सुविधाहीन जीवन में इच्छा-मृत्यु विवाद? / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 22 जुलाई 2014
युथेनेसिया मर्सीकिलिंग अर्थात मनुष्य के मृत्यु अधिकार को केवल एक या दो देशों में कानूनी मान्यता प्राप्त है। भारत में यह अवैध है परंतु अब उच्चतम न्यायालय ने सभी प्रांतों को खत लिखकर इस विवादास्पद विषय पर खुली बहस का आमंत्रण दिया है। इस विषय पर अमेरिका में 'हूज लाइफ इज इट एनीवे' तथा 'दे किल हॉर्सेस, डोंट दे' नामक महान फिल्में बनी हैं। भारत में संजय लीला भंसाली की रितिक रोशन अभिनीत 'गुजारिश' इसी पर आधारित थी और खाकसार की लिखी 1979 में प्रदर्शित नसीरुद्दीन शाह अभिनीत 'शायद' भी इससे प्रेरित थी परंतु सेंसर ने बाध्य किया कि यूथेनेसिया भारत में अवैध है, अत: इसका क्लाइमैक्स बदल दिया जाए अन्यथा इसे प्रदर्शन की आज्ञा नहीं मिलेगी। इसलिए पति के आग्रह पर पत्नी द्वारा कैंसर पीड़ित पति को जहर देने का दृश्य हटा दिया गया और आत्महत्या बताया गया जिस कारण फिल्म बनाने का मूल उद्देश्य ही नष्ट हो गया। दरअसल श्रीधर की 'दिल एक मंदिर' में कैंसर मरीज चंगा हो जाता है और उसकी चिकित्सा करने वाला डॉक्टर मर जाता है। इस तर्कहीन क्लाइमैक्स के विरोध में मैंने 'शायद' लिखी परंतु सेंसर ने इसे और अधिक मूर्खतापूर्ण कर दिया।
ईसाई और इस्लाम धर्म में आत्महत्या को जघन्य अपराध माना गया है और साम्राज्यवाद के कारण उनके अधीन रहे देशों के संविधान में भी आत्महत्या अपराध हो गया और इच्छा मृत्यु भी अवैध है। क्रिश्चिएनिटी के पूर्व के ग्रीक साहित्य में आत्महत्या जायज रही है और जापान की समुराई परम्परा में आत्महत्या एक लंबे जश्न के साथ सम्पन्न होती थी। राजपूतों में भी पराजित राज्य की स्त्रियों द्वारा जौहर की परम्परा रही है। इसी तरह सती प्रथा के गलत इस्तेमाल के कारण इम्पीरियल दिनों से ही इसे अवैध करार दिया गया है परंतु आज भी दूरदराज के गांवों में अपनी इच्छा से सती होने के साथ ही समाज द्वारा जबरन सती किया जाना जारी है।
दरअसल 'इच्छा मृत्यु' के दुरुपयोग के कारण ही यह प्रतिबंधित है। लालच के कारण धनाढ्य वृद्धों को उनके वारिस भ्रष्टाचार द्वारा 'इच्छा मृत्यु' का भयावह नाटक रच सकते हैं। कितने दु:ख की बात है कि भ्रष्टाचार के भय के कारण मनुष्य गौरवपूर्ण 'इच्छा मृत्यु' नहीं कर सकता और जीने में भी भ्रष्टाचार के कारण कितने कष्ट होते हैं गोयाकि नैतिक मूल्यों के अभाव के कारण जन्मा भ्रष्टाचार अवाम को जीने भी नहीं देता और मरने की भी इजाजत नहीं है गोयाकि बतौर 'मुगले आजम' के संवाद कि 'अनारकली सलीम तुझे मरने नहीं देगा और हम तुझे जीने नहीं देंगे।'
महाभारत में अपने पिता के सुख के लिए आमरण ब्रह्मचर्य ग्रहण करने वाले देवव्रत को उनका पिता शांतनु उन्हें 'इच्छा-मृत्यु' का वरदान देते हैं। जाने क्यों द्रोपदी के चीरहरण जैसे जघन्य अपराध के समय हस्तिनापुर के सिंहासन के प्रति अपनी शपथ के कारण विरोध नहीं कर पाए परंतु उस समय अगर वे इच्छा मृत्यु का वरण करते तो बाद में होने वाले युद्ध से धरती को बचाया जा सकता था परंतु स्वर्ग से नंदिनी को चुराने के दंड स्वरूप उन्हें लंबा कष्ट भोगना था। सारे व्याख्यानों का आधार ही वरदान या श्रॉप है।
मुंबई के अस्पताल की एक नर्स का बलात्कार किया गया और सैंतीस वर्षों से वह कोमा में है तथा अस्पताल के डॉक्टर नर्स ही उसकी सेवा कर रहे हैं। अनेक ऐसे प्रकरण हैं जिनमें यूथेनेसिया को वैध माना जाना चाहिए। अस्पतालों में प्राय: रिश्तेदारों की आज्ञा से लाइफ सर्पोट हटाना भी एक तरह से यूथेनेसिया ही है परंतु इसमें बीमार की इच्छा नहीं वरन् रिश्तेदार की आज्ञा का महत्व है। विशुद्ध यूथेनेसिया में व्यक्ति की इच्छा महत्वपूर्ण है। मनुष्य का अपनी मृत्यु पर अधिकार है या नहीं, यही व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हिस्सा है और संविधान का आधार भी व्यक्तिगत स्वतंत्रता ही है परंतु इन कागजी आदर्श के परे यथार्थ जीवन में कौन कहां स्वतंत्र है? बकौल निदा फाजली "जंजीरों की लंबाई तक है सारा सैर सपाटा'। हमारे देश में अधिकतम लोग जीवन संग्राम में निहत्थे हैं और कुछ चुनिंदा लोगों के पास ही सारे अधिकार और स्वतंत्रता है, अत: जीना भी महज रस्म अदाएगी है तब मौत पर अधिकार मांगने का क्या औचित्य है? यह सारा मामला ही समर्थ लोगों के मन बहलाव का है। बतौर फिल्म नटवरलाल के संवाद के 'लल्लू यह जीना भी कोई जीना है'।