सूखते चिनार / सिद्धार्थ / भाग 2 / मधु कांकरिया
विचारों की झील में गहरे उतर जाते हैं सन्दीप। मन की उदासी उतरती शाम की उदासी के साथ मिलकर और घनीभूत हो जाती है। जाने क्यों उन्हें लगने लगा है आजकल कि हिंसा की इस बाढ़ में वे शव की तरह बह जाएँगे। वे ही नहीं, पूरी मानवता। क्या इसीलिए कश्मीर की नदियाँ नहीं सूख रही? धूप नहीं पड़ रही काली?
जब जब होती है कोई वारदात, कई प्रश्न कीड़े की तरह रेंगने लगते हैं, उनकी देह के पोर -पोर में। विडम्बना यह कि किसी से खुलकर कुछ कह भी नहीं सकते। अपने वरिष्ठ अफ़सर के समक्ष तो बिलकुल भी नहीं, क्योंकि यहाँ सिर्फ़ ऑर्डर चलता है, बहस के लिए कोई गुंजाइश नहीं। हाँ, अपने इकलौते और आत्मीय मित्र मेज़र राठौर जब-तब सँभाल लेते हैं उन्हें। सुन लेते हैं उनकी। समझने की चेष्टा भी करते हैं उनके विचारों को। आज भी मेज़र राठौर ने ही झेला उनको। देख, तेरे साथ दिक़्क़त यह है कि तू सोचता बहुत है, और यहाँ आर्मी में बहुत अधिक सोचना न सिर्फ़ शिष्टाचार वरन अनुशासन के भी ख़िलाफ़ है।
हाँ, सोचा, इसीलिए तो आर्मी में चला आया, वरन पिता का व्यापार ही क्या कम था मेरे लिए उसने फिर सोचा पर प्रत्यक्षतः यही कहा, “हाँ मैं विचारों और मूल्यों को अहमियत देता हूँ, क्योंकि मैं मानता हूँ कि सभ्यता की इस सुदीर्घ यात्रा में इनसान ने जो सबसे बेशक़ीमती इकट्ठा किया है वे विचार और मूल्य ही हैं।
“तो फिर यह जान ले मेरे हीरो कि तेरे जैसे लोग जो बेहतर भारत और उच्चतर सभ्यता की स्थापना के लिए यहाँ घुसे हैं, उनका कोई भविष्य नहीं है। हमें यहाँ इसके लिए भेजा भी नहीं गया है। दूसरों का बोझ हम क्यों उठाएँ? सीधी-सी बात है, हमें यहाँ भेजा गया है मिलिटेंट का सफ़ाया करने के लिए और उसे हमें पूरी ईमानदारी से करना है। कैसे करना है, कपट से या धोखे से, नैतिकता से या अनैतिकता से, धर्म से या अधर्म से, यह सोचना हमारा काम नहीं है। हम कर भी क्या सकते हैं। हम तो सामूहिक भविष्य और नियति से बँधे हुए हैं। पूरे सिस्टम के नट और बोल्ट। आर्मी में सिस्टम महत्त्वपूर्ण है, व्यक्ति नहीं। बस सिस्टम चलता रहे।”
“तो इस जमीर नाम की चिड़िया का क्या करूँ मैं, जो हर वारदात के बाद अपनी नुकीली चोंच से लहूलुहान कर डालती है मुझे।”
दुखी होते हुए पूछा सन्दीप ने।
“देख मेरे भाई, तेरी यह पहली पोस्टिंग है न, इस कारण ज़मीर नाम का लबादा तेरे गुदगुदे शरीर से लटका है अभी तक। साल-डेढ़ साल बाद देखना, ये सब घटनाएँ तेरी ज़िन्दगी की रूटीन बन जाएँगी और तू इनका अभ्यस्त बन जाएगा। एक घटना बताता हूँ... मेरी पिछली पोस्टिंग सीमा के पास की चौकी पर थी। रात के अँधेरे में मैंने कोई आवाज़ सुनी, लगा सीमा पार से कोई घुस रहा है। हमने तीन बार वार्निंग दी। कहा, रुको। वह डर के मारे रुका नहीं। घुप्प अँधेरा। आतंकी समझ हमने उसे गोली मार दी। सुबह देखा, जिसे आतंकी समझ हमने मार डाला था, वह एक चोर था, ग़रीब चोर। उसकी गठरी में तीन-चार किलो चावल था जो उसकी थी पर लदी थी और जिसे वह सीमा पार ले जाकर ज़्यादा पैसों में बेचनेवाला था। मारे डर के वह कुछ नहीं बोला और हमारी बन्दूक बोल उठी। ऐसे ही एक बार हमने एक बच्चे को पकड़ा। ग़नीमत थी कि दिन का समय था - यदि रात का समय होता तो उसकी जान भी जा सकती थी। उस बच्चे के पास से निकला एक करोड़ का चरस, पर उसे पता नहीं था। उसे तो सिर्फ़ मिलने थे 100 रुपये, इस पार से उस पार जाने के। तो बाबू, सच कहूँ उस दिन उस ग़रीब चोर की लाश देख मैं भी रो दिया था। मन किया, भाग खड़ा होऊँ यहाँ से। पर भाग कर भी जाऊँ कहाँ। भगोड़ा घोषित कर दिया जाऊँगा और मान लो, मैं गोली नहीं चलाता और कोई आतंकी घुस आता तो फिर क्या वह हमें छोड़ता? तो मेरे दोस्त, यहाँ हम अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं, व्यक्तित्व की नहीं और एक बात यद रखो, दुनिया भागने से नहीं, बदलती, बदलती है इसका सामना करने से।”
भीगे -भीगे शब्दों में जवाब देते हैं मेज़र सन्दीप मैं क्या करूँ, मैं अपने को यहाँ हर पल मिसफिट पाता हूँ। छोड़ना चाहूँ तो इसकी इजाज़त नहीं और रहना चाहूँ तो जिस पाशविकता की मुझसे उम्मीद की जाती हे, वह मुझमें है ही नहीं। जिस मानसिक पवित्रता और मिशन के साथ मैं यहाँ आया था, उसकी यहाँ कोई क़द्र ही नहीं, कद्र तो दूर की बात उसे कोई समझने तक को तैयार नहीं। और तो और मेरी छटपटाहट तक को खुलकर बोलने का मौक़ा नहीं। हर सीनियर अफ़सर पेपरवेट की तरह मेरी छटपटाहट के पन्ने को परिधि में बाँधने को तैनात है। दम घुटता है मेरा यहाँ।
सन्दीप का दुख भीतर से हिला देता है मेज़र राठौर को। पैर अनायास अतीत के तहख़ाने की ओर चल पड़ते हैं। सच क्या आज वे भी वह रह गये हैं जो फ़ौज ज्वाइन करने के पूर्व थे? भरे-भरे बादलों-सा भारी हो जाता है मन। बरसने को आकुल-व्याकुल। घूम जाती है आँखें पीछे...। मुलायम-मुलायम शब्दों में समझाते हैं सन्दीप को - देखो, तुम्हारे जैसे जाने कितने जवान और अफ़सर हैं फ़ौज में, जिन्होंने उतनी ही पवित्रता और संकल्प के साथ फ़ौज में दाख़िला लिया था और जो अन्तिम साँस तक बहादुरी के साथ, ख़ून के अन्तिम कतरे तक वीरता के साथ अपना काम करते रहे, पर आज देश में कोई उनका नामलेवा तक नहीं। वाक़या 18 नवम्बर 1962 का। उस दिन तापमान शून्य और माइनस पन्द्रह डिग्री के बीच घूम रहा था। मेज़र शैतान सिंह और उनकी तेरहवीं कुमाऊँ पलटन त्रिशूल पहाड़ियों की ओट में सत्त्तरह हज़ार आठ सौ फीट ऊँचे रज्टांगला दर्रे पर डटी हुई थी। ठंडी बर्फ़ीली हवाएँ चाबुक-सी बदन पर पड़ रही थीं और उस सुबह चार बजकर पैंतीस मिनट पर चीनी आक्रमण। तब हमारी जैकेटें भी आज की तरह कोल्डप्रूफ नहीं होती थी, बस कामचलाऊ होती थीं। और ठंड ऐसी मारक कि हाथ बाहर रह जाए तो सुन्न हो जाए। लेकिन जाँबाजी देखो हमारे जवानों कि आख़िरी साँस और आख़िरी गोली तक सब लड़ते रहे, कोई भी लौट कर नहीं आया। एक शहीद जवान के हाथ में हथगोला फँसा था, कइयों के हाथ ट्रिगर पर थे। यानी सब लड़ते-लड़ते शहीद हुए। पर एक भी फ़ौजी को हमने पहाड़ी पर कब्जा नहीं करने दिया।
हमारे एक सौ चौदह जाँबाज सैनिक शहीद हुए पर दुश्मनों के एक हज़ार शव मिले। पर किस पाठ्य पुस्तक में है हमारे इन जांबाज वीरों की कहानियाँ? देश ने शैतान सिंह को श्रद्धांजलि तक नहीं दी, जिसने त्रिशूल में जान दे दी पर देश का झंडा नहीं झुकने दिया। एक समय था जब मैं भी तुम्हारी तरह बहुत सोचता था, पर आज नहीं सोचता। क्यों सोचूँ। एक ज़माना था जब देश के लिए लड़ना और मरना सबसे अधिक आदरणीय माना जाता था। आज आलम यह है कि देश के लिए सैनिक भले ही अपनी जान तक दाँव पर लगा दे कर वेतन वृद्धि के लिए उन्हें भी आन्दोलन करना पड़ता है। वेतन आयोग तक कई बार सबको देता है पर सैनिकों को सूखा ही छोड़ देता है। इसीलिए तुम देखो अब नेशनल डिफेंस अकादेमी तक में सीटें ख़ाली ही पड़ी रहती है जबकि हमारे समय में एनडीए में चांस पाना बहुत मुश्किल था।
मेज़र राठौर कभी अपने प्रवाह में बहते तो कभी सन्दीप को बहाते चले जा रहे थे। बहुत इच्छा हुई सन्दीप की कि वह पूछे उनसे, कौन लगते ये मेज़र शैतान सिंह उनके? पिता? बड़े भाई? उसने सुन रखा था कि मेज़र राठौर का परिवार कई पीढ़ियों से अपने एक पुत्र को सेवा में भर्ती करवाता आ रहा था। पर मेज़र राठौर के आवेग को देख उसकी इच्छा नहीं हुई इस प्रवाह में व्यवधान पहुँचाने की।
अगली सुबह।
सिद्धार्थ को दिल्ली के लिए विमान पकड़ना था। सुबह दस बजे थे। सन्दीप ने प्राइवेट गाड़ी मँगवा ली थी, पर चलाचली की बेला में जाने क्या मन में आया कि वह भी साथ हो लिया। कौन जाने फिर कब मिलना हो, हो भी या न हो। जाने कैसे-कैसे भाव आने लगे मन में। पिछले तीन दिनों में ही जाने कितनी बार खोया और पाया था उसने भाई को।
गर्दन को झटका दिया उसने। तीन दिन के लिए यहाँ आकर सिद्धार्थ ने भाई के शान्त ठहरे पानी में मोह ममता के जाने कितने कंकड़ फेंक दिये थे। उसकी आँखें भर आयीं - कितना दुख देती है ज़िन्दगी।
गाड़ी में बैठते ही ड्राइवर ने सिद्धार्थ की तरफ़ इशारा कर जिज्ञासा की मिसाइल फेंकी - ये कौन हैं मेज़र अजहर साहब?
सन्दीप ने फुर्ती से जवाब दिया - ये हमारे मकान मालिक हैं। अजमेर शरीफ़ में हम इन्हीं के वालिद के घर में किराये पर रहते हैं।
चिहुँक गया सिद्धार्थ - बेवजह ऐसे माहौल में फिर ख़तरा मोल लिया। अकेला भाई, बिना अंग रक्षकों के और वह भी प्राइवेट गाड़ी में। लेकिन चाहकर भी वह कुछ बोल नहीं पाया भाई को, कहीं ड्राइवर को सन्देह नहीं हो जाए। कहीं उसकी बोली से ड्राइवर को मेज़र सन्दीप के हिन्दू होने का शक न हो जाए। रास्ते भर सन्दीप ही बतियाता रहा। सिद्धार्थ गाड़ी की खिड़की से चीड़ और देवदारु को देखता रहा और भाई की बातों का हूँ हाँ में जवाब देता रहा।
श्रीनगर एयरपोर्ट पर आम हवाई अड्डे की तुलना में डबल चेकिंग होती है। पहली चेकिंग हवाई अड्डे में घुसने के भी पहले होती है। पहली चेकिंग के बाद ही तेज़ बारिश होने लगी थी। इस कारण सिद्धार्थ ने दूसरी चेकिंग के पहले ही भाई को ज़बरदस्ती लौटा दिया।
घुमावदार सड़कें। संवेदनशील इलाके। सन्नाटे और बारिश। निस्तब्ध सड़कें। कहीं फँस न जाएँ। आशंकित सन्दीप कभी देवदार के नीचे पड़े ढेरों पीले पत्तों को देखते तो कभी पहाड़ और बारिश से दिल बहलाने की कोशिश करते। कभी ख़ुद को आश्वस्त करते, सुबह का समय है कोई चिन्ता नहीं, तो कभी भाई के खयालों से खेलते, आगे बढ़ रहे थे कि एकाएक उनकी नज़र पड़ी - घने पेड़ के नीचे, काले बुर्के में लिपटी, तरबतर ठिठुरती एक काया। गाड़ी के पास आते ही, काले बुर्के ने लिफ्ट माँगी। ड्राइवर थोड़ा आगे बढ़ गया था, सन्दीप ने गाड़ी पीछे करने को कहा और काले बुर्केवाली को गाड़ी में बैठने दिया। युवती बुरी तरह काँप रही थी। उन्होंने ड्राइवर से हीटर जलाने को कहा। मन ही मन आश्वस्त हुए मेज़र सन्दीप, गाड़ी में बुर्केवाली की उपस्थिति। कम-से-कम संवेदनशील इलाक़ों में तो उन्हें बचा ही ले जाएगी।
क़रीब पाँच-छह किलामीटर आगे बढ़े होंगे वे कि बुर्के वाली ने गाड़ी रोकने का अनुरोध किया। ठिठुरती सँकुचाती वह उतर गयी। गाड़ी फिर बढ़ने लगी और अभी मुश्किल से एक किलोमीटर भी आगे नहीं बढ़े होंगे वे कि बी.एस.एफ. के जवानों ने उनकी गाड़ी रोक दी और कड़काते हुए गोली दागी - कहाँ है, तुम्हारा साथी पैसेंजर।
- कैसा साथी? कैसा पैसेंजर? अकबका गये सन्दीप।
- वही बुर्केवाली जो आपके साथ गाड़ी में थी।
भिंचे हुए जबड़े से कहाँ अफसर ने।
- अरे, वो साथी पैसेंजर नहीं थी, रास्ते में खड़ी कोई बेबस महिला थी, ठिठुर रही थी। बारिश से बचने के लिए उसने मुझसे लिफ्ट माँगी, मैंने दे दी।
अविश्वास से सन्दीप की ओर ताक़ते हुए बी.एस.एफ. वालों ने कहा
- आपको हमारे साथ हेड़ क्वार्टर चलना होगा। जिस महिला को आपने लिफ्ट दी, जानते हैं वह कौन थी? वह हरामजादी जे.के.एल.एफ. की एरिया कमांडर, खूँखार, मिलिटेंट नताशा थी।
- क्या? भरोसा एक बार फिर रेत की तरह बिखर गया।
जहे किस्मत। सन्दीप ने अपना आइडेंटिटी कार्ड दिखलाया तो बी.एस.एफ. का अफ़सर भी चौंक गया। खुदा का शुक्र है, साहब अच्छे का मुँह देखकर घर से निकले थे, यदि उस शैतानी की औलाद को पता चल जाता कि साथ में भारतीय फ़ौज का मेज़र बैठा है तो क्या छोड़ देती वह आपको?
उफ़। ज़िन्दगी भी क्या-क्या रंग दिखाती है। यह संयोग ही था कि युवती की उपस्थिति में ड्राइवर ने एक बार भी उसे मेज़र साहब कहकर नहीं पुकारा था, नहीं तो वे भी कल के अख़बारों के लिए एक ख़बर बन जाते। उन्होंने जीभ काटी, फिर भाई को याद किया जो यहाँ से जाने के बाद भी थोड़ा-थोड़ा उनके साथ लौट आया था कि आइन्दा सुरक्षा नियमों को तोड़ इस प्रकार आम आदमियों की तरह वे बाहर नहीं निकलेंगे।
बूशन कैम्प लौटे तो फिर सुखद समाचार मिला उन्हें, आज क़िस्मत सचमुच मेहरबान थी उन पर। पहले मरते-मरते बचे और अब पूरे पचीस दिनों के लिए घर जाने की छुट्टी। आनन -फानन में सन्दीप ने कई पैकेट अखरोट के खरीदे, माँ के लिए कीमती कश्मीरी शॉल खरीदा। दोस्तों के लिए चेरी के पैकेट्स लिए।
स्मृतियों के सहारे स्पन्दित होती यात्रा।
घर पहुँचने के पहले ही घर पहुँच गया सन्दीप।
कश्मीर पोस्टिंग के बाद पहली बार आ रहा है घर। उफ़! कितने मायूस थे शेखर बाबू जब पता चला कि बेटे की पोस्टिंग भारत के सबसे ख़तरनाक और संवेदनशील इलाक़े श्रीनगर के पास कहीं हुई है। गनीमत थी कि उन्हें नहीं पता था कि बेटे की राष्ट्रीय राइफल्स में पोस्टिंग हुई है, कि यहाँ हर फ़ौजी को गन उठाकर सिर पर कफ़न बाँधकर ऑपरेशन में हिस्सा लेना ही पड़ता है। सन्दीप ने जब उन्हें समझाया, मैं तो इंजीनियर हूँ, मुझे क्या ख़तरा... फिर चारों तरफ़ सिक्योरिटी। मैं वहाँ ज़्यादा सुरक्षित हूँ। भोला मन तब कहीं जाकर थोड़ा-बहुत आश्वस्त हो पाया था। पर कहीं सिद्धार्थ ने इस बीच कच्चा चिट्ठा न खोल दिया हो, आशंका ने फिर फन उठाया। पर क्या सिद्धार्थ करेगा ऐसी बेवकूफ़ी? काश, उन्होंने संकेत दे दिया होता सिद्धार्थ को। पर इतनी परेशानियों, मारक हैरानियों और व्यस्तताओं के बीच बीते थे वे दिन कि याद ही कहाँ रहा था उन्हें। उफ़! क्या करे वे भी! अकेली जान, कहाँ-कहाँ साधे सन्तुलन। किस-किस को सँभाले! बहरहाल स्मृतियों, ख़्यालों और खवाबों की लहरों पर डूबते उतराते पूरा हुआ सफ़र।