सूरज का इंतजार / बलराम अग्रवाल
पात्र
महात्मा गाँधी : वयोवृद्ध अवस्था
मोहनदास : महात्मा गाँधी के बचपन की भूमिका, उम्र 8-10 साल
बालक 1 : मोहनदास का बालसखा, उम्र 8-10 साल
बालक 2 : मोहनदास का बालसखा, उम्र 8-10 साल
पुतलीबाई : मोहनदास की माँ, युवावस्था
सुहासिनी : बालिका, उम्र 8-10 साल
भजन गायक व प्रार्थना सभा में श्रद्धालुओं के तौर बैठाने के लिए अन्य बालक-बालिकाएँ अलग-अलग आयु-वर्ग के; संख्या : आवश्यकतानुसार।
समय : संध्याकाल।
दर्शक दीर्घा में प्रकाश बंद होने के साथ ही मंच की ओर से भजन सुनाई देना प्रारम्भ होता है :
भजन गायक का एकल स्वर : वैष्णव जन तो तेने कहिए, जे पीर पराई जाने रे !
उपस्थित जनसमूह का सम्मिलित स्वर : वैष्णव जन तो तेने कहिए, जे पीर पराई जाने रे !
इसी के साथ मंच पर धीरे-धीरे प्रकाश फैलना शुरू होता है। दर्शक देखते हैं कि मंच पर गोलाकार बनाये गये एक चबूतरे पर महात्मा गाँधी सामने की ओर चेहरा किए आँखें मूँदे अपनी चिर-परिचित मुद्रा में बैठे हैं। उनके दायीं ओर हारमोनियम और तबला लेकर दो भजन गायक भी दर्शकों की ओर चेहरा किये बैठे हैं जिन्हें सुविधानुसार बालक भी रखा जा सकता है और बालिकाएँ भी तथा एक बालक-एक बालिका भी; यहाँ तक कि युवा भी। खादी के सफेद धोती-ब्लाउज पहने कुछ बालिकाएँ और सफेद कुर्ता-पाजामा-टोपी पहने कुछ बालक महात्मा गाँधी की ओर मुँह किए बैठे हैं और भजन गा रहे हैं।
मंच पर पूर्ण प्रकाश होने तक इन पंक्तियों का गायन जारी रहता है। पूर्ण प्रकाश होते ही महात्मा गाँधी दायें हाथ की हथेली ऊपर उठाकर भजन गाने वाले को शांत हो जाने का इशारा करते हैं। भजन गाने वाले शांत हो जाते हैं। मौनपूर्वक गाँधी जी हथेलियों के इशारे से ही पुन: गाना शुरू करने का इशारा करते हैं तो भजन गायक दूसरा भजन शुरू करते हैं।
भजन गायक : ईश्वर अल्ला तेरो नाम, सबको सन्मति दे भगवान।
सामने बैठे सभी श्रद्धालु : ईश्वर अल्ला तेरो नाम, सबको सन्मति दे भगवान।
भजन गायक : सबको सन्मति दे भगवान, सारा जग तेरी संतान।
सामने बैठे सभी श्रद्धालु : सबको सन्मति दे भगवान, सारा जग तेरी संतान।
भजन गायक : ईश्वर अल्ला तेरो नाम, सबको सन्मति दे भगवान।
सामने बैठे सभी श्रद्धालु : ईश्वर अल्ला तेरो नाम, सबको सन्मति दे भगवान।
(गाँधी जी इस बार दोनों हाथ ऊपर उठाकर सभी को शांत होने का संकेत करते हैं। सब शांत हो जाते हैं।)
गाँधी जी : (आँखें मूँदे-मूँदे ही बोलना शुरू करते हैं) सामने बैठे लोगों में आज कुछ बेचैनी महसूस कर रहा हूँ। आप में से किसी को कुछ कहना या पूछना है शायद।
(उनकी यह बात सुनकर श्रद्धालुओं के बीच से सुहासिनी उठकर खड़ी हो जाती है।)
सुहासिनी : आपने मेरे मन की बात कह दी बापू जी। अंग्रेज सरकार के नये कानून के खिलाफ़ आमरण उपवास का आपका आज तीसरा दिन है। मैं जानना चाहती हूँ कि कई-कई दिनों तक कुछ भी खाये-पिये बिना रहने का बल आपने कहाँ से और कैसे पाया?
गाँधी जी : (आँखें मूँदे-मूँदे ही बोलना शुरू करते हैं) बहुत अच्छा सवाल किया सुहासिनी तुमने। सुनो, अन्याय और अधर्म से लड़ने की यह समूची ताक़त मुझे मेरी माता जी ने बचपन में ही मुझे दे दी थी। अब तो मैं उसका अभ्यास करता हूँ, बस।
सुहासिनी : आपकी माता जी ने? कैसे?
गाँधी जी : (आँखें खोलकर एक बार सामने बैठे सभी श्रद्धालुओं पर अपनी निगाह घुमाते हैं; फिर बोलना शुरू करते हैं) मेरी माता जी बिना पूजा-पाठ के कभी भी भोजन नहीं करती थीं… (गाँधी जी के आँखें खोलकर चारों ओर देखने के साथ ही मंच पर प्रकाश कम होने लगता है। उनका वाक्य शुरू होते ही पूर्ण अंधकार छा जाता है। इस बीच सारी मंच व्यवस्था बदल जाती है। अंधेरे में ही दो-तीन बालकों के परस्पर हँसी-ठट्ठा करने के स्वर उभरते हैं। एक स्त्री-स्वर भी उभरता है।)
स्त्री-स्वर : मोहन... मोहन बेटा… !
(इस स्त्री-स्वर के साथ अँधेरे में ही नेपथ्य से गाँधी जी की आवाज़ उभरती है )
गाँधी जी : यह मेरी माता पुतलीबाई की आवाज़ है। जिसे मोनिया और मोनी कहकर वे पुकार रही हैं वह मैं खुद हूँ… मोहनदास करमचंद गाँधी। मैं साथियों के साथ खेल में मस्त हूँ। माता जी की पुकार सुन नहीं पा रहा।
(स्त्री-स्वर पुन: उभरता है )
स्त्री-स्वर : मोहन…मोहन बेटा…!
(मंच पर प्रकाश फैलना शुरू होता है और पूर्ण प्रकाश में दर्शक देखते हैं कि आठ-दस साल की उम्र के दो तीन बालक एक जगह बैठकर कोई खेल खेल रहे हैं और पुतलीबाई पुकारती हुई उनके निकट आ पहुँची है।)
पुतलीबाई : मोनिया…तुम्हारे खाने का समय हो गया बेटा…! चलो, खाना खा लो।
मोहनदास : आपने खा लिया?
पुतलीबाई : मेरा आज व्रत है बेटा।
मोहनदास : व्रत है ! (खड़ा होकर उसके माथे पर हथेली रखता है) मुझे तो आपको बुखार जैसा महसूस हो रहा है?
पुतलीबाई : हाँ, है हल्का-सा बुखार…लेकिन उससे क्या?
मोहनदास : रोजाना मन्दिर जाना। वर्षा के चारों महीनों में पूरे व्रत रखना। दिन में केवल एक बार भोजन करना। बीमार होने पर भी व्रत को नहीं छोड़ना। यह सब…
पुतलीबाई : यह सब मेरे लिए मामूली बात है बेटा।
मोहनदास : कई बार तो आपको दो-दो तीन-तीन उपवास एक साथ करने पड़ जाते हैं!
पुतलीबाई : त्योहार एक-साथ पड़ जाते हैं तो उपवास भी एक-साथ करने ही पड़ेंगे न।
मोहनदास : लेकिन…कई-कई दिनों तक भूख को आप सह कैसे लेती हैं माता जी?
पुतलीबाई : भूख का संबंध पेट से नहीं, मन से है बेटा। मन को खाने की चीज़ों से हटाकर अगर अपने ज़रूरी कामों में लगा दो तो वह भूख की तरफ भागना बंद कर देता है। यह बात तू बड़ा होकर खुद समझ जायेगा।
मोहनदास : इस चौमासे में कौन-सा व्रत रखा हैं माता जी?
पुतलीबाई : इस बार सूर्यदेव के दर्शनों का व्रत लिया है। रोज़ाना उनका दर्शन करने ही भोजन पाना है।
मोहनदास : और अगर उनका दर्शन न हो पाये तो?
पुतलीबाई : तो उपवास।
मोहनदास : हे राम! कब से शुरू हुआ है आपका यह व्रत ?
पुतलीबाई : पिछले हफ्ते से।
मोहनदास : पिछले हफ्ते से? माता जी, यह पोरबंदर है, समंदर का किनारा। ऊपर से चौमासा यानी बारिश का मौसम। … पिछले तीन दिन से तो यहाँ सूर्य भगवान को बादलों ने सामने ही नहीं आने दिया है। तो…?
पुतलीबाई : तो… उपवास। भोजन तो सूर्य भगवान का दर्शन करके ही पाना है।
मोहनदास : तब ठीक है, आज मैं भी सूर्य भगवान का दर्शन करके आप के साथ ही भोजन पाऊँगा।
पुतलीबाई : थोड़े और बड़े हो जाओ, तब ये व्रत शुरू करना। अभी खाना खा लो, चलो।
मोहनदास (अपने साथियों से) : अभी आप खेलो, मैं खाना खाकर आता हूँ।
बालक 1 व बालक 2 : ठीक है।
(मोहनदास माता जी के साथ चला जाता है। साथी बच्चे मौनपूर्वक खेल में लगे रहते हैं। कुछ ही देर में मोहनदास भागा हुआ आ जाता है।)
बालक 1 : अरे…
बालक 2 : तुम तो बड़ी जल्दी खाना खा आये मोनिया ?
मोहनदास : खाकर नहीं, छिपाकर आया हूँ।
बालक 1 : क्यों?
मोहनदास : माता जी ने तीन दिनों से कुछ नहीं खाया है और मैं यह जानते हुए भी खाता रहूँ, अच्छा लगेगा क्या?
बालक 2 : लेकिन माता जी को तुम्हारे खाना छिपाकर आने की बात पता लगने पर कितना दुख होगा, यह सोचा है?
मोहनदास : सोचा है। देखो, माता जी घर के भीतर कामकाज में व्यस्त रहती हैं… इसलिए उन्हें सूरज भगवान के निकल आने का तुरन्त पता नहीं चलता है। हम लोग अपना यह खेल छोड़कर बादलों के पीछे छिपे सूरज पर नजर रखते हैं। जैसे ही वे बादलों के पीछे से झाकेंगे, मैं माता जी को आवाज़ लगा दूँगा।
बालक 1 : हाँ, आवाज़ सुनते ही वे दौड़ी चली आयेंगी और सूरज का दर्शन करके उपवास खोल लेंगी।
मोहनदास : पीछे से मैं भी छिपाकर रखे अपने भोजन को लेकर उनके सामने जा बैठूँगा। मैं समझता हूँ, तब वे मुझ पर नाराज़ नहीं होंगी।
बालक 2 : … लेकिन समझ तो जायेंगी ही कि मोनिया अब उनके साथ भी चालाकी करने लगा है।
मोहनदास : इस बहस को छोड़ो और बादलों के पीछे छिपे सूरज पर नजर गड़ाओ, बस।
(सभी एकजुट होकर बैठ जाते हैं और बादलों की ओर देखने लगते हैं। एकाएक बालक-1 उछलकर खड़ा हो जाता है।)
बालक 1 : ओए उधर देखो, उस बादल के पीछे उजाला-सा नजर आने लगा है।
बालक 2 : हाँ, …उस काले बादल का पेट फाड़कर सूरज भगवान प्रकट होने ही वाले हैं।
बालक 1 : मोनी, तू माता जी को आवाज़ लगा… घर से निकलकर यहाँ पहुँचने तक सूरज भगवान पूरी तरह बाहर आ चुकेंगे… सच्ची।
मोहनदास : नहीं भाई, जब तक सूरज भगवान को खुद मैं ही न देख लूँ तब तक माता जी को आवाज नहीं लगा सकता। इस थोड़े-से उजाले को देखकर वे नहीं मानने वाली।
(तभी बालक 1 व बालक 2 किलककर उछल पड़ते हैं।)
दोनों बालक एक साथ : एकदम सूरज भगवान… मोनिया, माता जी को आवाज़ लगा।
(मोहनदास भी उधर देखकर किलक उठता है और जोर-जोर से माता जी को पुकारता है)
मोहनदास : माता जी… माता जी जल्दी आइये… सूरज भगवान बादलों के पीछे से बाहर निकल आये हैं…
दोनों बालक (उतावले-से होकर एक साथ) : उन्होंने सुना नहीं है शायद… तू भीतर जा और उन्हें साथ लेकर आ, जल्दी कर।
(मोहनदास भागकर अन्दर जाता है और हाथ पकड़कर अपनी माता पुतलीबाई को खींचता हुआ-सा बाहर लाता है। बालक 1 व बालक 2 अपने-अपने सिर को थामे उदास बैठे हैं। वह उनकी ओर नहीं देखता।)
मोहनदास : देखो माता जी, पूरे तीन दिन बाद आज दर्शन दिये हैं सूरज भगवान ने।
(पुतलीबाई बादलों की ओर देखती है।)
पुतलीबाई : कहाँ हैं? मुझे तो हल्का उजाला-सा भी नजर नहीं आ रहा!
मोहनदास (उदास आवाज़ में) : हाँ, काले बादलों ने इतनी-सी देर में ही उन्हें दोबारा ढँक लिया। हम सब ने आपको बड़ी आवाज़ें लगाईं… गलती मेरी है, मुझे पहले ही जाकर आपको बुला लाना था…
पुतलीबाई : कोई बात नहीं, भोजन आज भी भाग्य में नहीं है…चलकर काम में लगती हूँ… (वापिस जाने लगती है। दो कदम चलकर रुक जाती है। पलटकर मोहन के निकट आती है और उसे गले से लगाकर कहती है) मोनी, मेरे बेटे ! माँ भूखी है यह जानकर तूने भी खाना नहीं खाया !! छिपाकर यहाँ चला आया सूरज देखने को !!! माँ की आँखें बच्चों पर ही टिकी रहती हैं, यह नहीं जानता?
मोहनदास : आपको भूखा जानकर निवाला मुँह की ओर जाता ही नहीं है माँ।
पुतलीबाई : यह उपवास नहीं है बेटे। काले बादलों और मेरे बीच एक लड़ाई है, जिसे जीतूँगी मैं ही। गुलामी की घटाएँ कितना भी घेर लें, आज नहीं तो कल आज़ादी का सूरज जरूर चमकेगा।
(यह दृश्य यहीं फ्रीज़ हो जाता है और नेपथ्य से गाँधी जी की आवाज़ उभरती है)
गाँधी जी : वह दिन था, और आज का दिन है सुहासिनी ! ……
(इसी वाक्य के साथ मंच पर प्रकाश मंद पड़ता हुआ अंधकार में बदल जाता है। इस अंधकार में मंच पर प्रारम्भ वाला दृश्य बन जाता है जिसमें गाँधी जी गोल चबूतरे पर बैठे श्रद्धालुओं से बतिया रहे हैं…)
गाँधी जी : …किसी भी तरह के अन्याय के खिलाफ़ जब भी उपवास पर बैठता हूँ… मुझे ऐसा लगता है जैसे मेरी माता जी ने मुझे गले से लगा रखा है और वह कह रही हैं - यह उपवास नहीं है बेटे! काले बादलों और मेरे बीच एक लड़ाई है, जिसे जीतूँगी मैं ही। …और माता जी हमेशा जीतती थीं सुहासिनी। उनका वह विश्वास ही मेरी ताकत है। देख लेना, जीतूँगा मैं ही।
(यों कहकर वह पहले की तरह आँखें मूँद लेते हैं और दायाँ हाथ ऊपर उठाकर गायकों को भजन गाने का इशारा करते हैं।)
भजन गायक : ईश्वर अल्ला तेरो नाम, सबको सन्मति दे भगवान।
सभी लोग : ईश्वर अल्ला तेरो नाम, सबको सन्मति दे भगवान।
भजन गायक : सबको सन्मति दे भगवान, सारा जग तेरी संतान।
सभी लोग : सबको सन्मति दे भगवान, सारा जग तेरी संतान।
(इन पंक्तियों के साथ ही प्रकाश मंद होना शुरू हो जाता है। पूर्ण अंधकार।)