सुराखों से बना है दंड विधान / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :19 जनवरी 2017
कभी कृषिप्रधान रहा भारत आज इस कदर फिल्मी सितारा प्रधान देश हो गया है कि जोधपुर में अदालत की ओर जाने वाले रास्तों पर भीड़ बढ़ गई और आम लोगों को कष्ट भुगतना पड़ा। वहां व्यवस्था के लिए तीन सौ पुलिसकर्मी लगाए गए थे गोयाकि शहर के अन्य क्षेत्रों में अपराध करने की सुविधा पैदा हो गई। टेलीविजन पर भी यही प्रमुख खबर बनी रही। 18 वर्ष पूर्व का प्रकरण आज तक रेंग रहा है, जबकि अदालतों पर कार्य का भार बहुत अधिक है। कई लोग वर्षों तक अदालत जाते रहते हैं और उनकी मृत्यु होने तक फैसले नहीं आते। अनावश्यक मुकदमेबाजी को अदालतें भी किसी तरह का प्रोत्साहन नहीं देतीं परंतु जब कुएं मंे ही भांग पड़ी हो तो किसको मुजरिम समझें, किसको दोष लगाएं। यह गौरतलब है कि सलमान खान पर चल रहे मुकदमों से उनकी लोकप्रियता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। दर्शक की अदालत उन्हें निर्दोष पाती है। सलमान खान की अभिनय क्षमता में विगत कुछ समय में बहुत सुधार हुआ है। 'बजरंगी भाईजान,' 'एक था टाइगर,' और 'सुल्तान' में वे बेहदर अभिनेता के रूप में सामने आए हैं। 'सलमान खान' अौर उनके तमाम समकालीन कलाकार दिलीप कुमार या संजीव कुमार के स्तर के नहीं हैं और ही उनके पास राज कपूर या देव आनंद की तरह जादुई व्यक्तित्व है। सलमान खान का अपने चाहने वाले दर्शक वर्ग से अजीब-सा रिश्ता है। सलमान खान के निकट रहने वाले उन्हें उतना नहीं समझते, जितना उन्हें कभी नहीं मिल पाने वाले लोग समझ लेते हैं। आपसी समझदारी के इस अदृश्य सेतु को बुद्धि से समझा नहीं जा सकता। सितारे अवर्णनीय उत्साह पैदा करते हैं और इस प्रक्रिया का कोई वैज्ञानिक तर्कसम्मत नतीजा नहीं निकाला जा सकता। हम इसी से संतोष कर लें कि यह मामला इश्क की तरह है, 'लगाए लगे, बुझाए बने।'
सलमान खान पर लगे आरोप या उनका बचाव महज एक बहाना है रूस के फ्योदोर दोस्तोवस्की के अमर उपन्यास 'क्राइम एंड पनिशमंेट' पर विचार करने का। उनका जन्म 1821 में हुआ और मृत्यु 1881 में हुई। यह उपन्यास उन्होंने 1866 में रचा गोयाकि उस समय वे मात्र 45 वर्ष के थे। इस उपन्यास से प्रेरित फिल्में भी सभी फिल्म बनाने वाले देशों में बनाई गई हैं। भारत में फिल्मकार रमेश सहगल ने इस उपन्यास की प्रेरणा से 'फिर सुबह होगी' की रचना की थी, जिसमें राज कपूर, माला सिन्हा, उल्हास, मुराद, नाना पलसीकर इत्यादि ने अभिनय किया था। साहिर लुधियानवी के गीतों की धुनें खय्याम साहब ने रची थी और इसका पहला विज्ञापन देश के प्रमुख अखबारों में प्रथम पृष्ठ पर प्रकाशित हुआ था। विज्ञापन में केवल शीर्षक गीत 'वह सुबह कभी तो आएगी' का पूरा टेक्स्ट छपा था। इस फिल्म के सारे गीत हमारे फिल्म संगीत की धरोहर है। 'फिर कीजिए मेरी गुस्ताख निगाहों का गिला, देखिए फिर आपने प्यार से देखा मुझको' तथा 'आसमां पर है खुदा और जमीं पर हम, वह आजकल इस तरफ देखता है कम।' टाइटल गीत की एक पंक्ति जहन में आज तक दर्ज है, 'माना कि तेरे मेरे अरमानों की कीमत आज कुछ भी नहीं, मिट्टी का भी है कुछ मोल मगर इंसानों की कीमत कुछ भी नहीं।'
कथा नायक कानून का विद्यार्थी है अौर अत्यंत गरीब परिवार से आया है। उसका अमीर अंतरंग मित्र प्राय: उसकी मदद करता है। मित्र की भूमिका रहमान साहब ने की थी।
उन पर एक गीत भी फिल्माया गया था, 'जो बोर करे उस यार से तौबा।' उपन्यास में नायक ब्याज के लालची इंसान की हत्या कर देता है। वह ब्याजखोर स्त्री पात्र है परंतु रमेश सहगल ने उसे पुरुष महाजन कर दिया था। नायक की एक धारणा है कि कानून दो तरह के होने चाहिए- एक अवाम के िलए और एक असाधारण प्रतिभाशाली लोगों के लिए परंतु वह अपनी इस अवधारणा की खोट को शीघ्र ही स्वीकार भी कर लेता है।
उपन्यास और फिल्म में अावेश के कारण नायक ब्याजखोर महा़जन की हत्या कर देता है परंतु वहां रखे खजाने को हाथ भी नहीं लगाता, क्योंकि कत्ल पैसे के लिए नहीं किया गया है। उसके मन में अन्याय और असमानता आधारित व्यवस्था के खिलाफ आक्रोश था। शायद ही कोई कालखंड ऐसा रहा हो, जब व्यवस्था के खिलाफ आक्रोश हो परंतु मौजूदा सरकार के मायाजाल की प्रशंसा करनी होगी कि वर्तमान के युवावर्ग के मन में आक्रोश ही नहीं है। शायद उन्होंने इसे अपना भाग्य मान लिया है कि वे सदैव रुग्ण व्यस्था के अधीन रहेंगे। अब हथियार डाल दिए गए हैं। कमोबेश हालत है कि 'खाकर अफीम रंगरेज पूछे रंग का कारोबार क्या है।' उपन्यास का इंस्पेक्टर पात्र जानता है कि कत्ल किसने किया है परंतु उसके पास कोई प्रमाण नहीं है और वह कातिल पर मनोवैज्ञानिक दबाव डालता है कि वह अपराध स्वीकार कर ले। मुराद साहब ने इंस्पेक्टर की भूमिका बखूबी निभाई थी। यह राज कपूर की भी श्रेष्ठ भूमिकाओं में से एक है परंतु साहिर-खय्याम का गीत-संगीत अमर है। फिल्म में नायक का भीतरी द्वंद्व उसके एक स्वप्न दृश्य में अभिव्यक्त हुआ है।
इस उपन्यास के लेखक का मूल मन्तव्य यह था कि प्राय: मनुष्य दुविधाग्रस्त रहता है और उसके मन के कुरुक्षेत्र में युद्ध सतत् जारी रहता है। वह अपने भीतर के गुण-अवगुण से सदैव जूझता रहता है। अर्जुन, हेमलेट, देवदास की तरह इसका नायक भी दुविधाग्रस्त है। पीड़ा से गुजरकर मुक्ति पाना भी हमेशा कारगर नहीं होता। कभी-कभी हमारी पीड़ा हमारी प्रार्थना से एकाकार हो जाती है परंतु अन्याय और असमानता आधारित व्यवस्था हमें कभी स्वयं से रू-ब-रू होने का अवसर ही नहीं देती। दंड विधान दोषपूर्ण है और अपराधी सत्तासीन हो जाते हैं। खंजर पर कातिल के हाथ के निशान कहां मिल पाते हैं। धर्म और छद्म नैतिकता के दस्ताने कुछ साबित नहीं होने देते।