सूबेदार ध्यानचंद की शौर्यगाथा / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 23 जुलाई 2013
हॉकी में भारत को लगातार तीन ओलिंपिक (१९२८, १९३२, १९३६) में विजय दिलाने वाले खिलाड़ी ध्यानचंद को भारतरत्न दिए जाने की चर्चा है। केवल दो ही खिलाड़ी इस प्रतिस्पद्र्धा में हैं - सचिन तेंडुलकर एवं ध्यानचंद। सचिन का योगदान भी महान है, परंतु ध्यानचंद को ही भारतरत्न से नवाजा जाना चाहिए, क्योंकि चालीस वर्षीय तेंडुलकर के लिए उम्र पड़ी है पुरस्कृत होने के लिए। दो खेलों की तुलना नहीं की जा सकती, परंतु ध्यानचंद ने अंग्रेजों के आधिपत्य के दिनों दोहरी लड़ाई लड़ी है, मैदान पर विपक्ष से और मैदान के बाहर अंग्रेजों के पक्षपात से। सूबेदार सामेश्वर दत्त सिंह के सुपुत्र ध्यानचंद ने वृक्ष की डाल से अपनी हॉकी स्टिक जैसी दिखने वाली अजीबोगरीब वस्तु से चौदह वर्ष की उम्र में अभ्यास किया है और लंबे कठोर परिश्रम के पश्चात उनको असली हॉकी स्टिक से खेलने का अवसर मिला।
सूबेदार बल्ले तिवारी ने चौदह वर्षीय ध्यानचंद की जन्मजात प्रतिभा को मांजना प्रारंभ किया, परंतु उनकी असली समस्या अपने शिष्य के अनियंत्रित क्रोध की थी और अन्याय के खिलाफ उसका आक्रोश कहीं भी फूट जाता था। उन दिनों हॉकी टीम तीन पक्षों में बंटी थी - अंग्रेज, एंग्लो इंडियन व हिंदुस्तानी। टीम के चयन में भी पक्षपात होता था। एंग्लो इंडियन रिचर्ड ऐलन बचपन से ही ध्यानचंद और उसके भाई रूपचंद से नफरत करता था और तीनों उस टीम के सदस्य थे, जिसने १९२८, १९३२ और १९३६ में ओलिंपिक गोल्ड मैडल जीता।
इस विषय पर 'वॉक वॉटर मीडिया' के मनमोहन शेट्टी और उनकी बेटियां पूजा एवं आरती फिल्म की योजना पर कई महीनों से काम कर रहे हैं और इसके लिए आवश्यक अधिकार वे प्राप्त कर चुके हैं। इसे महान लेखक राजिन्दर सिंह बेदी की पोती इला बेदी दत्ता लिख रही हैं। बर्लिन में उस ऐतिहासिक स्टेडियम का रखरखाव इतना अच्छा है कि आज भी वहां शूटिंग हो सकती है। जर्मन इतिहासबोध कमाल का है और विरासत को संभाले रखना भी हमें उनसे सीखना चाहिए। ज्ञातव्य है कि जर्मन मैक्समुलर ट्रस्ट ने ही भारत के पुरातन ग्रंथों का विश्वसनीय अनुवाद कराया और मूल का भी संरक्षण किया है। जर्मन उपन्यासकार हरमन हेस ने 'सिद्धार्थ' नामक किताब लिखी है, जिस पर शशि कपूर और सिम्मी ग्रेवाल अभिनीत फिल्म बनी थी। इसी जर्मनी में एक कट्टरपंंथी तानाशाही दौर हिटलर का रहा, जो आर्य जाति की श्रेष्ठता के जुनून में पूरी दुनिया को अविश्वसनीय क्षति पहुंचा चुका है। जाति और धर्म के आधार पर रचा तूफान रोके नहीं रुकता। उनके प्रचार मंत्री गोएबल्स थे और उन्होंने हिदायत दी थी कि १९३६ को बर्लिन में आयोजित ओलिंपिक में जर्मनी को अधिकतम गोल्ड मैडल जीतना हिटलर की राजनीति के लिए आवश्यक है। १९२८ की प्रतियोगिता में जर्मन टीम के खिलाड़ी केमर्स के हृदय में ध्यानचंद से बदला लेने की तीव्र इच्छा जुनून का रूप ले चुकी थी और उसने गोएबल्स के सामने अपनी योजना रखी, जिसे मंजूरी देकर उसे जर्मन हॉकी का 'हिटलर' बनाया। गोएबल्स यह भी प्रयास कर चुके थे कि ध्यानचंद जर्मन नागरिकता ले लें और प्रतिस्पद्र्धा के पूर्व उन्होंने ध्यानचंद को यह दावा करते भी सुना था कि हर हाल में जीत भारत की होगी। हिटलर के दाएं हाथ गोएबल्स को यह सुनना ही पसंद नहीं था और उनका विश्वास था कि प्रचार तंत्र का आधार सिद्धांत यह है कि एक झूठ को इतनी बार बोलो कि लोग उसे सत्य मानने लगें। हर तानाशाह का सारा तामझाम उसके प्रचार-तंत्र पर निर्भर करता है। उन्हीं दिनों रेनी रेजन्थाल ने ऐसा वृत्तचित्र शूट किया था कि हिटलर दैवीस्वरूप में नजर आते थे। अत: उन्हें बर्लिन ओलिंपिक पर वृत्तचित्र बनाने का अधिकार दिया गया और इसकी डीवीडी आज भी बाजार में दो भागों में उपलब्ध है - 'ओलम्पिया।'
एक अभ्यास मैच में केमर्स ने पांच खिलाडिय़ों को निर्देश दिया कि ध्यानचंद के पास गेंद ही नहीं जानी चाहिए। ध्यानचंद अपनी पहली हार से तिलमिलाकर किसी अज्ञात स्थान को चले गए, जहां उस आहत शेर की सेवा एक जर्मन युवती ने की। पश्चाताप की अग्नि से गुजरकर एक नया ध्यानचंद वापस लौटा और अपने छोटे भाई रूपसिंह से हुए विवाद को समाप्त किया तथा उसे वृक्ष की डाल से बनाई अपनी स्टिक इस तरह दी कि अब हॉकी की परंपरा उसके हाथ है।
उस प्रतियोगिता के भी मैच भारत जीता और फाइनल में जर्मनी के खिलाफ ध्यानचंद ऐसा खेले कि उन्हें हॉकी का जादूगर माना गया। गोएबल्स को शक था कि ध्यानचंद की हॉकी में कोई चुंबक है कि गेंद चिपकी रहती है। अत: उनकी हॉकी स्टिक का वैज्ञानिक परीक्षण किया गया, परंतु रहस्य तो ध्यानचंद की प्रतिभा में था, उनके दिमाग में था। उनके कोच बल्ले तिवारी ने उन्हें सिखाया था कि मैदान पर मैच की पूर्व रात को अकेले थोड़ा अभ्यास कर उनका चित्र अवचेतन में कैद कर लो तो मैच के समय आंख बंद करके भी खेला जा सकता है। ध्यानचंद को बाद में ज्ञात हुआ कि अंग्रेज अफसर मुरडाक की शर्तों को स्वीकार करके सूबेदार बल्ले तिवारी ने १९२८ ओलिंपिक टीम में उनके चयन को संभव बनाया था। बल्ले तिवारी को त्यागपत्र देना पड़ा था।
बहरहाल, ध्यानचंद का जीवन और संघर्ष एक महान खिलाड़ी ही नहीं वरन परम देशभक्त का रहा है। 'भारत रत्न' देने में हम देर कर चुके हैं।