेलंगचट्टी के पास, ध्यानबदरी व योगबदरी जोशीमठ के पास ही हैं। आदिबदरी कर्णप्रयाग से 20 किमी दूर है। इनके अन्तर्गत वासुदेव, नृसिंह, शंकराचार्य मन्दिर व ज्योर्तिमठ प्रसिद्ध हैं। सिक्खों का प्रसिद्ध तीर्थ हेमकुण्ड साहिब व फूलों की घाटी भी बदरिकाश्रम क्षेत्र के अन्तर्गत हैं।

बदरीनाथ के बाद केदारनाथ दूसरा प्रसिद्ध धाम है। जिसका वर्णन लिंग, कूर्म, पद्म, देवी जैसे पुराणों में मिलता है। यह रूद्रप्रयाग से संगम पार करके गुप्तकाशी से होते हुए 100 किमी की दूरी पर है, यहाँ 14 किमी की पैदल चढाई है किन्तु केदारघाटी की सुन्दरता इस पैदल मार्ग की थकान का अनुभव ही नहीं होने देती। अपितु मन आध्यात्मिक शान्ति एवं प्रफुल्लता से आनन्दित हो जाता है। यहाँ से ही मन्दाकिनी नदी का उद्गम होता है। यहाँ पर पाण्डवों ने उपासना की व शंकराचार्य का समाधिस्थल भी यहाँ है। शंकराचार्य ने ही बद्री-केदार धामों की स्थापना भी की थी। केदारनाथ में महापंथ एवं भैरवझांप भी हैं।

इसी क्षेत्र में मोटरमार्ग में ही मां आदिशक्ति काली का अवतरण स्थल कालीमठ, ऊखीमठ, कालीशिला, गुप्तकाशी, त्रियुगीनारायण एवं गौरीकुण्ड आदि महान तीर्थ हैं। केदारनाथ के अतिरिक्त पंचकेदारों में मध्यमहेश्वर, तुंगनाथ, रूद्रनाथ एवं कल्पेश्वर अनन्त आध्यात्मिक शक्ति से युक्त हैं। मध्यमहेश्वर व तुंगनाथ भगवान केदारनाथ के शीतकालीन आवास ऊखीमठ से होते हुए जाते हैं। मध्यमहेश्वर 18 किमी पैदल एवं तुंगनाथ 3 किमी पैदल चढाई पर हैं। रूद्रनाथ गोपेश्वर से पैदल 18 किमी एवं कल्पेश्वर बद्रीनाथ मार्ग पर पड़ने वाले हेलंग से 9 किमी पैदल है।

इन तीर्थों के अतिरिक्त गंगोत्तरी एवं यमुनोत्तरी दो अन्य महान तीर्थ गढवाल हिमालय में हैं। गंगोत्तरी उत्तरकाशी से 55 किमी दूर है जहाँ पर भागीरथी गंगा का मन्दिर है। भगीरथ के तप से गंगा स्वर्ग से पृथ्वी पर आई थी गंगा का उद्गम स्थल गोमुख यहीं से होकर जाते हैं। इसके अतिरिक्त इस क्षेत्र में भगीरथशिला, गौरीकुण्ड, परांगण, भैरोंझांप, मायावी कन्दरा, हिमनद, छायापथ, भोजवासा, वासुकि हिमनद आदि प्रसिद्ध धार्मिक स्थान हैं। गंगोत्तरी के अतिरिक्त यमुनोत्तरी भी प्रसिद्ध चारों धामों में से एक है। यहाँ यमुना जी का मन्दिर है व बन्दरपुच्छ उद्गम स्थल है। यमुनोत्तरी कांठा, दिव्यशिला, सूर्यकुण्ड, नेपालीबाबा गुफा, खरसाली, समेर-देवरू एवं सोमेश्वर मन्दिर यहाँ के अन्य धार्मिक स्थान हैं। गंगोत्तरी एवं यमुनोत्तरी के मार्ग में पड़ने वाला उत्तरकाशी भी अद्भुत तीर्थ है, जो इन दोनों तीर्थों का संधिस्थल है। जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है यह उत्तर की काशी है जो ऋषिकेश से 148 किलोमीटर दूर है। यहाँ मणिकर्णिका घाट, ब्रह्मकुण्ड, रूद्रकुण्ड, गंगा-बरूड़ा संगम, रूद्रेश्वर, विश्वनाथ, गोपेश्वर, परशुराम, लक्षेश्वर, सिद्धकालेश्वर आदि मन्दिर हैं। मैं यह भी कहना चाहूंगी कि नन्दादेवीराजजात के मार्ग में पड़ने वाले स्थान भी तीर्थों के समान श्रेष्ठ हैं। इनमें से लोहाजंग, भेकलताल, ब्रह्मताल, लाटू देवता, वेदिनी बुग्याल, वैतरणी, पातर नचौण्या, गंगतोली-गुफा, कैलुआ विनायक, बगवासा, ब्रह्मकमल, रूपकुण्ड एवं होमकुण्ड गढवाल क्षेत्र में पड़ने वाले धार्मिक स्थान हैं। इन सभी तीर्थों के साथ ही गढवाल हिमालय में अनगिनत शक्तिपीठ, सिद्धपीठ, मठ एवं मन्दिर भी तीर्थों के अन्तर्गत महान तीर्थ हैं, जो आध्यात्मिक सत्ताओं का अनुभव करवाते हैं। यहाँ की नन्दादेवी राजजात यात्रा विश्व की सबसे बड़ी यात्रा है।

हमारे पौराणिक तीर्थ आज श्रद्धा के स्थान पर मात्र घूमने-फिरने, पर्यटन एवं आर्थिक उगाही के साधन बन गए हैं। यह तथ्य खेदपूर्ण है कि हम इनके पौराणिक महत्त्व को भूलकर मात्र भौतिक सुख से जोड़कर इन्हें देखें। तीर्थों पर हो रहा पर्यावरणीय, मानसिक एवं सांस्कृतिक प्रदूषण अत्यंत घातक है। हमें विशुद्ध आध्यात्मिक विचारों के साथ इन तीर्थों की पवित्रता एवं आध्यात्मिकता को बनाए रखने हेतु कृतसंकल्प होना होगा। यही सच्चे अर्थों में हमारा नैतिक व आध्यात्मिक विकास होगा।

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