सूखते चिनार / युद्ध और बुद्ध / भाग 2 / मधु कांकरिया

Gadya Kosh से
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फिर पूरी रात घेरा डाले बैठे रहे वे। एच.एच.टी.आई. से उसके घर में निगाहें गड़ाए रहे। वे चाहते थे कि कोलेटरल डैमेज कम से कम हो, यानी सिर्फ़ ज़मील ही आर्मी की गोली का निशाना बने, एक भी सिविलियन उनकी चपेट में न आये और जहाँ तक सम्भव हो उसके घर को न ढहाया जाए। पिछले एक ऑपरेशन में उन्होंने थोड़ी-सी जल्दबाज़ी कर डाली थी। उन्होंने आसपास के घरों को तो ख़ाली करवा डाला था, पर जिस घर में छुपा था मिलिटेंट उसे रॉकेट लांचर से आर्मी ने ढहा दिया था। बाद में मानवाधिकार आयोग ने उन पर केस ठोक दिया था कि जब वे उस घर को ढहाने से बचा सकते थे तो उसे बचाया क्यों नहीं गया?

इस बार कोई जल्दबाज़ी नहीं करना चाहते थे वे।

धैर्य और ठंडे दिमाग़ से काम लिया गया।

दूसरे दिन भी डेरा डाले बैठे रहे वे।

निगाहें जड़ी रहीं घर पर।

दूसरी रात भी बीती।

तीसरे दिन दोपहरी को उनकी आशा के अनुरूप ही ज़मील ने भूल की। मर्द कंलदर की तरह ख़तरे को सूँघने के लिए क्षण भर के लिए बाहर निकला वह। आर्मी ने पहला फायर किया।

तुरन्त भीतर दुबक गया वह।

फिर शुरू हुआ, 'डुएल कांटेक्ट' यानी अब वह और आर्मी आमने-सामने थे। ज़मील को मालूम पड़ गया था कि घेरा जा चुका है वह।

अब मौत का इन्तज़ाम बड़े शान्त और व्यवस्थित ढंग से हुआ। लाउडस्पीकर पर घोषणा हुई और आसपास के घरों को खाली करवा लिया गया। एक-एक कर गाँव के लोगों की शिनाख़्त करवा कर उन्हें घेरे से बाहर किया गया। ज़मील की तस्वीर मेज़र के पास थी। काला नकाब ओढ़े मुखबिर भी साथ में था। इस कारण इसकी सम्भावना न्यूनतम थी कि वह अपने हथियार कहीं और छिपाकर लोगों के साथ बाहर निकल भागे।

अब आसपास सबकुछ ख़ाली था।

स्वप्नविहीन था।

तिकुने झोपड़ीनुमा घर में अकेला ज़मील था और उससे महज 200 मी. की दूरी पर मेज़र सन्दीप और उसकी टीम तैनात थी।

वह घर में दुबका रहा।

वे बाहर डटे रहे।

वह अकेला था।

वे पूरी यूनिट के साथ थे।

फिर गुज़री एक रात!

सफ़ेद रात!

और पूरे चौदह घंटे और चौबीस मिनट के बाद वह फिर बाहर झाँका। वह सँभला-सँभला कि घात में बैठे जवानों ने फायर किया। गोली माथे पर लगी और देखते-देखते छलाँग मारता समुद्र ज़मीन पर लोट गया।

कुलदीपक बुझ गया।

एक दुस्साहसिक जीवन का दुखद असामयिक अवसान!

मेज़र की यूनिट सन्तुष्ट थी कि बिना 'कोलेटरल डैमेज' के वे अपने मिशन में क़ामयाब हुए।

बड़ी शराफ़त और शिष्टता के साथ आर्मी ने ज़मील की मृत देह को नौ फुट लम्बे लोहे की हुक लगी छड़ी से खींचा। कई बार मिलिटेंट की मृत देह में भी ग्रेनाइड छिपा मिलता है और जैसे ही फ़ौजी मृत देह की तलाशी शुरू करता है, मृत देह जवान को उड़ा देती है। ज़िन्दगी ख़त्म हो जाती है पर मिलिट्री और मिलिटेंट की नफ़रत ज़िन्दा रहती है।

बासी चावल से सफ़ेद उसके चेहरे पर जगह-जगह ताज़ा ख़ून की धारियाँ पड़ी हुई थी। कार्यक्रम सम्पन्न हो चुकने पर बड़ी शराफ़त और नफ़ासत के साथ उसके शव को चादर में लपेट कर पुलिस के हवाले किया गया जिसे बाद में क़ानूनी खाना-पूर्ति कर पुलिस द्वारा उसके परिवार को सौंप दिया गया।

'सोचते हो कि ये नहीं होगा, आस्माँ एक दिन ज़मीं होगा आँख देखेगी, पर न देखेगी, दिल के होगा, मगर नहीं होगा कोई मरने से मर नहीं जाता, देखना वो यहीं कहीं होगा।'

- इजलाह मज़ीद

ठिठुरती ठंड में भी न फिरन, न कम्बल न कांगडी बस अपनी उदासियों को ही ओढ़ा रहा मेज़र। इन उदासियों की तपिश ही काफ़ी है उसे गर्म रखने के लिए।

पर जब उदासी का यह बोझ भी असह्य हो गया तो आन्तरिक दबाब के चलते फिर खुली डायरी। टप-टप गिरने लगे शब्द... रिसते घाव से टप-टप गिरते ख़ून की तरह, “जाने किस काली रात में रचा था ईश्वर ने धरती के इस टुकड़े को कि जितना ख़ून बह रहा है उतनी ही ख़ूनी प्यास बढ़ती जा रही है इसकी।”

उफ़! पहले गुंड गाँव की पोस्टिंग और अब यह ज़मील ऑपरेशन!

ज़िन्दगी ज़िन्दगी से दूर।

बस ख़ाली बुर्का। न आत्मा का एहसास। न मन की शान्ति। इस पर विडम्बना यह कि ज़मील को ढेर कर मुझे अपनी यूनिट का हीरो बना दिया है। शायद मैंने भारत के भविष्य को सुरक्षित करने की दिशा में एक क़दम बढ़ाया है। आज मेरे सभी वरिष्ठ अधिकारी एवं कुलिग बधाइयों से नवाज रहे हैं मुझे, पर मैं सोच रहा हूँ कि समय के इस कालखंड के बाद मैं नेपथ्य में चला जाऊँगा पर बची रह जायेंगीं एक बेबस माँ की सिसकियाँ और मेरे मन में बढ़ती अशान्ति। दिन तो मेरा भागदौड़ और आपाधापी में किसी प्रकार निकल जाता है पर गहराती रात के सन्नाटे में उदासियाँ मुझे दबोच लेती हैं और मेरा मन एक अशान्त समुद्र बन जाता है। जहाँ रह-रहकर मेरी मानसिक शान्ति और सुकून को लीलने वाली सुनामियाँ उठती हैं और मुझे अतीत और स्मृतियों के घाट पर ला पटकती हैं। मुझे याद आता है कि जब मैंने पहली बार कश्मीर की सरहद में पाँव रखा था तो धरती का यह टुकड़ा मुझे इतना सुन्दर, कोमल और स्वप्निल लगा था कि मेरी सारी इन्द्रियाँ सौन्दर्य से भर गयी थीं। मुझे लगा था जैसे कि यही वह जगह है जहाँ रहकर मैं सजा सकता हूँ अपनी ज़िन्दगी को। पर ढाई साल में ही इस शहर ने मुझे हत्यारा बना मेरी अन्तरात्मा मुझसे छीन मुझे कंगाल बना डाला है। अब मेरी इन्द्रियों में सौन्दर्य नहीं ,वरन कुरूपता भर गयी है। मेरी श्रवेन्द्रियाँ अब पत्तों और हवा की सरसराहट, बादलों की गड़गड़ाहट और मेरे अन्तरात्मा की आवाज़ नहीं सुनतीं, वे सुनती हैं गोलियों की, गलियों की, चीख़ों की, बमों की, विस्फोटों की, दिलों के टूटने की, भरोसों के मरने की और माँओं की कोख उजड़ने की आवाज़ें। मेरी आँखें अब पहाड़ियों, पानियों, कश्मीर के गुलाबों, सुन्दरियों और दुधिया बादलों के सौन्दर्य को नहीं देख पाती क्योंकि उन आँखों में रह रह कर कुछ और ही दृश्य कौंधते हैं - बलगम थूकना और छाती मसलता ज़मील का अब्बा, ख़ून से सना ज़मील का चेहरा, मरी छिपकली की तरह डर से बाहर निकली ज़मील की माँ की आँखें, हमें देख पैंट में ही पेशाब करता हमीद और घरों के पीछे बनी क़ब्रें।

मेरी घ्राणेन्द्रियों को अब गुलाबों और केसर के सुगन्ध की नहीं, वरन गन्धक, बारूद और जलते हुए इनसानी मांस के गन्ध की आदत पड़ गयी है। जो शहर कभी मुझे लुभाता था, स्वप्न जगाता था, वही शहर अब मुझे डराने लगा है। मेरी सामान्य मनःस्थिति दिन पर दिन मुझसे छिनती जा रही है। दिन तो फिर भी बीत जाते हैं पर रात होते ही आराम करने की मंशा से जैसे ही मैं अपना काला चश्मा उतार फेंकता हूँ, संवेदनाओं का ज़बरदस्त हमला शुरू हो जाता है मुझ पर। ज़मील की मौत मुझे अपनी उँगलियों के पोर-पोर से छूने लगती हैं। मेरी नींद उचट जाती है। ज़बरदस्ती नींद को रिझाने और सोने की चेष्टा करता है तो दुःस्वप्न पीछा नहीं छोड़ते। एक रात स्वप्न में देखा ज़मील की माँ मुझसे कह रही थी - घर आये और गोद में बैठे मेरे बेटे को मारकर तुमने कैसा पराक्रम किया? बोलो। सच, हमने ज़मील को पराक्रम से नहीं, वरन उस परिवार पर अमानुषिक बर्बरता ढहा कर मारा था। हमारा पराक्रम सिर्फ़ इतना भर था कि हमने एक माँ से उसकी ममता छीन ली थी।

बहरहाल सप्ताह भर बाद ही गुंड गाँव में गश्त लगाते-लगाते मैं फिर उनके घर गया था, शायद यह देखने के लिए कि जीवन उठकर खड़ा हुआ या नहीं या शायद यह जानने के लिए कि उस घर में अब घर कितना बचा हुआ था।

उस दिन भी अकेली थीं वे। मन से, देह से, आत्मा से। आसपास जैसे पछतावा, आत्मग्लानि, हताशा, दुख और बेचैनियाँ बंजारों की तरह भटक रही थीं। मुझे देख शायद उनका चेहरा क्षण भर के लिए तमतमा गया था पर मैंने अपनी आँखें झुका ली थीं। थोड़ी देर बाद मुझे लगा जैसे वे कुछ बुदबुदा रही हैं। मैंने ध्यान से सुना। वे शायद मुझसे ही पूछ रही थी 'वारे छुक?' (कैसे हो? “बस... बस...” कर्नल आर्य ने शायद पहली बार सन्दीप के साथ संवाद करने में अपना आपा खोया। उनकी आँखों का कोण तिरछा हुआ, मूँछ के कोने फड़फड़ाए चेहरा एकाएक कठोर हुआ। कमरे का तापमान अचानक बढ़ा। कर्नल आर्य एकाएक गरजे, “जेंटलमैन, तुमने वह आग उगलता कश्मीर नहीं देखा। वह बारूदी विस्फोट। उड़ते मांस के टुकड़े और बदबू नहीं देखी जो हमने देखी। हमने बहाया है इस धरती पर अपना ख़ून, इतना ख़ून बहाया है तब जाकर यह स्थिति आयी है कि आज कश्मीर में चहल पहल है, सैलानी आ जा रहे हैं, बच्चे स्कूल जा रहे हैं। शाम सात-आठ बजे के बाद भी श्रीनगर इठला रहा है। राष्ट्रीय राइफल्स में मेरी चौथी पोस्टिंग है। आज भी भूल नहीं सकता, पहली पोस्टिंग का वह मंजर। हम जीप में बैठे जा रहे थे, हमारे आगे भी हमारी ही एक जीप थी, मेरा एक साथी भी था उस जीप में, कैप्टन अभिषेक। एकाएक पहलेवाली जीप आग की लपटों में घिर गयी। हरामज़ादों ने ज़मीन पर डायनामाइट की छड़ें बिछा दी थी और तब हमारे पास ROP यानी road opening party जैसी सुविधाएँ भी नहीं थीं (आज आर्मी के कन्वॉय जाने से पहले Rop क्लियरेंस दे दती है कि ज़मीन के अन्दर विस्फोट नहीं है, तभी कन्वॉय आगे बढ़ते हैं) हमारे सारे साथी शहीद हो गये। ख़ैर, वे तो पुरानी बात हुई, पर भूल गये कारगिल में शहीद हुए कैप्टन अनुज को। दरिन्दों ने कितनी नृशंसता से मार डाला था उन्हें। कैसे निकाल डाली थीं उनकी आँखें और कैसे काट डाला था सलाद की तरह उसके अंग-अंग को। याद रखो हमें यहाँ सभ्यता और उच्च कोटि के समाज निर्माण के लिए नहीं, वरन मिलिटेंसी का सफ़ाया करने के लिए भेजा गया है। हम अगर एक मिलिटेंट को भी बख़्श देंगे तो वह हमें न केवल मार गिराएगा वरन भविष्य में भी न जाने कितनी हिंसक वारदातों को अंजाम देगा। इसलिए सोचो मत और सोचना ही है तो यही सोचो कि हमारा काम है राष्ट्र को एक उज्ज्वल भविष्य देना।”

मैं चुप रहा। क्या जवाब देता। मैं देखता रहा सांय-सांय करते खँडहर में खँडहर बनी उस बेचैन आत्मा को। तार -तार हुए उसके बुर्के को।

जाने कहाँ कहाँ के दुख इतिहास से निकलकर मेरे भीतर इकट्ठे होने लगे।

मानव सभ्यता का वह काला पृष्ठ जब सदियों से ग़ुलाम बनी निग्रो माँओं ने स्वयं ही अपने नवजात बच्चों को मार डाला कि उन्हें ग़ुलामी की ज़िन्दगी न जीना पड़े। समय बदला पर मानव नियति, मानव त्रासदी किसी न किसी रूप में आज भी वहीं की वहीं है। विचारों के बहाव में बहता जा रहा था मैं कि मुझे फिर भनभनाहट सुनाई पड़ी। लगा जैसे ज़मील की अम्मी कुछ बुदबुदा रही हैं। वे कुछ कह रही थी शायद मुझसे ही। हाँफते-हाँफते कश्मीरी में वे जो कुछ बोली उसका भाव यही था कि अब तो तुम बहुत अच्छे होगे। कश्मीर भी ख़ुशहाल होगा क्योंकि अब मेरा बेटा ज़मील जो मर गया है। बोलते-बोलते वे फिर बिलखने लगीं। उनका चेहरा काँपने लगा। वे चीख़ने लगीं, “नहीं वह नहीं मरा, मैंने ही मरवा डाला उसे। वह तो अपने घर अपनी अम्मी से मिलने आया था और मैंने...” बोलते-बोलते उन्हें फिर ऐसा भयानक दौरा पड़ा कि बेक़ाबू हो वे अपने ही हाथों से अपना माथा पीटने लगीं। कलेजा फाड़ निकला था उनका क्रन्दन। उन्हें शान्त होने में काफ़ी समय लगा।

मैं अन्दर तक हिल उठा। उनके भीतर से जैसे सदियों का दुख बोल रहा था। याद आया, मैंने ही उनसे कई बार कहा था कि कश्मीर की शान्ति के लिए ज़मील बहुत बड़ा ख़तरा है।

काफ़ी देर तक हताश चुप्पी पसरी रही हमारे बीच। चाहकर भी कुछ बोल नहीं पाया मैं। शब्द घुटते रहे। मरते रहे। अपने समय के यथार्थ से पराजित, खामोशी में लिपटे हम दोनों ही शायद अपने जीने और होने का तर्क ढूँढ़ रहे थे।

एक बात और दर्ज़ करना चाहता हूँ, जिससे कि इस भयावह समय की पटकथा को जब कभी मैं याद करूँ, इसकी सम्पूर्णता में याद करूँ। ज़मील की माँ के साथ-साथ, दिव्या जैसी अनेक महिलाओं की यातनाओं और आँसूओं का भी हिसाब रखूँ।

दिव्या, मेज़र महेश भट्ट की नवविवाहिता। 20 दिन पूर्व जब आयी थी यहाँ तो झेलम-सी इठलाती थी वह। पर आज डरी-सहमी और ज़बरदस्त अवसादग्रस्त थी। मुरझाया चेहरा, सूजी आँखें और फूले पपोटे। उसे तुरन्त अपने माँ-बाप के यहाँ भेजना पड़ा। चौबीस घंटे भी यदि उसे पति के संग रहने मिल जाता तो उसकी यह दशा नहीं होती। पर मेज़र महेश भी क्या करते। नयी शादी, अँगड़ाई लेते स्वप्न और चौबीसों घंटे की ड्यूटी। सी.ओ. हर तीसरे दिन भेज देते किसी न किसी ऑपरेशन पर। घाटी में अचानक आतंकी गतिविधियाँ बढ़ गयी थीं। पत्थरबाज़ियाँ, नारेबाज़ियाँ, घेराव, रास्ता जाम और बम विस्फोट। सरकारी दबाब ऊपर से। वह बार-बार फोन करती मेज़र को... आ जाओ, दस मिनट के लिए आ जाओ, मेरा दम घुटता है यहाँ। सिवाय दीवारों के कोई नहीं जिससे बात कर सकूँ, ऊपर से भयावह ख़बरें। मेज़र सी.ओ. को कहता। सी.ओ. एक नहीं सुनता। एक दिन वह ख़ुद रिस्क लेकर आ गयी मेज़र के कम्पनी ऑफिस तो भी सी.ओ. ने नहीं दिया उसे मिलने, भेज दिया ऑपरेशन पर। आख़िर हताशा के चरम क्षणों में मेज़र ने आर.आर.चीफ़ को फोन किया, मैं शूट कर दूँगा इस बास्टर्ड सी.ओ. को। पागल बना देगा यह हमें। चीफ ने तुरन्त कर्नल आर्य को फोन किया, सँभालो अपने अफ़सर को। परिस्थितियों के मारे कर्नल ने बना दिया बुशन कैम्प को 'नॉन फैमिली स्टेशन' न रहे बाँस, न बजे बाँसुरी। यानी थोड़ी-बहुत आशा की जो किरण थी पतियों से मिलने की वह भी ख़त्म। भविष्य में अब कोई दिव्या नहीं रह पाएगी बूशन कैम्प।

सबसे ख़तरनाक वह दिशा होती है

जिसमें आत्मा का सूरज डूब जाए

और जिसकी मुर्दा धूप का कोई टुकड़ा

आपके ज़िस्म के पूरब में चुभ जाए - पाश

शायद ऐसी ही मनःस्थिति में इन पंक्तियों को लिखा गया होगा, सोच रहे हैं मेज़र सन्दीप। ऑपरेशन पराक्रम सीने में चाकू की तरह धँस गया है। फ़ौजी मित्र सलाह देते हैं कि वे वापस काले चश्मे को पहन ले। (ऑपरेशन पराक्रम के बाद आत्मग्लानि के गहन क्षणों में उतार फेंका था उन्होंने उस सर्वनाशी काले चश्मे को) पर नहीं, सूअर जैसी इस तृप्ति से कहीं भली है यह सुकरात जैसी बेचैनी। रह-रहकर दिमाग़ के क्षितिज पर प्रश्न नहीं, प्रश्नों के गुच्छे उग रहे हैं।

एक सोचने वाले व्यक्ति के लिए जीवन हर जगह एक जैसा है, अब सवाल यह है कि जियूँ या न जियूँ।

जीवन और मनुष्य की खोज में मैं फ़ौज में आया, ऐसा जीवन जहाँ मनुष्य की मुख्यता ही सर्वोपरि हो, पर यहाँ आकर ऐसा क्या हुआ कि मुझे अपनी ही मनुष्यता खो देनी पड़ी।

सवाल यह भी कि जो ज़िम्मेदार हैं इस विनाश के लिए क्या मिल पाएगी उन्हें सज़ा?

कैसे मिलेगी? क्या लोग समझ पाएँगे सियासत के इस खेल को? मस्जिद की इस राजनीति को? कश्मीर की पीड़ा का सौदा कर जो आज फल-फूल रहे हैं क्या कभी सामने आएगा उनका सच? क्या भटके हुए कश्मीरी फियादीन कभी समझ पाएँगे इस सच को? आज अवाम ख़ून बहाने को तैयार है, पर सत्य जानने को नहीं।

सोचो ज़रा सोचो कि कश्यप के नाम पर बना कश्मीर जो सुदीर्घ समय तक भाईचारे, समन्वय और सहअस्तित्व का इतिहास रहा, कहाँ गये उसके उत्तराधिकारी? जहाँ हवाओं में करुणा बहती थी, किसने घुसायी बारूद की गन्ध?

सोचते-सोचते उदासी और आत्मग्लानि में डूबे मेज़र बिस्तर पर ढह जाते हैं, मन के भी दो टुकड़े हो चुके हैं। एक मन कहता, मैंने मनुष्यता का अपमान नहीं किया, न ही एक माँ से उसकी ममता का सौदा किया, मैंने तो सिर्फ़ वही किया जो एक फ़ौजी का धर्म था। पर तभी ख़ामोशी के अनन्त विस्तार से उठती कोई दूसरी आवाज़ रात-दिन पीछा करती उनका - तो अब एक इनसान का भी धर्म तू ही निभा, बन जा ढाल उस ढहते परिवार की। क्या तुम्हें पता है कि ज़मील को अम्मी पर अवसाद के भयंकर दौरे पड़ने लगे हैं, कि धमाकों की आवाज़ सुनते ही उसका पेशाब निकल जाता है, वह काँपने लगती है। गश्त लगाते फ़ौजी हों या घर में दस्तक देते जिहादी, दोनों को देखते ही वह रूबीना और हमीद को जकड़ कर बैठ जाती है। या ख़ुदा! रहम कर!

उसकी आँखों से आँसू नहीं, ख़ून के क़तरे बहने लगते हैं, कि कैसे बचाए इस घिनौनी दुनिया के ख़ूनी पंजों से अपने लाड़लों को कि ज़मील को मरवाकर भी इसके लिए अमन नहीं, तबाही और अन्याय का दूसरा दौर शुरू हो गया है।

क्या तुम्हें पता है कि आतंकवादियों का क़हर भी उस परिवार पर अचानक बढ़ गया है? पहले सेना उस घर में अड्डा जमाए हुए थी अब वह घर गाहे-बगाहे, रात-दिन आतंकवादियों के लिए सुरक्षित अड्डा बन गया है। चूँकि अपने ही लाड]ले को फ़ौज के हवाले कर वह घर अब पुलिस और सेना की गुड बुक में आ गया है, इसलिए इसका फ़ायदा मिलिटेंट उठाने से नहीं चूक रहे हैं और जब-तब आ धमकते हैं, कभी खाने के लिए तो कभी पनाह के लिए। अब यह घर आतंकियों के लिए जन्नत है, सुरक्षित है और निरापद भी कि जिस घर ने आगे बढ़कर अपने लाड़ले को आर्मी के सुपुर्द किया, क्या खाकर वह आतंकियों को पनाह देगी?

तो जुल्म की दोहरी मार झेल रहे, भुखमरी के कगार पर खड़े जर्रा-जर्रा बिखरते इस परिवार के लिए तुम क्या कर रहे हो?

मेज़र सन्दीप का आत्मालाप

- क्या तुम्हें पता है कि तुम्हारा इस क़दर बार-बार रूबीना से घुलना-मिलना तुम्हें भी शक के दायरे में ला सकता है? भारतीय फ़ौज के इतने कुशल मेज़र हो तो क्या, तुम पर भी निगरानी रखी जा सकती है (यदि अभी तक नहीं रखी गयी है तो) यू बिल वी केप्ट ऑन विजीलेंस। तुम्हारे सेल्स वग़ैरह भी टेप किये जाएँगे।

- उसे कुछ बातें समझाना बहुत ज़रूरी था।

- क्या सुनी उसने तुम्हारी बात?

-सुनी, पर फिर भी रूबीना सहानुभूति अपने ही लोगों से रखती है, कहती है कि कश्मीर से हिन्दुस्तान फ़ौज वापस बुलवा लेनी चाहिए।

- क्या तुमने उसे यह समझाने की चेष्टा नहीं की कि 1989 से पहले घाटी में फ़ौज थी ही नहीं। यह तो तब आयी जब जिहादियों ने यहाँ से डोगरों और पंडितों को बेरहमी से मार- मार कर अपने घरों से खदेड़ना शुरू कर दिया। उन्हें जम्मू में शरण लेने को विवश किया। क्या वे कश्मीर की जनता नहीं थे? क्या अपराध था उनका? क्यों राष्ट्रीयता का प्रश्न मजहब का सवाल बन गया? किसने खेली यह गन्दी राजनीति? 1987-89 में कश्मीर में जो ख़ूनी खेल खेला गया, जो छापामार युद्ध हुआ कौन हुआ उसका सबसे बड़ा शिकार?

- मैंने तो यह भी समझाना चाहा कि इस्लाम में मजहब, समाज, राजनीति और क़ानून सब एक है कि इनके यहाँ देश और राष्ट्रीयता की कोई अहमियत नहीं है, कि इनमें सर्वश्रेष्ठ भाव इस्लाम का ही है और बाक़ी सब कुफ्र है। इसीलिए जहाँ-जहाँ इस्लामिक राज्य है वहाँ- वहाँ उदार विचारों की चलती ही नहीं है। इसीलिए आज पाकिस्तान में भी पाकिस्तानी अपने राष्ट्र की जगह इस्लाम के आधार पर तालिबान से सहानुभूति रखते हैं।

- मैंने तो यह भी कहा कि तुम लोग पत्थरबाजी, ख़ून-खराबा, सेना और सुरक्षा बलों पर हमले बन्द कर दो तो हम बुला लेंगे अपनी फ़ौज वापस। आख़िर हम क्यों हर दिन तीन करोड़ रुपये कश्मीर पर खर्च कर रहे हैं?

- लेकिन हुआ क्या, न वह हिली न तुम।

- ऐसा नहीं है, सीधी-सच्ची बातों का प्रभाव चाहे देर से ही पड़े, पर पड़ता ज़रूर है।

- मैंने उसे कई बार समझाना चाहा कि इस्लाम अपने ही सम्मोहन में जीता है। न उसे कला से मतलब है, न खेलकूद, संगीत और नृत्य आदि से। इसीलिए इस्लामिक इतने क्रूर होते हैं क्योंकि कलाएँ जीवन को सुन्दर बनाती हैं और आत्मा को सुन्दर विचारों से भर देती हैं।

- तो क्या जवाब दिया उसने?

- उसके जवाब ने मुझे लाजवाब कर दिया। उसने तमक कर पूछा कि हमारे यहाँ तो कलाओं को खुली छूट है, कलाएँ लोगों में सुन्दर विचार भरती हैं, क्रूरता से दूर रखती हैं, तो फिर क्यों दस हज़ार से अधिक कश्मीरी नौजवान ऐसे हैं जिनका कोई अता-पता नहीं है। यह भी नहीं पता कि वे जीवित हैं या मृत। जो पुलिस कस्टडी से ग़ायब हो चुके हैं।

- तो तुम चुप रहे, इस आंशिक सत्य पर।

- नहीं मैंने उसे कहा कि ऐसा नहीं है, हमारे ऊपर भी मानवाधिकार आयोग की कटार लटकी हुई है। हमारे जवान और अफ़सर यदि थूकते भी हैं तो मानवाधिकार आयोग द्वारा तुरन्त कटघरे में बन्द कर दिये जाते हैं लेकिन तुम्हारी तरफ़ से जो ज़्यादतियाँ होती हैं उस पर कोई कुछ नहीं कहता क्योंकि ज़िम्मेदारी की उम्मीद हमसे ही की जाती है।

- यह भी सोचो कि आज कश्मीर की सारी अर्थव्यवस्था केन्द्र सरकार की सब्सिडी के सहारे चलती है। हमने कश्मीरियों को अपना माना इसीलिए तो कश्मीर पर अरबों रुपये खर्च किये, भारत में किसी राज्य पर सरकार ने इतना खर्च नहीं किया जितना कश्मीर पर खर्च किया। उसे विशेष राज्य का दर्जा दिया। तुम्हारी अर्थव्यवस्था इतनी मजबूत नहीं कि तुम ख़ुद को सँभाल सको। यदि तुम्हें आज़ाद कर भी दें तो तुम्हें पाकिस्तान हड़प लेगा और अब तो कश्मीरी अवाम भी नहीं चाहती है पाक में विलय होना और न अब ऐसे पुराने कट्टरपन्थी ही बचे हैं जो पाकिस्तान छोड़ कश्मीर में बसना चाहे। आज अस्सी प्रतिशत मिलिटेंट विदेशी मिलिटेंट हैं या फिर अफगानिस्तान, चेचन्या, बोस्निया और पाकिस्तान के रास्ते आये भाड़े के मिलिटेंट।

- फिर भी कश्मीर की अवाम को यह अधिकार है कि वह अपना भाग्य स्वयं चुने।

- हाँ है, पर सोचो क्या ज़्यादातर चुनावों में वे अपना नेता स्वयं चुनने को स्वतन्त्र नहीं रहते? क्या उन्हें यह अधिकार नहीं कि वे अपने तरीके से इबादत करें?

- फिर क्या कहा रूबीना ने?

- उसने कहा कि तुम क्यों चाहते हो कि मैं तुम्हारी तरह सोचूँ।

- मैंने कहा कि मैं क़तई नहीं चाहता कि तुम मेरी तरह सोचो, मैं तो सिर्फ़ यह चाहता हूँ कि तुम सत्य जान लो, क्योंकि सत्य सदैव सुन्दर होता है। पर मुश्किल यह है कि अमरनाथ की गुफा के इस शहर में सृष्टि और अमरता के रहस्य को तो जाना जा सकता है, पर कश्मीर, अवाम और आर्मी के सत्य को जानना महामुश्किल है। --

बीत गये पाँच साल!

ख़ुशियों ने मुद्दतों बाद आज फिर मेज़र सन्दीप के घर की सुधी ली है। घर मंगल-गीतों से गूँज उठा है।

'ऊँट चढ़ी घर आवे लाड़ो

सागे नहीं भेजूँगी। '

'केसरिया बालम, आओगी, पधारो म्हारे देश...'

'बाईसारा वीरा म्हाने पिबरियों ले चालो सा...'

शादी का जश्न। मेहँदी। गीत। संगीत। नृत्य। चुहलबाजी।

मेहमानों से अटे पड़े घर में हँसी-ठहाकों का इन्द्रधनुष खिल उठा है। पर शेखर बाबू और उनकी पत्नी के चेहरे की मायूसी नहीं छँट पा रही है। कभी अँधेरा तो कभी उजाला आत्मा के घर में। सीने पर चट्टान रखकर उन्होंने शादी तो रचा दी सिद्धार्थ कि पर जब-जब नज़र पड़ती है सन्दीप के गिरते स्वास्थ्य और बालों के उजड़ते चमन पर, मन चाक-चाक हो जाता है। माँ कलपती है, उफ़! कितनी तेज़ी से जा रहा है जिस्म का हरियालापन, पर वे भी क्या करती, सन्दीप को शादी के लिए मनाते-मनाते सिद्धार्थ भी तीस पार कर चुका था। ढोलकी बज रही है। बधावे गाये जा रहे हैं पर मन है कि उड़ता फिर रहा है बादलों सा।

रस्म-दर-रस्म!