सुलह / राजनारायण बोहरे
लक्ष्मण सबसे आगे थे। उनके ठीक पीछे अंगद थे। बाक़ी लोग उनके पीछे चल रहे थे। यह जुलूस जहाँ से गुजरता, वहाँ के लोग झुक-झुककर उन सबको प्रणाम करते और पीछे हट जाते।
कुछ ही देर में लोगों का यह झुण्ड नगर की गलियों को पार करता हुआ नगर से बाहर पहुँच गया। अब वे ऐसे मार्ग पर आगे बढ़ रहे थे, जो पहाड़ पर जाता था। इसी के अंत में प्रबरशन पर्वत था। दरअसल बरसात के चार महीने काटने के लिए श्रीराम और लक्ष्मण इसी पर्वत की एक गुफा में बिश्राम कर रहे थे।
आसमान बिलकुल साफ़ था और ज़मीन पर हरियाली ही हरियाली थी।
अंगद ने देखा कि अपनी गुफा में बैठे श्रीराम एक मुनि के साथ बैठे इस क्षेत्र की जलवायु के बारे में बात कर रहे थे। उनका अंदाज़ था कि इस पूरे इलाके में ज़मीन के नीचे खोदने पर बहुत सारे खनिज पदार्थ मिल सकते हैं, जबकि मुनि का कहना था कि इस क्षेत्र में सिवाय काले पत्थरों, कई तरह के पेड़ पौधों और जंगली जानवरों व पक्षियों के कोई ज़्यादा समृद्धिकारक खनिज वगैरह मिलना दुर्लभ है। जब लक्ष्मण के साथ पंपापुर के राजदरबार के अनेक मंत्रीगण उस गुफा के पास पहुँचे उन दोनों की यही बातचीत चल रही थी और मुनि के साथ आये उनके अनेक चेले चुपचाप बैठे शांत भाव से इस बातचीत को सुन रहे थे।
लक्ष्मण, अंगद और दूसरे लोगों के श्रीराम और उन मुनि को प्रणाम करने के कारण बातचीत में थोड़ी-सी बाधा आई फिर दुबारा उसी विशय पर बातें होने लगीं। जामवंत ने बातचीत का विशय सुना तो उन्होंनेश्रीराम से अनुमति लेकर अपनी बात कही, "आपका अनुमान बिलकुल सही है श्रीराम, हमार यहाँ पहले से ही बहुत से खनिज मिलते है, जिनके कारण हमारा यह छोटा-सा राज्य बहुत धनी और समृद्ध बना हुआ है। हमारे पंपापुर में लगभग एक हज़ार मज़दूर केवल खनिजों की खुदाई करते हैं। आगे के लिए अभी भी हमारे यहाँ लगभग सौ से ज़्यादा हुनरमंद लोग जंगलों और पहाड़ों पर घूमते हुए ज़मीन के नीचे मिल सकने वाले खनिजों की खोज में लगे रहते हैं।"
बातचीत की समाप्ति के बाद वे मुनि चले गये तो श्रीराम ने लक्ष्मण की ओर देखा। लक्ष्मण बोले, "बड़े भैया, मैं जब पंपापुर गया था, उस समय महाराज सुग्रीव अपने मंत्रियों के साथ बैठे इसी योजना पर विचार कर रहे थे कि भाभी सीता का पता कैसे लगाया जाय।"
श्रीराम हंसे और कहने लगे, "इस तरह सिर्फ़ एक जगह बैठ कर किसी को तो नहीं खोजा सकता है लक्ष्मण, इसके लिए तो घर से बाहर निकलना पड़ता है। सुग्रीव ख़ुद नहीं जा सकते थे तो इनके दूत तो बाहर निकल कर सीता की खोज कर सकते थे। अगर इनको समय नहीं था तो ये मुझे बता देते, मैं ख़ुद निकल कर सीता को खोजता रहता और इन जंगलों में रहने वाले आदिवासी लोग इस काम में मेरी मदद करते। कम से कम हमारा यह चार महीने का समय तो बेकार नहीं जाता। अब इस बीच सीता का अपहरण करने वाले ने सीता को कोई हानि न पहुँचा दी हो।"
यह सुनकर जामवंत तेजीसे बोले, "हे श्रीराम, मैं अपनी बुढ़ापे तक मिले तरह-तरह के अनुभवों के आधार पर कह सकता हूँ कि महारानी सीता जहाँ भी हैं वहाँ स्वस्थ्य और सुरक्षित हैं।"
हनुमानजी ने मौका पाया तो वे झुक कर बोले, "हे प्रभु, इन जामवंत जी को आप पहले से जानते होेंगे। ये हमारे राज्य के गुप्तचरी यानी कि जासूसी विभाग के मुखिया हैं। इन्हे बड़ा पुराना अनुभव है। अपनी जवानी के दिनों से इन्होने कई राज्यों की यात्रा की है और बड़े-बड़े बहादुर लोगों के साथ काम किया है। इसलिए इनकी कही गई हर बात में सचाई है यानी कि यह बिना आधार के नहीं है।"
अब सुग्रीव बोल उठे, "हे प्रभो, मुझे क्षमा कीजिये। मुझसे चार महीने की देरी हो गई यह बात सच है। लेकिन यह देर इसलिए हुई कि बरसात के दिनों में नदियों और तालाबों में भरपूर पानी भर जाता है और चारों ओर के सारे रास्ते बंद हो जाते हैं।"
श्रीराम गंभीर आवाज़ में बोले, "चलो आप सबकी बात मान लेते हैं, पर अब तक की देरी किसी भी कारण से हुई हो, अब हमे देर नहीं करना चाहिए। हमे सीता को ढूढ़ने के लिए पूरी ताकत लगा देनी चाहिये।"
जामबंत बोले "हे प्रभो, मैं ख़ुद कल सुबह से हमारे राज्य के सारे के सारे जवान लोगों को साथ लेकर दक्षिण दिशा की ओर निकल रहा हूँ। यहाँ से समुद्र तक के पूरे रास्ते में बसे सारे के सारे गांवों में हमारी बिरादरी के आदिवासी लोग निवास करते हैं, इसलिए हम लोग उन सबसे भी मदद मांगेंगे और उन्हे भी अपने दल में शामिल करेंगे। आप थोड़ा धीरज धरिये, हम ज़्यादा से ज़्यादा पन्द्रह दिन में लौट आयेंगे और आपको पूरी और पक्की ख़बर लाकर देंगे कि महारानी सीता कहाँ मौजूद हैं?"
यह सुन कर राम को संतोश हुआ वे महाराज सुग्रीव से बोले "कहो महाराज सुग्रीव, राज्य कैसा चल रहा है? अंगद और महारानी तारा प्रसन्न तो हैं न? आपके राज्य में सारी जनता भी कुशलता से होगी।"
अंगद को यह जानकर बहुत ख़ुशी हुई कि श्रीराम ने पहला सवाल माँ और उनके बारे में पूछा है। यानी कि श्रीराम अभी भी अंगद से पहले जैसा ही प्यार करते हैं।
बड़े लोग राज-काज की बातें करने लगे तो अंगद ने अपनी उम्र के दूसरे साथियो ंकी ओर देखा। वहाँ बैठे नल, नील और गद भी इसी मौके की तलाश में थे कि जैसे ही मौका मिले वे लोग बाहर निकल लें और आस पास के ऊंचे पेड़ों पर धमाचौकड़ी मचा सकें। अंगद का इशारा पाकर वे सब धीमे से उठे और गुफा के बाहर निकल आये। सामने खड़े ऊंचे-ऊचे पेड़ उन्हे ललकारते से हवा से बातें कर रहे थे। वे लोग उछले और सरसराते हुए पेड़ों पर चढ़ते चले गये।
बहुत देर बार जामवंत की आवाज़ पर अंगद ने नीचे ताका। सब लोग पंपापुर लौटने की तैयारी में थे। वे लोग नीचे उतरे और जामवंत के पास जा खड़े हुए।
श्रीराम से विदा लेकर सारा झुण्ड वहाँ से चला तो रास्ते में जामवंत ने बताया कि कल भोर से ही वे सब यात्रा पर निकलने वाले हैं।
अंगद ने सुना तो उन्हे मज़ा आ गया। बचपन से ही पिता की संगत में रहने के कारण मन से वे पक्के सैलानी थे। अन्जान जगहों की सैर करना उनका प्रिय शौक था। घर में बन्द रहने से उन्हे ऊब होती थी।
घर पहुँच कर उन्होंनेमाँ को सारी बातें कह सुनाईं। महारानी गंभीर हो कर सारी बातें सुनती रहीं फिर बोलीं "सीता की खोज में पूरी पलटन चली जाय, लेकिन तुम्हारा जाना ज़रूरी नहीं है। तुम इस राज्य के राजकुमार हो। जासूसी और तलाशी वाले ऐसे काम तो दूत और गुप्तचर करते हैं। इस काम के लिए अगर श्रीराम तुम्हे भेजना चाहते हैं तो मैं ख़ुद जाकर उनसे बात करती हूँ।"
"नहीं माँ ऐसा मत करना" अंगद को लगा कि इतना मजेदार मौका हाथ से निकल रहा है तो वे बच्चे की तरह माँ के सामने मचल उठे, "सच्ची बात तो यह है माँ कि मुझे ख़ुद इस बहाने लम्बी सैर पर जाने की इच्छा है। क्यों रोकती हैं आप मुझे बच्चों की तरह? मैं अब छोटा नहीं रहा, बड़ा हो गया हूँ।"
माँ की आँखों में पानी था, वे शायद रोने लगी थीं। बोलीं "केवल पन्द्रह साल के तो हुए हो। तुम इतने बड़े भी नहीं हो गये हो कि ऐसे अन्जान सफ़र पर भेज दिया जाय तुम्हे।"
अंगद पांव ठिनकते हुए कह रहे थे "माँ, एक लम्बे समय से मैं इस महल में कैद-सा हो गया हूँ। मेरी इच्ठा है कि कुछ दिनों के लिए कैसे भी बाहर निकल सकूं।"
महारानी तारा बोलीं "बेटा, तुम नहीं जानते कि तुम अपने बाप की अमानत हो मेरे पास। मेरी जिम्मेदारी है कि मैं तुम्हे पाल पोस कर सयाना और लायक आदमी बना सकूं।"
"माँ, इस काम के लिए ही तो काका जामवंत को आपने मुझे सोंपा है। इस सफ़र में वे हर पल मेरे साथ रहेंगे। इसलिए आप मेरी कुशलता की चिन्ता छोड़ दो।" अंगद ने महारानी को समझाने का प्रयास किया।
"ठीक है, कल की कल देखेंगे।" कहते हुए माँ चली गई।
अंगद को लगा कि माँ के इस मोह के कारण कहीं उनकी सारी खुशियाँ गायब न हो जायें, माँ उन्हे बाहर जाने से रोक न दें। भोजन करने से लेकर सोने के लिए पलंग तक पहुँचने तक वे इसी चिन्ता में डूबे रहे।
रात को उनकी आँखों से नींद कोसों दूर थी।
अंगद को बार-बार अपने पिता की याद आ रही थी, जिनके समय में वे ख़ूब सुखी थे और आजाद, स्वतंत्र भी।
यों तो सबके पिता बहुत प्यारे होते हैं, लेकिन अंगद के पिता बहुत निराले थे।