सुहागिनी / शैलेश मटियानी

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सुवा रे, ओ सुवा !

बनखण्डी रे सुवा !

हरियो तेरो गात,

पिण्डलो तेरो ठूना

बनखण्डी रे, सुवा !

काँसे की थाली में कमलावती बोज्यू रोली-अक्षत भिगो रही थीं और पद्मावती अपनी डबडबाई आँखों से देख रही थी कि उसकी आँखों की पुतलियों में जो आत्मजल केवड़े के किश्तीनुमा पत्तों में अटकी ओस की बूंदों की तरह थरथरा रहा है, उसमें कमलावती बोज्यू का ही नहीं, आसपास के सारे वातावरण का पूरा-पूरा प्रतिबिम्ब उभर रहा है — बनखण्डी रे, सुवा ! हरियो तेरो गात…।

कमलावती बोज्यू बार-बार कदलीपत्रों की पालकी में बैठे वरदेवता श्री रामचंद्र को टुकुर-टुकुर देखती हैं और उनके आँसू, एकबारगी छलछलाकर काँसे की थाली में गिरते हैं और लगता है, रोली-अक्षत एकाकार हो जाते हैं ! और काँसे की थाली हौले से ऐसे छणछणा उठती है, जैसे बरसात की बूंदों से टीन की छत बजने लगती है —

ओ सुवा, रे सुवा !

बनखण्डी रे सुवा !

ओ सुवा रे सुवा !

बनखण्डी रे”

पद्मावती ने एकाएक अपनी डबडबाई आँखों को सामने सुँयालघाटी की ओर उठा दिया — “हे राम, कभी-कभी बनखण्डी शुकों की-हरियाली देह, पियराई चोंचों वाले शुकों की पूरी पाँत-की-पाँत आँखों की पुतलियों को ढाँपती चली जाती है !

मगर एकदम छलछल भरी हुई आँखों के बावजूद आज पद्मावती को सारी सुँयालघाटी कुछ रीती-रीती ही लगी । बनखण्डी शुकों की पाँत दीठ बाँधती, पुतलियाँ ढाँपती नहीं दिखाई दी । पद्मावती को लगा कि अरे, उसके आसपास तो उसकी शादी के शकुन-आखरों के शकुन चहचहा रहे हैं और हरियाए-पियराए बनखण्डी शुकों को न्योत रहे हैं – बनखण्डी रे...।

और पाताल भुवनेश्वर की अछोर अंतर्गुहाओं जैसे उसके कान गूँजते ही चले जा रहे हैं, शकुन-आँखर के शकुनों की चहचहाती अनुगूँजों से, और बनखण्डी शुकों की पाँत-की-पाँत उसकी आत्मा की अंतर्गहाओं की सँयालघाटी में उड़ती ही चली जा रही है उड़ती ही चली जा रही है ।

बनखण्डी, रे सुवा !

हरियो तेरो गात,

पिण्डलो तेरो ठूना

कमलावती बोज्यू की आँखों में उसके प्रति संवेदना के आँसू हैं और वह उनके एकदम सामने ही बैठी हैं, सो उनकी पुतलियाँ छलछलाती हैं; तो आँसू काँसे की थाली की ओर निकास पा जाते हैं. मगर पद्मावती की व्यथा ही उस आत्मस्या पद्मावती के प्रति है, जो कुँवारेपन के पैतालीस साल बिता चुकने के बाद दुलहन की तरह सँवरी, लजाई बैठी है, तो कदली-पत्रों की पालकी में जो वरदेवता श्री रामचन्द्र बैठे हुए हैं, उनकी ताम्रवर्ण देह दीपकों के उजाले में कुछ ऐसी चमक उठती है कि पद्मावती को लगता है, सारे दीपक उसकी अंतर्गुहा में जल रहे हैं – शकूना देही, राजा रामचन्द्र, अजुध्यावासी…।

अन्दर जो कुण्ठित कौमार्य को और ज़्यादा बेधने वाले दीपक जल रहे हैं, इस प्रौढ़ावस्था में सिर्फ़ परलोक में तारण के लिए दुलहन बनने की विवशता के, उनकी झाँई को कहीं निकास ही नहीं मिल पा रहा है बाहर को । झाँई को निकास नहीं मिल पा रहा, तो लगता है, आत्मा की अंतरंग परतों में काजल बैठा जा रहा है । हे राम, जिन सुहागिनों की गोद में छौने आते रहते हैं, वो कैसे छोटी-छोटी डिबिया में काजल समेटकर रखे रहती हैं? घुटने पर बालक के सिर को हिलाती ’हूँ-हूँ’ करती अँगुली की पोर से काजल आँजती हैं, तो बालक की आँखों की किनारियों में अँगुली के चक्र या शंख की छाप उतर आती है ।

अन्दर दुख उमड़ पड़ रहा था, मगर फिर भी पद्मावती को शरम लग गई कि छिच्छी, इतनी औरतों के सामने कितनी छिछोर बात सोचती हूँ मैं भी !

पद्मावती के प्रति आँसू कहीं अपने से बाहर को निकास नहीं पाते है। कहीं अंतर्गुहा में बाल-संन्यासिनी की तरह अवसन्न बैठी पद्मावती क्षण-क्षण में अपना रूप बदलती रहती है और बेर-बेर पुतलियाँ रहट के खोखों की तरह, बाहर को घूमने के बावजूद, अन्दर की ओर छलछला जाती हैं और आँसू बूंद-बूंद अंतर्गुहा में जलते दीपकों की लौ पर गिरते हैं –

बनखण्डी, रे सुवा !

ओ सुवा रे सुवा !

शकुन आँखरों की गूँज सुनते ही पास-पड़ोस के विवाहों में पक्षी की तरह चहचहाती दौड़ती थी पद्मावती । वह उग्र बहुत पहले ही बीत चुकी, मगर इस चहचहाट की मर्मवेधी अनुगूँज आज तक शेष है । रंग एकदम साँवला, आँखें एकदम मिचमिची और देह सूखी हुई । दिखने में पद्मावती अपनी तरुणाई में भी कुछ नहीं थी, मगर कण्ठ इतना सुरीला कि सात-सात शकुन आँखर गानेवाली बैठी हों, तो उसका सातवाँ सुर सबसे अलग ऐसा गूँजता था कि और गानेवालियों की आवाज़ें डूबने लगती थीं ।

कमलावती बोज्यू तो तब भी यही कहती थीं – "लली, बहुत शकुन गाती हो तुम । और इतनी मधुर मीठी आवाज़ में कि लगता है, तुम सिर्फ शकुन गाने के लिए ही जन्मी हो, सुनने के लिए नहीं !"

पद्मावती तब भी जानती थी, कमलावती बोज्यू के मुँह से उनकी अपनी आन्तरिक व्यथा बोलती है । ब्राह्मण-कन्या तो पैसे वालों की भी बहुत परेशानियों के बाद ही ब्याही जाती है, वह तो एक दरिद्र परिवार की कन्या थी और कुरूपा । गोरे कपाल में तो काजल का टीका भी बहुत फबता है, मगर काले कपाल की रेखाएँ तो चंदन के तिलक से भी उजली नहीं हो पाती हैं । सोने-चाँदी के आसन पर तो शालिग्राम भी पूजा जाता है, मगर दान-दहेज से रीती उस सूखे काठ-जैसी काया को कौन देगा अपने घर में बहू का आसन ?

ग़रीब पुरोहित के घर में जन्म लिया था पद्मावती ने । एक सूखे काठ-जैसी साँवली काया पाई थी, मगर आत्मा उस देह की कठबाड़ के पार कभी बनखण्डों में उन्मुक्त चहकती, चहचहाती रहती थी और कभी तिरस्कृता-सी बिलखती रहती थी । कठबाड़-जैसी काया को सभी देखते थे कठबाड़ के पार देखने वाली आँखें बहुत दुर्लभ थीं । एक जोड़ी आँखें बड़े भाई बुद्धिबल्लभ पुरोहित की, एक जोड़ी कमलावती बोज्यू की । भाई-भाभी अंतर्व्यथा से छलछलाती आँखों की ज्योति कठबाड़ के पार भी पहुँचती थी, मगर अक्सर कठबाड़ से ही टकराकर धुंधली पड़ जाती थी । अपनी ग़रीबी और बहन की कुँवारी काया के बोझ से दबे पुरोहित बुद्धिबल्लभ कभी-कभी बहुत खीझ भी उठते थे कि इस अभागिन के कारण तो मुझे भी नरक भोगना पड़ेगा ! जिस ब्राह्मण के घर में अंत तक कुँवारी बैठी बहन राख के अन्दर के कोयले की तरह अपने दुखों में सुलगती रहे, उसका तारण तो चौंसठ तीरथों की परिक्रमा से भी नहीं हो सकता !

कमलावती बोज्यू अपने पाँच बच्चों की ओर देखती थीं, तो उन्हें भी पद्मावती खटकने लगती थी कि कहीं कभी कोई काना-रँडुवा ब्राह्मण मिल ही गया; तो बुद्धिबल्लभ घर की लटी-पटी धो-पोंछकर पद्मा के ही पीछे न लगा दें !

मगर उन्होंने ही तो कहा था कि पद्मा शकुन-आँखर गाने के लिए पैदा हुई है, सुनने को नहीं ! बरस-पर-बरस बीतते गए थे. तीस-पार पहुँचते-पहुँचते पद्मावती की आत्मा निराशा कुण्ठा से बंजर होने लगी थी ।

मगर एक अनहोनी-जैसी यह ज़रूर घटने लगी थी कि भीतर के वीरान बनखण्डों की तरह अवसाद और कुण्ठा के घने कोहरे में डूबते ही पैंतीस तक पहुँचते-पहुँचते-पद्मावती की सूखी-साँवली देह भरती चली गई और सैंतीस बरसों की उम्र काट चुकने के बाद पद्मावती को पुरुषदीठ अटकाने का सुख तब मिला था, जब मोहल्ले के अपर स्कूल का हेडमास्टर गंगासिंह हँस पड़ा था कि ‘बौराणज्यू, पुराना गुड़ और ज्यादा गुणकारी होता है, ऐसा सुना तो मैंने भी था, मगर आँखों से पहली बार देख रहा हूँ ।’ तब पद्मावती अपने भतीजों को स्कूल पहुँचाने जाती थी ।

गंगासिंह हेडमास्टर बड़ी आसक्ति के साथ घूरता बातें करता है, इससे एक सार्थकता का बोध सुख अवश्य देता था, मगर आत्मा प्रताड़ित करने लगती थी कि कहीं सयानी उम्र का होते भी एकदम जवान छोकरों की तरह आँखें भुरभुराने वाला हेडमास्टर अपने अपर स्कूल की सरहद से बहुत आगे तक न बढ़ आए । सो एक दिन पद्मावती के हाथ से भतीजे का हाथ पकड़ने के बहाने गंगासिंह हेडमास्टर ने उसका हाथ पकड़ने की कोशिश की तो ‘हट साले खसिया !’ कहकर पद्मा ने अपना हाथ छुड़ा लिया था और तब से उसके मुँह से पुराने गुड़ के स्वाद में लिपटी हुई आवाज़ निकलनी बंद हो गई थी । आँखें भुरभुराकर ‘बौराणज्यू’-‘बौराणज्यू’ कहने का भेद हो गया था ।

पड़ोस वाले तो बहुत कान बचाते थे कि बेमौसम आई हुई बाढ़ और ज्यादा खेत तोड़ती है, मगर ईश्वर साक्षी है कि देह भरने के बाद भी सिर्फ़ लोगों की आँखों में संवेदना देखने-भर का सुख ही भोगा पद्मावती ने, बल्कि धीरे-धीरे इससे भी उसे एकदम घृणा और वितृष्णा हो गई थी, क्योंकि उसे घूरने-देखने वाले लोग बहुधा तीस-पैंतीस पार के ही होते थे, मगर पद्मावती की आत्मा में उसके शकुन गाने की उम्र ही छाई हुई थी । तीस-पार पहुँचने पर शकुन गाना छोड़ दिया था पद्मावती ने, मगर जब-जब किसी के प्यार के लिए मोह जागता था, ममता जागती थी, उम्र एकदम घटती चली जाती थी, जैसे धूप ज्यादा बढ़ने पर छाया छोटी होती चली जाती है । आत्मा में कल्पना-पुरुष सूरज कमल-जैसा खिलता चला जाता है ।

और अब पैंतालिसवें बरस में एक लज्जास्पद अनहोनी यह भी घट रही है कि खुद पद्मावती के कान ही शकुन-आँखर सुन रहे हैं ! कदलीपत्रों की पालकी में वरदेवता श्रीरामचन्द्र के रूप में ताँबे का कलश बैठा हुआ है । कमलावती बोज्यू के आँसू काँसे की थाली में बिखर रहे हैं और मरणासन्न भाई बुद्धिबल्लभ कन्यादान’ की सामग्री ठीक कर रहे हैं ...। पद्मावती तो हठ बाँध रही थी कि “इस प्रौढ़ावस्था में यह गुड़ियों का जैसा खेल मैं नहीं रचा सकती !” मगर जब खुद भाई ने आँसू गिरा दिए, “पद्मा, मेरा अंत समय आ गया है. बहुतों की सद्गति करके उनका तारण मैंने किया है, मगर अब मुझे अपना ही तारण दुर्लभ हो रहा है । तेरा भाई-पिता जो कुछ हूँ, मैं ही अभागा दरिद्र ब्राह्मण हूँ, पद्मा ! मैं अभागा अपने भाई का धर्म नहीं निभा सका, मगर तू तो कल्याणी कुललक्ष्मी है ! तू अपनी दया निभा दे । तुझे सुहागिन देखने से मेरा तारण हो जाएगा । लली, इतना मैं भी समझता ही हूँ कि ताँबे का कलश सुहाग के कंकण-मंगलसूत्र ही दे सकता है, सुहाग का सुख नहीं दे सकता मगर...।”

अपने साठ-बासठ के सहोदर का बच्चों जैसा विह्वल स्वर और ज्यादा नहीं झेल पाई थी पद्मावती और चुपचाप चली आई थी — “बोज्यू, इस वृद्धावस्था में मुझे सुहागिन बना दो !” “और डबाडब भरने के बाद औंधी पड़ी ताँबे की कलशी-जैसी छलछलाती ही चली गई थी — हे राम ! हे राम ! हे राम !

रामीचन्द्र, अजुध्यावासी ! सीतारानी मिथिलावासिनी-ई-ई-ए शकुना देही…

सुहागिन बने भी अब सात-आठ बरस बीत गए हैं ।

इन सात-आठ वर्षों में पद्मावती ने धीरे-धीरे अपने उस कल्पना-पुरुष को प्रतिष्ठित कर लिया, जो तीस तक की पद्मावती अपने लिए खोजती रहती थी ।

शुरू-शुरू में ताँबे का कलश विद्रूप लगता था, मगर एक दिन जब छोटे भतीजे ने उसमें पेशाब कर दी और कमलावती बोज्यू ने उपेक्षापूर्वक हँसते हुए बात टाल दी, तो एकाएक पद्मावती की आत्मा उत्तेजित हो उठी थी —“तुम्हारे लिए यह सिर्फ ताँबे का कलश ही होगा, बोज्यू, मगर मेरे लिए तो मेरा सुहाग भी है !”

उत्तर में कमलावती बोज्यू ने व्यंग्यपूर्वक कहा था — “लली, सुहाग तो संग में शोभा देता है, तुलसी के कनिस्तर के पास नहीं पड़ा रहता !”

पद्मावती एकदम तड़प उठी थी — “बोज्यू, इस वृद्धावस्था में भी बकते हुए शरम नहीं लगती तुम्हें?”

और उसी दिन से पद्मावती ने ताँबे के कलश को इतने ऊँचे चबूतरे पर रखना शुरू कर दिया कि कमलावती बोज्यू के बच्चे वहाँ तक न पहुँच सकें । रोज़ दिशा खुलते ही पद्मा चबूतरे पर से कलश उतारकर पनघट चली जाती थी । स्नान कर लेने के बाद उस आत्मस्थ कल्पना-पुरुष के आधार पर जलकुंभ को स्नान कराती थी । स्वच्छ पत्थर पर चंदन घिसती थी और विष्णु-रूप जल-पुरुष का अभिषेक करती थी – कस्तूरी तिलकं ललाट पटले, वक्षस्थले च कौस्तुभं…।

सुदूर जालना पहाड़ी की चोटी पर पहली-पहली सूर्य-ज्योति सल्लिवृक्षों की चोटियाँ उजली बना देती है । जल भरे ताम्र-कलश के मुँह तक छलछलाते पानी में पद्मावती प्रतिबिम्ब देखने लगती है । आँखों की पुतलियाँ मोह-अवसाद से थर-थर काँप उठती हैं । ताम्र-कलश के मुँह पर पानी के दायरे कँपकँपा उठते हैं । लगता है, कल्पना-पुरुष का मुख-बिम्ब ऊपर तक आया है — कस्तूरी तिलक ललाट पटले पहले भी नित्य जल भरती है पद्मावती, मगर दिन-भर कौवे चोंच डाल-डालकर पानी पीते रहते हैं; तो पद्मावती हाँकती भी नहीं थी । मगर बाद में मौसमी फूलों या पीपल के पत्तों का गुच्छा ऊपर रखने लगी थी ताकि कौवों की चोंच पानी तक न पहुँच सके और ताम्र-कलश की ऊपरी जल-परत पर उभरा मुखबिम्ब खण्डित न हो सके ।

किशोरियों का जैसा बावलापन, तरुणियों की जैसी सौंदर्यानुभूति और गृहिणियों-सा अपनाव-ताम्र-कलश पद्मावती की आँखों में एकदम छा गया था । लोग ही नहीं, कमलावती बोज्यू भी परिहास करती थीं । न जाने कमलावती बोज्यू ने ही बात फैलाई या पड़ोसिनों की कल्पना इतनी प्रखर थी कि सारे मोहल्ले में यह चर्चा फैल गई — पद्मावती अपने स्वामी को अपने ही साथ सुलाया भी करती है ! हे राम, ताँबे के कलश को अपने साथ यह बात तो शायद कमलावती बोज्यू ने ही फैलाई होगी — ‘मैं नीचे गोठ में सोती हूँ, पद्मा ललीज्यू ऊपर वाले तल्ले पर सोती हैं । एक रात ऊपर की पाल से पानी नीचे चू रहा था, शायद, तॉबे का कलश औंधा पड़ गया होगा !’

पद्मावती क्या जानती थी, कमलावती बोज्यू इतनी बदमाश हैं । वह तो यही समझती थी कि सबकी आँखें लग जाने के बाद ही वह ताम्र-कलश को चबूतरे पर से ले जाकर अपने सिरहाने रखती है और दिशा खुलते ही जल भरने चली जाती है ।

छिः हाड़ी, इस चतुर्थावस्था में भी कमलावती बोज्यू की विमति गई नहीं है । ननदों के भेद लेने, उनसे चुहलबाजी करने की यह उम्र थोड़े ही होती है !

कभी-कभी पद्मा कमलावती बोज्यू के प्रति खीझती तो है, मगर फिर अपने ही प्रति उलाहने की लाज में डूब जाती है कि ‘छि हाड़ी, बोज्यू को तो बहुत गिन-गिनकर नाम रखती हूँ मैं, मगर सफ़ेद धतूरे-जैसी फूल जाने पर भी मेरी मति क्यों इतनी बावली है ! इस अवस्था में तो कोई साक्षात् शरीर वाले पति को भी इतना प्यार नहीं करती होगी !’

कमलावती बोज्यू विनोद में कहा करती थीं — ‘हमारी पद्मा ललीज्यू बड़ी तपस्विनी हैं । जितनी सेवा-टहल ललीज्यू इस ताँबे के खसम की करती है, उतनी तो मैं अपने हाड़-मांस के स्वामी की भी नहीं कर सकी ! आखिर पद्मावती ललीज्यू के ही कुम्भ से तो नहीं जनमेगा फिर कोई अगस्त्य मनि ?’

हे राम, कमलावती बोज्यू कितनी चण्ट हैं ! पद्मावती ने सिर्फ इतनी-सी कल्पना ही तो की थी एक दिन कि पहले के सतयुग में तो पुरुष के स्मरण मात्र से भी मान रह जाया करता था ! मगर यह कल्पना के दिन जब बावलेपन में ताम्र-कलश छलछला गया था, तो खुद पद्मावती ही कितनी डूब गई थी शरम में, वह जानती है । एक मर्मवेधी आशंका भी आत्मा को थराथरा गई थी कि कहीं सचमुच रह ही गया सत्त, तो पड़ोस की छिछोर औरतें उसकी आत्मिक श्रद्धा को थोड़े ही देखेंगी ! सभी यही कहेंगी कि इस बुढ़ापे में धरम गँवाते लाज भी नहीं लगी !

अरी छिछोरी, जितनी शरम ताँबे के कलश की है, उतनी तो तुमने हाड़-मांस के खसम की नहीं की होगी ! देखता कोई कि पहले-पहल ताँबे के कलश को सिरहाने रखते हुए कैसे घूँघट निकाल लेती थी पद्मा, तब जानती कि लाज-शरम करने वाला हिया ही और होता है ।

बीच में सात-आठ दिन बीमार पड़ गई तो बिस्तरे से लग गई पद्मावती । बिस्तरे में पड़े-पड़े ही उसे यह यथार्थ बेधता रहा कि उसके चाहने के बावजूद अब तू-तू क्यों नहीं कहता कोई । और तो और, कमलावती बोज्यू भी ‘तुम’ ही कहती हैं । पहले कभी-कभार तू-तू कहती थीं, बड़ा मधुर लगता था । मगर इधर कमलावती बोज्यू का मधुर स्वर काफी तीता-तीखा होता चला आया है । कभी क्रोध में बोलती हैं तो लगता है, गला बँखार-बँखार कर थूक रही हैं ! लगातार सात दिनों तक ताँबे का कलश बासी ही पड़ा रहा तो पद्मावती से नहीं रहा गया —“मेरे ज़िन्दा रहते ही यह दुर्गति हो रही है तो मेरे मरने के बाद तो टमटों के यहाँ पहुँच जाएगा !" कहते-कहते एक ओर तो बुरी तरह बिलख पड़ी पद्मावती, दूसरी ओर खीझ भी थी अपनी असंयत वाणी के प्रति कि तू’ कहना भारतीय नारी के लिए धर्म-विरुद्ध है !

कल तो कमलवती बोज्यू ने टाल दिया था — “पद्मावती ललीज्यू, तुम्हारा तो सिर्फ़ एक ताब का ही कलश ठहरा, मेरे तो हाड़-मांस के ही कलश इतने हैं कि इन्हीं के काम-काज से उबर नहीं पाती ।”

पद्मावती एकदम व्यथित हो उठी थी – “बोज्यू, उदर में हाथ डालकर कलेजा क्यों मरोड़ती हो ! इतना तो मैं भी जानती हूँ कि ताँबे के कलश से संतति नहीं जनमा करती और तुम्हारी संतति न मुझे जीते-जी सुख दे सकती है और न मरने पर सद्गति । मगर कहीं से लफंदर लगाकर तो मैं संतति जनमा नहीं सकती थी न, बोज्यू !”

कल रात-भर कमलावती बोज्यू पश्चात्ताप से सिसकती रही थीं । आज सवेरे-सवेरे पद्मावती के पास पहुंच गई थीं —“ललीज्यू, तुम्हारा दुःख जानती हूँ । मेरा पाप क्षमा करना । मुण्ड-चामुण्ड इतना झिंझोड़ देते हैं कि वाणी वश में रहती नहीं है । तुम्हें भी दुखा बैठती हूँ । मगर असल बात यह है, ललीज्यू, कि तुम्हारे ताँबे के कलश में जल भरना मेरे लिए तो एकदम निषिद्ध ही ठहरा । उसे तो तुम्हें ही भरना होता है । नहीं तो मैं किसी और से भरवा देती ।”

टूट-टूट रही थी देह, मगर फिर भी पद्मावती उठ गई कि आज आठवाँ दिन लग गया है । ज्यों-त्यों भरकर रखना ही होगा नया जल । न जाने किस जनम पति को क्लेश पहुँचाया होगा, इस जनम में यह गति है । इस जनम में भी सेवा नहीं हो पाई तो फिर कैसे तारण होगा !

घुटने बजने लगते हैं चबूतरे पर चढ़ते, तो लगता है, आत्मा के बनखण्ड में चहकते शकुनों को किसी निमर्म व्याध ने बेध दिया है और तीरों से घायल शकुनों की पाँत विलाप करते हुए व्याकुल कण्ठ से चीत्कार कर रही है —

ओ सुवा, रे सुवा !

बनखण्डी, रे सुवा !

हरियो तेरो गात…

कहाँ है, रे तू सुवा ?

पिण्डलो तेरो ठूना –

कहाँ है, रे तू सुवा ?

भावाकुल होकर पद्मावती ने हाथों में उठाए ताम्र-कलश पर दीठ डाली कि बासी जल में भी उतरता होगा प्रतिबिम्ब ?

थर-थर-थर-थर कृश हथेलियाँ काँप उठीं और ताम्र-कलश चबूतरे से एकदम नीचे आँगन के पथरौटे पर गिर पड़ा ।

हे राम ! हे राम !

पद्मावती का करुण विलाप सुनकर पास-पड़ोस के कई लोग एकत्र हो गए, मगर पद्मावती की आँखों को तो सिर्फ़ पिचके हुए ताम्र-कलश के अलावा और कुछ दिख ही नहीं रहा था । बिलखती ही चली जा रही थी कि गंगासिंह हेडमास्टर की साँवली घरवाली, जो खुद भी पहले दो घर त्याग कर आई थी, पद्मावती के कानों को बेध गई – “छि:-छिः ! एक ताँबे की टिटरी के लिए ऐसा करुण विलाप करते हुए शरम भी नहीं आ रही है पद्मा बौराणज्यू को ! अरे, यह फूट गया है, तो क्या दूसरा नया कलश नहीं मिल सकता बाज़ार में ?”

पद्मावती ने आँसू छलछलाती आँखों से जल को जैसे आत्मस्थ कर लिया । देखा, सामने गंगासिंह हेडमास्टर भी खड़ा है । पदाावती विकट स्वर में चिल्ला उठी — “चुप रह, ओ खसिणी । मैं कोई तुझ-जैसी तिघरिया पातर नहीं हूँ ! नया कलश नहीं मिल सकता है, कहती है, राण्ड । अरी, तू ही ढूँढ़ती रह, तुझे ही मुबारक हों नए-नए खसम ! मैं तुझ जैसी कमनियत खसिणी नहीं हूँ — पतिव्रता ब्राह्मणी हूँ । तू मत रोना जब तेरा खसम भी मरे तो । क़सम है तुझे तेरी ही औलाद की !”

पद्मावती के विकट स्वर से सभी अचकचा गए । कमलावती बोज्यू को इस बात का बुरा लगा कि ‘हे राम, पद्मा ललीज्यू के हृदय की व्यथा को यहाँ कौन समझने वाला है ? ये सब लोग तमाशा देखने वाले हैं।’

कमलावती बोज्यू आगे बढ़ीं । लाड़-प्यार से पद्मावती की आँखों को पोंछा । बहे हुए आँसू कपोलों की झुर्रियों में अटक गए थे । संवेदना जताते हुए, कमलावती बोज्यू बोलीं — “पद्मा ललीज्यू, अब चुप हो जाओ ! अरे, बावली, इतना करुण विलाप तो कोई हाड़-मांस के स्वामी के मर जाने पर भी नहीं करता ! ताँबे का कलश थोड़ा पिचक ही तो गया है ! मैं इसे ठीक करवा दूँगी ।”

पद्मावती इस कल्पना से ही सिहर उठी कि ठीक करने दिए गए कलश को तो पहले टमटा भट्टी पर चढ़ाएगा और फिर हथौड़ों से उसे…।

हे राम ! हे राम !

पद्मावती कहना चाहती थी कि ‘बोज्यू, तुम भी सिर्फ कलश के पिचकने की बात ही क्यों देखती हो? मेरी यातना क्यों नहीं दिखती तुम्हें?’ मगर कण्ठ-स्वर अजाने ही रूखा हो गया । आज पहली बार पद्मावती को लगा कि वह भी कमलावती बोज्यू की ही तरह बँखार-झंखार कर कह रही है — “अरे, बोज्यू, तुम क्यों नहीं कहोगी ऐसा ! तुम तो अब विधवा हो, विधवा ! तुम क्या समझोगी कि सुहागिनी के मन की व्यथा क्या होती है !” और बच्चियों की तरह बिलखती पद्मावती, अन्द र के कमरे में चली गई ।