सूरज निकला तो / सुधा भार्गव
वह दलित थी, उस पर भी बेचारी औरत जात! फिर तो दुगुन दलित। आदमी घर बैठ उसकी छाती पर मूंग दलता और बाहर रात के सन्नाटे में उसकी चीखें हवा में घुल जातीं। सुनने वालों को सुकून ही मिलता, दलित जो ठहरी!
पर माँ भी तो थी वह ,बस रख दिया तन-मन गिरवी। एक ही आस, बेटा पढ़ जाए तो शायद बुढ़ापा सुधर जाए। आठवी पास बेटा उस दिन चहकते हुये आया। बोला—माँ, माँ! देख तो इस अखबार में। सरकार हमारा कितना ध्यान रख रही है। अब से हमारी जमीन, हमारे पेड़ कोई नहीं छीनेगा। हम जंगल के राजा थे और रहेंगे।
-चुप भी रह। ये बातें पढ़ने-सुनने में ही अच्छी लगती हैं। ये गुमराह करने की अच्छी साजिश है। हवाई बातों को कागज पर उतारने में भी काफी समय लगता है।
-ठीक है, कडवे घूँट पीने की तो आदत है। अब सब्र के घूँट पीकर पेट भर लेंगे।
-इतने बरस हो गए आजादी को, किसी ने हमारी सुध ली?
-लेकिन माँ पैंसठ वर्षों के बाद हमारा सूरज तो निकला। इसकी रोशनी फैलने में समय तो लगेगा।
अपने बेटे के चेहरे पर खिली उम्मीदों की पंखुड़ियों को वह मुरझाता हुआ नहीं देखना चाहती थी, इसलिए एक माँ जबर्दस्ती अपने होठों पर बरखा लाने की कोशिश करने लगी ।