सुर के विस्तार में श्रोताओं का द्वार / देव प्रकाश चौधरी

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गृहस्थ जीवन की आसक्ति और मोह के साथ, बच्चों की-सी सहजता और जिज्ञासा के बीच, अपने समय से बिना किसी शिकायत के और आयोजकों के लिए बिना किसी सिरदर्द के गिरिजादेवी आधी सदी से ज़्यादा दिनों तक भारतीय समाज के लिए गाती रहीं। परंपरा के प्रति निश्छल अनुराग और ज़िन्दगी के प्रति अदम्य उत्साह के साथ वह आधुनिक उपशास्त्रीय संगीत के भंडार को संजोती रहीं और पूरब अंग की कलात्मक विरासत को अत्यंत मोहक और सौष्ठवपूर्ण और सुरीले ढंग से उद्घाटित करती रहीं। अक्तूबर उनका हमसे बिछड़ने का महीना भी है। एक वैज्ञानिक युग में जीते हुए उनके न रहने पर भी, उनके गाए और रचे संगीत हमारे पास उपलब्ध हैं, लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या सचमुच हमें उनके गायन शैली और सुरों की ज़रूरत है?

क्योंकि हम सब एक ऐसे समय को भोग रहे हैं, जहाँ 'बेसुरे होने को' भी प्रतिभा का हिस्सा मान लिया गया है। ज़माने का ज़ोर 'शोर' पर है और जहाँ शोर नहीं है, वहाँ किसी चीज के अस्तित्व पर हमें संदेह है। हम हर उत्सव, हर बात, हर अधिकार, हर आग्रह, हर विवाद और यहाँ तक कि हर सलाह के शोरमान होने पर ही उसकी सार्थकता को महसूस कर पाते हैं।

सहज सुन पाने का संस्कार हमारी ज़िन्दगी से बाहर होते जा रहे हैं या हो चुके हैं और शायद ही कोई अभिव्यक्ति में सूक्ष्मता की ज़रूरत महसूस कर पा रहा हो, ऐसे में सुरों के संसार की बारिकियों और सुरों की मिठास तक पहुँचने की ज़रूरत किसे है?

बरसों पहले दिल्ली में उनसे मुलाकात हुई थी। बातचीत के क्रम में उन्होंने कहा था-"ठुमरी ऐसा छोटा मधुर गीत है, जिसके गायन में पूरी भावनाएँ आनी ज़रूरी हैं। इसमें भाव और शब्द के लिए अलग-अलग राग अलापने पड़ते हैं। इसे किसी भी राग-रागिनी में गाया जाए, इसका गायन अन्य रागों के गायन से अलग होता है। इसे केवल रागों की तरह नहीं गाया जा सकता।"

वह अपनी पूर्ववर्ती गायक-गायिकाओं में से डी. वी. पलुस्कर, केसरबाई केरकर, रसूलन बाई, हीराबाई बड़ोदकर और सिद्धेश्वरी देवी से प्रभावित रहीं, लेकिन अपनी गायिकी के विस्तार में द्वार की खोज ख़ुद उन्होंने ही की थी।

दिल्ली की उस मुलाकात में उन्होंने कहा था-"वैसे तो मुझे ढेर सारे राग बेहद पसंद हैं। लेकिन भैरव को मैं सबसे ज़्यादा गाती हूँ। भैरव में गायी जाने वाली बंदिशें मुझे बहुत अच्छी लगती हैं। मैं इस राग को इसलिए भी ज़्यादा मन से गाती हूँ, क्योंकि यह शिव का राग है। इसको गाते वक़्त शिव आराधना का-सा अनुभव होता है।"

सिर्फ गायन ही नहीं, ज़िन्दगी भी उन्होंने एक अराधना की तरह ही जी। बनारस को जीती रहीं और बनारसी रंग को गाती रहीं। दूसरे शहर में भी गईं तो अपने बनारस को साथ लेकर गईं। जब उनके पति इस दुनिया को अलविदा कह गए थे, तो अपनी बेटी के पास कोलकाता चली गईं थीं। फिर भी बनारस को कभी नहीं भूलीं। उनका सारा काम बनारस से ही होता रहा। उनकी खनकती आवाज़ में ठुमरी, कजरी और चैती का ख़ास बनारसी लहजा दशकों तक लोगों को मुग्ध करता रहा।

ध्रुपद, खयाल, टप्पा, तराना, ठुमरी और पारंपरिक लोक संगीत-होरी, चैती, कजरी, झूला, दादरा, भजन प्रस्तुत करने का उनका तरीक़ा उनका अपना तरीक़ा था। उनकी एक कजरी 'बरसन लगी' तो आज भी सुर के प्रेमियों को भारतीय संगीत की दुनिया की सैर करा देती है। आपको उनके गायन में विशालता का अनुभव होगा। उनके सुर हमें एक अन्तहीन यात्रा की ओर लेकर चलते हैं। एक समय के बाद एक श्रोता के रूप में हमारा अस्तित्व समाप्त हो जाता है। हम ख़ुद को अलग नहीं पाते। उनके सुर में घुल-मिल जाते हैं। उसका एक अंश हो जाते हैं। उनका गायन हमें सोख लेता है। उनका गायन हमारी आत्मा को अनन्त से मिलाने निकल पड़ता है। श्रोताओं के लिए अनुभव गाने वालों की साधना के बाद ही संभव है।

राग भैरवी में उनका गायन 'रस से भरे नैन' सुना है। बरसों पहले पहली बार मैंने इसे मशहूर अभिनेता अन्नू कपूर के एक प्रोग्राम में सुना था। गिरिजा जी गा रही थीं। आम तौर पर वैसे प्रोग्राम में इस तरह के गायन की परंपरा नहीं रही है अपने यहाँ। लेकिन उन्होंने ऐसा गाया कि कोई कृतज्ञ समाज उसे कैसे भूल सकता है। मुझे नहीं पता कि दर्शकों में कितने लोग सुर, लय और ताल की बारिकियों को समझने वाले थे। लेकिन मैंने यह ज़रूर महसूस किया कि लोग आनंद ले रहे थे।

मेरी राय में, गिरिजा देवी जैसे महान गायिका को याद करते हुए श्रोताओं के इस 'आनंद' को भी परिभाषित करने की ज़रूरत है। अगर गाना किसी गायक के लिए साधना है या तपस्या है तो श्रोताओं के लिए सुनना क्या है? इस सुनने को हम कैसे परिभाषित कर सकते हैं? किसी की पुकार सुनने या किसी का भाषण सुनने और कोई संगीत सुनने में श्रोता के मन: स्थिति में जो फ़र्क़ होता है, उसे कैसे परिभाषित करेंगे। इस सुनने पर ही गायन की दुनिया टिकी है। यह बात दीगर है कि इस सुनने में किसी को सम्मोहन-सा लगे, किसी को खो जाने का अहसास हो या किसी को अपनी महात्वाकांक्षा का विस्तार लगे, सच यही है कि सदियों से गायक और श्रोता के बीच का जो रिश्ता रहा है, उसे परिभाषित करने में हम चूक गए हैं। गिरिजा देवी के श्रोताओं के साथ भी ऐसा हुआ है। एक आम संगीत के विद्यारथी की तरह मेरे मन में भी एक सवाल उठता है कि क्यों किसी को गिरिजा देवी पसंद हैं तो किसी को जिलाई बाई।

विज्ञान के इस युग में साधनों की मौजूदगी ने उनके गायन का सम्मोहन बरकरार रखा है। आज भी ढेर सारे लोग इंटरनेट पर मौजूद उनके गाए कई सौ गीतों को लगातार सुनते हैं। दूसरे गायकों भी लोग सुनते हैं। लेकिन श्रोताओं को लेकर अक्सर हमारी बात नहीं होती, जबकि बिना किसी श्रोता के गायिकी का विस्तार बंध जाता है। इसी के साथ एक और सवाल संगीत और गायन को लेकर

मौजू है। क्या जिस तरह साहित्य से या रंगमंच से, या रूपंकर कलाओं या सिनेमा से, हम यह उम्मीद करते हैं कि वह हमारे समय को और तात्कालिक चिन्ताओं पर कुछ बात करेगी। पर अक्सर हम संगीत से ऐसी अपेक्षा नहीं करते हैं? क्या हम मान बैठे हैं कि संगीत या गायन का काम हमें रस और आस्वाद के अवसर देना भर है, हमारे बुनियादी प्रश्नों से जूझने की कोई समझ या शक्ति देना नहीं?

महान गायिका गिरिजा देवी के बहाने अगर हम इन सवालों में जाने की कोशिश करें तो शायद उन्हें याद करने का सही मकसद सामने आएगा और उन्होंने गायिकी के आकाश को जो विस्तार दिया था, उसमें हम सब अपना-अपना द्वार खोज पाएंगे।