सुसाइड / त्रिपुरारि कुमार शर्मा
सुबह-सुबह फोन की घंटी जल उठी। तपिश से जिस्म भर गया। नींद ने बड़ी बेरूखी के साथ आँखों को अलविदा कहा। फोन के दूसरे सिरे से आ रही आवाज़ की खुशबू जानी-पहचानी-सी मालूम हुई। पता चला– एक लड़की ने सुएसाइड कर लिया। सुबह की रौशनी कमरे में उजाला न कर सकी। अंधेरे का बादल कमरे में घुस आया और बरसने लगा।
...तब मैं छोटा था। मेरे पड़ोस में एक औरत रहती थी। पागल थी शायद। अचानक नाचने लग जाती। कभी गीत गाती तो कभी बहुत देर तक चुप। आखिर वह क्या चाहती थी? वह ऐसा क्यों करती थी? आज तक कोई समझ नहीं पाया। मैंने सुना है कि उसका इलाज भी करवाया गया। क्या वह ठीक हुई? मुझे कभी इस बात का एहसास नहीं हुआ कि वह पागल है। जहां तक मुझे याद है, कभी-कभी उससे मेरी बातचीत हो जाती थी। सबकुछ सामान्य था। पता नहीं उसके परिवार वाले क्या चाहते थे? दिन-रात उसे मोटी-मोटी रस्सियों में बांध कर रखा जाता था। पांवों में बेड़ियां डाल दी गईं। जब भी कुछ बोलती या कहने की कोशिश करती, उसे डंडों से पीटा जाता था। ये सब मेरी आँखों के सामने होता रहा। मुझे लगता कि वह इलाज का ही कोई हिस्सा है। तब मेरी समझ उतनी कहां थी कि बातों का असर चोट से कहीं ज्यादा होता है। वो दृश्य मेरी आँखों में आज भी धुआं भरने में सक्षम है। दिल दहल जाता है। अफसोस... तब मैं छोटा था। अगर आज वो सब कुछ मेरे सामने होता, तो क्या मैं बर्दाश्त कर पाता?
सुनने को मिला कि वह शादी से पहले बिल्कुल ठीक थी। आखिर ऐसा क्या हुआ कि शादी के बाद वह पागल हो गई। वो भी दो-दो बच्चियों की माँ बन जाने के बाद। लोग कहते हैं पागलपन की स्थिति में ही वह तीसरी बार गर्भवती हुई। एक लड़का हुआ। मगर पागलपन कायम रहा। किसी ने कभी ये नहीं सोचा कि किस वजह से वह पागल हुई। बस जड़ी-बुटियों से इलाज चलता रहा। साथ में पिटाई तो सुबह-शाम रूटीन में थी ही। उसका ख्याल घर के लोग किस तरह रखते थे? इसका अंदाजा आराम से लगाया जा सकता है। मगर आज तक जो मेरी स्वानुभूति रही है, पड़ोसियों की भी इसमें कम दिलचस्पी नहीं होती। अलग-अलग लोग, अलग-अलग बातें। कोई कुछ कहता, कोई कुछ। एक रोज़ वह घर छोड़ कर चली गई। घरवालों से दूर। सारे बन्धनों से मुक्त। उसके लिए सम्बन्ध का कोई मतलब नहीं। आज़ाद हो गई वह। आज़ाद होना चाहती थी। कहाँ है? अब तक उसकी कोई ख़बर नहीं मिली। शायद इस दुनिया से भी दूर।
उसके बच्चों का क्या हुआ? जब दोनों बेटियां बड़ी हो गईं, तो उसकी शादी कर दी गई। अब बचा लड़का। वह अपना वजूद कायम रखने के लिए आज भी संघर्ष कर रहा है। एक कहावत है- संघर्ष ही जीवन है। बात बचपन की है। उसकी बड़ी बेटी मेमना चरा रही थी। मैंने कहा कि मुझे दे दो। अपने घरवालों के डर से वह सहम गई, मगर वह लड़की मुझे मेमना नहीं देकर भी दे चुकी थी। मैं ही अपने घरवालों के डर से उस मेमने को घर तक साथ न ला सका। क्योंकि मेरे घर में मेमना पालना नीचता का प्रतीक माना जाता था।
हॉस्टल लाइफ व्यतीत करने के दौरान एक रोज मेरा घर आना हुआ। अचानक देखता हूँ। वही पागल औरत मेरे घर के आंगन में बैठी है। सुलझे हुए बाल, माथे पर सिंदूर। एक सम्भ और समझदार व्यक्ति की तरह। मन में कई सवाल बुलबले की तरह फूटने लगे। जी में आया कि पूछ ही डालूं। क्या अब ठीक हो या फिर वो सब लोग गलत निकले जो तुम्हें पागल समझते थे। कहां थीं? इतने समय तक कहां चली गई थीं? ख्याल आया कि ये भी बता दूं। कौन-कौन पीटा करता था? कौन-क्या कहता था? सब कुछ बता दूं... सबकुछ। इतने में वह हंस पड़ी। कहा- पहचाना नहीं? मैं चुप रहा। थोड़ी देर तक देखता रहा। मुझे गलतफहमी के लम्हों ने घेर रखा था। लहर आई और रेत पर बने निशान मिट गए। मेरे सामने खड़ी लड़की उस औरत की बड़ी बेटी थी। बिल्कुल अपनी माँ जैसी शक्ल। नजरें भी धोखा करती है। पहली बार महसूस हुआ। यह दूसरी बार था, जब मैंने उस लड़की को देखा था।
आज उसी लड़की ने सुसाइड कर लिया। उसने बचपन में भी एक बार मौत को गले लगाने की कोशिश की थी। आसपास के लोगों की वजह से कामयाबी नहीं मिली। वह मरना क्यों चाहती थी? क्या वह नहीं जानती थी कि संघर्ष ही जीवन है? या उसे इस मत में यकीन नहीं था। मौत का सबब किसी को भी मालूम नहीं। मगर वह सारे बंधनों से मुक्त हो गई। आजाद हो गई अपनी माँ की तरह। सोचता हूं कि क्या वह वाकई ऐसा चाहती थी?