सूरत शहर में / निकोलाई मनूची
निकोलाई मनूची का जन्म सन् 1639 के आसपास वीनस (इटली) में हुआ बताते हैं। वह चौदह साल की उम्र में घर से भागकर समरकन्द होते हुए ईरान पहुँचा, फिर हिन्दुस्तान। प्रस्तुत हैं निकोलाई मनूची के कुछ संस्मरण, जो हमारी कथा यात्रा को समृद्ध करते हैं।
मैं अपने अँग्रेज स्वामी के साथ जो अब मुझे नौकर नहीं, अपना बेटा समझता था, 12 जनवरी, 1653 को सूरत पहुँचा। जैसे ही जहाज सूरत की बन्दरगाह पर खड़ा हुआ, मेरे स्वामी ब्लामाउण्ट ने मुझसे कहा कि मैं सामान की देखभाल करूँ। वह अकेला किनारे पर उतरेगा और सबसे पहले किसी हमदर्द अँग्रेज व्यापारी से मुलाकात करेगा। मेरा स्वामी बहुत परेशान था। उसको इंग्लैण्ड के राजा ने जो राजदूतक पत्र दिये थे, वे नष्ट हो चुके थे और उसके पास यात्रा-व्यय भी लगभग खत्म हो चुका था।
मेरे स्वामी मुझे जहाज पर छोड़कर चले गये थे। चार घण्टे बाद जब मिस्टर ब्लामाउण्ट वापस आये तो वह खुश थे। वह सूरत के मुगल गवर्नर से मुलाकात कर चुके थे और उसे बता चुके थे कि वह इंग्लैण्ड के राजदूत के रूप में हिन्दुस्तान आये हैं और सम्राट शाहजहाँ से मुलाकात करना चाहते हैं। सूरत में उसी दिन हमारे ठहरने का उचित प्रबन्ध कर दिया गया।
दूसरे दिन मैं सूरत की सैर को निकला। लोग अधिकतर सफेद कपड़े पहने हुए दिखाई दिये। हिन्दू स्त्रियाँ बेपरदा थीं और मुसलमान औरतें कहीं नजर नहीं आती थीं। जिससे यह पता चल सकता कि अरब और ईरान की तरह यहाँ की मुसलमान औरतें भी अपना चेहरा छुपाती हैं या नहीं। सूरत में मैंने हर व्यक्ति को खून थूकते हुए देखा। शुरू में मैंने यह समझा कि शायद यहाँ के लोगों को दाँतों की कोई बीमारी है लेकिन बाद में मुझे यह पता चला कि ये लोग पान खाते हैं और यह खून नहीं, बल्कि उसी पान की पीक है। एक दिन मैंने भी एक पान खाया। पान खाते ही मेरा सिर चकराने लगा। चेहरे का रंग सफेद हो गया और मैं अर्द्धचेतावस्था में धरती पर बैठ गया। एक अँग्रेज स्त्री उस समय मेरे निकट मौजूद थी, उसने मुझे नमक चटा दिया।
सूरत में हम 75 दिन ठहरे। इस नगर की कुल आय शाहजहाँ की बड़ी लड़की जहाँआरा को, जिन्हें आमतौर पर बेगम साहिबा कहा जाता है, पानदान के खर्च के लिए मिलती है। मुझे यह नगर बहुत पसन्द आया और इसकी खूबसूरती और सफाई देखकर मुझे स्वयं अपना नगर वीनस याद आ गया।
यहाँ मेरी कई फ्रांसीसी व्यापारियों से भी मुलाकात हुई। जान नाम का एक अँग्रेज व्यापारी, जो मेरे स्वामी की आर्थिक सहायता कर रहा था, से भी मुलाकात हुई। आखिर वह दिन भी आ गया, जब हमें आगरा चलना था।
पन्द्रह दिन की यात्रा के बाद हम बुरहानपुर पहुँच गये। बुरहानपुर एक छोटा-सा नगर है जिसके चारों ओर फसील नहीं है। यहाँ बहने वाला दरिया का पानी साफ और मीठा है। बुरहानपुर में ईरानी और आरमेनी व्यापारी काफी संख्या में रहते हैं। यहाँ बहुत नफीस और उम्दा कपड़ा बुना जाता है।
बुरहानपुर में फल बड़ी अधिकता से पैदा होते हैं। विशेषतः आम तो बहुत मात्रा में होता है। नगर के चारों ओर जो जंगल हैं, उनमें जानवर भी बड़ी अधिकता से पाये जाते हैं, लेकिन सैलानियों को चाहिए कि वे हरगिज इन जंगलों में प्रवेश न करें क्योंकि जैसे ही वे जंगल में प्रवेश करेंगे, डाकू या ठग उनको लूट भी लेंगे और उनकी हत्या भी कर देंगे। स्वयं मेरे साथ भी ऐसा होते-होते रह गया था।
मैं अपने काफिले के साथ जा रहा था कि मुझे एक मोर नजर आया। मैं घोड़े से उतरकर उस मोर की ओर दबे पाँव बढ़ने लगा। बन्दूक मेरे हाथ में थी। सहसा मैंने देखा, कि दो आदमी धनुष-बाण लिये मेरी ओर दौड़ते चले आ रहे हैं। मैं लपककर अपने घोड़े पर सवार हो गया और मैंने उन पर एक फायर कर दिया। फायर की आवाज सुनते ही वे रुक गये और मुझ पर बाण चलाने लगे, लेकिन उस समय तक मैं अपना घोड़ा सरपट दौड़ा चुका था।
मैं अब तक ईरान और तुर्की का भ्रमण कर चुका हूँ, लेकिन इन दोनों मुल्कों में मुझे कहीं भी यात्रा की वह सुविधा नहीं नजर आयी जो यहाँ मुगल हिन्दुस्तान में मिलती है। यहाँ हर जगह बादशाह ने यात्रियों के ठहरने के लिए सरायें बना दी हैं। ये सरायें एक छोटे-मोटे दुर्ग की तरह होती हैं। सराय का इंचार्ज सरकारी नौकर होता है जो सूरज डूबने के बाद सराय का फाटक बन्द कर देता है। सराय में केवल यात्रियों को ठहरने की इजाजत होती है। फौजी सिपाही उसमें नहीं ठहर सकते। मैंने रास्ते में कई सरायें इतनी बड़ी देखीं कि उनमें हजार-हजार यात्री ठहरे हुए थे। उनके साथ उनके घोड़े, खच्चर, ऊँट और हाथी भी थे। सराय में क्रय-विक्रय के लिए एक बाजार भी होता है और औरतों का हिस्सा मर्दों से अलग होता है। सराय का सारा खर्च बादशाह बर्दाश्त करता है।
चलते-चलते कई रोज बाद हम ग्वालियर पहुँचे। जहाँ एक बहुत भव्य दुर्ग है। इस दुर्ग में मुगल बादशाह अपने सम्मानित और शाही कैदियों को रखते हैं। दुर्ग कुछ इस अन्दाज में एक पहाड़ी पर बना है कि उस पर किसी ओर से हमला नहीं किया जा सकता। और यहाँ का कोई कैदी फरार नहीं हो सकता है। ग्वालियर में फूलों से इत्र निकालने का काम होता है।
ग्वालियर में संगीतकार बहुत अधिकता में रहते हैं। यहाँ गाने का शौक आम है। प्रसिद्ध है कि यहाँ जो पहाड़ हैं, वहाँ से ही देवताओं ने पहली बार दुनिया को राग-रागनियों का पाठ दिया था। ग्वालियर से तीन दिन के सफर के बाद हमें चम्बल नदी मिली और उसके बाद धौलपुर। उसी जगह 1658 में औरंगज़ेब और दाराशिकोह में एक निर्णयात्मक युद्ध हुआ था। मैं भी उस लड़ाई में दारा के साथ शामिल था।...
चार दिन के बाद हम आगरा पहुँचे। यहाँ के गवर्नर ने जब सुना कि इंगलैण्ड का राजदूत आया है तो उसने हमें रहने के लिए एक शानदार मकान दे दिया। जैसे ही नगर में हमारे आगमन की खबर फैली, आगरा में रहने वाले अँग्रेज मेरे स्वामी से मिलने के लिए पहुँच गये। हर रोज दावतें हुईं जिनमें मेरे स्वामी को उपहार भी दिये गये। आगरा में उस समय बादशाह नहीं ठहरे हुए थे, वह दिल्ली में थे। इसलिए मेरे स्वामी दिल्ली की ओर चल दिये।
काश! मुझे उस समय पता लग जाता कि मुझपर उस किशोरावस्था में क्या मुसीबत पड़नेवाली है तो मैं... हरगिज-हरगिज आगरा से न जाता और न अपने स्वामी को जाने देता।
यह हिन्दुस्तान में मेरी पहली मुसीबत थी।
मुसीबतें मुझ पर इसके बाद भी बेहद पड़ीं। मैं यहाँ हफ्तों भूखा रहा, महीनों आवारागर्दी करता रहा। कभी मैं नकली हकीम बना और कभी तोपखाने का उच्चाधिकारी लेकिन आगरा और देहली के बीच मुझे जिस संकट का आकस्मिक सामना करना पड़ा, वह सदा याद रहेगा।
अभी हमें आगरा छोड़े हुए केवल तीन ही दिन हुए थे। शाम करीब थी। हमें दूर से सराय नजर आ रही थी कि सहसा मेरे स्वामी पीड़ा से चिल्लाने लगे और उन्होंने मुझसे पानी माँगा। मैं अभी पानी लेकर उसके पास पहुँचने भी न पाया था कि वह उसी जगह गिरे और मर गये। उस समय शाम के पाँच बजे थे। 20 जून 1653 का दिन खत्म हो रहा था। किसी तरह मैं अपने स्वामी का शव सराय तक ले आया। सराय के इंचार्ज को जब यह मालूम हुआ कि यह शव ब्रिटिश राजदूत का है तो उसने तत्काल स्थानीय मुगल अफसर को सूचना दी। सूचना मिलते ही वह अफसर वहाँ पहुँच गया और उसने राजदूत के सारे सामान पर सील लगा दी।
सारा दिन मैं रोता रहा। सुबह कुछ आदमियों की सहायता से मैंने अपने स्वामी की कब्र खोदी। जिस समय मैं शव कब्र में उतार रहा था, शव का पेट गरमी की तीव्रता से फट गया। इतनी दुर्गन्ध फैली कि कुछ आदमी उसी स्थान पर बेहोश हो गये।
शाम तक मेरे स्वामी के सारे नौकर मुझे छोड़कर चले गये। सामान मुगल अफसर जब्त कर ही चुका था। मैं बिलकुल अकेला सराय के फर्श पर बैठा रोता रहा। किसी ने मुझे दिलासा तक न दिया। संयोगवश एक आदमी आगरा जा रहा था। मैंने उसे एक अँग्रेज के नाम पत्र दिया जो आगरा में एक कारखाना चलाता था, और उसे सारी कहानी लिख दी।
आठ दिन तक मैं उसी सराय में पत्र के उत्तर की प्रतीक्षा करता रहा। नौवें दिन दो अँग्रेज सराय में आये। ये दोनों मुगल फौज का लिबास पहने हुए थे और घुड़सवार फौज के कप्तान लगते थे। उन दोनों ने आते ही मुझसे कहा कि वे दोनों सम्राट के आदेशानुसार राजदूत का सारा सामान अपने अधिकार में लेने आये हैं, क्योंकि यहाँ जब कोई अमीर या राजदूत मरता है तो उसका सारा सामान शाही सम्पत्ति घोषित कर दिया जाता है। मैंने कहा कि राजदूत के सामान में मेरा सामान भी शामिल है जो मुझे दे दिया जाए लेकिन उन्होंने हँसकर मेरी बात टाल दी।
ये दोनों अँग्रेज सामान सहित दिल्ली की ओर चल दिये। मैं भी उनके साथ-साथ चलता रहा। राह में कई बार मैंने उनसे प्रार्थना की कि वह कम से कम मेरा सामान मुझे दे दें, जिस पर स्मिथ ने मुझसे कहा - ज्यादा जबान न चलाओ, नहीं तो हम तुम्हारा घोड़ा भी छीन लेंगे और तुम्हारी बन्दूक भी। इस धमकी के बाद मैं चुप हो गया, लेकिन मैंने उनका पीछा न छोड़ा।
मैं दिल्ली पहुँच गया। वहाँ मैंने अपने सामान की वापसी के लिए सम्राट शाहजहाँ के दरबार में फरियाद की। सम्राट ने दोनों अँग्रेजों को गिरफ्तार कर लिया और मेरा सामान मुझे वापस दिला दिया। इसी समय मुझे एक बार लालकिले में जाने का अवसर मिला। जहाँ मेरी मुलाकात दाराशिकोह से हुई। अब मैं जवान हो चुका था। दाराशिकोह ने दया करके मुझे तोपखाने में गोलन्दाज के रूप में नौकर रख लिया और मेरी तनख्वाह अस्सी रुपये माहवार निश्चित कर दी। लेकिन 1658 में दारा को औरंगजेब के मुकाबले धौलपुर के स्थान पर पराजय हो गयी। वह भागकर आगरा आ गया और वहाँ से दिल्ली फरार हो गया। मैं भी भागी हुई फौज के साथ आगरा आ गया था और यहाँ फँसकर रह गया था। मेरा दिल चाहता था कि मैं किसी-न-किसी तरह आगरा से भागकर अपने स्वामी दारा के पास पहुँच जाऊँ, अतः जिस दिन औरंगज़ेब अपने लश्कर को लेकर दिल्ली रवाना हुआ, उसी दिन मैंने भी एक फकीर का भेष बदला और मुगल फौज में शामिल होकर दिल्ली की ओर बढ़ने लगा।
दिल्ली पहुँचा तो दारा वहाँ से भी भाग चुका था। मैंने जब यह सुना कि दारा लाहौर चला गया है तो मैं भी लाहौर की ओर चल दिया। जब मैं लाहौर पहुँचा तो दारा वहाँ मौजूद था। वह मुझे देखकर बहुत खुश हुआ और उसने मेरी वफादारी को स्वीकार करते हुए मुझे पाँच सौ रुपये और एक सरापा इनाम दिया। मुझे उसने एक घोड़ा भी दिया और मेरी तनख्वाह बढ़ाकर सौ रुपये माहवार कर दी।
लाहौर से दारा के साथ मैं मुलतान गया और वहाँ से भक्कर। भक्कर में मुझे तोपखाने का उच्चाधिकारी नियुक्त किया गया। भक्कर में ही दारा को आखिरी शिकस्त हो गयी। वह गिरफ्तार हो गया और उसकी फौज ने हथियार डाल दिये। अब दारा की फौज के सभी फिरंगी कर्मचारी नयी नौकरी की खोज में दिल्ली चले गये, लेकिन मैंने अपने स्वामी दाराशिकोह के हत्यारे की नौकरी करना पसन्द नहीं किया और दिल्ली जाने की बजाय पूर्व की ओर चल दिया...