सूरज का सातवाँ घोड़ा / धर्मवीर भारती / पृष्ठ 17
छठी दोपहर
क्रमागत पिछली दोपहर से आगे
सत्ती की मृत्यु ने माणिक मुल्ला के कच्चे भावुक कवि-हृदय पर बहुत गहरी छाप छोड़ी थी और नतीजा यह हुआ था कि उनकी कृतियों में मृत्यु की प्रतिध्वनि बार-बार सुनाई पड़ती थी।
इसी बीच में उनके भइया का तबादला हो गया और भाभी उनके साथ चली गईं और घर माणिक की देख-भाल में छोड़ दिया गया। माणिक को अकेले घर में बहुत डर लगता था और अक्सर लगता था कि जैसे वे कंकालों के सुनसान घर में छोड़ दिए गए हों। उन्हें पढ़ने का शौक था पर अब पढ़ने में उनका चित्त भी नहीं लगता था उनकी जेब भी भइया के जाने से बिलकुल खाली हो गई थी और वे कोई ऐसी नौकरी ढूँढ़ रहे थे जिसमें वे नौकरी के साथ-साथ पढ़ाई भी कायम रख सकें, इन सभी परिस्थितियों ने मिल कर उनके हृदय पर गहरी छाप छोड़ी थी और पता नहीं किस रहस्यमय आध्यात्मिक कारण से वे अपने को सत्ती की मृत्यु का जिम्मेदार समझने लगे थे। उनके मन की धीरे-धीरे यह हालत हो गई कि उन्हें मुहल्ला छोड़ कर ऐसी जगहें अच्छी लगने लगीं जैसे - दूर कहीं पर सुनसान पीपल तले की छाँह, भयानक उजाड़ कब्रगाह, पुराने मरघट, टीले और खड्ड आदि। उन्हें चाँदनी में कफन दिखाई देने लगे और धूप में प्रेयसी की चिता की ज्वालाएँ।
तब तक हम लोगों की माणिक मुल्ला से इतनी घनिष्ठता नहीं हुई थी अत: इस प्रकार की बैठकें नहीं जमती थीं और दिन-भर भटकने के बाद माणिक अक्सर चाय-घरों में जा कर बैठा करते थे। चाय-घरों की चहल-पहल में थोड़ा-सा मन बहल जाया करता है।
(लेकिन यह मैं बता दूँ कि माणिक मुल्ला का यह खयाल बिलकुल गलत था कि सत्ती की मृत्यु हो गई है, सत्ती सिर्फ बेहोश हो गई थी और उसी हालत में चमन ठाकुर उसे ताँगे पर ले गए थे क्योंकि बदनामी के डर से महेसर दलाल नहीं चाहते थे कि वे लोग एक क्षण भी मुहल्ले में रहें। पर सत्ती कहाँ थी इसका पता बाद में माणिक को लगा।)
इधर माणिक ने यह निश्चय कर लिया था कि यदि उसकी वजह से सत्ती का जीवन नष्ट हुआ तो वे भी हर तरह से अपना जीवन नष्ट करके ही मानेंगे जैसे शरत के देवदास आदि ने किया था और इसलिए जीवन नष्ट करने के जितने भी साधन थे, उन्हें वे काम में ला रहे थे। उनका स्वास्थ्य बुरी तरह गिर गया था, उनका स्वभाव बहुत असामाजिक, उच्छृंखल और आत्मघाती हो गया था, पर उन्हें पूर्ण संतोष था क्योंकि वे सत्ती की मृत्यु का प्रायश्चित कर रहे थे। उनकी आत्मा को, उनके व्यक्तित्व को और उनकी प्रतिभा को पातक लगा हुआ था और पातक की अवस्था में और हो ही क्या सकता है।
अक्सर उनके मित्रों ने उन्हें समझाया कि आदमी में जीवन के प्रति अदम्य आस्था होनी चाहिए। मृत्यु से इस तरह का मोह तो केवल कायरता और विक्षिप्तता के लक्षण हैं, उनकी राह मुड़नी चाहिए पर फिर वे सोचते कि अपने कर्तव्य-पथ से विचलित हो रहे हैं। और उनका कर्तव्य तो मृत्युपथ पर अदम्य साहस से अग्रसर होते रहना है। ऐसा विचार आते ही वे फिर कछुए की तरह अपने को समेट कर अंतर्मुख हो जाते। धीरे-धीरे उनकी स्थिति उस स्थितप्रज्ञ की भाँति हो गई जिसे सुख-दु:ख, मित्र-शत्रु, प्रकाश-तिमिर, सच-झूठ में कोई भेद नहीं मालूम पड़ता, जो समय और दिशा के बंधन से छुटकारा पा कर पृथ्वी पर बद्ध जीवों के बीच में जीवन्मुक्त आत्माओं की भाँति विचरण करते हैं। सामाजिक जीवन उन्हें बार-बार अपने शिकंजे में कसने का प्रयास करता था पर वे प्रेम के अलावा सभी चीजों को निस्सार समझते थे चाहे वह आर्थिक प्रश्न हो, या राजनीतिक आंदोलन, मोतिहारी का अकाल हो, या कोरिया की लड़ाई, शांति की अपील हो या सांस्कृतिक स्वाधीनता का घोषणा-पत्र। केवल प्रेम सत्य है, प्रेम जो रस है, रस जो ब्रह्मï है - (रसो वै स: - देखिए बृहदारण्यक -)।
और इस स्वयं-स्वीकृत मरण स्थिति से यह हुआ कि उनके गीत में बेहद करुणा, दर्द और निराशा आ गई और चूँकि इस पीढ़ी के हर व्यक्ति के हृदय में कहीं-न-कहीं माणिक मुल्ला और देवदास दोनों का अंश है अत: लोग झूम-झूम उठते थे। यद्यपि वे सब-के-सब ज्यादा चतुर थे, मृत्यु-गीतों की प्रशंसा करने के बाद अपने-अपने काम में लग जाते थे पर माणिक मुल्ला जरूर ऐसा अनुभव करते थे जैसे यह उजड़े हुए चकोर के टूटे हुए पंख हैं जो चाँद के पास पहुँचते-पहुँचते टूट गए और गिर रहे हैं, और हवा के हर हल्के झोंके के आघात से पथ-विचलित हो जाते हैं। सच तो यह है कि इनकी न कोई दिशा है, न पथ, न लक्ष्य, न प्रयास और न कोई प्रगति क्योंकि पतन को, नीचे गिरने को प्रगति तो नहीं कहते!
इसी समय माणिक मुल्ला से मैंने पूछा कि आखिर इस परिस्थिति से कभी आपका मन नहीं ऊबता था? वे बोले (शब्द मेरे हैं, तात्पर्य उनका) कि - ऊबता क्यों नहीं था? अक्सर मैं ऊब जाता था तो कुछ ऐसे-ऐसे करतब करता था कि मैं भी चौंक उठता था और दूसरे भी चौंक उठते थे। जिनसे मैं अक्सर अपने को ही विश्वास दिलाया करता था कि मैं जीवित हूँ, क्रियाशील हूँ। जैसे - कह कुछ और रहा हूँ, कहते-कहते कर कुछ और गया। इसे संकीर्ण मनवाले लोग झूठ बोलना या धोखा देना भी कह सकते हैं। पर यह सब केवल दूसरों को चौंकाना मात्र था, अपनी घबराहट से ऊब कर। तीखी बातें करना, हर मान्यता को उखाड़ फेंकने की कोशिश करना, यह सब मेरे मन की उस प्रवृत्ति से प्रेरित थीं जो मेरे अंदर की जड़ता और खोखलेपन का परिणाम थीं।'
लेकिन जब हम लोगों ने पूछा कि इसमें आखिर उन्हें संतोष क्या मिलता था तो वे बोले, 'मैं महसूस करता था कि मैं अन्य लोगों से कुछ अलग हूँ, मेरा व्यक्तित्व अनोखा है, अद्वितीय है और समाज मुझे समझ नहीं सकता। साधारण लोग अत्यंत साधारण हैं, मेरी प्रतिभा के स्तर से बहुत नीचे हैं, मैं उन्हें जिस तरह चाहूँ बहका सकता हूँ। मुझमें अपने व्यक्तित्व के प्रति एक अनावश्यक मोह, उसकी विकृतियों को भी प्रतिभा का तेज समझने का भ्रम और अपनी असामाजिकता को भी अपनी ईमानदारी समझने का अनावश्यक दंभ आ गया था। धीरे-धीरे मैं अपने ही को इतना प्यार करने लगा कि मेरे मन के चारों ओर ऊँची-ऊँची दीवालें खड़ी हो गईं और मैं स्वयं अपने अहंकार में बंदी हो गया, पर इसका नशा मुझ पर इतना तीखा था कि मैं कभी अपनी असली स्थिति पहचान नहीं पाया।'
'तो आप इस मन:स्थिति से कैसे मुक्त हुए?'
'वास्तव में एक दिन बड़ी विचित्र परिस्थिति में यह रहस्य मुझ पर खुला कि सत्ती जीवित है और अब उसके मन में मेरे लिए प्रेम के स्थान पर गहरी घृणा है। इसका पता लगते ही मैंने सत्ती की मृत्यु को ले कर जो व्यर्थ का ताना-बाना अपने व्यक्तित्व के चारों ओर बुन रखा था वह छिन्न-भिन्न हो गया और मैं फिर एक स्वस्थ साधारण व्यक्ति की तरह हो गया।'
उसके बाद उन्होंने वह घटना बताई :
जिन चाय-घरों में वे जाते थे उनके चारों ओर अक्सर भिखारी घूमा करते थे। वे चाय पी कर बाहर निकलते कि भिखारी उन्हें घेर लिया करते।
एक दिन उन्होंने एक नए भिखारी को देखा। एक छोटी-सी लकड़ी की गाड़ी में वह बैठा था। उसका एक हाथ कटा था और एक औरत गोद में एक भिनकता हुआ बच्चा लिए गाड़ी खींचती चलती आ रही थी। वह आ कर माणिक के पास खड़ी हो गई और पीले-पीले दाँत निकाल कर कुछ कहा कि माणिक ने आश्चर्य से देखा कि वह भिखारी तो है चमन ठाकुर और यह सत्ती है। माणिक को नजदीक से देखते ही सत्ती चौंक कर दो कदम पीछे हट गई, फौरन उसका हाथ कमर पर गया - शायद चाकू की तलाश में, पर चाकू न पा कर उसने फिर प्याला उठाया और खून की प्यासी दृष्टि से माणिक की ओर देखती हुई आगे बढ़ गई।
यह देख कर कि सत्ती जीवित है और बाल-बच्चों सहित प्रसन्न है, माणिक के मन की सारी निराशा जाती रही और उन्हें नया जीवन मिल गया और कुछ दिनों बाद ही आर.एम.एस. में तन्ना की जगह खाली हुई तो कविता-कहानी छोड़ कर उन्होंने नौकरी भी कर ली और सुख से रहने लगे। (जैसे माणिक मुल्ला के अच्छे दिन लौटे वैसे राम करे सबके लौटें।) इसी के कुछ दिनों बाद हम लोगों की माणिक मुल्ला से घनिष्ठ मित्रता हो गई और उनके यहाँ हम लोगों का अड्डा जमने लगा था।
अनध्याय
यद्यपि मेरा हाजमा भी दुरुस्त है और मैंने डाण्टे की डिवाइना कामेडिया भी नहीं पढ़ी है फिर भी मैं एक सपना देख रहा हूँ।
चिमनी से निकलने वाले धुएँ की तरह एक सतरंगा इंद्रधनुष धीरे-धीरे उग रहा है। आकाश के बीचों-बीच आ कर वह इंद्रधनुष टँग गया है।
एक जलता हुआ होठ, काँपता हुआ - दाईं ओर से इंद्रधनुष की ओर खिसक रहा है।
दाईं ओर माणिक का होठ, बाईं ओर लीला का। खिसकते-खिसकते इंद्रधनुष के नजदीक आ कर दोनों रुक जाते हैं।
नीचे धरती पर महेसर दलाल एक गाड़ी खींचते हुए आते हैं। गाड़ी चमन ठाकुर की भीख माँगने वाली गाड़ी है। उसमें छोटे-छोटे बच्चे बैठे हैं। जमुना का बच्चा, तन्ना का बच्चा, सत्ती का बच्चा। चमन ठाकुर का एक कटा हुआ हाथ अंधे अजगर की तरह आता है। बच्चों की गरदन में लिपट जाता है, मरोड़ने लगता है। उनका गला घुटता है।
इंद्रधनुष के दोनों प्यासे होठ और नजदीक आ जाते हैं।
तन्ना के दोनों कटे हुए पैर राक्षसों की तरह झूमते हुए आते हैं। उनमें नई लोहे की नालें जड़ी हैं। बच्चे उनसे कुचल जाते हैं। हरी घास - दूर-दूर तक बरसात से साइकिलों से कुचली हुई बीरबहूटियाँ फैली हैं। रक्त सूख कर गाढ़ा काला हो गया है। इंद्रधनुष की छाया तमाम पहाड़ों और मैदानों पर तिरछी हो कर पड़ती है।
माताएँ सिसकती हैं! जमुना, लिली, सत्ती।
दोनों होठ इंद्रधनुष के और समीप खिसकने लगते हैं - और समीप - और समीप।
एक काला चाकू इंद्रधनुष को रस्से की तरह काट देता है। दोनों होठ गोश्त के मुरदा लोथड़ों की तरह गिर पड़ते हैं।
चीलें... चीलें... चीलें... टिड्डियों की तरह अनगिनत चीलें!