सूखते चिनार / स्वप्न और उड़ान / भाग 2 / मधु कांकरिया

Gadya Kosh से
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जानते हो मेरे बैच के दो लड़के रैगिंग से घबराकर घर भाग गये हैं। हम जैसे ढीठ और गैंडा चमड़ी तो सारी जिल्लत, यातना और अपमान झेल जाते हैं, पर स्वाभिमानी और कमज़ोर गुर्देवाले भाग खड़े होते हैं। एक बन्दा तो मानसिक रूप से इतना विक्षिप्त हो गया था कि उसे अस्पताल में दाखिल करवाना पड़ा। उसे पूरी तरह नंगाकर कहा गया - तैर। धरती पर तैर। नंगेपन की शर्म को झेल नहीं पाने के कारण वह सिकुड़ता गया। वे कहते रहे - तैर। सारी रात यही वहशी खेल चलता रहा।

और अब सुन क्या हुआ मेरे साथ। यहाँ नेशनल इंस्टीट्यूट ऑव टेक्नोलॉजी, त्रिची में रैगिंग बहुत ही वैज्ञानिक, परम्परागत और व्यवस्थित ढंग से होती है। हमसे जो साल भर सीनियर हैं, उन्हें हम बाप कहते हैं, जो दो साल सीनियर हैं उन्हें हम दादा कहते हैं, और जो तीन साल सीनियर हैं, वे हुए परदादा। तो हर सीनियर का एक बेटा होता है जिसकी रैगिंग करने का उसे विशेषाधिकार होता है। यहाँ रैगिंग भी नियमानुसार होती है। यानी हर राज्य और प्रान्त वाले अपने ही राज्य और प्रान्तवालों की रैगिंग कर सकते हैं। मैं बंगाल से हूँ तो मेरी रैगिंग सिर्फ़ बंगाल कोटा से आये सीनियर्स ही कर सकते हैं। उसी प्रकार जो एन. आर.आई. हैं उनकी रैगिंग भी एन.आर.आई. ही कर सकते हैं।

क़रीब आठ नौ महीने तक चलती रहती है रैगिंग तब तक जब तक कि हमें सीनियर्स द्वारा फ्रेशर्स वेल्कम पार्टी नहीं मिल जाती। इस दरम्यान हम पर कई प्रतिबन्ध होते हैं, जेल के क़ैदियों की तरह। हम कॉलेज कैम्पस से बाहर घूम नहीं सकते, यदि कोई बेहद ही ज़रूरी काम हो तो भी हमें इजाज़त लेकर ही जाना होता है। इन आठ -नौ महीने हम न बूट पहन सकते हैं, न जींस और न ही टी.शर्ट। कॉलोनी कैम्पस में हमें हवाई चप्पल पहन कर रहना पड़ता है। हमें पूरी बाँह और बन्द गले का बुश्शर्ट पहनना होता है। हमें मिलिट्री कट यानी बहुत छोटे-छोटे बाल रखने होते हैं यानी पूरी तरह लल्लू बनाकर हमें रखा जाता है। मेरे पास पूरी बाँह की कमीज़ें कम थीं, इस कारण एक बार मैंने आधी बाँह का शर्ट पहन लिया जिसकी कॉलर के ऊपर दो शो बटन लगाए हुए थे। मैं कम्प्यूटर रूम की तरफ़ बढ़ रहा था। रास्ते में मुझे दो सीनियर मिले पर मैं निश्चिन्त था, वे मध्य प्रदेश के थे और नियम के अनुसार वे मेरी रैगिंग नहीं कर सकते थे। पर जब तक मैं कम्प्यूटर रूम तक पहुँचा जाने कहाँ से यह ख़बर उड़कर मेरे बाप तक पहुँच गयी और उसके रूम के बाहर बाग देने लगी। आनन-फानन में मेरा बाप हाजिर और दो झन्नाटेदार थप्पड़ मेरे गाल पर। इस प्रकार बास्टर्ड ने खींचे शो बटन कि शर्ट ही फट गयी, फिर उसने पूछा, “तेरा स्कोर कितना है।”

मैंने कहा, “आठ सर।”

बस आठ ही, फिर दो तीन झन्नाटेदार थप्पड़ मेरे उसी गाल पर फिर बका उसने, “अब बता कितने स्कोर हुए?”

मैंने कहा, “ग्यारह सर! हाँ अब दो अंक वाला स्कोर ठीक है, अब तू जा।”

कई बार यह रैगिंग बड़ी इंटेलीजेंट टाइप की रैगिंग भी होती है। एक बार रैगिंग के दौरान मुझसे कहा गया, “तुमको पेशाब लगा है तो तुम क्या करोगे?”

“सर, मूतूँगा।”

“तुमको यदि जलते हुए हीटर के ऊपर मूतने को कहा जाए तो क्या करोगे?”

“सर रुक-रुककर मूतूँगा। (जिससे मुझे करंट नहीं लगे।)”

तो धोंचु, तेरी क्या रैगिंग हुई। रैगिंग तो हम लोगों की होती है, अभी तो और सुन!

एक बार मेरे बाप ने मुझे अपने कमरे में बुलाया, मैं गया। मैं वहाँ एकदम अकेला था। मेरे इर्द गिर्द पाँच-छह सीनियर थे जो सभी बंगाल से थे। इस क़दर घूर रहे थे वे मुझे कि उनकी आँखों से लपट मारती क्रूरता की तपिश से ही झुलस गया था मैं। तभी मेरी नज़र उस टेबिल पर पड़ी जिस पर रखे थे डिटॉल, कैंची, बैंडेज, रुई, पट्टियाँ और नोवासेल्फ पाउडर (ख़ून बहने से रोकने वाला पाउडर) आदि। और कोने में पड़ा था एक स्ट्रेचर। मेरे तो होश उड़ गये। आज मरा। मैं डर से ठिठुरता रहा। मेरी घड़कनें तेज़ होती गयी।

तभी मैंने सुना। मेरे बाप से उसका दोस्त पूछ रहा था, “यह डिटॉल, नोवासेल्फ, पट्टियाँ वग़ैरह क्यों रखी हुई हैं? उसने झटके से मटके-सी अपनी गर्दन मेरी ओर घुमायी और यूँ देखा मेरी ओर कि हिटलर के ज़माने में नाजी भी यहूदियों की ओर क्या देखते होंगे। फिर उस बाप ने जवाब दिया, “पिछले सप्ताह रैगिंग में एक लड़के का माथा फट गया था, बुरी तरह ख़ून बहने लगा था, हमारे पास फर्स्ट एड भी नहीं था, बहुत ख़ून बह गया था बेचारे का। इस कारण इस बार पहले से ही सारे इन्तज़ाम कर रखे हैं।”

मेरी तो फट गयी। अन्दर गीला-पीला हो गया। अब हुई पिटाई, अब हुई पिटाई। अब लिटाया - स्ट्रेचर पर। सुना था, सत्तर के दशक में बंगाल के नक्सलवादी इंटेरोगेशन रूम में जाते थे चलकर पर निकलते थे स्ट्रेचर पर। वही दृश्य दिमाग़ में घूमने लगा। वे आपस में बतियाने लगे कि कैसे उस लड़के के नाक से ख़ून बहा, फिर कैसे उसका होंठ कटा और अन्त में कैसे उसका माथा फटा जब उन्होंने उसके माथे को दीवाल से भिड़ा दिया था। मैं और सुन नहीं सका और धम्म से ज़मीन पर बैठ गया। बैठे-बैठै ही मेरा दिल इतनी ज़ोर से धड़का कि उसकी आवाज़ मेरे बाप ने भी सुन ली। इसलिए बिना मेरी ओर देखे ही वह बोलता रहा, “यार, उस दिन तो थोड़ी-सी भी देरी और हो जाती तो उस बेचारे का तो ‘राम नाम सत्य’ हो ही जाता।” उसका तो बोलना हुआ और मेरा सिर चकराने लगा। कई बार पढ़ चुका था कि कैसे रैगिंग के दौरान लड़के की मौत तक हो गयी। मैं एकदम अकेला अनजान शहर... अनजान भाषा और सामने पाँच -पाँच साक्षात यमराज! मैं सुबकने लगा। और तभी मेरे बाप ने फिर जड़ा एक करारा.....चाँटा मेरे गालों पर और फिर पूछा, “क्या है तेरा स्कोर?” मैंने कहा “पचपन।”

उसके दोस्त ने फिर अपने हाथ मुझपर आजमाए और कहा, “अब तू अमीर हो गया, अब जा भाग।”

मैं दुम दबा के भागा। बाद में पता चला वह डिटॉल कैंची और पट्टियाँ सारी नौटंकी थी, महज़ मुझे डराने के लिए थीं।

सोचो, कितनी क्रूरता थी उनमें। कहीं पढा था कि चंगेज ख़ाँ पहाड़ों से हाथियों को गिरवा देता था और उनके आर्त्तनाद को सुनकर आह्लादित होता रहात था। हर युग में सैडिस्ट प्रवृत्ति के ऐसे चंगेज ख़ाँ पैदा होते रहते हैं और धरती के उसी टुकड़े को दुर्गन्धयुक्त करते रहते हैं जो उन्हें पालती-पोसती है।

कई बार मैं सोचता हूँ कि इतनी क्रूरता इनमें आती कहाँ से है। क्या क्रूरता से जन्म लेती है क्रूरता? एक बार मैं रैगिंग के दौरान रो पड़ा था और मेरे मुँह से अपने सीनियर के लिए निकल पड़ा था। आप भी तो छह महीने पूर्व फ्रेशर थे, मेरी तरह क्या आप भूल गये अपने दिन? जानते हो उसने मुझे क्या जवाब दिया? उसने कहा, “हाँ, छह महीने बाद तुम भी इसी तरह फ्रेशर की रैगिंग करोगे बल्कि हमसे भी कहीं ज़्यादा क्रूर ढंग से। यानी इसी प्रकार चलता रहेगा क्रूरता का यह खेल और दुनिया का पागलपन। कई बार सोचता हूँ कि शायद अपनी नीरस और ऊब से भरी दैनिक जीवन की दिनचर्या से निपटने के लिए एवं जीवन में कुछ थ्रील एवं मजे नामक तत्त्व को शमिल करने के लिए ही किया होगा अँग्रेजों ने रैगिंग का चलन। पर सोचो, अठारह वर्ष की उम्र! अबोध अजानी दुनिया और यह रैगिंग। दुनिया अच्छी लगते-लगते एकाएक ख़राब और खूँखार हो जाती है। और सबकुछ इतना अचानक और एकाएक होता है कि हमारी सारी लय-ताल बिगड़ जाती है। हमारे विश्वास की जड़ों में दुनिया के प्रति अविश्वास की खाद यहीं से डलना शुरू होती है जो ताउम्र हमारी नकारात्मक भावना को ही सींचती रहती हैं।

यार, तुझे ज्ञान देने के जोश में एक घटना तो बताना ही भूल गया। हमारे कैम्पस की सबसे मज़ेदार रैगिंग। मेरे रूममेट द्वैपायन के माँ-बाप उसे छोड़ने आये थे। उसकी माँ ने यहाँ की कुख्यात रैगिंग के बारे में बहुत कुछ सुन रखा था। यहाँ रहते हुए ही उसने देख लिया था सीनियर द्वारा अपने बेटे को घेरे जाते हुए। जाते-जाते वह बेहद चिन्तित हो गयी। उसने सीनियर लड़कों को कहा, “देखो, द्वैपायन तुम्हारे छोटे भाई के समान है, उसका खयाल रखना।”

“जी, आंटी, आप बिल्कुल चिन्ता मत कीजिएगा, हम उसका ख़ूब खयाल रखेंगे।”

सीनियर से वादा ले वे थोड़ी निश्चिन्त हो घर के लिए रवाना हुई। उनके जाते ही सीनियर्स ने द्वैपायन को ज़बरदस्ती बिस्तर पर सुला दिया। उसे टोपी-मोजा पहना, चादर ओढ़ा दिया। तीन दिनों तक उन्होंने द्वैपायन को बिस्तर से उठने नहीं दिया, वहीं बिस्तर पर ही बोतल से दूध, चाय और पानी पिलाते रहे। तुम्हारी माँ बोल गयी है - इसका खयाल रखना।

तो हीरो! तू यह मत सोच कि तू आर्मी में है इसलिए ज़्यादा जकड़ा हुआ है और मैं नागरिक जीवन में हूँ, इसलिए ख़ुशहाल हूँ। मुझे तो लगता है कि हर स्तर पर चुनौतियाँ हैं, तनाव है। सम्पूर्ण सुख-चैन कहीं नहीं है। जब तक ज़िन्दगी है, लहरें तो उठेंगी ही। बस यह समझ ले कि ज़िन्दगी का दूसरा नाम ही है, मुठभेड़, हर क़दम पर मुठभेड़।

घर कब आ रहे हो? हम लोगों को तो शायद दूसरे सिमेस्टर के बाद ही छुट्टियाँ मिलेंगी। जानलेवा रैगिंग से गुज़रने के बाद मैं यह सोचने पर बाध्य हुआ हूँ कि लोगों से घुला-मिला जाए या उनसे दूरी बनाकर रखी जाए। मैं ‘डेल कारनेगी’ और ‘नेपोलियन हिल्स’ पढ़ रहा हूँ... शायद समझ गहराए।

तुम्हारा अभिषेक

अभिषेक के पत्र ने उसके घायल मन की मलहम-पट्टी की। वह तरोताज़ा हुआ। उसने फिर ख़ुद को याद दिलाया कि इस जीवन का वरण उसने ख़ुद आगे बढ़कर किया है, अपने जीवन को वृहत्तर लक्ष्य के प्रति समर्पित करने के लिए।

इस बीच उसके नाप की वर्दी भी आ गयी। जिसे पहन उसे लगा कि एक महान फ़ौजी की आत्मा उसके भीतर प्रवेश कर गयी है। उसके बाल भी मिलिट्री कट कर दिये गये। परिचय -पत्र बन गया। पहली बार वर्दी पहनी उसने तो अपने पर गुमान हो आया। देशप्रेम की भावना भीतर हिलोरे लेने लगी... वह है देश का सिपाही। दूर बचपन में सुना एक गाना, ‘नन्हा मुन्ना राही हूँ/देश का सिपाही हूँ,’ अन्तर्मन में गूँज उठा। लेकिन यह गूँज अपनी सम्पूर्णता में भीतर तरंगित भी नहीं हो पाती कि कुछ ऐसा हो जाता उसके साथ कि उसका मन फिर उखड़ जाता। आर्मी फिर भारी-भरकम चट्टान की तरह आ गिरती उसके नये उगते वजूद पर। उसे लगता कि हरी घास की तरह यहाँ हर जगह बिछी हुई है कठोरता जो उसके सारे कोमल-कोमल अहसासों को, उसके भीतर की सुकुमारता को यहाँ तक कि भीतर के सूक्ष्म सौन्दर्य बोध को भी कुचल रही है।

खेलकूद के बाद उन्हें सिनेमा दिखाया जाता। सिनेमा देखना उनके लिए अनिवार्य था। लेकिन सिनेमा देखते वे दाएँ-बाएँ नहीं देख सकते थे, और तो और लड़कियों की तरफ़ भी निगाहें नहीं फेंक सकते थे। एक बार उसने बजाय फ़िल्मी नायिका के, जीती-जागती हीरोइन को तबियत से देखा, देखता रहा, बस उसे पनिशमेंट मिला गया। जिस वक़्त दिन भर की थकान के बाद उसके बाक़ी साथी सुस्ता रहे थे, वह पीठ पर पत्थरों से भरा बोरा लादे दौड़ लगा रहा था। कठिन दिनचर्या के बाद जो थोड़ी बहुत राहत मिलती उसे, वह भी पनिशमेंट के चलते छिन जाती। ऐसे में बहुत ही मायूस हो जाता वह, आँखें डबडबा जातीं। इच्छा धूम मचाती - भाग खड़ा हो यहाँ से। पर तभी भीतर से आवाज़ निकलती मैं एक सिपाही हूँ, मुझे डटे रहना है, अन्त तक। मैं पीठ नहीं दिखा सकता।

उसके दोस्त परमजीत की हालत उससे भी बदतर थी। वह सरदार था। लम्बे-लम्बे बाल और दाढ़ी। पास में हेयर ड्रायर भी नहीं। इस कारण जब भी जब कोई परेड, पी.टी. या लंच के लिए निकलते, अकसर देर हो जाती उसे। परमजीत जी-जान से चेष्टा करता जल्दी करने की। जल्दी-जल्दी पगड़ी बाँधता पर कभी पगड़ी खुल जाती तो कभी दाढ़ी। कोई कहता, तेरी दाढ़ी काट देंगे, कोई बाल काटने की घुड़की देता। वह जब तक दुबारा पगड़ी बाँधता, देरी हो जाती। उसके चलते कई बार पूरे बैच को ही लेट लग जाती और पूरे बैच को ही दंड मिलता पर कोई उस पर दोषारोपण नहीं करता कि परमजीत के चलते यह हुआ।

आर्मी में टीम स्पिरिट की घूँटी शुरू से ही पिलानी शुरू हो जाती है। सबके साथ रहना अपनी टीम अपने कमांडर और अपने देश को सर्वोच्च सम्मान देना?

उसे अच्छा लगता यह सब।

और जब उसे वेपन ट्रेनिंग दी गयी तो रोमांचित हो उठा वह। बनिये का बेटा पर हाथ में तराजू की जगह तोप! देख ले उसकी दादी तो डर से पीली पड़ जाए।

उसे राइफ़ल्स चलाने का अभ्यास कराया गया ठीक वैसे ही जैसे युद्ध के दौरान कराया जाता है। उससे खाई ख़ुदवायी गयी। उसने सोचा आर्मी शान्ति काल में भी जवानों को युद्ध के तनाव में युद्ध की मानसिकता में रखती है, जिससे कि युद्धकाल में जवान शान्ति से युद्ध कर सकें।

वार और वेपन ट्रेनिंग के बाद अब शुरू हुई उसकी जंगल ट्रेनिंग।

सबसे रोमांचक!

सबसे थ्रिलिंग!

सबसे ख़तरनाक।

पर इसी दौरान उसने पाया कि उसका शरीर अब धीरे-धीरे आर्मी की कठोर दिनचर्या का अभ्यस्त होने लगा है। चूँकि आर्मी-मैन की पोस्टिंग कश्मीर से कन्याकुमारी तक, 46० डिग्री तापमान से माइनस 46० डिग्री तापमान तक कहीं भी हो सकती है, इस कारण उन्हें हर मौसम, हर स्थिति और हर तापमान, हर हवा को झेलने का अभ्यस्त बना दिया जाता है।

एक बार उसे एक अनजान जंगल में छोड़ दिया गया और कहा गया - अपने भोजन की व्यवस्था ख़ुद करो। जंगल ट्रेनिंग के दौरान जाना उसने पेड़ों और फूलों की रकम-रकम की रस्में। पत्तियों की जातियाँ। पत्तियों का सौन्दर्य। रंगबिरंगी पत्तियाँ, जैसे किसी ने पेंटिंग कर उनमें सृष्टि के सारे रंग उड़ेल डाले हों। अभी तक वह सोचता था कि फूल ही सबसे अधिक सुन्दर और अनेक रंगों के होते हैं, पर पत्तियाँ भी इतनी सुन्दर! इतनी विविधताओं और सुन्दरता से भरपूर! और अभी तक पत्तियों के जादू से ही वह उबर नहीं पाया था कि तभी उसने जाना कि हर जंगली पत्ती को छूना घातक हो सकता है, कि उससे खुजली का रोग हो सकता है।

एक बार उसे एक पेड़ पर चढ़ने का आर्डर मिला। वह पूरी तरह चढ़ भी नहीं पाया था कि उसके सीनियर ने दूसरे लड़के को भी उसी पेड़ पर चढ़ने का ऑर्डर दे दिया। संयोग से वह उसी टहनी को पकड़कर चढने लगा जिस पर वह लटका हुआ था। नीचे से ज़ोर का धक्का लगा, उसका सन्तुलन गड़बड़ाया और वह धड़ाम से नीचे।

पर ताज्जुब! इतनी ऊँचाई से गिरा वह, फिर भी वन पीस खड़ा हो गया वह। वह मुस्कराया - इसी तरह आर्मी बना रही है मेरे शरीर को फ़ौलादी। लेकिन उसका सारा फ़ौलादीपन और मुस्कराहटें बोल गयीं जब अगले ही सप्ताह उसे अनिवार्य बैक्सिंग प्रतियोगिता में भाग लेना पड़ा। इस प्रतियोगिता के लिए वह एकदम तैयार नहीं था, न मानसिक रूप से, न शारीरिक रूप से। लेकिन मन मारने की अच्छी प्रयोगशाला थी आर्मी। इस कारण उसे भाग लेना पड़ा। उसके खानदान की सात पीढ़ी में किसी ने मुक्केबाज़ी तो क्या किसी पर मुक्का तक नहीं उठाया था। इतिहास और वर्तमान दोनों साथ छोड़ रहे थे उसका पर जब उसने देखा कि उसके सामने खड़ा है बॉक्सिंग का सूरमा अपनी बाजू की फड़कती मछलियों के साथ तो होश उड़ गये उसके। उसकी धड़कन रुक गयी, लेकिन वह फ़ौजी ही क्या जो डर जाए।

बुजदिली और फ़ौजी साथ-साथ नहीं चल सकते।

बड़ी मार खायी उस दिन उसने। पिटता रहा लेकिन मैदान नहीं छोड़ा उसने। मन-ही-मन स्मरण करता रहा वह उस जापानी सैनिक सोकोई को जिसने उसके कोमल और सुकुमार मन -मस्तिष्क में सैनिक होने का एक नया अर्थ भर दिया था। जब-जब वह उस सैनिक के राष्ट्रप्रेम और उत्सर्ग को स्मरण करता - उसकी सारी दुर्बलता कच्ची दीवार के चूने की तरह झड़ जाती।

वह द्वितीय विश्वयुद्ध का एक साधारण लेकिन बहादुर सैनिक था। जब उसे बताया गया कि जापान ने आत्मसमर्पण कर दिया है, तो उसने विश्वास नहीं किया, इतना महान मेरा देश कैसे अमेरिका के सामने आत्मसमर्पण कर सकता है? इस कारण जब अमेरिका ने 1944 में गुआन प्रायद्वीप को मुक्त किया तो दस सैनिकों की सोकोई की टुकड़ी ने आत्मसमर्पण से इनकार किया और जंगल में भाग गयी कि वे अन्त तक लड़ते रहेंगे लेकिन समर्पण नहीं करेंगे। उन्हें लगा कि समर्पण वाली बात अमेरिका का प्रोपगेंडा मात्र है। 1945 में दूसरा विश्वयुद्ध शुरू हो गया लेकिन वे दस जंगल में छुपे रहे। बाद में उन दस में से सात सैनिक नागरिक जीवन में चले गये। लेकिन तीन अभी तक जंगल में रहे इस विश्वास के साथ कि उनका देश अभी तक लड़ रहा है। उन तीन में से दो भूख से मर गये। 1972 में दूसरे विश्वयुद्ध के 28 साल बाद दो स्थानीय मछुआरों ने उस सैनिक को ज़बर्दस्ती जंगल से निकाला। जब वह जंगल से बाहर आया तो उसे राष्ट्रीय नायक का सम्मान मिला लेकिन उसे यही लगता रहा कि उसने आर्मी के प्रति अपना कर्तव्य पूरी तरह नहीं निभाया, क्योंकि जब उसे जापान के सम्राट के सामने पेश किया गया तो उसने यही कहा, ÒÒIt is with much embarrassment that I have returned alive.” (मेरे लिए यह लज्जा की बात है कि मैं जीवित हूँ।)”

यही होता है एक सैनिक। वह बुदबुदाया।

उसका मुँह इतना फूल गया था कि अपनी सूरत तक नहीं पहचान सका वह। नाक, होंठ, गाल सब जगह से ख़ून सिरने लगा था। ग़नीमत थी तो यही कि मुँह में उसने कुछ डाल लिया था, जिससे जीभ कटने से बच गयी।

यह मेरी अपनी ही चुनी हुई ज़िन्दगी का स्वाद है। उसने ख़ुद से ही दिल्लगी की।

देखते-देखते बीत गये छह महीने। हवा के झोंके ठंडे होने लगे। ज़िन्दगी मेहरबान होने लगी। पहली बार उसे रविवार को सिविल ड्रेस में कैम्पस से बाहर निकलने की आज्ञा मिली।

अब आलम यह था कि रविवार को वह जी भर जी लेता और रविवार के इन्तज़ार में सप्ताह के बाक़ी छह दिन किसी प्रकार निगल लेता।

औरएक जानदार दोपहर उसे शानदार ख़बर मिली कि उसे घर जाने के लिए दस दिनों की छुट्टियाँ मिल गयी हैं। वह उछल पड़ा। शायद ही बीता हो कोई दिन कि उसे खाते वक़्त, रात को सोते वक़्त, या सीनियर की फटकार सुनते वक़्त या दंड झेलते वक़्त घर की याद न आयी हो।

घर से दूर रहकर ही जाना था उसने कि घर क्या होता है। अपनी ख़ुशी बाँटने वह परमजीत के हॉस्टल की ओर गया तो देखा, परमजीत झोले की तरह मुँह लटकाए एक कोने में उदास बैठा है।

“अरे, तू मुँह लटकाए क्यों बेठा है? घर नहीं जाना? तैयारी नहीं करनी? सामान नहीं जमाना?”

ख़ाली-ख़ाली आँखों से देखता रहा परमजीत उसे। सन्दीप ने फिर धकेला उसे।

“बोलता क्यों नहीं? सब ख़ैरियत तो है?”

“मेरी छुट्टियाँ कैंसिल कर दी गयी हैं। मैं नहीं जा रहा घर।”

किसी तरह शब्दों को बाहर धकेला परमजीत ने।

“पर क्यों?”

“पनिशमेंट! दंड!” हिकारत और व्यंग्य से कहा उसने।

“पनिशमेंट? पर किस बात का?”

“ड्रिल में प्रदर्शन अच्छा नहीं था इस कारण।”

“हे भगवान! यह आर्मी है या हथौड़ा। या यह भी उसका अपना ढंग है फ़ौजियों के कोमल तन्तुओं पर प्रहार कर-कर उनकी भावनाओं को कुचलने का!”

फिर एक प्रश्न नन्हे पौधे की तरह उग आया उसके दिमाग़ के ख़ाली बंजर में। समझ नहीं पाया सन्दीप क्या कहे? क्या न कहे? कैसे सान्त्वना दे अपने मित्र को। उफ़ कितना बेताब था, कितना उछल रहा था वह घर जाने को!

आत्मीय स्पर्श से उसके कन्धे को छुआ उसने। बोलना चाहा तो अभिव्यक्ति लड़खड़ा गयी। बस चुपचाप देखता रहा उसके उदास चेहरे को और फिर चल दिया।

जैसी कि उम्मीद थी, पूरा घर पलकें बिछाए बैठा था उसके स्वागत के लिए। जैसे ही उतरा वह ट्रेन से, लिपट पड़ा पूरा घर।

पर दूसरे ही पल जैसे ही नज़र पड़ी उसके हुलिये पर माँ भौंचक्क - अरे यह कैसी शक्ल बना रखी है। आधी घुटी खोपड़ी! सूखा चेहरा! कमज़ोर शरीर!

“क्या पूरा खाना भी नहीं देती आर्मी? बाल नहीं रखने देती?” माँ ग़मगीन हो उठी, बोलते -बोलते रो पड़ी। हीरो-सा चिकना और स्मार्ट दिखनेवाला उसका लाड़ला कैसा उजबक और गाबदी लग रहा है!

उड़ती हुई गाड़ी घर पहुँची। जैसे ही अपने घर में घुसा उसने देखा, बड़ा-सा बैनर, जिस पर लिखा था - वेलकम होम, जीसी 108। कोष्ठ के भीतर लिखा था - गोबरचन्द 108। वह ठहाका मार कर हँस पड़ा, छोटे भाई सिद्धार्थ की शरारत पर। जेंटिलमैन कैडिट को गोबरचन्द कैडिट में बदलते देख।

माँ ने नाश्ते में सभी मनपसन्द चीज़ें चुन-चुन कर बनायी थीं। मेथी के पराठे, लहसुन की चटनी। बादाम का हलुआ। क्लब कचौड़ी और गरम -गरम जलेबी।

वह भावुक हुआ। सुगन्ध से ही सात जन्मों की भूख जाग गयी थी। घर छोड़ने के बाद फिर कभी इतना लजीज़ खाना नसीब नहीं हुआ था। पर उसकी परेशानी यह थी कि उसे जी भर खाना था और अपने वजन को भी नियन्त्रण में रखना था। वजन बढ़ने पर उसे फिर कड़े दंड से गुज़रना पड़ सकता था। इस कारण वह हर चीज़ को ज़रा-ज़रा कर खाता। माँ की ममता ने ताड़ लिया, खाने के प्रति उसकी सावधानी देख। आर्मी जो कि पहले से ही अजूबा थी उस घर के लिए और जिसका दरवाज़ा खोलने में ही डरता था वह बनिया परिवार, अपने लाड़ले का वह गुपचुप कुम्हलाया, बाल मुँड़ा चेहरा और परहेज़ी खाना देख और सहम गया। अभी से ही यह हाल! क्या होगा आगे। माँ उसे खोद-खोद कर पूछती - कैसा खाना मिलता है? अफ़सर कैसे है, अभी किस तरह की ट्रेनिंग दी जा रही है?

क्या बन्दूक भी चलाता है तू? बाल इतने छोटे क्यों कर रखे हैं? सुबह कितने बजे उठना पड़ता है? दिन में पढ़ाई होती है? कितने घंटे? घर की याद आती है?

वह बार-बार बस हूँ-हाँ में जवाब देता रहा। दिमाग़ में चलती रही उन प्रारम्भिक दिनों की स्मृतियाँ जब खाने बैठता वह तो तश्तरी से चपातियाँ ग़ायब मिलती। सिर्फ़ दाल, थ्रेपटिन बिस्कुट और ग्लुकोज के सहारे बीतते प्रारम्भिक दिन! और विडम्बना आज इतना लजीज़ और सुस्वादु खाना सामने पड़ा है तो भी जी भर कर खा नहीं पा रहा है वह कि कहीं वजन न बढ़ जाए?

माँ रुआँसा हो गयी - किसी भी बात का दिल खोलकर जवाब नहीं दिया उसने। इतना सीधा-सादा बेटा, कितना घुन्ना बन गया है, महज़ छह महीने में।

छोटे भाई सिद्धार्थ ने फिर बात सँभाली – अम्मा, ये फ़ौजी सिविलियन से अधिक बात नहीं करते कि कहीं इनका रुतबा फीका न पड़ जाए।

सिद्धार्थ की बात भीतर तक गुदगुदा गयी उसे। मारा पीठ पर एक घौल उसने - साला, मुझे चला आर्मी का रिवाज़ सिखाने।

दसदिन उड़ गये पक्षी की उड़ान की तरह।

पंख फैलाया भी नहीं कि फिर उड़ने की तैयारी। वह फिर हँसा अपने आप पर। उसके साथी, उसके सीनियर ऑफ़िसर शायद ही विश्वास करें कि घर का इतना जमा-जमाया और अच्छी-ख़ासी कमाई वाले धन्धे को छोड़कर वह इस आर्मी के कहाड़ में ख़ाक क्यों छान रहा है? हँसा वह तब भी जब उसने बड़ी शान से घर में पापा और अम्मा को ख़ुश करने के लिए आर्मी की वर्दी पहनी और उसे पहनकर मुहल्ले का चक्कर भी लगा आया तो ख़ुश होने के बजाय उसके पापा ने थोड़ी नाराज़गी और थोड़े हिकारत से कहा, “उतारो इसे, इसे वहीं पहनना। हमारे सामने इसे मत पहनो।”

मायूस हो उसने जवाब दिया, “पापा, कितने आये थे इस वर्दी की ललक में। पर कितनों को मिला - यह सम्मान! अस्सी प्रतिशत तो इंटरव्यू और दूसरे टेस्टिंग तक आते-आते ही रिजेक्ट हो गये। इतना कठोर इंटरव्यू और इतनी टफ ट्रेनिंग के बाद मिली है यह वर्दी और आप इसे देखना भी नहीं चाहते।“ नहीं चाहते हुए भी कटुता मुखर हो उठी शेखर बाबू की, डकार लेते हुए बोले, बेटा, पूरे साल भर में जितना देती है तुम्हें यह वर्दी, उतना तो महीने भर में दे देगा मुझे मेरा बिजनेस! ख़ुशनसीब हो बेटा तुम कि जीवन में तुमने सूखा नहीं देखा, हरा ही हरा चरा न इसलिए समझ नहीं सकते तुम पैसे की क़ीमत। मुझसे पूछो कैसे पहुँचा हूँ मैं यहाँ तक। कैसे ख़रीदा ऑफ़िस कैसे जमाया, अपना बिजनेस। फ़टीचर आदमी था। पूँजी के नाम पर थी सिर्फ़ अपनी मेहनत और हौसला। घर के नाम पर धरती ओढ़ना, आकाश बिछौना। दूसरों की गद्दी में खुले बरामदे में आधी करवट सोकर तो कभी-जागकर रात बितायी। बरसात के दिनों में तो सारी सारी रात बैठकर काटी। कुछ पैसों को बचाने के लिए बस पर नहीं चढ़ता पैदल ही चलता रहता। सोचो, इतना पिला हूँ तब आज चुपड़ी रोटी खा रहा हूँ। तुम्हारी तरह हमारे पास यह विकल्प भी नहीं था कि कह सकूँ कि हमें पीतल तौल कर ज़िन्दगी नहीं गुज़ारनी।

“वो समय तो पापा अब भगवान की कृपा से निकल ही गया है, और आज जब सब कुछ हमारे पास है तो भी आप क्यों पैसे-पैसे के लिए हायतौबा मचाते हैं। क्यों अभी भी गधा खटनी करते हैं। जाने क्यों मुझे लगता है कि बाहरी दरिद्रता से तो आप मुक्त हो चुके हैं पर भीतरी दरिद्रता से आप अभी तक मुक्ति नहीं पा सके हैं। मुझे माफ़ करना पापा, पर मेहनत सिर्फ़ आपकी तरफ़ ही नहीं हमारी तरफ़ भी है। अन्तर सिर्फ़ इतना भर है कि हमारी मेहनत एक बड़े उद्देश्य और होली कॉज के लिए है, जबकि आपका सारा संघर्ष और सारी मेहनत चन्द स्वर्ण सिक्कों के लिए है।”

जाते-जाते सन्दीप पिता का दिल दुखाना नहीं चाहता था। पर कल के अख़बार में ही उसने पढ़ी थी वह ख़बर जिसमें दिल्ली के एक युवक ने अपनी मँगेतर को तन्दूर में भून डाला था और फिर भी ऐसे समाज में कोई तूफ़ान नहीं आया था। नहीं, उसे नहीं बनना है ऐसे मुर्दा समाज का हिस्सा जहाँ हर दिन इंसानियत का गला घोंटा जाता हो।

अठारह वर्ष की उम्र और संवेदनशील किताबी मन। उस शाम सन्दीप ने फिर मानसिक संवाद किया अपने मित्र अभिषेक से - सबकुछ है संसार में। अब यह लेने वाले की कूबत पर कि वह क्या चुने? दिल्ली या आर्मी? वह क्या बने - मनु शर्मा (तन्दूर केस का मुख्य आरोपी) या फील्ड मार्शल मानेक शॉ? मेरा आशय तुम समझ ही गये हो दोस्त। जब जब मैं घर आता हूँ, पापा पहले तो मेरे सामने भावुकता का चारा फेंकते हैं कि परिवार के मोह से ही सही मैं वापस लौट आऊँ और जब उससे बात नहीं बनती हैं तो पापा मुझे यह जताने में कोई कसर नहीं छोड़ते कि मैंने आर्मी चुनकर किस क़दर अपना कबाड़ा कर डाला है कि बाद में मुझे कितना पछताना पड़ेगा। सम्भव है कि पापा सही हों पर पापा के बने बनाए रास्तों पर चलना मुझे मंजूर नहीं ऐसी तिकड़मी और दो नम्बरी दुनिया मेरी नहीं हो सकती यह मैं अच्छी तरह समझ गया हूँ। फ़िलहाल आर्मी मुझे तोड़ रही है, रौंद रही है, फिर किसी कुम्भकार की तरह शायद मुझे गढ़े। तुमने सही लिखा था कि चुनौतियाँ हर कहीं हैं, तो फिर क्यों न उन्हीं रास्तों की चुनौतियों का सामना किया जाए जो मन के गलियारों से निकलते हों।

दूसरा दिन!

आज उसे रवाना होना था देहरादून के लिए। पूरा घर आया था उसे विदा देने। आते वक़्त पापा ने फिर लिया उससे एक वादा।

“वादा करो तुम अपने जूनियर्स की रैगिंग नहीं करोगे।”

“वाह, यह कैसे हो सकता है, पापा! आर्मी रैगिंग के द्वारा ही तो हमें हर परिस्थितियों का डटकर मुक़ाबला करना सिखाती है, दुनिया की समझ का विस्तार करती है।”

“वह तो आर्मी की टफ़ ट्रेनिंग और ज़िन्दगी अपने आप समझा देगी। तुम लोग जिस प्रकार रैगिंग करते हो वह क्रूरता है। याद करो, तुम्हारे ही क्लासमेट ने रैगिंग से परेशान होकर आत्महत्या कर ली थी।” अपने सूखे होंठों पर जीभ फेरते हुए कहा शेखर बाबू ने।

“हाँ मुझे याद है पापा। मैं उस हद तक जाऊँगा भी नहीं, लेकिन रैगिंग का जो स्वाद चखा है मैंने, उसका कम-से-कम एक अंश जूनियर्स भी तो चखे।”

“नहीं बेटा, तुम ऐसा हर्गिज नहीं करोगे। अँग्रेजी में एक कहावत है, ‘एन आई फॉर एन आई विल मेक दि वर्ल्ड बलाइंड।’ यानी कोई तुम्हारी एक आँख फोड़े, तुम उसकी फोड़ो, फिर वह तुम्हारी दूसरी भी फोड़ दे, फिर तुम तो इसी प्रकार आँखें फूटती रहें तो यह दुनिया तो अन्धी हो जाएगी। बोलते-बोलते शेखर बाबू का चेहरा हलके से काँपा।

उसने आश्चर्य से देखा, अपने पापा की ओर! जिस पिता को वह सिर्फ़ नोट कमाने, रौब गाँठने और तिकड़म भिड़ाने की मशीन भर समझता था वे इतना गहरा भी सोच सकते हैं? पहली बार पिता को लेकर हलकी-सी गर्वीली अनुभूति हुई। कौन जाने सृष्टि के प्रथम प्रभात की तरह उसके पिता भी उसकी उम्र में उतने ही आदर्शवादी, मानवीय और स्वप्नदर्शी रहे हों और बाद में जीवन की कड़ी धूप ने सुखा दिये हों सारे अच्छे मूल्य! सारे विकल्प! सारी कोमलता। उसने देखा था ऋषिकेश में, गंगा जब स्रोत से फूटती थी तो उसका पानी कितना उज्ज्वल, श्वेत और स्वच्छ रहता था। उसका पानी सदैव स्रोत के पानी की तरह शुद्ध, उज्ज्वल और स्वच्छ रहे, इसीलिए तो जा रहा है वह आर्मी में। उसने स्नेह और गर्व भरी दृष्टि से देखा अपने पिता की ओर और वादा किया उनसे, “ठीक है पापा, मैं अपने जूनियर्स की रैगिंग कभी नहीं करूँगा।”

गाड़ी चलने का समय हो गया था। उसने अपने माता-पिता के चरण स्पर्श किये। पिता ने उसके सिर पर हाथ फेरा। उसने फिर देखा, पिता की आँखों में कोई पीड़ा लहरायी जैसे कोई घुन दिन -रात काट रहा हो उनकी आत्मा को। माँ की आँखें भी भादों का आसमान बनी हुई थी। उससे पहले की वह कच्चा पड़े, उसने झट से सिद्धार्थ की पीठ पर धौल जमाया और फुर्ती से अपनी सीट पर बैठ गया।

ट्रेनदौड़ रही है। घरवाले पीछे छूट गये हैं लेकिन घर है कि लिपटा -लिपटा साथ चला आ रहा है। खिड़की से दिख रहे हैं बाहर के नज़ारे/छोटे-छोटे पोखर। किनारे-किनारे डाब के पेड़। कहीं सुपारी और केले के पेड़। छोटे -छोटे घर, बॉस, खपच्चियों और माटी की टाइल्स की सहायता से बने हुए। कहीं हैंड पाइप चलाती तो कहीं आँगन बुहारती औरतें। घर के बाहर बकरियाँ। मुर्गियाँ। मूँज की खटिया पर लेटा कोई बूढ़ा। बीच-बीच में छोटे-छोटे खेत। पुआलों के ढेर। लगभग एक जैसे दृश्य। एक जगह वह थोड़ा चौंका। उसने देखा - कमर तक कीचड़ में धँसी एक युवती, साथ में एक युवक शायद उसका पति, दोनों मिलकर तालाब के चिकने गन्धाते नीले काले दलदल को बाहर फेंकते हुए शायद वे तालाब की सफ़ाई कर रहे थे। हे भगवान! इतने गन्धाते कीचड़ में कोई कैसे कमर तक धँस कर खड़ा रह सकता है - वह भी इतने लम्बे समय तक के लिए। हिश! कितना कठोर जीवन। सुबह से ही जीवन के बन्दोबस्त में लगे स्त्री-पुरुष! एक जगह देखा उसने, पेड़ पर अटकी पतंग। मन किया उसका, खिड़की से हाथ बढ़ाकर अटकी पतंग को उड़ा दे।

एक जगह देखा उसने... रेलगाड़ी की पटरी के दोनों ओर लोटा पकड़े खुले में सू -सू करते और हगते हुए लोग। हिश, उसने नज़रें घुमा लीं।

उसके माँ-बाप और चाचा-चाची तो नहीं जीने ऐसी ज़िन्दगी! कितना अन्तर है जीवन -जीवन में।

मेरी दुनिया बड़ी हो रही है। मैं ज़िन्दगी में गहरे धँसने की तैयारी कर रहा हूँ। उसने अपने आपसे कहा। उसे याद आया, पिछली बार जब वह पहली बार आर्मी में ज्वाइन करने के लिए निकल रहा था तो अन्त में हताश होकर उसके पिता ने जैसे एक कड़वा सच उसके सामने उगला था - तुम ज़िन्दगी की टफ़ कम्पटीशन से घबराकर आर्मी में मुँह घुसेड़ रहे हो, जहाँ न कोई कम्पटीशन है, न ही नौकरी छूटने का डर, न पीछे छूट जाने का तनाव, सीमित आकाश और सीमित उड़ान। न नीचे गिरने का ख़तरा, न ख़ूब ऊपर गुम हो जाने का डर। एक वाक्य में कहूँ तो तुम ज़िन्दगी से भाग रहे हो। ‘मैं ज़िन्दगी से नहीं वरन ज़िन्दगी में भाग रहा हूँ पापा! आर्मी में यदि नहीं आता तो क्या देख पाता जीवन का यह विद्रूप?

क्या पापा कन्फयूज़्ड हैं?

या यह उनका सिर्फ़ पुत्र मोह है?

विचारों के परिन्दे फिर उड़ने लगे।

देहरादून के मौसम में इस बार ख़ासा बदलाव था। अब वह ख़ुद सीनियर हो गया था और उसके सीनियर ऑफ़िसर्स। रैगिंग के काले बादल छँट गये थे।