सुसुप्त ज्वालामुखी में विस्फोट और परदेदारी / जयप्रकाश चौकसे

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सुसुप्त ज्वालामुखी में विस्फोट और परदेदारी
प्रकाशन तिथि : 20 नवम्बर 2013


संजय लीला भंसाली की 'गोलियों की रास लीला - राम लीला' के सेन्सर द्वारा पास होने के बाद भी अनेक शहरों में इसके प्रदर्शन के खिलाफ सड़कों से अदालत तक भांति-भांति की कार्रवाई हुई। सारे विरोधों का आधार धार्मिक था। फिल्म में राम के नाम के साथ लीला सहन नहीं किया गया क्योंकि हमारे आख्यानों में कृष्ण लीला का विवरण हैै परन्तु राम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं और सारे आदर्श मूल्यों का प्रतीक हैं। विरोध करने वालों को ज्ञात नही कि संत तुलसीदास ने राम लीला नाटकों को प्रारंभ किया था और उनकी लिखी 'रामचरितमानस' कमतर काव्य होने के बावजूद वाल्मिकी की रामायण से अधिक लोकप्रिय है। कुछ लोगों का यह भी मत है कि तुलसीदास के संस्करण की लोकप्रियता ने ही समाज में राम लहर को निरंतर प्रवाहित रखा है। फिल्मकार का बचाव यह रहा कि राम केवल उनके नायक का नाम है और भगवान राम से इस काल्पनिक पात्र का कोई रिश्ता नहीं है। दरअसल फिल्मकार ने तो शेक्सपीयर के नाटक 'रोमियो जूलियट' से प्रेरणा ली है। यह भी एक इत्तेफाक ही है कि शेक्सपीयर और तुलसीदास दोनों ही सोलहवीं सदी के साहित्यकार हैं परन्तु उनके रचना संसार में पूर्व पश्चिम से भी अधिक अंतर है। तुलसीदास को भगवान राम के प्रति असीम भक्ति का सहारा मिला है जबकि शेक्सपीयर के काल्पनिक पात्र अपनी आंतरिक ऊर्जा से अमर हुए हैं।

दरअसल इस फिल्म के विरोध का यह आधार ही गलत है परन्तु इस विवाद के कारण फिल्म में उठाए गए सवाल पर कहीं कोई बहस ही नहीं हो पाई और वह मुद्दा यह है कि हिन्दुस्तान में सेक्स एक प्रतिबंधित विषय है और उसे इतने परदों के भीतर हमने छुपाया है मानो वह हमारा कोई अपराध या कलंक है और ये परदेदारी सदियों से निभाई जा रही है। यहां तक कि परदेदारी ने संस्कार का छद्म नाम भी ग्रहण कर लिया और हमें इसका अहसास भी नहीं हुआ। इस परदेदारी के कारण ही सतह के नीचे इसकी लहर प्रवाहित होती रही है। समाज के सोए हुए तंदूर में इसकी चिंगारी राख के नीचे दबाने के भरम में हम मुत्मइन हो गए हैं परन्तु समय-समय पर वह एक चिंगारी ही पूरे तंदूर को दहका देती है। यह बात भी गौरतलब है कि भारत में रंगीन छपाई के आगमन के बाद कैलेन्डर आर्ट का जन्म हुआ जिनमें धार्मिक आख्यानों के पात्रों के चित्र इस तरह बनाए गए कि उनमें समाहित प्रच्छन्न सेक्स छुपा नहीं रहा। घर-घर में ये कैलेन्डर पहुंचे और गरीब लोगों ने उत्सव के अवसर पर इन्हें अपने पूजाघर में भी लगा दिया। अनेक लोग दीवारों पर जड़े इन कैलेन्डर में चित्रित देवी-देवताओं को प्रणाम भी करने लगे। इस कैलेन्डर कला के पुरोधा मुलगांवकर थे और मजे की बात यह है कि भारत में चार रंग की प्रिंटिंग तकनीक गोविंद धुंडीराज फाल्के जर्मनी से सीख कर लाए थे और इन्हीं दादा फाल्के ने भारत में कथा फिल्मों को जन्म दिया। सिनेमा के पहले समीक्षक महान मैक्सिम गोर्की को यह अनुमान था कि भविष्य में 'नहाती हुई स्त्री' या 'कपड़े बदलती महिला' का भी चित्रण सिनेमा करेगा गोयाकि उन्हें डर्टी पिक्चर और नीले फीते के जहर का भी अंदेशा प्रथम दर्शन में ही हो गया था।

सिनेमा ने भी सेक्स की 'परदेदारी' को बखूबी निभाया। इतना ही नहीं उसे और अधिक छुपाने के प्रयास में उसे अनगढ़ तरीके से उघाड़ा ही है। सेक्स को लेकर जितनी भ्रांतियां पहले से मौजूद थीं, सिनेमा ने उस अंधकार को बढ़ाया ही है। सिनेमा में सेक्स की लहर हमेशा ही प्रवाहित रही है और उसे सेन्सर की निगाह से बचाए रखने के लिए लाख जतन किया। सच तो यह है कि सेन्सर के मुर्दा नियमों की बांहों में यह कभी आया ही नही। गौरतलब है कि विक्टोरियन मूल्यों ने भारत की उदात संस्कृति में परदेदारी पैदा की है।

संजय लीला भंसाली की नायिका नायक को देखते ही पलक झपकने के पहले उसका चुम्बन लेकर उसे आंख मारती है और पूरी फिल्म में नायक और नायिका अपनी 'भूख' को हथेली पर लिए घूमते हैं। यह नायिका लज्जा को श्रेष्ठ आभूषण नही मानती और उसका सुडौल शरीर ही उसका आभूषण है। इस तरह वे सदियों की 'परदेदारी' में सेंध लगाते है। पारम्परिक मूल्यों के दर्शकों के लिए यह 'लील' लज्जाजनक है परन्तु युवा वर्ग के दर्शक के लिए मजेदार साबित हुई। इन्टरनेट पर नीले फीते से परिचित युवा दर्शक के लिए अत्यंत साहसी होते हुए भी यह बाल लीला ही है। दरअसल इस मुद्दे एक सिरे पर 'भूख' है और बिना संकोच उसकी अभिव्यक्ति है तो दूसरे सिरे पर संपूर्ण परदेदारी है और निदान तो इस विषय के पाठ्यक्रम में शामिल किया जाना है परन्तु निदान को टालते-टालते समाप्त कर देने में हमें विशेष योग्यता प्राप्त है। सिनेमा का आर्थिक आधार अधिकतम की पसंद है, इसलिए इस माध्यम में 'भूख' को संकेतों के सहारे अभिव्यक्त करने की परम्परा है। इस फिल्म में भूख निर्वस्त्र सामने खड़ी है जो सही और गलत के परे जाती है।

ज्ञातव्य है कि कुछ विद्वानों का मन है कि सेक्स को दबाने से हिंसा का जन्म होता है और इस फिल्म में हिंसा और सेक्स दोनों ही प्रस्तुत हैं।