सूखते चिनार / घर / भाग 2 / मधु कांकरिया
एक बेचैनी भरी रात रही। सारी रात अँधेरा, बिस्तर और चादर की सिलवटों में दुबक रहा वह। सारी रात विचित्र-विचित्र स्वप्न पीछा करते रहे उसका।
उसने देखा, उसके सारे बाल झड़ गये हैं। वह गंजा हो गया है। एकदम खल्वाट उजड़ा चमन। उसने देखा कि परिवार के साथ जब लड़की देखने के लिए गया वह तो उसे देखते ही सब हँस पड़े, पीछे से सुना उसने, कोई कह रहा था, क्या लड़का दूजवर है?
ओह! नो! घबराहट में नींद में ही उसने अपनी खोपड़ी पर हाथ फेरा। कैसा सपना! यह पहली बार हुआ कि इस बार घर आकर भी नींद उस पर उतनी मेहरबान नहीं रही। आधी रात में ही उठकर उसने खोपड़ी के पीछेवाले हिस्से पर दर्पण लगाकर देखा, ड्रेसिंग टेबिल के दर्पण ने भी मुँह चिढ़ाया। खोपड़ी के पीछेवाला खल्वाट साफ़ चमक रहा था। गोल-गोल वर्तुलाकर हिस्सा, क़रीब दो इंच रेडियस का। सच ही चिन्ता करती है उसकी माँ। इसीलिए विवाह उसी उम्र में कर दिया जाता है, जब शारीरिक सौन्दर्य पराकाष्ठा पर हो। लेकिन यदि उसके बाल झड़ रहे हैं तो इसमें उसका क्या दोष। आर्मी के डॉक्टर डॉ. विक्रमकुटी ने उससे साफ़ कहा था - क्या बताएँ आज के युवा जीवन से ज़्यादा जीवन स्टाइल को अहमियत देते हैं। इसलिए जीवन के तनाव और तेज़ गति की आधुनिक जीवन शैली के चलते युवा युवावस्था में ही न सिर्फ़ गंजेपन वरन नपुंसकता के भी शिकार हो रहे हैं।
सुबह ही सुबह चौड़ी मुस्कान के साथ शेखर बाबू हाज़िर हुए उसके कमरे में।
“उठो, एयरपोर्ट चलना है।”
“एयरपोर्ट! पर अभी! क्यों? आँखें मलते-मलते झल्लाया सन्दीप।
चेहरे पर जैसे अबीर पुत गया। वे चहके - सिद्धार्थ आ रहा है।
“सिद्धार्थ! यूँ अचानक!”
“न,हीं अचानक नहीं। चार सप्ताह के लिए उसकी फॉरेन पोस्टिंग हुई है जापान में। इसलिए वह कोलकाता होकर जाएगा। पाँच-छह घंटे घर पर ठहरेगा और वापस रात की फ्लाईट से उड़नछू।”
गदगद हो बताने लगे शेखर बाबू। फिर एक मौक़ा लगा था हाथ में, सन्दीप को फ़ौज से विरक्त करने का इसलिए फिर छोड़ी एक हलकी-सी मिसाइल। देखो, इन तीन-चार सालों में ही कितनी तरक्की कर ली है सिद्धार्थ ने।
“हाँ, पापा, इतनी तरक्की तो कर ही ली है आपके लाड़ले ने कि कम्पनी राज की वापसी को पुख्ता करने में भरसक योगदान दे रहा है।”
शेखर बाबू समझ नहीं पाए सन्दीप के व्यंग्य को। व्यस्तता दिखाते हुए फिर ठेला उन्होंने सन्दीप को। अब लटर-लटर मत करो। जाओ, जल्दी से तैयार हो जाओ।
आते-आते सिद्धार्थ का कार्यक्रम थोड़ा बदल गया था। उसका जापान जाना सप्ताह भर के लिए स्थगित हो गया था। और इस बीच उसे इंडिया लीवर की प्रतिद्वन्द्वी कम्पनी रॉकेट एंड गेम्बर ने किसी कोर्ट केस में फँसा दिया था। उसी केस के सिलसिले में उसे कोलकाता आना पड़ा था।
“मामला क्या है? सन्दीप ने हैरान होकर पूछा।”
सिद्धार्थ हँस पड़ा। एक मक्कार हँसी - मामला यह है कि हमने एक विज्ञापन दिया था टीवी पर। नियम के अनुसार आप दूसरों के प्रोडक्ट को अपने प्रोडक्ट के साथ नहीं दिखा सकते हैं। वह शनिवार की शाम थी। टीवी पर हमारे रिम साबुन का नया विज्ञापन आया। हमारे विज्ञापन से पहले टाइप साबुन का विज्ञापन था जिसमें एक स्त्री कह रही है, 'टाइप से धोइए, इसमें सुगन्ध भी है और सफ़ेदी भी। हमने दिखाया कि एक स्त्री के पास टाइप का पैकेट है लेकिन उसका कपड़ा गन्दा है। तभी दूसरी स्त्री आती है और कहती है रिम से धोइए - इसमें न सुगन्ध है, न नरमी है सिर्फ़ सफ़ेदी और इसके तुरन्त बाद रिम से धुला झकझक कपड़ा पर्दे पर लहराता है। अपने विज्ञापन द्वारा हम टाइप साबुन को, जो रॉकेट एंड गेम्बर का साबुन है, नीचा दिखा रहे थे। शनिवार को हमारा नया विज्ञापन निकला। शनिवार बन्द था और सोमवार को होली का त्योहार था। तीन दिनों तक हमने करोड़ों की बिक्री की। मंगलवार को आर एंड जी ने हम पर केस ठोंक दिया जिसकी पूरी सम्भावना थी ही। कल कोर्ट जाकर हम माफ़ी माँग लेंगे लेकिन मुनाफ़ा तो हमने पीट ही लिया।
हँस पड़ा सिद्धार्थ। एक सफल हँसी। कॉपोरेट जगत में आगे बढ़ने के लिए सिर्फ़ प्रतिभा और हुनर ही नहीं, साम, दाम, दंड, भेद, छल-कपट सभी आजमाना पड़ता है। अब सिर्फ़ यह ही ज़रूरी नहीं कि हम मेहनत और प्रतिभा से आगे बढ़ते रहें। अब यह भी ज़रूरी है कि हम ज़रूरत पड़ने पर रेड़ भी मारते रहे जिससे कोई हमसे आगे नहीं बढ़ सके।
- तभी तो तुम्हारे इंडिया लीवर के एशियन हेड के सी.ओ. से जब इंटरव्यू में पूछा गया कि इतनी दौलत, इतनी शोहरत और कामयाबी के बाद भी वह क्या चीज़ है जो आपकी नींद उड़ा देती है तो जानते हो उस बन्दे ने क्या जवाब दिया? उसने जवाब दिया कि आज भी जब मैं किसी दूसरी कम्पनी के प्रोडेक्ट को देखता हूँ तो मेरी नींद उड़ जाती है। तो बच्चू, तुम कॉरपोरेट वाले सह अस्तित्व में नहीं सिर्फ़ अपनी ही सत्ता और अपने ही वर्चस्व में विश्वास करते हो। और इसके लिए आज तुम लोगों ने सारे विश्वास और मूल्य उलटा दिये हैं। लेकिन यही प्रवृत्ति दुनिया का सुख-चैन छीनकर उसे एक कुरुक्षेत्र में बदल देगी क्योंकि सभी क़दम से क़दम मिलाकर आगे बढ़ने में नहीं, वरन एक दूसरे को पछाड़कर गिराकर लहूलुहान कर सबसे आगे पहुँचने की अमानवीय दौड़ में शामिल हो जाएँगे। काश! ज़िन्दगी को हम प्रेम और मनुष्यता के साथ बरतते तो दुनिया उतनी बुरी नहीं होती!
शेखर बाबू को रास नहीं आ रही थी यह बहस। वे सबकुछ सह सकते थे, पर सिद्धार्थ की क़ामयाबी पर कोई उँगली उठाए यह उन्हें नागवार गुज़रता। उन्हें लगता सन्दीप नहीं, सिद्धार्थ ही उनका असली अंश है, जो ज़िन्दगी को आगे बढ़ने को और सबसे बढ़कर पैसे के महत्त्व को समझता है। इसलिए दोनों की गरम होती बहस पर ठंडे पानी के छींटे डालते हुए कहने लगे वे, “नाश्ता लग गया है, चाय ठंडी होकर शरबत हो गयी है और तुम दोनों को बहस से ही फ़ुर्सत नहीं है। चलो, डाइनिंग टेबल पर।”
डाइनिंग टेबल पर फिर प्रसंग छिड़ा शादी का। अब जिस घर में दो-दो शादी की उम्र के युवा लड़के हों, वहाँ उससे ज़्यादा महत्वपूर्ण और प्रिय विषय हो भी क्या सकता है? माँ ने फिर ढेर सारी तस्वीरें बिछा दीं दोनों के आगे, किसी का क्लोजअप तो कोई फुल लेंथ में। प्रायः हर कन्या की दो-दो तस्वीरें, किसी-किसी की तीन-तीन भी भिन्न-भिन्न भंगिमाओं में। सिद्धार्थ ने मज़ाक में सारी तस्वीरें सन्दीप के आगे सरका दीं, “भइया फर्स्ट।”
जाने क्या कुलबुलाया भीतर कि शेखर बाबू फिर बादलों से फट पड़े - ये तस्वीरें सिद्धार्थ के सम्बन्ध के लिए आयी हैं, सन्दीप के लिए नहीं। भई, मैं क्या करूँ, मैंने तो कई जगह कहा भी कि पहले बड़े बेटे की लेकिन साफ़ कह दिया लड़कीवालों ने कि हम फ़ौजी को नहीं दे सकते लड़की।
सन्दीप का चेहरा कातर-कातर हुआ जैसे बात नहीं बात का घूँसा पड़ा हो। पर सिद्धार्थ पर तो जैसे घर की छत ही गिर पड़ी थी। छटपटाता रहा वह कुछ पल। बोलना चाहा तो जैसे गूँगा हो गया हो, सारे शब्द फ्रीज़ हो गये हों।
सन्त जैसे भाई का यह अपमान!
और वह भी उसके चलते। वह कसमसाया।
पर बहुत देर तक जब कोई भी शब्द सामने नहीं आया जिसे वह फेंक पाता परिवार के मुँह पर और बचा पाता भाई को तो झल्ला कर टेबिल पर ज़ोर-ज़ोर से मुक्के मारते चिल्ला पड़ा -बन्द करो शादी की यह बकवास। जबसे घुसा हूँ घर में, शादी, तस्वीर और लड़कियों के अलावा कोई बात ही नहीं। नहीं करनी मुझे शादी-वादी। और बिना चाय-नाश्ते के ही उठ गया वह।
“चलो थोड़ी देर के लिए देशबन्धु पार्क घूम आते हैं।”
सन्दीप ने सिद्धार्थ के बिगड़े मूड को सँवारना चाहा।
“चलो।”
देशबन्धु पार्क वह जगह थी जहाँ दोनों ने जाने कितीन शामें साथ-साथ गुज़ारी थीं। देशबन्धु चित्तरंजन दास के नाम पर बना यह पार्क दोनों को इसलिए भी प्रिय था कि मध्य कोलकाता का यह सर्वाधिक गुंजायमान पार्क था। यहाँ चिड़ियाँ सबसे अधिक बोलती थीं।
दोनों साथ-साथ चलते रहे, पर सन्दीप को लगा, सिद्धार्थ अभी भी गुमसुम है।
लड़ियाते स्वर में पूछा सन्दीप ने, क्या बात है, घर से मुक्ति पाने के लिए तू यहाँ आया पर लगता है, घर अभी भी तेरे साथ ही चल रहा है।
बात बहुत हद तक सही थी। पर सिद्धार्थ के दिमाग़ में घर के साथ-साथ कम्पनी भी घूम रही थी। कल ही उसने सर्वे में पाया था कि उन्हीं का एक प्रोडक्ट 'अक्स' उनके दूसरे प्रोडक्ट 'अक्स सैंडल' को खा रहा है। यानी जो उपभोक्ता पहले अक्स व्यवहार करते थे वे अब नये विज्ञापन से प्रभावित होकर अक्स की जगह अक्स सैंडल का व्यवहार कर रहे हैं। कम्पनी के लिए यह कैनिबेलाइजेशन सुखद स्थिति नहीं थी क्योंकि इससे नया सेल नहीं बढ़ रहा था। सिद्धार्थ ने भाई को इस नये सर्वे की जानकारी से अवगत कराया। सन्दीप ने ध्यान से सुनी उसकी समस्या और मन ही मन पसीज गया। इतना होनहार भाई! पर चिन्ता और सरोकार कैसे टुच्चे? वह मरा जा रहा है इस चिन्ता को लेकर कि कम्पनी का एक प्रोडक्ट दूसरे प्रोडक्ट को खा रहा है, पर क्या उसे एहसास है कि इसी देश के कई भागों में आदमी आदमी को खा रहा है। क्या कभी सोचता है वह उन आदमखोरों के बारे में?
वाह! क्या सोच! कितनी... चिन्ता! हठात उसके मुँह से फिर निकल गया।
“क्या कहा?”
“नहीं, कुछ नहीं।” पर सिद्धार्थ ने सुन लिया था। उसका मन थोड़ा खिला हुआ और घूमने की औपचारिकता भर पूरी कर वह वापस घर लौट आया।
घर में सन्दीप ने इस बार स्वयं को बेगाना सा महसूस किया। उष्ण आत्मीयता से गमकते घर को जाने क्या हो गया था। शेखर बाबू बात-बात पर अपना आपा खो बैठते। सन्दीप की गिनी-चुनी तनख़्वाह, जीवन के ख़तरे, झड़ते बालों और चेहरे की उदासी ने उनके दिमाग़ी सन्तुलन को गड़बड़ा दिया था। जब-तब उसके 'फ़ौजी' को कुतरते रहते। सांसारिक दौड़ में पिछड़ी माँ जब-तब आँसू बहाती रहती। व्यस्तता का मारा सिद्धार्थ चाहकर भी भाई का साथ नहीं निभा पाया। बीस दिन की छुट्टियों में बूँद-बूँद उदासी झड़ती रही। बोरियत जमा होती रही। और एक चमकती सुबह सन्दीप वापस बूशन कैम्प में।
हैरान सन्दीप। इस बीच उसका कमांडिंग अफ़सर बदल गया था। नये कमांडिंग अफ़सर थे कर्नल आर्य। जिसे सूँघा सन्दीप ने और सूँघते ही उसका जायका बिगड़ गया था। उनके शरीर से किसी हिंसक बनैले पशु की गन्ध आ रही थी।
इस बीच श्रीनगर और आसपास के संवेदनरशील इलाक़ों में आतंकवादी गतिविधियाँ और वारदातें एकाएक बढ़ गयी थीं। इस कारण नया सी.ओ. ज़रूरत से ज़्यादा चाक-चौबन्द था। हर वक़्त एक टाँग पर खड़ा रहता और अपने अधीनस्थ स्टॉफ को भी रखता।
एक चमाचम दोपहर कर्नल आर्य ने एकाएक बुलाया सन्दीप को। सन्दीप ने देखा कर्नल का चेहरा उस दिन बदला हुआ था। उन्होंने अपनी आँखों पर बड़ा-सा काला चश्मा पहना हुआ था। सन्दीप ने सोचा शायद कर्नल साहब को आँखों का इन्फेक्शन हुआ होगा... वे पूछने ही वाले थे कि कर्नल ने एक काला चश्मा सन्दीप की ओर बढ़ाया, “लो, इसे पहन लो।”
“पर क्यों? मेरी आँखें स्वस्थ हैं।”
“जिससे कि तुम उस ज़िन्दगी के बारे में नहीं सोचो जो तुम जी रहे हो। क्योंकि तुम भटकते-भटकते संवेदनाओं के जिन इलाक़ों में घुस जाते हो, फिर चाहकर भी नहीं निकल पाते हो, इस चश्मे के बाद ऐसी भटकनों का ख़तरा ख़त्म हो जाएगा। क्योंकि इस चश्मे को पहनने के बाद आपकी संवेदनाएँ और आपकी आत्मा सुन्न हो जाएगी। आप तो जानते ही हैं कि कई बार आतंकी हत्या के पूर्व लोगों के चेहरे पर काला कपड़ा डाल देते हैं, इसलिए नहीं कि वे अपनी पहचान छिपाना चाहते हैं वरन इसलिए कि वे उस इनसान से स्वयं को भावनात्मक रूप से अलग कर लेते हैं।”
“नहीं, मैं इसे नहीं पहनूँगा क्योंकि मैं कहीं नहीं भटकता। मैं तो सिर्फ़ एक सत्य - स्वाभाविक मानवीय और सुन्दर जीवन की तलाश में रहता हूँ।”
चश्मे के लेंस के पीछे से कर्नल आर्य ने उसकी आँखों में झाँका। सन्दीप की पीठ में कम्पन हुआ। तल्ख़ शब्दों में फिर जवाब दिया कर्नल ने, “सुन्दर, सत्य और मानवीय? मेरे जांबाज फ़ौजी, सत्ता को इन्हीं शब्दों से सबसे अधिक ख़तरा है। और हम सत्ता के हाथों की कठपुतली हैं। इसीलिए हमें आदेश मिला है इन चश्मों को पहनने का। हाँ, इससे सबसे ज़्यादा फ़ायदा तुम्हारे जैसे फ़ौजियों को ही होगा जो हमेशा पश्चात्ताप और ग्लानि की टोकरी सिर पर लादे रहते हैं। नहीं, मेरे हीरो, इसमें अटपटा लगने का कुछ भी नहीं है। तुम्हारी तो राँची पोस्टिंग हो चुकी है। तुमने आदिवासी जीवन को क़रीब से भी देखा है। तब तो तुम ख़ूब जानते होगे कि कुछ आदिम जनजातियाँ यह मानती हैं कि आत्मा शरीर से बाहर रखी जा सकती है। इसलिए उनके वीर जब युद्धभूमि पर जाते हैं तो अपनी आत्मा को अपने घर में सुरक्षित रख कर जाते हैं। अब यह तो हरेक के लिए सम्भव नहीं, इसलिए ये चश्मे ईजाद किये गये हैं। इनको पहनते ही आपकी आत्मा, आपका अन्तःकरण आपके शरीर से कूच कर जाएगा और चश्मा उतारते ही आपको आपकी आत्मा वापस मिल जाएगी।
“लेकिन अकस्मात इन चश्मों की ज़रूरत क्यों आ पड़ी?”
“क्योंकि अगले तीन महीने मैं तुम्हें ऐसे ऐसे ऑपरेशन पर भेजूँगा जहाँ बिना यह चश्मा पहने तुम ऑपरेशन को सफल कर ही नहीं पाओगे। इस चश्मे का काला जादू यह है कि इसको पहनते ही तुम एक प्रकार के हाड़-मांस के रोबोट बन जाओेगे। देखो, आज के ज़माने में जिसने ये चश्मा पहना, वही सफल हो पाया। सारे नेता, मन्त्री, कॉपरपोरेट और बिजनेस टाइकून पहनते हैं यही चश्मा।”
निर्णायक और दृढ़ स्वर में कहा सन्दीप ने, “सर, मैं किसी भी ऐसी हिंसा के पक्ष में नहीं हूँ जो अन्तिम रूप से बचे हमारे मानवीय बोध को ही निगल ले।” उसे असहज देख उसके कन्धे थपाए कर्नल ने और भावदार शब्दों में फिर समझाया उसे। आख़िरी बार। “देखो, मैं नहीं चाहता कि तुम पर किसी भी प्रकार की अनुशासनात्मक कार्यवाही हो। फिर कहता हूँ बहस मत करो। धारा के विरुद्ध मत तैरो। हमारा सिर्फ़ एक ही धर्म है, आदेश का पालन करना, उसके औचित्य पर सोचना नहीं। हम कर ही क्या सकते हैं। जो कर सकती है वह सरकार है। पर सरकार को भरोसा ताक़त पर है और ताक़त को बन्दूक़ पर। इनसान किसी का भी कन्सर्न नहीं। इसलिए व्यक्ति मन और व्यक्ति स्वातंत्र्य के लिए यहाँ फ़ौज में कोई स्पेस नहीं है।
खिन्न सन्दीप लौट आया अपने कैम्प में। अपने क्रोध, आक्रोश, हताशा और अवसाद को ठिकाने लगाने के लिए जाने कब तक दीवारों पर मुक्के मारता रहा, तकियों को पीटता रहा, कॉटेज के बाहर लगे गमलों पर भी लात चलायी, पर आक्रोश था कि थमने का नाम नहीं। शायद ऐसी ही चरम असहायता में लोग करते होंगे ख़ुदकुशी, उसने सोचा। पर मैं सामना करूँगा परिस्थितियों का। उसने स्वयं को मजबूत करने की चेष्टा की।
रात उसने खाना भी नहीं खाया और बहुत दिनों बाद भीतर के जमा सारे दुख, अवसाद, मजबूरियों और हताशाओं को काग़ज़ पर फैला दिया। पहली चिट्ठी लिखी अपने परम प्रिय भाई सिद्धार्थ को -
प्रिय सिद्धार्थ,
सरकारी आदेश है कि मैं अपनी आत्मा को शरीर से अलग कर दूँ, क्योंकि मैं भावुक हूँ, सोचता बहुत हूँ। तुम तो जानते ही हो कि किस प्रकार मैं पविार से विद्रोह कर फ़ौज में आया... क्या इसीलिए कि मैं अपने मनुष्य होने की पहचान, सोच और एहसास से भी वंचित कर दिया जाऊँ?
मैं यह सोच कर काँप जाता हूँ कि आनेवाले समय में फ़ौज जाने क्या-क्या अमानवीय कार्य मुझसे करवाएगी? आनेवाला समय बहुत भारी पड़ने वाला है मुझ पर शायद इसीलिए अब मेरी संवेदनाओं को अफीम खिलाकर सुला दिया जाएगा और मेरी रूहानी ज़िन्दगी को ख़त्म कर दिया जाएगा।
देखते-देखते दुनिया कितनी कुरूप होती जा रही है और हम कुछ नहीं कर पा रहे हैं। पिछले महीने एक अँग्रेजी फ़िल्म देखी थी, जिसने मुझे विचलित कर दिया था, पर विचलित होते हुए भी मैं निश्चित था कि यह सिर्फ़ कहानी है, हक़ीक़त नहीं। लेकिन आज सोचने पर विवश हूँ कि कहानियाँ कितनी जल्दी हक़ीक़त बन जाती है। उस अँग्रेजी फ़िल्म में एक कॉरपोरेट कम्पनी एक इंजीनियर से एक अनुबन्ध साइन करवाती है। इस अनुबन्ध के अनुसार, इंजीनियर कॉरपोरेट कम्पनी के लिए एक ऐसी मशीन ईजाद करेगा जिससे कम्पनी को बेइन्तहा मुनाफ़ा होगा। इसके बदले कम्पनी इंजीनियर को मुँहमाँगी क़ीमत भी देने को तैयार । पर कम्पनी एक शर्त रखती है इंजीनियर के सामने। और वह शर्त यह है कि मशीन तैयार हो जाने के बाद कम्पनी इंजीनियर के दिमाग़ का ऑपरेशन करवाएगी और उस ऑपरेशन में कम्पनी इंजीनियर के दिमाग़ से उन तीन महीने का मेमोरी चिप बाहर निकाल लेगी जिन तीन महीनों में वह मशीन बनाएगा जिससे कि वह इंजीनियर किसी और कम्पनी के लिए वैसी मशीन नहीं बना सके। इंजीनियर कुछ पलों के लिए सोचता है कि अनुबन्ध पर साइन करे न करे, पर आँखों के सामने छा जाता है नौ अंकों की राशि का भारी-भरकम चेक़। इतना बड़ा फ़ायदा! इंजीनियर अनुबन्घ पर हस्ताक्षर कर देता है। तो यही है आज का युग सत्य। सत्ता अपना फ़ायदा देखती है, कम्पनियाँ अपना। आम इनसानों के लिए कोई नहीं सोचता। मैं जिस मकड़जाल में फँस गया हूँ, इस जन्म में तो शायद ही इससे छूट पाऊँ। मैं अभी फ़ौज के अनुबन्ध से बँधा हूँ। बीस वर्षों के सेवाकाल के पूर्व फ़ौज से मुक्ति नहीं पा सकता और यहाँ रहता हूँ तो सम्भव है आनेवाले समय में मुझे बेइमानी करनी पड़े अपनी संवेदनाओं एवं अपनी इनसानियत से भी।
चिट्ठी लिखते-लिखते अचानक उन्हें लगा कि भीतर जो उफ़नता आवेग और आवेश था, वह ठहर गया है। लहरें थोड़ी सम पर आयी हैं। थोड़ी देर के लिए ही सही अपने डार्करूम से निकले सन्दीप। पत्र को अधूरा ही ई-मेल किया और दोपहर घटी घटना की सम्भावना पर विचार करते -करते सो गये।