सूअर / मुकेश मानस

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1


“राम-राम चौहान भाई”

“राम-राम”

चौहान ने बड़े ही अनमने ढंग से पल्ले की नमस्ते का जवाब दिया। दरअसल, वह उससे बचकर निकल जाना चाहता था लेकिन पल्ले ने उसे आते देख लिया था। पल्ले चारपाई से उठने की कोशिश करने लगा मगर उठ नहीं पाया। चारपाई की पाटी पर बैठकर झूमने लगा।

“क्या हाल-चाल है?” चौहान को पूछना ही पड़ा। “ठीक हूँ।” पल्ले ने झूमते हुए जवाब दिया। उसकी लड़खड़ाती जुबान बता गई कि या तो अभी रात की दारू का नशा उतरा नहीं था या उसने सवेरे ही फिर चढ़ा ली थी।

“तुम कैसे कभी ठीक हो सकते हो?”

चौहान ने पल्ले पर एक नज़र फैंकते हुए सोचा और तेज कदमों से आगे बढ़ने लगा।

“क्या बात है आज बहुत जल्दी में हो?”

“कहाँ, देर हो गई है। पता नहीं बस मिलेगी भी या नहीं।”

चौहान ने पीछे मुड़कर देखते हुए पल्ले की बात का जवाब दिया, लेकिन रुका नहीं। वह गली से बाहर आ गया।

बड़ी गली में देशी और विदेशी कारों की एक लम्बी कतार थी। हर तरह के माडल की कारें यहाँ देखने को मिल जाती हैं। यहाँ के बहुत सारे नौजवान आस-पास की पाश कालोनियों में कारें चलाते हैं। सुबह-सुबह गाड़ियों को धो-पोंछकर अपने मालिकों के यहाँ ले जाते हैं। दिन भर उनके इशारों पर गाड़ियाँ चलाते हैं। इन कार ड्राईवरों की भी अलग-अलग श्रेणियाँ हैं। जो जितनी बड़ी गाड़ी चलाता है उसका उतना ही सम्मान होता है। शाम को रात को वे गाड़ियों में अपनी बीबी और बच्चों को बिठाकर घुमाते हैं। बाजार ले जाते हैं। गाड़ियों की वजह से दुकानदार उनका सम्मान करते हैं। सज-धज कर वे जब गाड़ियों में बैठते हैं तो उन्हें ऐसा महसूस होता है मानो वे ही उनके मालिक हों। गाड़ियों की वजह से सिर्फ़ उनमें ही नहीं उनके बीबी और बच्चों में भी एक खास किस्म का दंभ देखने को मिलता है। चौहान गाड़ियों को धोते नौजवानों को देखते हुए आगे बढ़ने लगा।

पल्ले बिना अपनी बीबी और और बच्चों की परवाह किये सुबह-शाम पीता है और दिन-रात अपनी चारपाई पर पड़ा रहता है। उसकी चारपाई के करीब से गुज़रने वाले नाक-भौं सिकोड़कर निकलते हैं। उसके पास से गुज़रने पर एक असहनीय दुर्गन्ध का अहसास होता है।

“पल्ले तुम इतना क्यों पीते हो? अपने बीबी-बच्चों का तो ख्याल करो।” चौहान ने उससे एक बार पूछा था।

“पीऊँ न तो जिऊँ कैसे? रही बात बीबी-बच्चों की, तो भइया न बीबी मेरी है, न बच्चे मेरे।” चौहान अपना-सा मुंह लेकर रह गया।

पल्ले नगर निगम में सफाई कर्मचारी है। पर अजीब बात थी कि चौहान ने उसे कभी काम पर जाते हुए नहीं देखा है। हर दिन पल्ले या तो सोता हुआ मिलता है या चारपाई पर बैठा झूमता हुआ। एक दिन पूछने पर उसी ने बताया था कि उसकी सफाई-दरोगा से सांठ-गांठ है। वही क्या भतेरे सफाई कर्मचारी यही करते हैं, औरतें खास तौर से। दरोगा उनकी हाज़री अपने रजिस्टर में दर्ज़ करता रहता है। बदले में उनकी आधी तनख्वाह उसकी जेबों में जाती है। खाली समय में यहाँ की औरतें इधर-उधर की कोठियों में झाड़ू-पोचे का काम करती हैं और दुगनी कमाई करती हैं। कोठियों में और अपने घरों में खटती हुई वे जल्दी ही बूढ़ी दिखने लगती हैं। इनमें से कुछ का ही अपनी कमाई पर अधिकार रहता है। बाकियों की कमाई उनके घरवाले की जेब में जाती है।

पल्ले की बीबी भी कुछ कोठियों में काम करने जाती है और दिन ढले हाड़-गोड़ घिसाकर घर लौटती है। लौटते ही फिर घर के काम में जुट जाती है। “नमस्ते भाई साब।” चौहान के आगे-आगे पल्ले की बीबी जा रही थी। उसने बिना उसकी तरफ देखे पूछा - “काम पर जा रही हो?” “कहाँ भाई साब।” पल्ले की बीबी सीधी चली गई। चौहान बांई तरफ मुड़कर सिनेमा हाल की तरफ जाने लगा। गली और सड़क के बीच एक चौड़ा नाला पड़ता है। बरसात के दिनों में उफपर तक भर जाता है और शेष दिनों में कूड़े-करकट का दलदल। दिन हो या रात लोग बेझिझक अपने घर के कचरे को प्लास्टिक की थैलियों में बांध्कर इसमें पैंफक जाते हैं। चौहान ने नाला पार करते हुए देखा कि पल्ले का नौ बरस का बड़ा लड़का नाले के दलदल में हाथ भीतर गाड़े कुछ ढूंढ रहा है। चौहान एक पल को रुका।

“अरे, तू क्या कर रहा है वहाँ?”

“अंकल जी, लट्टू ढूंढ़ रहा है। इसका लट्टू नाले में गिर गया है।”

नाले की दीवार पर खड़े एक लड़के ने जवाब दिया। अब तक पल्ले का लड़का उसकी तरफ एकटक देखने लगा।

“तुम स्कूल नहीं गये आज?”

“गये थे। मास्टर जी ने खूब पिटाई लगाई और भगा दिया।” उसी लड़के ने फिर जवाब दिया।

चौहान आगे बढ़कर सड़क पार करने लगा। तभी उसके आगे से ‘मेरी क्वीन पब्लिक स्कूल’ की पीले रंग की बड़ी बस गुजरी। झकाझक सफेद कमीजें पहने, नीली टाई लटकाए, भूरे गोल चेहरे वाले बच्चे बस की खिड़कियों से बाहर झांक रहे थे।

2

यह दिल्ली की एक पुनर्वास बस्ती है जहाँ चौहान और पल्ले दोनों एक ही गली में रहते हैं। इमरजेंसी के ज़माने में दिल्ली के विभिन्न इलाकों में बसी झुग्गी बस्तियों को तोड़कर लोगों को बड़ी तादात में तीन-चार पुनर्वास बस्तियों में बसाया गया था। पच्चीस-पच्चीस गज़ के प्लाट दिये थे सरकार ने। आज यहाँ मकान दुमंजिले-तिमंजिले हो गये हैं। हर मकान एक दूसरे से सटे हुए तीन तरफ से बंद है। हवा के लिए केवल आगे का दरवाजा। किसी-किसी मकान में वो भी बंद। बाहर की ताजी हवा यहाँ बहुत ही कम या ना के बराबर घरों के भीतर प्रवेश कर पाती है। पुनर्वास बस्ती के ये मकान, मकान कम दड़बे ज्यादा लगते हैं। सूअरों के दड़बे जैसे। मार तमाम लोग भरे पड़े हैं इन मकानों में। शाम को जब बिजली गुल होती है तो लोग गलियों में पसर जाते हैं। उस वक्त ऐसा लगता है मानों सैकड़ों-हजारों कीड़े यहाँ की गली रूपी नालियों में चिलबिल कर रहे हों। सिनेमा हाल से सटी दीवार के पास बस का अड्डा है, जहाँ बसें आकर रुकती हैं। यहाँ से एक बस सफ़दरजंग अस्पताल से होकर गुजरती है। उस बस में सबसे ज्यादा भीड़ होती है। चौहान वहीं रुककर बस का इंतजार करने लगा। सिनेमा हाल के पीछे एक बड़ा-सा खाली मैदान है। रात में लोग-लुगाई डिब्बा उठाये यहाँ पाखाना करने आते हैं और दिन-भर यहाँ सूअर लोटते रहते हैं। इस बस्ती में एक संस्था स्वास्थ्य का काम करती है। यह संस्था यहाँ के लोगों को घरों में पाखाना बनाने के लिए बिना ब्याज का ॠण देती है। पर उसका पाँच साल का रिकार्ड ये है कि वो अभी तक केवल 52 लोगों को ही ॠण दे पाई है।

कुछ सालों पहले इस मैदान में डा0 अम्बेडकर की एक मूर्ति लगनी थी। नगर निगम वालों ने मूर्ति की स्थापना के लिए इस मैदान में एक चौंतरा बना दिया था। चौंतरा धीरे-धीरे टूट गया और उसके चारों ओर झाड़-झंकाड़ उग आये मगर अम्बेडकर की मूर्ति की स्थापना न हो सकी। अम्बेडकर की मूर्ति लगाने के लिए मुख्तलिफ़ पार्टियों और उसके नेताओं में होड़ लग गई थी। कई बार तो सिर भी फूटे। सभी पार्टियों के नेता दलित वर्ग के होने के बावजूद अम्बेडकर की मूर्ति नहीं लग पाई।

उस विशाल मैदान में गिनती के कुल तीन पेड़ हैं। आजकल गर्मी के दिन हैं। धूप कुछ ज्यादा ही पड़ती है। सो, सूअर उन्हीं के नीचे एक दूसरे ऊपर और अगल-बगल में पड़े रहते हैं। सूअर आपस में खूब लड़ते हैं। अपनी लंबी थूथनी से एक-दूसरे पर चिंचिया-चिंचियाकर हमला करते हैं। लड़ते-लड़ते जब वे थक जाते हैं तो मृतप्राय से होकर पेड़ों के नीचे जमी कीचड़ में थूथन गाड़कर पड़ जाते हैं।

“ये सूअर आपस में इतना लड़ते क्यों हैं?”

जब तक बस नहीं आती तब तक चौहान अपना समय इन्हीं सूअरों को देखने में गुज़ारता है। जब उससे रहा नहीं गया तो उसने दीवार से सटे कीकर के एक पेड़ के नीचे एक पत्थर पर बैठे बीड़ी फांक रहे एक दुबले-पतले आदमी से पूछा। वो शायद सुअरों के किसी झुंड का मालिक था और बीड़ी पफांकते हुए किसी ग्राहक का इंतजार कर रहा था।

“सूअर हैं साले।”

उसके जवाब ने चौहान को जैसे चौंका दिया था। इससे पहले कि चौहान उससे कुछ और पूछता, वह उन सूअरों को घुरघुराने भाग गया जो आपस में लड़ते हुए खूब चिंचिया रहे थे। इतने में एक मरियल-सी सूअरी उधर से गुज़री। उसके पीछे दस-बारह छोटे-छोटे बच्चों की लम्बी कतार थी। वो सूअरी के अलग-बगल और आगे पीछे चल रहे थे। दो-तीन बच्चे उसके लटकते थनों में मुंह मारने की कोशिश करने लगे। सूअरी चलते-चलते रुक गये। बच्चे जल्दी-जल्दी उसके थन खींचते हुए आपस में लड़ने लगे। अचानक सूअरी घुरघुराकर आगे बढ़ गई। उसके साथ बच्चों का रेवड़ भी आगे बढ़ गया।

“एक बार में एक सूअरी कितने बच्चे देती है?”

सूअरों का मालिक लौट आया था।

“सूअरी की नसल का हिसाब होता है। जैसी अच्छी नसल जा सुअरिया की होती वो उत्ते ही बच्चे जनेगी।” “कितनी बार?” चौहान के प्रश्न ने उसे तनिक परेशान सा किया। चौहान को खुद पर बड़ी हैरानी हो रही थी कि इतने सालों से वो यहाँ रहता है और सूअरों के बारे में उसे ऐसी छोटी बातों की भी कोई जानकारी नहीं है।

“कितनी बार का? सूअरी साली पाली ही जाती है बच्चे जनने के लिए।”

अब की दफ़े चौहान के परेशान होने की बारी थी। मगर सूअरों के किसी रेवड़ के उस मालिक की पेशानी पर एक लकीर तक न थी। वह पहले से ही परेशान था अब तक कोई ग्राहक जो नहीं आया था।

तभी बस आ गई। चौहान दौड़कर बस में चढ़ गया। दिन भर उसके दिमाग में सूअरवाले की बातें भिनभिनाती रहीं।

3

नाली के पास एक छोटा-सा पार्क है। पार्क कहाँ, पार्क के नाम पर सिर्फ़ लोहे के जंगलों की चारदीवारी। पार्क के सामने मकानों की कतारें हैं। पार्क की दीवारों के साथ-साथ कुछ लोगों ने पक्की झुग्गियाँ डाल रखीं थी। सबके पास 22 गज वाले तिमंजिला मकान थे फिर भी। दिन में नगर निगम के बुलडोज़र ने सारे मकान गिरा दिये थे।

शाम को चौहान लौटा तो यह देखकर पहले उसे बेचैंनी हुई। फिर उसका थूकने का मन हो गया। बच्चे ईंटे ढोकर एक तरफ जंचा रहे थे। औरतें सामान इकट्ठा करके सड़क पर ही खाना बनाने की तैयारियों में जुटी थीं। आदमी लोग नंग-धड़ंग हो चारपाईयों पर बैठे बीड़ियाँ फूँक रहे थे। आदमियों के लिए शायद ये कोई बेचैनी या बेइज़्ज़ती का सबब न था। मगर औरतें... बच्चे!! इतने बच्चे क्यों पैदा करते हैं ये लोग कि एक घर में भी ना समायें? उसके दिमाग में यह सवाल सिर उठाने लगा।

वह गली में घुसा तो उसने देखा कि दो लोग आपस में लड़ रहे थे। खूब मां-बहन की हो रही थी। लोगों का एक झुड खड़ा था उनके आस-पास, मगर एकदम निर्जीव सा। दोनों में हाथापाई होने लगी। एक ने अपने घर के दरवाजे की पीछे रखीं ईंटों में से एक ईंट उठाई और दूसरे के सिर पर दे मारी। दूसरों के सिर से झर-झर खून बहने लगा।

“साले भंगी के। अपनी औकात में रह। बहन चो... तेरी मां की, साले असल चमार का हूँ, चूहड़े का नहीं...।”

चौहान विस्मित सा सुनता रह गया। चमार हो या चूहड़े, हैं तो दलित ही, फिर भी...?? बाकी लोग वहाँ आराम से खड़े इस झगड़े को ऐसे देख रहे थे मानो कोई फिल्म चल रही हो। रात को चौहान सोने की तैयारी कर रहा था कि सामने वाले घर से औरत के चीखने चिल्लाने की आवाज आने लगी।

“ये सामने वाली एक हफ़्ता हो गया, कापर-टी लगवा कर आई है। छह बच्चे हैं इसके... फिर भी आदमी है कि... कल तुम्हारे जाने के बाद मार रहा था।... मैंने पूछा था। कह रही थी कि कहता है कि कापर-टी निकाल मजा नहीं आता।” चौहान की पत्नी ने उसे बताया।

चौहान के माथे पर गुस्सा उभर कर बाहर आने को आतुर होने लगा। वह उठा और रेलिंग से नीचे झांकने लगा। तब तक सामने वाला अपनी बीबी को घसीटकर बाहर गली में ले आया था और लात-घूसों से उसकी मरम्मत कर रहा था।

“तेरी मां की... साली कुतिया। मुझे सिखायेगी। बता किस-किसके संग मुंह काला करेगी साली?”

अगल-बगल के घरों से लोग निकलकर गली में जमा होने लगे। किरायेदार ऊपर से झांकने लगे। मगर कोई कुछ बोला नहीं। पड़ौसियों की बीबियाँ घरों से बाहर नहीं निकलीं। औरत को अधमरा छोड़कर वह घर में घुस गया और दरवाजा बंद कर लिया। अन्दर से बच्चों के चीखने-चिल्लाने की आवाजें आने लगीं। लोग चुपचाप अपने-अपने घरों में लौट गये। थोड़ी देर बाद वहाँ पुलिस आ गई। कहीं भी झगड़ा हो, पुलिसवालों को तुरंत भनक पड़ जाती है। वे बिना समय की देरी किये वहाँ पहुँच जाते हैं। पुलिसवाले उन दोनों को पकड़कर ले जा रहे थे जो गली के मुहाने पर लड़ रहे थे। “अब दोनों के चूतड़ों पर डंडे पड़ेंगें और दोनों से पैसे ऐंठेंगे पुलिसवाले। दिन भर गंदगी में काम करते हैं। इनके दिमागों में भी गंद भरा है। शाम को पीते हैं, झगड़ा करते हैं, सिर तोड़ते-फुड़वाते हैं, फिर पुलिसवालों से तुड़ाई करवाते हैं। सूअर हैं साले।”

ऊपर का किरायेदार मेरे पास खड़ा था। वो अपने लोगों की हरकतों पर जाने कब से खुंदक खाये बैठा था।

4

अगले दिन चौहान फिर बस का इंतजार कर रहा था। कीकर के नीचे सूअरों के झुंड उसी तरह पड़े हुए थे। तभी वहाँ वही बीड़ी फांकने वाला दुबला-पतला आदमी आया। उसके साथ दो आदमी और थे। देखने में वो भी सूअरों जैसे लग रहे थे। वे सूअरों की ओर देख-देखकर बतिया रहे थे। फिर उस आदमी ने एक सूअर को उसकी पिछली दोनों टांगों से पकड़कर झुंड से बाहर खींचा। पहले उसके दोनों अगले पैर बांधे उसने, फिर पिछले। सूअर चिंचियाने लगा और छूटने की जी-तोड़ कोशिश करने लगा। कभी टांगों से खड़े होने की कोशिश करता तो कभी थूथनी जमीन में गाड़कर चिंचियाता।

बाकी सूअर कीकर के नीचे कीचड़ में उसी तरह निश्ंिचत से पड़े हुए थे। एकदम मृत से, कहीं कोई हरकत नहीं। सूअरवाले के साथ आये दोनों व्यक्तियों ने सूअर को साईकिल के कैरियर पर बांधा और चले गये। सूअरवाला वहीं खड़े होकर सूअरों को देखते हुए नोट गिनने लगा। उसने अपनी जेब से बीड़ी का बंडल निकाला। बंडल में से एक बीड़ी निकाली और उसे सुलगाकर कुछ सोचने लगा। उसके हाव-भाव से चौहान इस नतीजे पर पहुँचा कि वह आदमी कुछ सोच नहीं रहा है बल्कि मन ही मन हिसाब-किताब लगा रहा है।

“सूअर।”

ये शब्द अचानक चौहान के मुंह से मिचमिचाता हुआ बाहर आया। पिफर अचानक उसके अंदर एक तेज हंसी फूटने लगी। तभी बस आ गई और वह दौड़कर बस में चढ़ गया। 1999