सुर ना सधे क्या गाऊं मैं / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :11 जुलाई 2017
वर्षों टेलीविजन क्षेत्र में काम करने के बाद आनंद एल. राय ने कथा फिल्म निर्माण में प्रवेश किया और उनकी 'तुन वेड्स मनु' तथा 'रांझना' सफल रहीं। अब वे शाहरुख खान और अनुष्का शर्मा के साथ फिल्म बना रहे हैं। फिल्म में नायक बौने का पात्र अभिनीत कर रहा है और उसकी नायिका व्हील चेयर के सहारे सक्रिय रहती है। यह अजब-गजब प्रेम-कथा है परंतु संदेश स्पष्ट है कि ईश्वरीय कमतरी के बावजूद जीवन सानंद जिया जा सकता है। इस तरह की अपंगता को ईश्वरीय कमतरी कहना अंग्रेजी भाषा का कमाल है। मनुष्य को कमतर बनाने का उत्तरदायित्व ईश्वर को दिया गया है, क्योंकि सारा संसार ही उसकी रचना माना गया है। एक दृष्टिकोण यह भी हो सकता है कि मनुष्य का सर्वश्रेष्ठ आकल्पन ईश्वर है। उसने एक जज नियुक्त किया है, एक भय खड़ा किया है कि मनुष्य बुरे काम से बचे। गौरतलब है कि सतमार्ग पर चलने के लिए एक हव्वा खड़ा किया गया है। नेहरू ने एक जगह लिखा है कि फैन्टम ऑफ फियर बिल्ड्स इटसेल्फ टू मोर फियरसम दैन फियर इन रिएलिटी अर्थात भय काल्पनिक है और भय की कल्पना यथार्थ से कहीं अधिक विराट होती है। अंधेरे में मनुष्य का पैर रस्सी पर पड़ता है और उसे भय लगता है कि सांप ने उसे काटा है। वह सांप के काटने के भय से ही मर जाता है। पोस्टमार्टम में कोई जहर नहीं मिलता। इसके साथ ही यह भी दुखद है कि किसी ने कह दिया कि 'भय बिन होय न प्रीत' गोयाकि हम भय के कारण अच्छे बने रहते हैं। ईश्वर प्रेम है परंतु हमने उसे भय बना दिया है।
फिल्मकार जेपी दत्ता यह मानते रहे हैं कि उनके खिलाफ कुछ भी करने वाले को ईश्वर दंडित करते हैं अर्थात उन्होंने अपने बौनेपन से अपने ईश्वर आकल्पन को इतना सीमित कर दिया कि ईश्वर के पास केवल उनके विरोधियों को दंडित करने का काम रह गया है, जबकि वह संसार के सारे क्रियाकलाप को चलाने वाले रूप में प्रतिष्ठित हैं। इसी तरह मनुष्य की तर्कसम्मत विचार प्रक्रिया को आत्मा कहकर हमने तर्कक्षेत्र को आध्यात्मिकता के क्षेत्र में प्रवेश दिला दिया। दूसरे विश्वयुद्ध के पश्चात उस युद्ध में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले विन्सटन चर्चिल से युद्ध का कारण पूछे जाने पर उन्होंने सटीक व सार्थक उत्तर दिया कि जब मनुष्य तर्क को तिलांजलि देता है तो युद्ध हो जाता है। आम आदमी को बार-बार तर्क का मार्ग छोड़ने का संदेश दिया जाता है ताकि अंधविश्वास व कुरीतियों का साम्राज्य बना रहे। सारे भ्रम आम आदमी को बरगलाने के लिए गढ़े गए हैं। सुविधाओं से वंचित रहते हुए भी आम आदमी मुस्कराते हुए जी लेता है। सत्ता को मुस्कराहट पर एतराज है। दरअसल, सारी सत्ताएं और हुक्मरान आनंद से भयभीत लोग हैं। अब शास्त्रीय संगीत सम्मेलन पर भी जीएसटी लाद दिया गया है और यह सब वह सरकार कर रही है, जो भारतीयता का दावा करते हुए कभी थकती नहीं। मुंबई के दादर क्षेत्र में 'सरदार फ्लूट सेंटर' लंबे समय से वाद्य यंत्र बेचता रहा है। वह बिगड़ गए वाद्य यंत्रों को ठीक भी करता है। क्या वह वर्तमान व्यवस्था में अपना व्यवसाय कर पाएगा?
दशकों पूर्व संगीतकार कल्याणजी भाई ने एक वाद्ययंत्र विदेश से मंगाया था, जिससे अनेक वाद्ययंत्रों की ध्वनियां पैदा की जा सकती थीं। शशधर मुखर्जी की प्रदीप कूुमार व वैजयंतीमाला अभिनीत फिल्म 'नागिन' में इस्तेमाल बीन की ध्वनि भी उसी से निकाली गई थी। सांप दूध नहीं पीते परंतु यह मिथक भी फिल्मों ने ही रचा है। सांप मेंढक इत्यादि खाने वाला नॉन वेजिटेरियन प्राणी है परंतु नागपंचमी के अवसर पर उसे दूध ही पिलाया जाता है।
आनंद एल. राय इतने प्रतिभाशाली हैं कि एक बौने और एक अपंग स्त्री की प्रेम-कथा में भी दर्शक के लिए आनंद की रचना करने में सफल होंगे। बौनेपन से इच्छाएं तो नहीं मरती बल्कि वे संभवत: विराट स्वरूप ग्रहण कर लेती होंगी। शंकर के उपन्यास 'चौरंगी' में भी एक बौना पात्र है, जिसकी बहन सामान्य है अर्थात एक ही दंपत्ति की दो संताने जुदा-जुदा हैं। यह विविधता ही जीवन को रोचक बनाती है। भारत का सार भी विविधता ही रहा है। अलग-अलग भाषाएं बोलने वाले व अलग-अलग रीति-रिवाज मानने वाले लोग एक साथ रहते हैं। वर्तमान में अनुशासन के नाम पर इस विविधता को ही भंग करने की चेष्टा की जा रही है। इसी तथाकथित मान्यता के कारण 'एक राष्ट्र, एक टैक्स' की व्यवस्था लाई जा रही है, जबकि छिपा एजेंडा यह है कि भारत एक राष्ट्र एक टैक्स, एक भाषा और एक जैसे विचार रखने वाले लोगों का देश बने, जो भारतीय संस्कृति की सिन्थेसिस की भावना के विपरीत है। यह 'विविधता में एकता' के भी खिलाफ है। संगीत क्षेत्र में विविध वाद्ययंत्र होते हैं परंतु रचना में वे सब एक ही राग को साध रहे होते हैं। माधुर्य की रचना महत्वपूर्ण है परंतु हुक्मरान बेसुरे हों तो हताशा होती है पर कोई रात इतनी लंबी नहीं होती कि उसका सवेरा न हो। वह सुबह कभी तो आएगी।