सुषमा गुप्ता की लघुकथाओं का मर्म / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

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डॉ. सुषमा गुप्ता कथा के वैविध्यपूर्ण विषयों और प्रस्तुति के लिए लघुकथा-जगत् में एक चर्चित नाम है। नए विषयों की नब्ज़ पर पकड़, शिल्प की नितान्त निजी शैली, चिन्तन का एक व्यापक क्षेत्र, अनुभवों की गहन अन्तर्मुखी यात्रा, जीवन के बहुमुखी आयाम को समेटे कथानक, कथा की बुनावट और चरित्रों की नवीन उद्भावना, इनको समकालीन लघुकथाकारों से अलग करती है। मैं 2017 से इनकी कथाओं को पढ़ता रहा हूँ। किसी ताने-बाने में बँधकर लिखना, इनकी प्रवृत्ति नहीं है। वह रचना लघुकथा बने या कहानी, संस्मरण बने या आत्मचिन्तन, इसकी चिन्ता इनको नहीं रही। यही कारण है कि बलपूर्वक लिखी गई, गढ़ी गई रचनाओं का इनके यहाँ अभाव है।

जीवन के विभिन्न रंग, इनके व्यापक अनुभव एवं चिन्तन का प्रतिफलन इनकी रचनाओं की शक्ति है। रचनाकार को समझने के लिए उसके अनुभव-जगत् तक पहुँचना आवश्यक है। सीमित अनुभव एवं संकीर्ण चिन्तन से इनकी रचनाओं के केन्द्रीय भाव तक पहुँचना कठिन है। सर्व प्रथम उदात्त प्रेम की बात करते हैं। लघुकथा-जगत् में इसके उदाहरण मिल जाएँगे, लेकिन बहुत कम। प्रेम पर लघुकथाएँ बहुत कम लिखी गई हैं। मानवीय अनुभूति और प्रेम की कथाओं में से मैं इनकी 'अतीत में खोई हुई वर्तमान की चिट्ठियाँ' और 'खूबसूरत' लघुकथाओं पर बात करना चाहूँगा।

'अतीत में खोई हुई वर्तमान की चिट्ठियाँ' में चार वर्षीय लड़की और दो वर्षीय नन्हे बण्टी के बीच मासूम प्यार की भावात्मक कथा है। लड़की ने जो अक्षर सीखे थे, वे लिखकर बन्टी के आँगन में फेंक दिए। चिट्ठी उड़कर शहतूत के पेड़ के नीचे जा गिरी थी। पके शहतूतों के बीच चिट्ठी पर लिखे अक्षर शहतूतों के रंग में घुल-मिल गए। वह बण्टी को सुनाए भी तो क्या! शब्द गुम हो चुके थे। इसके बाद दिल टूटने की यह उसकी ज़िंदगी की पहली घटना थी। इस लघुकथा की गहनता और मासूमियत भीतर तक द्रवित कर जाती है। डॉ. सुषमा गुप्ता की दूसरी लघुकथा है- 'खूबसूरत' । देर रात समन्दर के किनारे बैठा एक प्रेमी जोड़ा। सारी दुनिया से बेखबर, कुछ भी करने को स्वतन्त्र; लेकिन सबसे बड़ी बात यह है कि लेखिका ने कथ्य को इस प्रकार सँजोया है कि प्रेम की ख़ुशबू चारों तरफ़ बिखरी हुई महसूस होती है-

'उसके स्लीपर और मेरे सैंडल साथ रखे थे, रेत पर कुछ इस तरह कि लहर बार-बार आती और उन्हें चूमकर वापस चली जाती।' स्लीपर और सैंडल का साथ रखे होना, लहर का बार-बार आकर उनको चूम जाना जैसे कि इस व्याज से स्लीपर और सैंडल एक दूसरे को चूम रहे हों। इतना ही नहीं, वे लहरें-'यही खेल, लहर कभी-कभी हमारी देह के साथ भी करती थी'। बिना एक दूसरे की देह को स्पर्श किए, लहरों के माध्यम से स्पर्श करना, अद्वितीय सात्त्विक प्रयोग। सुषमा गुप्ता की अन्तर्दृष्टि और अतल स्पर्शी भावमुद्रा रसोद्रेक से सहृदय पाठक को सह-अनुभूति तक की यात्रा करा देती है। एक और संवाद देखिए-

उसकी बात के जवाब में मैंने कहा, "चाँद नज़र आ रहा है?"

वह मेरी तरफ़ देखकर मुस्कुरा दिया।

युवक का उसकी तरफ़ देखकर मुस्कुराने का तात्पर्य है कि वह चाँद तो तुम ही हो, केवल तुम।

युवती का टूटी सीप उठाकर उस पर फेंकते हुए कहना-"इतना फ़िल्मी होने की ज़रूरत नहीं है। मुझे नहीं, आसमान में देखो।"

यह प्रेम के गहन भावबोध की लघुकथा है। पहली लघुकथा से और आगे की ओर बढ़ती हुई। 'मेरे साथ चलोगी?' कहने पर लड़की का हँसते हुए कहना-"डूब मरने के अलावा मेरे पास और भी बेहतर बिगाड़ हैं ज़िंदगी के।" उसके साथ चलने का सीधा-सा आशय ध्वनित होता है-पूरी तरह ड़ूब जाना। अपना अस्तित्व विलीन कर देना। विलीनता से बचने के कारण–'पूरे चाँदनी-भरे वातावरण में घुँघरू की तरह हँसी खनकती रही।' हँसी की यह खनक कितनी निष्कलुष है!

आज का बातूनी प्रेम कुछ पल के लिए आकर्षक लगता है; लेकिन अंधी गलियों से होकर उसका यात्रा करना, सब कुछ भस्म कर देता है। माना कि देह का भी प्रेम में महत्त्व है, आकर्षण है; लेकिन देह से शुरू होकर देह पर ही समाप्त होना, प्रेम न होकर केवल वासना है, क्षणिक आत्म सुख है, जिसका अन्त हिंसा में होता है। वर्त्तमान में नित्य प्रति ऐसी दुर्घटनाएँ हो रही हैं, जो शुरू तो प्रेम से होती हैं; लेकिन उनका अन्त सर्वनाश पर ही होता है। नारी के विभिन्न सम्बन्धों को लेकर सुषमा गुप्ता ने बहुत सारी समस्याएँ उठाई हैं। 'डकराते प्रेम बिंदु' लघुकथा उन्हीं में से एक है। शीर्षक के 'डकराते' शब्द में जो चीर देने वाला भयानक स्वर छिपा है, वह भस्मीभूत होते प्रेम का स्वर है, जिसे वासना ने निर्मूल कर दिया है। महानगरों की कलुषित कुसंस्कृति, जिसमें वह कार की पिछली सीट, जिस पर वह सब घटित हो रहा था, जो बन्द कमरे में, स्याह अँधेरों में होता है। लेखिका ने उसे शैतान का साया बताया, जो दो जोड़ी आँखों और हाथों में एक साथ समा गया। दोनों की चरमावस्था को इस प्रकार सांकेतिक रूप से व्यक्त किया है-'दो जिस्म एक दूसरे से बेहद करीब थे, इतने कि अलग करते, तो एक दूसरे के रेशे आपस में उलझ, जुदा होने से मना कर देते।' इस वाक्य में 'एक दूसरे के रेशे आपस में उलझ, जुदा होने से मना कर देना' बहुत कुछ कह जाता है। दोनों की गतिविधियों में अन्तर सामने आता है-एक बाहों में खोया और अवचेतन-सा, दूसरे के हाथ और होंठ सक्रिय थे। एक प्रेमगन्ध में डूबा, तो दूसरा देहगन्ध में। प्रेम के हाथ सख़्त हो, नर्म देह पर फिसलने लगे, वैसे-वैसे देह से माँस गायब होने लगा। नर्म देह तो नारी देह ही है। उसको भरोसे में लेकर देह का शोषण करने वाले का बौखलाना उसकी पाशविक स्थिति का चरम है। 'दो लाल माँस के लोथड़े अचानक से उन शरीरों से जुदा हो, भस्म हो गए'-यह वही प्रेम है, जिससे वे जुड़े थे। वही स्वाहा हो गया। 'दो जोड़ी आँखों का स्थान चार गहरे कुओं ने ले लिया'-शोषक की आँखों का पानी ही मर गया। उसकी क्रूरता ही शेष बची-दो गहरे कुएँ। जिन आँखों में प्रेम का सरोवर लहराता था, छले जाने पर उन दो आँखों में केवल अविश्वास था, छले जाने की पीड़ा था। तेज़ रोशनी का धमाका अर्थात् आशा और विश्वास की रोशनी नष्ट हुई, तो छद्म आकर्षण की रोशनी विस्फोट के साथ समाप्त हो गई। 'अब दो कुओं से तेज़ चिल्लाने की आवाज़ें आ रही थीं'। इस ताण्डव के बाद बची, केवल रेत पर बिखरी हड्डियाँ, वे भी 'सबकी सब, एक स्त्री देह की।'

वर्णनात्मक शैली में लिखी होने पर भी यह लघुकथा, कम से कम शब्दों में बड़ी इबारत लिख जाती है। इतनी छोटी-सी रचना में गहन अन्तर्द्वन्द्व एवं उद्वेलन निहित है। पूरी रचना पाठक को हतप्रभ कर जाती है। ऐसी लघुकथाओं की पृष्ठभूमि में जाने के लिए चकाचौंध वाले नगरों और देशों की काली करतूतें जानना ज़रूरी हैं। भारत के अलावा विदेशों में भी पार्क आदि के निर्जन स्थलों पर काले शीशों से ढकी ऐसे कारें खड़ी मिल जाएँगी, जो घोर अँधेरों को बढ़ावा दे रही हैं। इनकी पिछली सीटों पर नारी देह की भस्म बिखरी मिलेगी।

युद्ध हो, क्रान्ति हो, दंगे हों, दैनन्दिन जीवन हो, नारी का देह-शोषण सामान्य बात हो गई। प्रशासन, बाहुबली, धनपशु जब इस शोषण के समर्थक हों, तो न्याय सम्भव नहीं। कानूनी ख़ामियों के कारण न्याय के देवता भी किसी से पीछे नहीं। मुकदमों में जिस तरह वकील बहस करके स्त्री को और शर्मसार करते हैं, वह और भी घृणित है। लड़के ही अधिकतम कुसूरवार क्यों होते हैं, इस पर भी विचार करना चाहिए। क्या इन अपराधों के लिए लड़के के अभिभावक उत्तरदायी नही? शिक्षा संस्थान, धर्म और आस्था के केन्द्र, राजनीति, शिक्षा-जगत्, फ़िल्म उद्योग, चिकित्सा-जगत् आदि देहशोषण को कितना बढ़ावा देते हैं, इसकी यदि जाँच की जाए, तो सिर शर्म से झुक जाएगा। विवशता का अनुचित लाभ उठाकर दुराचार को बढ़ावा दिया जाता है। सबसे दुःखद है कि कानून बनाने वाले और न्याय देने वाले भी शोषित को न्याय नहीं दिला पाते। बुलडोज़र से आज अपराधी का घर ढहाया जाता है, कल अख़बार में फिर वैसी ही वारदात छपी मिलती है। घर-परिवार में जो शोषण होता है, वह तो बेहिसाब है। यह समाज डर और लज्जा को तिलांजलि दे चुका है। दो वर्ष की बच्ची तक भी सुरक्षित नहीं। युवा तो युवा, बूढ़े गिद्ध भी पीछे नहीं।

वासना के कीड़ों का उपाय कानून के पास कुछ नहीं है। दुराचार करने वाले का परिवेश इसके लिए वास्तव में उत्तरदायी है। जिसके साथ दुराचार होता है, बेशर्म कानून की आड़ में उसी को दोषी ठहरा दिया जाता है। 'चरित्रहीन' की लड़की, दो लड़कों के क़त्ल की बात स्वीकारती है।

जज का कहना-"पर तुम्हारी मेडिकल रिपोर्ट कहती है कि बलात्कार हुआ ही नहीं।"

लड़की का उत्तर-"तो सर मुझे रुकना था बलात्कार होने तक और फिर उनका क़त्ल करना था। तब बाइज्जत बरी कर देते आप?"

शोषण को चुपचाप सहने के स्थान पर प्रतिरोध का यह स्वर और ऊँचा हो जाता है; क्योंकि दुराचार की शिकार बनने पर वह सिर उठाकर नहीं चल सकती। कारण-'वह या तो दया का पात्र बन जाती है या शोषण का' दया का पात्र न बनने के लिए आवश्यक है, प्रतिरोध करना।

यही स्वर 'रेप विक्टिम' लघुकथा में मुखर होता है। एक रोज़ अंजू के कॉलेज की किसी लड़की को कुछ लड़के बस स्टैंड पर गंदे फिकरे कस रहे थे। जब शराब में धुत्त वे लड़के उसे‌ छूने लगे, तो अंजू उन लड़कों से उलझ पड़ी। विकृत मानसिकता वाले युवकों ने उसके कपड़े फाड़ दिए। उनसे उलझने से पहले अंजू ने‌ पुलिस को फ़ोन कर दिया था। समय रहते पुलिस न पहुँचती, तो बहुत अनर्थ हो जाता। उस रोज़ किस बुरी हालत में घर आई थी। शर्ट के नाम पर बस चिथड़े थे और शरीर लहूलुहान। किसी के दुपट्टे को शाल-सा ओढ़े थी जब घर आई। बदनामी तो हुई। अवसाद जैसी स्थिति से उबरकर वह स्वय को मज़बूत बनाती है। उसका यह कथन आश्वति को जन्म देता है-"लड़ाई-झगड़े में आदमियों के कपड़े फटते हैं, तब कोई हो-हल्ला नहीं होता। फिर स्त्री ही क्यों शर्मिंदा हो!"

'सैक्स फंड' लघुकथा में चन्दा एकत्र करके 'हर गली मोहल्ले के बंद दरवाज़ों के पीछे बसी कुंठित गंदगी को खपाने की कोशिश कर रहे हैं।' तार्किक रूप से यह कार्य क्यों किया जा रहा है? उत्तर है-'आदमजाद की भूख का क्या भरोसा, कब, कैसे, कहाँ मुँह फाड़ ले'। पुरुष की अनैतिक प्रवृत्ति पर यह कड़ा प्रहार है। बच्ची के साथ हुए वीभत्स गैंगरेप का अखबारों की मुख्य ख़बर बन जाना कितना वीभत्स है।

तुलसी ने कवितावली के उत्तरकाण्ड के सवैया 96 में कहा है कि लोग अच्छे-बुरे जो भी कर्म करते हैं, वे सब पेट के लिए ही हैं। उसका कारण बताते हुए कहा है–

'तुलसी' बुझाइ एक राम घनस्याम ही तें, आगि बड़वागितें बड़ी है आगि पेटकी॥

अर्थात् पेट की आग (जठराग्नि) , बड़वाग्नि ( [समुद्र की आग) से भी अधिक है। इस आग को बुझाने के लिए मनुष्य किसी भी सीमा तक जा सकता है। 'बिना दर्द का खाना' लघुकथा की थाने में बैठी ज़ख़्मों से बेहाल नौ-दस साल की लड़की, जिसके माँ-बाप मर गए। चाचा ने रेप करके रोटी की क़ीमत वसूली है। खिला-पिलाके कन्या आश्रम भेजनी की बात पर सुनकर लड़की की जीभ ख़ुद ब ख़ुद होंठ पर आ गई। सिपाही तुकाराम थानेदार से कहता है-"काई करे हो साहब। मासूम—सी बच्ची है, वहाँ तो कमीना रोज़ नया चाचा आएगा। अपने पेट खातिर किस-किस की भूख सँभालेगी। थम ते सब जाने हो।"

इस वाक्य में 'कन्या-निकेतनों' का काला सच भी उजागर होता है।

थाने में रखा नहीं जा सकता। थानेदार अपने घर को अनाथालय नहीं बना सकता। तुकाराम के क़दम जैसे ही लड़की की तरफ़ बढ़ते हैं, उसका प्रश्न झकझोर देता है-

लड़की ने धीरे से पूछा, "अंकल जी, वहाँ बिना दर्द किए खाना मिल जाएगा न?"

यह एक वाक्य ग़रीबी में पलती हुई न जाने कितनी किशोरियों की कथा अपने भीतर दफ़्न किए हुए है।

एक बात हमें निश्चित रूप से समझनी होगी कि धर्म किसी मत-मतान्तर या मज़हब का पर्याय नहीं है। यह सार्थक जीवन जीने की व्यावहारिक और सार्वभौम पद्धति है, जिसके मूल में हर प्राणी का हित निहित है। व्यक्ति की विशेष पहचान के 'प्रतीक' धर्म नहीं हैं। अन्तःकरण की शुद्धता, सद्गुण तथा तदनुरूप उत्तम आचरण ही धर्म है। धर्म मानव मात्र के हित के लिए है। मत या सम्प्रदाय के नाम पर रक्तपात करना, किसी की भावना को आहत करना, चाहे कुछ भी हो, धर्म नहीं। अज्ञान और अवैज्ञानिकता पाखण्ड हो सकती है, धर्म नहीं। व्यक्ति पंथनिरपेक्ष हो सकता है, लेकिन धर्मनिरपेक्ष नहीं; क्योंकि धर्म वही है, जो शुद्ध रूप में, सार्वभौम रूप में सर्व स्वीकार्य हो। दया, करुणा, अहिंसा, सत्य लोभ-त्याग आदि सर्व स्वीकार्य हैं। इनका किसी वाम या दक्षिण पंथ से कोई लेना देना नहीं है। पाखण्ड और अनैतिकता, कथनी और करनी में विरोधाभास कोई धर्म नहीं है। अर्थलोलुप और भ्रष्ट आचरण वाले लोग धर्म की आड़ में समाज को अपने कुत्सित आचरण से नष्ट करने पर तुले हैं। जन समान्य उनकी चिकनी-चुपड़ी बातों में उलझकर सन्मार्ग से विमुख होकर उनका शिकार बनकर रह जाता है। गुरुडम को विस्तार देने वाले ये तथाकथित ध्वजावाहक धर्मगुरु, समाज के लिए अभिशाप हैं; क्योंकि ये अपने अनाचार से समाज को विकृत करने का काम करते हैं।

डॉ.सुषमा गुप्ता की 'ज़िंदा का बोझ'-के पीर साहब का इलाके में बड़ा नाम है। लोगों ने उनको 'अल्लाह का दर्ज़ा तक दे डाला था और गुलाबो को पीर रानी का'। पीर साहब वैसे तो डेरे पर ही रहते थे; पर महीने में दो-चार बार घर भी आते, नशे में धुत होते और चिल्लाते। भागती-सी गुलाबो आती और कमरे का दरवाज़ा भीतर से बन्द हो जाता। सुबह गुलाबो के शरीर पर जख़्म दिखते, तो बच्चियों के पूछने पर उनको समझा दिया जाता।

इस बार जब रात गए आए, तो गुलाबो को बुखार था। जूही भागकर आई।

पीर साहब ने उस पर ऊपर से नीचे तक भरपूर नज़र डाली, फिर बेहद प्यार से बोले-"अरे तू इतनी बड़ी कब हो गई? आ ...अंदर आ... बैठ मेरे पास।"

दरवाजा फिर बंद होने ही वाला था कि गुलाबो दौड़ती-हाँफती पहुँची। पलभर में सब समझ गई, खींचकर जूही को कमरे से बाहर कर दिया और ख़ुद अंदर होकर दरवाज़ा बंद कर लिया। पीर साहब का चिल्लाना और माँ की दर्दनाक चीखें बाहर तक सुनाई देने लगीं।

'अचानक चीखों का स्वर बदल गया'-कथन से लघुकथा में एक मोड़ आ गया। सुषमा गुप्ता ने सधी हुई सांकेतिक भाषा में 'ज़िंदा का बोझ' का अन्तर स्पष्ट कर दिया। प्रतिकार के लिए वासनामयी दृष्टि का यही उपाय बचा था।

अब दालान में ज़माने भर का मजमा लगा है। पीर साहब नहीं रहे।

पीर रानी की सबसे विश्वस्त नौकरानी ने सबको ख़बर पहुँचाई, कोई लूटके इरादे से घर में घुसा और हाथापाई में पीर साहब का गला रेत गया।

आँगन में ख़ूब विलाप-प्रलाप हो रहा था।

छाती-पीटती अम्मा बोली-"हाय गुलाबो! कैसे उठाएगी तू बेवा होने का बोझ!"

गुलाबो मन ही मन बुदबुदाई-"इसके तो ज़िंदा का बोझ ज़्यादा था अम्मा। इसकी लाश में बोझ कहाँ ..."

पीर होने की आड़ में वासना का एक पुतला घर के बाहर के समाज में पूज्य बना हुआ था, जबकि वह कुत्सितकर्मा व्यक्ति ही था। जिन्दा होने के बोझ का अर्थ है कि पीर साहब अपने कुकर्मों से जीवित होने के कारण समाज पर बोझ बने हुए थे। वह बोझ आज उतर गया।

वासना में डूबा व्यक्ति, आदमी न रहकर हैवान हो जाता है। हैवानों का डर अपराध-वृत्ति को बढ़ावा देता है। सुषमा गुप्ता की लघुकथा 'फ़्रॉक' वासनामयी दृष्टि के प्रति सचेत करने वाली है। लेखिका ने 'फ़्रॉक' शीर्षक के शब्द मात्र से ही कथ्य का अवगुण्ठन खोलकर रख दिया है। बालिकाओं की जो अवस्था फ़्रॉक पहनने की होती है, वे उस अवस्था में भी सुरक्षित नहीं है। विकृत और अपराधी मानसिकता के लोग गली-मुहल्लों में हर जगह मिल जाएँगे। तेरह साल की लाली जब पानी भरने के लिए जाती है, तो ढाबे वाले किशन चाचा उसका रास्ता रोककर कुचेष्टा करते हैं। लाली और उसकी माँ बिल्लो का यह संवाद देखिए-

"माँ, कल से मैं बाहर नल पर पानी भरने नहीं जाऊँगी"-तेरह साल की लाली रोते हुए बोली।

"क्यों री, क्या हुआ?"

"माँ, वह ढाबे वाले बिशन चाचा है न, रोज़ रास्ता रोक लेते है। कहते है-अंदर ढाबे में चल बढ़िया-बढ़िया खाना खिलाऊँगा। अजीब ढंग से हाथ लगाते है, मुझे बहुत गंदा—सा लगता है।"

बिल्लो का प्रतिरोध का साहस हवा हो जाता है; क्योंकि बिशन के भाई के पास हमेशा बन्दूक रहती है, साथ ही उसे नेता का संरक्षण भी प्राप्त है। सुखिया की घरवाली का हाथ पकड़ लिया था बिशन ने। सुखिया ने प्रतिरोध किया, तो उसे मौत के घाट उतार दिया। किसी ने मुँह तक नहीं खोला।

माँ का यह कथन उसकी विवशता और दुश्चिन्ता दर्शाता है-

"सुन लाली। कल से तू पानी लेने नहीं जाएगी और स्कूल छोड़ने लेने भी मैं आऊँगी। अब से ये फ़्रॉक्र पहनना बिल्कुल बंद। कल से सूट पाईं और दुपट्टा लेके सिर ढकके जाईं।"

लाली को और भी सचेत कर देती है-"... खबरदार कुछ पापा को बोली तो।"

यह समस्या आज लाली की नहीं; बल्कि हर किशोरी की है, भय और विवशता के कारण माता-पिता चुपचाप यह विष पी जाते हैं। यह विकृति सामाजिक मर्यादा को तार-तार कर दे रही है।

संस्कारहीनता की जड़ में परिवार का दोगला और दूषित चिन्तन है। अनायास पलते कुसंस्कार और दोगलापन घर से लेकर बाहर समाज तक की सारी सुन्दरता को निगल जाते हैं। इन्हें डॉ. सुषमा गुप्ता की 'वर्तमान का दंश' में देख सकते हैं। इस कथा में मुम्बई से दिल्ली आए रमानाथ जी, अपने सत्रह साल के भतीजे से घुमा-फिराकर पूछते हैं-

"अरे पढ़ाई वढ़ाई तो चलती रहती है। तू तो ये बता तेरी गर्लफ्रैंड्स कितनी है?"

"अरे क्या ताऊजी, आप भी न, मैं नहीं पड़ता इन चक्करों में।"

"हट! ज़िन्दगी खराब है तेरी फिर। अबे जवानी में ये सब नहीं करेगा, तो बुढ़ापे में करेगा क्या। पूछ अपने बाप से, स्कूल-कॉलेज में कैसे लड़कियों की लाइन लगती थी मेरे पीछे।"

"मुझे है न ख़्याल घर की इज़्ज़त का ताऊजी।" बाहर से आती मिताली बोली।

"क्या मतलब?" ...

"मतलब ये, मेरे हैं न ख़ूब सारे बॉय फ्रैंड्स। आप चिंता मत करो। मैं हूँ न ख़ानदान की परम्परा निभाने को।" मिताली दाँत दिखाती हुई चहकी।

रमानाथ जी की हँसी में ब्रेक लग गया और चेहरा गुस्से से तमतमाने लगा।

यह है रुग्ण मानसिकता कि लड़का किसी लड़की नैन मटक्का करे, तो यह बहादुरी की तरह स्वीकार्य है। अपने घर की लड़की यही करे, तो स्थित उलट जाती है, जिसे लेखिका ने 'रमानाथ जी की हँसी में ब्रेक लग गया और चेहरा गुस्से से तमतमाने लगा।' इस कथन द्वारा दोहरी मानसिकता को अनावृत्त किया है। संस्कार और कुसंस्कार घर-परिवार देता है। यदि घर-परिवार बच्चों को लड़कियों के साथ गरिमामय व्यवहार के ये संस्कार दें, तो छेड़खानी और नारी शोषण की अधिकतम घटनाएँ निर्मूल हो जाएँ।

अर्थतन्त्र की चर्चा करना तो व्यर्थ है। नित्य प्रति के घोटाले और लूट पूरे देश और समाज को दीमक की तरह चाट रहे हैं। जो भ्रष्ट नहीं होता, उसे भ्रष्ट होने के लिए बाध्य कर दिया जाता है। 'पूरी तरह तैयार' डॉ. सुषमा गुप्ता की ऐसी ही लघुकथा है, जिसमें पूरे क्षरित होते हुए समाज के दर्शन होते हैं। यदि किसी को 'ऊपर जाना है' , तो उसे कहीं न कहीं नीचे गिरना पड़ेगा। अच्छी डिग्रियाँ होना काफ़ी नहीं। बाबू को फ़ाइल सरकाने के लिए पैसा चाहिए। बड़े साहब किसी आधी उम्र की युवती के साथ अश्लील हरकतें कर रहे हैं। चारों तरफ़ लिजलिजी अनैतिकता है। अगर किसी को भ्रष्ट परिवेश में रहना है, तो न सही देखो, न सुनो, न आचरण करो। अपने सारे ऐन्द्रिक अभिज्ञान को निष्प्राण करना पड़ेगा। सांकेतिक रूप से लेखिका ने पूरी व्यवस्था की घुटन का सटीक चित्रण किया है।

हमारी संवेदना की खिड़की खुलने की बजाय निरन्तर बन्द होती जा रही है। मीडिया के हो-हल्ले में असली समाचार, घटनाएँ, सामाजिक सत्य विलुप्त होते जा रहे हैं। अगर झूठ का प्रचार करना हो, तो दस बार झूठ बोल दो। वह सत्य पर इतना भारी पड़ेगा कि सत्य को गर्दन उठाने का भी अवसर नहीं मिलेगा। मीडिया अपने उत्तरदायित्व से भटक जा रहा है। उसका काम जन-सेवा नहीं बल्कि टी आर पी बढ़ाने की गलाकाट प्रतियोगिता ही है। 'ब्रेकिंग न्यूज' में इस सत्य को उजागर किया गया है। आग लगने से कार कोयला हो गई। आदमी का शरीर भी पूरी तरह जल गया। इंस्पेकटर के पूछने पर भीड़ में से एक व्यक्ति का यह बोलना-"सर कुछ क्या सब कुछ देखा। दस मिनट में तो पूरी तरह से सब जलकर राख हो गया। हम पाँचों यहीं थे तब।"

"आप क्या कर रहे थे पाँचों यहाँ? आपने कोशिश नहीं की आग बुझाने की?"

"सर हम आग कैसे बुझाते?"

"तो आप सब खड़े देखते रहे?"

"नहीं सर! हमने वीडियो बनाई है न। अलग-अलग ऐंगल से। आजकल बहुत डिमांड है ऐसे वीडियो की मीडिया में।"

पाँच व्यक्तियों में से किसी ने भी जलते हुए व्यक्ति को बचाने का प्रयास नहीं किया। मीडिया की डिमाण्ड पर अलग-अलग एंगल से वीडियो बनाना अधिक महत्त्वपूर्ण हो गया। व्यक्ति, उसकी संवेदना, जो उसे मानव बनाती है, कहीं दूर छिटक गई! डॉ. सुषमा गुप्ता ने कम से कम शब्दों में नष्ट होती संवेदना और बढ़ती हृदयहीनता का यथार्थ चित्र प्रस्तुत किया है। छोटे-छोटे सटीक संवादों के माध्यम से लेखिका ने जो कुछ कहा, उससे अधिक संकेत मात्र से कह दिया है।

अभिव्यक्ति की औपचारिकता और संवेदना के निर्वासन से एक अलग तरह का संसार सृजित हुआ है। इस आभासी जगत् में एक नई भाषा और नए चिन्तन ने जन्म लिया और वह है, प्रदर्शनप्रियता। हृदय की नमी जब तिरोहित हो जाती है, तब एक असंवेद्य और कृत्रिम भाषा आकार लेती है। इस भाषा में वह सब आरोपित शब्दावली है, जिसका हमारी भावानुभूति से कोई सम्बन्ध नहीं। अगर किसी आत्मीय के प्रति हृदय में समवेदना (किसी के सुख-दुःख के प्रति आत्मीय अनुभूति) है, तो उसको अभिव्यक्ति करने के लिए अनेक माध्यम हैं। अपरिचितों और अर्धपरिचितों के बीच ले जाकर अपनी असंवेद्य और कृत्रिम भाषा की हाँडी पटकना, आज का भाषायी फ़ैशन बन गया है। कल्पित छवि को गढ़ने का यह काम फ़ेसबुक पर बहुत हो रहा है। फ़ेसबुक का एक अच्छा माध्यम, जो हमारे बेहतर सर्जन और उसके आदान-प्रदान का माध्यम हो सकता था, उसे कुछ ने अपनी कुन्द प्रदर्शनप्रियता से विकृत ही किया है। इसकी क्रूर छाया डॉ. सुषमा गुप्ता की लघुकथा 'संवेदनाओं का डिजिटल संस्करण' में देखी जा सकती है। पिताजी की बीमारी के बहाने दुआओं की ज़रूरत, बीमार पिताजी के अस्पताल में लेटे फोटो को फ़ेसबुक स्टेटस पर लगाना, अपनी सक्रियता और दयनीयता का प्रदर्शन, पिताजी के मरने पर संसार लुट जाने की शोक-संतप्त छवि, 51 पण्डितों को भोज कराने की आत्मश्लाघा की भूख कितनी दयनीय है!

दूसरी ओर पति के खाली बिस्तर को देखकर टूटती हुई, खाँस-खाँसकर दोहरी होती माँ है, जिसकी दवाइयाँ ख़त्म हो चुकी हैं। बेटे से गुहार लगाने पर जिसे झिड़क दिया जाता है-"बहुत व्यस्त हूँ मैं। पापा के मरने के बाद जो इतना तामझाम फैला है, अभी वह तो समेट लूँ। समय मिलता है तो ला कर दूँगा।"

इस झिड़कने वाले श्रवणकुमार की विडम्बना देखिए कि वह फिर से फ़ोन में व्यस्त हो गया। आभासी साथियों की सहानुभूति का दोहन करने के लिए नए स्टेटस पर ओढ़ी हुई भाषा में छद्म संवेदना का प्रदर्शन करने के लिए आतुर हो जाता है। स्टेटस पर लिखी यह टिप्पणी भाषा एव संवेदना के अवमूल्यन का सबसे क्रूर उदाहरण है-

'पिताजी के बाद अब माँ की हालत बिगड़ने लगी है। हे ईश्वर! मुझ पर रहम करो। मुझमें अब और खोने की शक्ति नहीं बची है।'

इसके पास माँ की दवाई लाने के लिए समय नहीं। पति की मृत्यु से बिखरी माँ के लिए केवल झिड़कियाँ ही बची हैं।

डिज़िटल क्रान्ति के इस युग में हमने बहुत कुछ पाया, लेकिन जो मानवीय संवेदना हमने खोई है, उसकी क्षति-पूर्त्ति कभी हो सकेगी, इसकी आशा करना व्यर्थ है।

कबीर कहते हैं-'मन के मते न चालिये, मन के मते अनेक'। कबीर का यह परामर्श उनके लिए है, जो संयम के साथ साधना करना चाहते हैं। वह तभी सम्भव है, जब मन पर नियन्त्रण हो। सामान्य जीवन में तो मन की बात सुननी भी होती है, कोई बात मन में ठुके, तो करनी भी होती है। मन की सारी दुर्बलताएँ मनुष्य को उसकी शक्ति और सीमा का अनुभव कराती हैं। बस मन कभी पराजित न हो; क्योंकि 'मन के हारे हार है, मन के जीते जीत। कहे कबीर हरि पाइए मन ही की परतीत।' यह भी कबीर ने ही कहा है। ये दोनों विचार एक दूसरे के विपरीत लगते हैं, पर हैं नहीं। मन किसी से मिलाना है, तो तब जो मन के अनुरूप लगेगा, जिससे अपनेपन का एहसास होगा, उसी से आत्मीयता हो सकेगी। सुषमा गुप्ता ने ‘कैमिस्ट्री’ लघुकथा में इस तथ्य को बखूबी प्रस्तुत किया है।

मोहनदास की घर के गेट के सामने वाली पटरी पर बैठे रामदीन मोची से आत्मीयता है। दोनों अपने सुख-दुख की बातें एक दूसरे से कर लेते हैं। सेवानिवृत्ति के बाद उनके पास कुछ काम भी नहीं है। पत्नी की मृत्यु के बाद वे अकेले पड़ गए हैं। बस वक्तकटी के लिए रामदीन मोची से बतिया आते हैं। अकेले अपने मन की बात किसी और से भी करें, तो कैसे। बहू सीमा को यह आत्मीयता पसन्द नहीं। उसके आपत्ति करने पर पति उसे समझाता है-"माँ के जाने के बाद बिल्कुल अकेले पड़ गए हैं। अब तुम और मैं तो दफ़्तर चले जाते हैं, तो समय काटने उसी से बतिया आते है।"

सीमा मुस्कुराकर स्वीकार कर लेती है कि 'कैमिस्ट्री हो तो ऐसी।' सामंजस्य के इस मनोविज्ञान को समझना होगा। चाहे जितने भी बड़े भौतिक साधन क्यों न हों, कोई भी आदमी दिनभर चुपचाप नहीं बैठ सकता। जिसके सामने मन में उठती तरंगों को व्यक्त किया जाए, ऐसा कोई हमदर्द तो चाहिए। संवादहीनता की स्थिति में जीवन नीरस हो जाएगा।

इनकी 'मोहपाश' लघुकथा जीवन को उद्वेलित करने वाली घटनाओं के प्रभाव को रेखांकित करती है। यह कथा गहरे अवसाद में डूबे एक पिता की विभ्रम की मनःस्थिति का मार्मिक चित्र है। पति-पत्नी के ये संवाद देखिए-

"आ गया लगता है। जा दरवाज़ा खोल दे।"

"नहीं जी, कोई नहीं आया।"

"अरे खिड़की पर लाइट चमकी अभी गाड़ी की। देख ध्यान से वही होगा। कार साइड लगा रहा होगा।"

खुद ही जाकर देखता और स्वीकार करता है कि 'बाहर तो कोई नहीं है पर लाइट तो हमारे गेट पर ही चमकी थी।'

वह बेहद निराश हो बोला।

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"चलो अब सो जाओ। जब आना होगा आ जाएगा। बहू खोल देगी अपने आप। यूँ ही बेटे के मोह में रात काली करते हो।"

"क्या करूँ, नींद ही नहीं आती वह जब तक घर नहीं आता।"

पानी लेने के लिए बहू रसोई में आती है, तो दोनों को सोने को कहती है-"कल इनकी बरसी है। आने जाने वालों का ताँता लगा रहेगा फिर आराम नहीं मिलेगा आप दोनों को।"

लाइट फिर चमकी खिड़की पर और बूढ़ा फिर सजग हो गया कि शायद अब की ।

जवान बेटे की मृत्यु से संतप्त बूढ़ा पिता, विभ्रम की स्थिति में जी रहा है। खिड़की पर लाइट के चमकते ही उसे लगता है कि बेटा ऑफ़िस से आ गया है। पिता की इस करुणा-विगलित मनःस्थिति को सुषमा गुप्ता ने मार्मिक संवादों के माध्यम से जिस प्रकार कथ्य सम्प्रेषित किया है, वह पाठक को बरबस द्रवित और विचलित कर देता है। यह लघुकथा अवचेतन मन की बहुत—सी दुखती पर्तों को एक-एककर खोलती है।

मन का मीत, परिपक्व बचपन, पहचान-पत्र और चरित्र-हत्या, विषय-वैविध्य की दृष्टि से अलग तरह की रचनाएँ है। इनमें भी अन्य लघुकथाओं की तरह सुषमा गुप्ता ने कथ्य का निर्वाह सफलतापूर्व किया है। इनकी भाषा-शैली रचनाओं के अनुरूप है, जिनमें इनका अनुभव और प्रस्तुति की विश्वसनीयता झलकते हैं। जीवन के प्रति इनका गहन अध्ययन और चिन्तन समाज की नब्ज पर हाथ रखते हैं और उसे पूरा विश्वसनीयता से महसूस करके विषयवस्त को अभिव्यक्त करते हैं। वैश्विक परिवर्तन एव वैचारिक संक्रमण ने मानव को प्रभावित किया है। यह प्रभाव इतना उग्र है कि इसके गुंजलक में मानवीय संवेदना और मानव-मूल्य दम तोड़ते दृष्टिगत होते हैं। आभासी जीवन और कार्यकलाप ने बहुत कुछ छीन लिया है।

सुना-देखा, लिख देना, रचना की नियति नहीं। यह केवल गढ़ना हुआ, बिना किसी संवेदना के। क्या लिखा, क्यों लिखा? किसके लिए लिखा? रचना में प्राणों का संचार हुआ या नहीं? लिखने के बाद यदि लगा कि अन्तस् को सुकून मिला, भीतर कुछ अंकुरित हुआ, कुछ भीगा, तो समझो कुछ रचा गया। कहीं का टुकड़ा, कहीं जोड़ देना, कथ्य नहीं। कथ्य है, उस 'जोड़ने के संवेदना-सूत्र' को पकड़ना, उसे एकाकार करना, उसमें प्राणों का संचार करना। किसी डाई / साँचे से पुर्जा बनाना, लघुकथा-सृजन नहीं। डॉ. सुषमा गुप्ता की लघुकथाएँ जीवन के मंथन से अभिषिक्त हैं।

आशा करता हूँ कि अनुजा डॉ. सुषमा गुप्ता के 'संवेदनाओं का डिज़िटल संस्करण' लघुकथा-संग्रह की अलग आस्वाद की ये लघुकथाएँ, सजग पाठकों एवं सर्जकों को पसन्द आएँगी।

19 अगस्त, 2024, रक्षाबन्धन