सूचना क्रांति सह तकनीकी विस्फोट / कमलेश कमल
आज लिखा और छापा खूब जा रहा है, पर 'किताबें नहीं बिक रहीं' का रोना हर प्रकाशक, लेखक रो रहा है। औसत और घटिया सामग्री की बाढ़ है पर अर्थगाम्भीर्ययुक्त-गुणवत्तायुक्त लेखन दुर्लभ हो जाता है।
किसी विषय पर सामान्य आलेख तो 100 मिल जाएँ पर चिंतन की गहराई जिसमें हो या जो सभी बिंदुओं को समाहित करे ऐसा सम्यक् आलेख मिलना मुश्किल हो जाता है।
इसका कारण क्या है? ज़्यादा नहीं, तो बस दो दशक पीछे जाइए। अगर आपकोे भी लिखने का शौक रहा हो तो याद करें कि किसी प्रकार एक अदद पेज छप जाए, इसके लिए कितना पढ़ते थे। शब्द को साधते थे। शिल्प को मांजते थे। तमाम लेखकों की आत्मकथाओं मेंं सफलता कि कीमियागिरी तलाशते थे। "खूब पढ़ो, थोड़ा लिखो" का सूत्र-वाक्य पकड़ चलते थे। जो थोड़ा लिखते थे, उसमें भी कितनी काट-छांट होती थी। फिर, अगर शिक्षक ने या किसी चाचा-मामा या मित्र ने बड़ाई कर दी तो आंखों में कंचों की-सी चमक आ जाती थी।
अब वर्तमान में आइए! बिना गहराई में पढ़े, समझे लोग आभासी दुनिया में कुछ भी लिख देते हैं और लेखकीय सफलता का निकष पोस्ट को मिले लाइक्स को बना लेते हैं। कहीं से कुछ लिया, कहीं से कुछ और लिया ...जोड़ कर एक आलेख लिख दिया।
कविताओं की तो पूछें ही मत-मन में जो-जो शब्द आते हैं, उसे कागज़ पर लिख दो, हो गई कविता। यह बहुत ही डरावना सच है। ऐसा नहीं है कि आज अच्छी कविता नहीं लिखी जा रही हैं, पर शायद 100 में 90 कविताएँ आज ऐसी ही हैं।
और, सच तो है कि आज एक ऐसा दौर दरपेश है जहाँ सोचने-समझने, चिंतन-मनन का वक्त ही नहीं। कॉपी, पेस्ट और फॉरवर्ड से अपनी बुध्दिमत्ता का लोहा मनवाने को उद्यत और उद्धत एक पूरी पीढ़ी पुरानी पीढ़ी के लेखकों, चिंतकों को मुँह चिढ़ा रही है।
कुल मिलाकर फ़टाफ़ट ज्ञान के इस दौर में भाषिक गहराई और चिंतन की सघनता जैसे शब्द बेमानी हो गए हैं।
इतना ही नहीं, साझा संकलनों, सहयोग राशि लेकर प्रकाशन और वैनिटी पब्लिशिंग जैसे प्रकल्पों ने तो छपने की परिभाषा भी बदल कर रख दी है। छपना अब कोई बड़ी बात नहीं रही। हाँ, पढ़ना अब बड़ी बात अवश्य हो गई है।
याद है कि एक बड़ी आपा ने मुझसे कहा था-"इस व्हाट्सएप और फेसबुक के दौर में व्यंजना कौन समझता है...अभिधा में बात रख दी ...बस हो गया...आख़िर साहित्य के लिए समय किसे है?"
तब मुझे बड़ा विस्मय हुआ था जो तदनंतर विक्षोभ में परिणत हो गया। लेकिन सोचा तो लगा कि सच ही तो कहा था। दारुण यथार्थ!
यह वह दौर है साहब जब आपकी उजड्डता और अशिष्टता कूल लगने लगती है और किसी के अख़लाक़ को उसकी कमज़र्फी मान लिया जाता है।
बहरहाल, इन सबने सोचने को विवश तो किया ही है कि क्या लेखकीय प्रविधियाँ शीर्षासन कर रही हैं? लोग पढ़ कम और लिख ज़्यादा रहे हैं। समझ कम और समझा ज़्यादा रहे हैं। साहित्य से "सहित" का भाव तो गायब है ही... सोच भी गायब हो रहा है।
मनमाफ़िक सूचनाओं के अतिभार से आपकी राय निर्मित की जा रही है। या तो कोई बहुत अच्छा है या फिर बहुत बुरा...पेंडुलम इस अति पर या दूसरी अति पर! सम्यक् चिंतन की गुंजाइश ही क्षीणतर होती जा रही है।
ऐसे में यह तो मानना ही पड़ेगा कि सामान्य रूप में लेखकीय प्रविधियों का एक अलग और किंचित् मुश्किल दौर हमारे सामने है...हाँ, विशिष्ट लेखकीय प्रतिभाएँ पहले भी सामान्य खाँचे में फिट नहीं होती थीं और आज भी नहीं होती हैं। ऐसे विशिष्ट सर्जनधर्मा कलमकार युग की किसी ख़ास प्रवृत्ति से नहीं बंधते!