सुर्खियों का हलकट कोलाज / जयप्रकाश चौकसे
सुर्खियों का हलकट कोलाज
प्रकाशन तिथि : 21 सितम्बर 2012
फिल्म के प्रारंभ में विभाजित परिवार की अपने भीतर के तनावों और सफल होने के दबाव से संतप्त एवं दुविधाग्रस्त हीरोइन, फिल्म के अंत में संदिग्ध सफलता और एक आतुर प्रेमी को छोड़कर विदेश में गुमनाम जीवन जी रही है और एक आप्रवासी भारतीय प्रशंसक के पूछने पर कि क्या वही प्रसिद्ध सितारा माही है, वह इनकार करके आगे बढ़ जाती है। मधुर भंडारकर फिल्म 'हीरोइन' के ये क्षण 'प्यासा' के 'ये दुनिया अगर मिल भी जाए' से कमतर और सतही हैं, क्योंकि उसका नायक संस्कृति एवं जीवनमूल्य विहीन दुनिया को अस्वीकार कर रहा है। यहां हीरोइन के पास कोई वृहद सामाजिक कारण नहीं है। वह अपने जीवन व कॅरियर की बदइंतजामी के लिए स्वयं जिम्मेदार है, अत: दर्शक उसके साथ भावनात्मक तादात्म्य कैसे बना सकता है। यह पात्र नूतन, मीना कुमारी अथवा मर्लिन मुनरो से नहीं वरन परबीन बाबी से से प्रेरित हो सकता है।
फिल्म के लगभग आखिरी दृश्य में हीरोइन गुजश्ता जमाने की शिखर नायिका की मृत्यु पर शोक जताने जाती है और उनके घर से निकलते ही शिकारी मीडिया उसे घेरकर मृत व्यक्ति के बारे में नहीं, वरन उसके संदिग्ध एमएमएस की अश्लील तस्वीरों के बारे में पूछता है और शायद इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की यह हृदयहीनता उसे गुमनाम जीवन बिताने का निर्णय लेने में सहायक होती है। मीडिया सिर कटी मुर्गी की तरह घूमता रहता है और मधुर भंडारकर ने अपनी सभी फिल्मों में उसे रेखांकित किया है।
बहरहाल, फिल्म में भूतपूर्व सितारा नायिका करीना को कहती है कि सितारे का कॅरियर उसे जितना कुछ देता है, उससे कहीं अधिक छीन लेता है, परंतु इसका अहसास कॅरियर के संध्याकाल में होता है। युवा तारिकाएं पे्रम को छोड़कर प्रसिद्धि की ओर भागती हैं और प्रसिद्ध होने पर प्रेम नहीं मिलता। दरअसल इस फिल्म में भूतपूर्व नायिका हेलन और युवा करीना के बीच बाबूराम इशारा की 'चेतना' का संवाद सार्थक सिद्ध हो सकता था कि जहां पर हेलन करीना से कहतीं कि तुम मुझमें अपना भविष्य और मैं तुममें अपना अतीत देख सकती हूं।
बहरहाल, इस फिल्म का पहला भाग फॉर्मूलाग्रस्त भी है और बिखरा हुआ भी है, परंतु मध्यांतर के बाद अनेक घटनाएं घटती हैं और करीना कपूर को ढेरों अवसर देती हैं। मधुर भंडारकर ने पहले भाग में फिल्म उद्योग की भीतरी बुनावट का जो वर्णन किया है, वह अखबार की सुर्खियों से बटोरा हुआ है, जिसका यथार्थ से कोई संबंध नहीं है। हालांकि मध्यांतर के बाद उन्होंने अच्छे और बुरे पात्रों की संख्या में संतुलन बनाने का प्रयास किया है, इसीलिए वह हिस्सा ठीक लगता है। दरअसल सारे चरित्रों की रचना फॉर्मूलाग्रस्त, प्रचारित ढांचों-सी गढ़ी गई है, इसलिए पात्रों का दु:ख दर्शकों तक नहीं पहुंचता।
इस तरह की कहानियों में औरत के औरत होने के अर्थ समाप्त होते हैं और वह वस्तु बना दी जाती है। ऐसा कुछ मधुर की फिल्म में नहीं है। दरअसल मधुर के लिए सिनेमा महज चौंकाने का काम करता है, इसलिए फिल्म में अनावश्यक रूप से समलैंगिकता का एक दृश्य भी रखा गया है। इस फिल्म के एक दृश्य में फिल्म निर्माण में कॉर्पोरेट हस्तक्षेप की बात है, जबकि कॉर्पोरेट्स दखलअंदाजी नहीं करते। हमारे उद्योग में केवल नायक जिसकी ब्रांड कीमत पर फिल्म का आर्थिक ढांचा खड़ा किया गया है, ही दखलअंदाजी करता है। यह तो टेलीविजन क्षेत्र में चैनल ही हैं, जो हर बात में आदेश देते हैं। आश्चर्य यह है कि विगत दो दशक से फिल्म उद्योग में होते हुए भी मधुर ने उद्योग का विकृत चित्र ही प्रस्तुत किया है। यह फिल्म उद्योग का सतही और सनसनीखेज प्रस्तुतीकरण है। पूरी फिल्म नायिकाओं के विषय में अखबारों की सुर्खियों का कोलाज जैसी प्रतीत होती है।
करीना कपूर एक स्वाभाविक अभिनेत्री हैं, परंतु इस फिल्म में उनके प्रयास नजर आते हैं और वह इस तरह दिखती हैं, मानो कुछ सिद्ध करना चाहती हैं। भूमिकाएं चुनौती हो सकती हैं, परंतु उनके माध्यम से कोई फतवे या फैसले नहीं दिए जा सकते। यह 'नायक' बनने के प्रयास की तरह है। बहरहाल, पूरी फिल्म में जबरदस्त तड़क-भड़क और शोर-शराबा है। पिछले हफ्ते रिलीज 'बर्फी' के पात्र जन्म की सतह से ऊपर उठने का प्रयास करते हैं, इसलिए उनका दु:ख-सुख दर्शक को प्रभावित करता है। 'हीरोइन' के लगभग सभी पात्र जन्म की सतह से नीचे जाते हैं, अत: उनका दर्द दर्शक का नहीं है। 'हीरोइन' में सारा फोकस 'हलकट जवानी' पर है, जो उसका प्रतीक भी बन जाती है।