सूर्यनाथ की मौत / दयानंद पाण्डेय

Gadya Kosh से
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‘मम्मी आओ भी!’

‘नहीं बेटा नहीं।’

‘अरे आओ भी।’ कह कर नेहा ने मम्मी का हाथ पकड़ कर खट से खींच कर चलते हुए एस्केलेटर पर चढ़ा दिया। पीछे से बुलबुल भी एस्केलेटर पर चढ़ गई। और ज़रा ज़ोर से बोली, ‘बकअप मम्मी! बस ऐसे ही सीधी खड़ी रहना। डरना नहीं। मैं पीछे खड़ी हूं।’

‘पर मेरी तो जान निकली जा रही है।’ मम्मी धीरे से बुदबुदाईं।

‘कुछ नहीं होगा मम्मी। बस खड़ी रहो।’ कहते हुए उस ने देखा कि मम्मी ने आंखें बंद कर ली हैं तो बोली, ‘नहीं मम्मी आंखें बंद मत करो खुली रखो।’

सो मम्मी ने आंखें खोल लीं। मम्मी देख कर अचरज में थीं कि कैसे तो एस्केलेटर की सीढ़ियां एक दूसरे पर चढ़ती उतरती जा रही थीं। इतने में झट से फ़्लोर आ गया। नेहा मम्मी का हाथ पकड़ कर खट से एस्केलेटर की सीढ़ियां छोड़ कर फ़र्श पर आ गई। और बोली, ‘देखा मम्मी कितना तो आसान था एस्केलेटर पर चढ़ना। फिर तुम्हारे घुटने भी नहीं दुखे, न सांस फूली। जैसा कि सीढ़ी चढ़ने में तुम्हें हो जाता है।’

मम्मी मुसकुरा पड़ीं।

उधर बुलबुल मम्मी से मोबाइल मांग कर तुरंत एक फ़ोन मिला कर खिलखिलाती हुई बता रही थी कि, ‘पता है अलका मेरी मम्मी आज एस्केलेटर पर चढ़ गईं।’ और वह मम्मी के एस्केलेटर पर चढ़ने का बखान ऐसे करती जा रही थी गोया मम्मी एस्केलेटर पर नहीं चांद पर चढ़ गई हों।

‘और तुम्हारे पापा?’ उधर से अलका पूछ रही है फ़ोन पर बुलबुल से।

‘नहीं यार पापा तो सीढ़ियों से आ रहे हैं। अकेले ही।’

‘और तुम्हारा भाई?’

‘वह तो सब से पहले छटक कर चढ़ गया था। एक पापा को छोड़ कर सभी एस्केलेटर यूज कर रहे हैं।’

‘मींस इट्स योर बिग एचीवमेंटस ऑफ दिस डेल्ही टूर!’

‘ओह येस! ये तो है यार कि मम्मी एस्केलेटर पर चढ़ गईं। चलो अब रखती हूं। पापा दिख गए हैं। इधर ही आ रहे हैं।’

‘इट्स ओ.के.!’

‘कौन थी?’ मम्मी मुसकुराती हुई पूछ रही हैं, ‘जिस से मेरी इतनी तारीफ कर रही थी?’

‘अलका थी मम्मी।’ कह कर उस ने मम्मी को मोबाइल वापस दे दिया।

सूर्यनाथ बरसों बाद दिल्ली आए हैं। सपरिवार। अपने चचेरे भाई के बेटे की शादी में। शादी के चार दिन पहले ही आ गए। बच्चों ने कहा कि, ‘पापा जब इतना खच-वर्च कर के दिल्ली चल रहे हैं तो चार छह दिन पहले चलिए। शादी भी अटेंड हो जाएगी और दिल्ली भी इस बहाने घूम लेंगे।’

सूर्यनाथ मान गए।

लेकिन टिकट कटाने के पहले भाई से पूछ लिया कि, ‘अगर हम लोग चार छह दिन पहले ही से आ जाएं तो कैसा रहेगा?’

‘यह तो बहुत ही अच्छा रहेगा।’ भाई ने कहा, ‘घर में चार छह दिन पहले से चहल-पहल हो जाएगी।’ उन्हों ने जोड़ा, ‘कुछ और लोग भी पहले से आ रहे हैं। बहनें तो आ ही रही हैं।’

‘फिर तो ठीक है।’ सूर्यनाथ ने कहा और पूछा, ‘रहने वहने की क्या व्यवस्था है? दिक्कत हो तो मैं कोई गेस्ट हाऊस वग़ैरह बुक करा लूं।’

‘नहीं इस की क्या ज़रूरत है?’ भाई बोले, ‘घर में ही सभी साथ रहेंगे। वैसे आस पास के कुछ घरों में कमरों की व्यवस्था कर ली है। एक पूरा मकान भी जो पड़ोस में ख़ाली है, हफ़्ते भर के लिए किराए पर ले रहा हूं। फिर भी जगह कम पड़ी तो त्रिपाल लगा लेंगे। जैसे भी हो हम लोग साथ रहेंगे भाई। मज़ा आएगा। खाना बनाने के लिए हफ्ते भर ख़ातिर हलवाई अलग से बुक कर लिया है।’

‘फिर तो ठीक है।’ कह कर सूर्यनाथ ने फ़ोन रख दिया। और फिर दिल्ली जाने के लिए रिज़र्वेशन करवा लिया। लेकिन दिल्ली पहुंचने पर जैसा कि मध्यवर्गीय परिवारों में होता है, भाई के लगभग सारे इंतज़ाम लड़खड़ा गए थे। ख़ास कर रहने सोने के। मकान जो किराए पर मिलने वाला था, नहीं मिला। कमरे भी सभी पड़ोसियों ने नहीं दिए। और कि दिल्ली घूमने के चाव में कुछ रिश्तेदार पहुंच चुके थे। पट्टीदार हो कर भी सूर्यनाथ भी सपरिवार पहुंच चुके थे। घर में खुले हिस्से में त्रिपाल तो लग गई थी। पर वह सिर्फ़ धूप रोकने के लिए थी। लेकिन हो गई थी बारिश। सो त्रिपाल जगह-जगह से चू-चू कर आफत मचाए थी। सो पहली रात सूर्यनाथ और उन के परिवार की एक सस्ते से गेस्ट हाऊस की डारमेट्री में गुज़री। दूसरी रात जहां शादी का रिसेप्शन होना था, उस कम्यूनिटी सेंटर के दड़बेनुमा कमरे में बीती। सूर्यनाथ को लगा कि अब वह बीमार पड़ जाएंगे। सो अगले ही दिन उन्हों ने भाई से क्षमा मांगते हुए घर से दूर अपने आफिस के गेस्ट हाऊस में शरण ली। बाद में पत्नी ने ताना भी दिया कि, ‘उन के अपने भाई तो अभी आए नहीं और आप छह दिन पहले ही आ गए तो यह अपमान तो होना ही था।’

‘अरे भाई बच्चों के दिल्ली घूमने के चक्कर में छह दिन पहले आ गया था। फिर भाई ने कहा था कि सब साथ रहेंगे, मज़ा आएगा। तो लगा कि सारे परिवार के साथ रहने का सुख मिलेगा।’

‘कुछ नहीं आप को पहले ही इस गेस्ट हाऊस में आ जाना था।’

‘अरे शादी व्याह में, भीड़ भाड़ में यह सब चीज़ें हो जाती हैं।’

‘खाक हो जाती हैं!’ पत्नी बोली, ‘अपनी बहनों को तो घर में रखा। बहनोइयों के लिए कमरे की व्यवस्था की। अपने ससुरालियों के लिए कमरे की व्यवस्था की। बस हमी लोग डारमेट्री और कम्युनिटी सेंटर के दड़बे में गए। कोई और नहीं।’

‘चलो छोड़ो।’

‘आप भूल सकते हैं इस अपमान को मैं नहीं।’

‘अब द्रौपदी की तरह केश मत खोल लेना।’ सूर्यनाथ बोले, ‘शादी में आए हैं। घर की शादी है। इस को मान अपमान से मत जोड़ो। बहनें मेहमान हैं, ससुरालीजन मेहमान हैं, हम लोग मेहमान नहीं हैं। घर के हैं। और घर में सुख-दुख हो जाता है।’

पत्नी चुप हो गई।

अब जब घूमने का प्रोग्राम बना तो सूर्यनाथ चाहते थे कि बिरला भवन में गांधी स्मृति, तीन मूर्ति, राष्ट्रपति भवन, गांधी समाधि, सफदरजंग में इंदिरा गांधी का घर, नेशनल म्यूज़ियम, कुतुबमीनार, लाल क़िला, अक्षरधाम मंदिर आदि देखना-दिखाना। जब कि बच्चों की सूची में मॉल, मैट्रो और प्रगति मैदान था।

पहला दिन अक्षरधाम मंदिर में गुज़र गया। यहां का स्थापत्य, वास्तु शिल्प, व्यवस्था, सुविधाएं, सफाई और खुलापन अच्छा लगा। पारंपरिक मंदिरों जैसी पंडा लोगों की मनमानी, लूट खसोट नहीं थी। बस बात-बात पर जेब ज़रूर ढीली होती रही। जो मध्यवर्गीय परिवारों के लिए हाथ बटोर लेने का सबब बन गई। सूर्यनाथ ने भी कई जगह हाथ बटोरे। क्यों कि साथ में दस लोग और थे। दूसरा दिन बिरला भवन में गांधी स्मृति, तीन मूर्ति भवन में निकल गया। साथ में अपने बच्चे तो थे ही, घर के और बच्चे भी लदे फने आ गए थे। गांधी स्मृति में जब आधा दिन से भी अधिक गुज़र गया तो बहन का एक टीन एज लड़का अपने भाई से धीरे से बोला, ‘आज तो चट गए यार!’ यह सुन कर सूर्यनाथ का मन ख़राब हो गया। गांधी स्मृति में समय बिताने, ढेर सारी जानकारी पाने का सुख नष्ट हो गया। सूर्यनाथ के मन में आया कि उस लड़के से डांट कर कह दें कि, ‘बेटा अब तुम फिर से नाथूराम गोडसे मत बनो।’ पर वह चुप ही रहे। यह सोच कर कि आखि़र किस-किस गोडसे को वह डांटते फिरेंगे। जाने कितने तो गोडसे हैं। क़दम-क़दम पर गोडसे। रास्ते में वापसी के समय लगभग सभी बच्चों ने समवेत स्वर में फ़ैसला दिया कि, ‘कल मॉल और मेट्रो में घूमा जाएगा।’

‘पर कल के लिए तो पापा ने राष्ट्रपति भवन देखने का पास बनवा रखा है। साथ ही अपने एक दोस्त से भी मिलने का समय तय कर रखा है।’ नेहा ने सब की बात काटते हुए कहा। तो सभी बच्चे चुप हो गए। गोया सांप सूंघ गया हो। शाम को घर में रस्में थीं। बच्चों ने खूब तेज़ म्यूज़िक लगा कर खूब डांस-वांस किया। बड़ों ने बैठ कर खूब चूहुल की। कुछ बुजुर्गों ने नाक भौं सिकोड़ी और काशन दिए। खाते-पीते आधी रात हो गई। सुबह खा पी कर जब राष्ट्रपति भवन जाने लगे सूर्यनाथ तो पता चला घर के अधिकतर लोग राष्ट्रपति भवन देखने चलने को तैयार। सभी औरतें, सभी बच्चे। पर कार एक थी। इनोवा थी। जगह थी। सो सूर्यनाथ के परिवार के बैठने के बाद पीछे की जगह में पांच छह टीन एज बच्चे पहले दिनों की तरह ठूंस ठांस कर बैठ गए। बाक़ी लोगों के लिए तय हुआ कि घर की क्वालिस हो जाए। फिर भी सभी के बैठने की समस्या आई।

बात चली कि दो-तीन टैक्सी मंगवा ली जाए। पर टैक्सी कौन मंगवाए? स्पष्ट था कि जो मंगवाए वही पैसा दे सो सभी कतरा गए। सिटी बस से चलने को कोई तैयार नहीं हुआ। दो-दो जगह बस बदलने का भी फेर था। सूर्यनाथ ने शुरू में तो संकोच किया। पर जब देखा कि सभी सारा भार उन्हीं पर डालने पर आमादा हैं और उन्हें बेवज़ह चढ़ाए जा रहे हैं तो उन्हों ने पहले तो हिसाब जोड़ा। चार पांच हज़ार से ज़्यादा रुपए टैक्सी में लग जाने थे सब को ले जाने में। नाश्ता पानी अलग। सो उन्हों ने हाथ खड़े कर दिए। कहा कि, ‘राष्ट्रपति भवन का पास बनवाने का ज़िम्मा लिया था। जितने लोग चाहें चलें।’ उन्हों ने जैसे जोड़ा, ‘पचीस लोगों का पास मैं ने बनवा दिया है। और लोग चलना चाहें तो उन का भी पास बन जाएगा। पर सब को ले चल पाने की सामर्थ्य मुझ में नहीं है। अपनी-अपनी सुविधा से लोग वहां पहुंचें। मैं इंतज़ार कर लूंगा।’

‘यह भी तो हो सकता है कि आप की इनोवा तीन चार राउंड में बारी-बारी सब को यहां से लेती चले।’ भाई के ससुराल पक्ष की एक औरत बोली। तो जवाब ड्राइवर ने दिया, ‘फिर तो दिन भर हम लोग आप सब को ढोते ही रह जाएंगे। आप सब राष्ट्रपति भवन कब देखेंगे?’

घर की औरतों-बच्चों ने यह सुनते ही सूर्यनाथ को ऐसे घूर कर देखा गोया उन्हों ने उन सब का कुछ छीन लिया हो। इन में बहनें भी थीं, बहनों के बच्चे भी और भाई के ससुरालीजनों की औरतें और बच्चे भी। इन सभी के पुरुष पक्ष इस समय अद्भुत रूप से अंतर्ध्यान थे। यह सब देख कर सूर्यनाथ ठगे से रह गए। चुपचाप कार में बैठे। और ड्राइवर से धीरे से बोले, ‘चलो भाई! राष्ट्रपति भवन चलो!’

सूर्यनाथ तो क़ायदे से यह इनोवा कार भी अफोर्ड नहीं कर सकते थे। वह तो उन के एक अधिकारी मित्र ने दिल्ली घूमने के लिए व्यवस्था करवा दी थी। वह मित्र जानते थे सूर्यनाथ की ईमानदारी, उन की जेब और उन का संकोच भी। शुरू में उन्हों ने ना नुकुर की भी। पर मित्र ने कहा कि, ‘आप की सुविधा के लिए नहीं मैं तो भाभी जी और बच्चों की सुविधा के लिए कार भेज रहा हूं। नहीं बच्चे बिचारे बसों में धक्के खाते फिरेंगे।’ बेमन से सही, सूर्यनाथ मान गए थे। नहीं उन्हें जो अपनी जेब से खर्च कर के जो घूमना होता तो सिटी बस या आटो से ही घूमते। दिक्कत यही थी आटो में सभी एक साथ आ नहीं पाते। हालां कि पिछली दफ़ा जब वह दिल्ली आए थे तब बच्चों के साथ आटो और बस में ही घूमे थे। पर अब बेटियां बड़ी हो गई थीं। बस की भीड़भाड़ में चलना मुश्किल था और एक आटो में सभी एक साथ बैठ नहीं सकते थे। इस लिए भी मित्र की बात मान गए थे सूर्यनाथ!

राष्ट्रपति भवन के एक गेट पर प्रहरी ने जांच करते हुए पास देखा। सभी सदस्यों को गिना। पूछा, ‘पास तो आप का पचीस लोगों का है।’

‘हां, पर आए दस लोग ही हैं। बाक़ी लोग आ नहीं पाए।’

‘ओ.के., ओ.के.।’ कह कर उस ने सभी को आगे बढ़ने का इशारा किया। और वाकी टाकी पर हम लोगों के पहुंचने का संदेश रिसेप्शन पर कर दिया। रिसेप्शन पर और भी कुछ लोग हैं जो राष्ट्रपति भवन देखने आए हैं। कुछ लोग तमिलनाडु से हैं, कुछ महाराष्ट्र से। लोग ज़्यादा हैं और गाइड सिर्फ़ दो। दो ग्रुप बन गए। घूमने लगे लोग राष्ट्रपति भवन के गलियारे। ये हाल, वो हाल। यह चीज़, वह चीज़। गाइड ब्यौरे बता रहा है। सभी बच्चे खुश हैं, बेहद खुश! राष्ट्रपति भवन के बड़े-बड़े गलियारों को बच्चे अपनी बाहों में भर लेना चाहते हैं। वह गाना गाते हुए उछलना-दौड़ना चाहते हैं। एक लड़का गाना शुरू करता ही है कि गाइड होठों पर उंगली रख कर तरेरने लगा। लड़का चुप हो गया। गाइड बता रहा है कि यहां कुल 340 कमरे हैं। बच्चों का मुंह खुला का खुला रह जाता है जब वह दुहरा कर गाइड से पूछते हैं, ‘340 कमरे!’

‘जी 340 कमरे!’

‘होगा यार!’ एक लड़का दूसरे लड़के से कहने लगा, ‘देखा नहीं अभी जब बाथरूम ही हाल जैसा है। हमारे क्लास रूम से भी दोगुना बड़ा बाथरूम है तो होगा 340 कमरा भी।’

गाइड दरबार हाल दिखा रहा है, अशोक हाल दिखा रहा है। यहां की खूबियां बता रहा है, ‘बेल्ज़ियम का शीशा, इरान की कालीन, वहां का फानूश, वहां की लकड़ी।’ वह जोड़ रहा है कि, ‘इस हाल की फ़र्श और इंडिया गेट की छत का लेबिल एक है।’

बच्चे यह सुन कर मुंह बा जाते हैं और जैसे पक्का कर लेना चाहते हैं। सब एक साथ पूछते हैं, ‘इंडिया गेट की छत और इस की फ़र्श का लेवल सचमुच एक बराबर है?’

‘जी बराबर है!’ गाइड संक्षिप्त सा बोलता है।

‘और यहां होता क्या है?’ एक लड़के ने पूछा है।

‘मंत्री जी लोग शपथ लेते हैं।’ गाइड फिर धीरे से बोला है।

‘ओह तभी अपने मिनिस्टर्स का दिमाग हमेशा ख़राब रहता है, सातवें आसमान पर रहता है।’ बुलबुल बिदकती हुई बुदबुदा रही है, ‘इसी लिए ज़मीन पर नहीं रहते मिनिस्टर्स!’

यह सुन कर सूर्यनाथ को अपनी जवानी याद आ जाती है। तब लगभग उन की भी यही उम्र थी जो आज बुलबुल की है। सूर्यनाथ भी तब छात्र थे और अपने पिता के साथ राष्ट्रपति भवन देखने आए थे। तब जब के गाइड ने तमाम ब्यौरे बताते हुए बताया था कि, ‘यहां मंत्री जी लोगों की शपथ होती है।’ तो सूर्यनाथ ने गाइड से पूछा था, ‘अच्छा ब्रिटिश पीरियड में इस हाल का क्या इस्तेमाल होता था?’

‘अंगरेज साहब लोग!’ गाइड पुराना था, उम्रदराज़ सो माथे पर ज़ोर डालते हुए ज़रा देर रुका था और फिर मुसकुरा कर बताया था, ‘अंगरेज साहब लोग यहां डांस करते थे। ड्रिंक के बाद मेम साहब लोगों के साथ। उन का नाच घर था यह।’

‘ओह तभी यह मंत्री लोग पूरे देश को नाच घर में तब्दील कर जनता को नचा रहे हैं।’ सूर्यनाथ नाम का लड़का तब बुदबुदाया था। सूर्यनाथ अब प्रौढ़ हो गए हैं। स्थितियां बदतर हुई हैं। और आज उन की बेटी बुलबुल भी कुछ उसी तरह बुदबुदा रही है। शब्द बदले हुए हैं पर चुभन और चिंता वही है। यथार्थ का पदार्थ वही है।

गाइड बच्चों को डायनिंग हाल में लाया है। बता रहा है कि, ‘यहां एक साथ ढाई सौ लोग आमने सामने बैठ कर खाना खा सकते हैं। खाते ही हैं।’ वह छत दिखाता है, उस के झरोखों की तफ़सील में जाता है कि, ‘जब डिनर होता है तो ऊपर छत से बैंड पार्टी अपना बैंड बजाती है-लाइव। टेप नहीं बजता।’ वह बता रहा है कि मेहमान वेजेटेरियन हैं कि नान वेजेटेरियन यह बताने के लिए तरह-तरह के फूल रखे होते हैं। वेटर फूल से ही समझता है कि वेज देना है कि नान वेज।’

बच्चे कई जगह फ़ोटो खींचने को मचलते हैं। पर कैमरा, मोबाइल सभी कुछ रिसेप्शन पर ही जमा करवा लिए गए हैं। बच्चे अफना कर रह जाते हैं। राष्ट्रपति से भी मिलना चाहते हैं बच्चे। पर गाइड शर्माते हुए बताता है, ‘एप्वाइंटमेंट लेना पड़ता है।’

‘तो एप्वाइंटमेंट ले लीजिए।’ एक लड़का इठलाता है।

‘सॉरी भइया, एप्वाइंटमेंट हम नहीं दिला सकते। बड़े साहब लोग दिलाते हैं। और कई दिन लग सकता है।’

‘ओह!’

वह मुगल गार्डेन दूर से दिखाते हुए कहता है, ‘अभी तो बंद है। एलाऊ नहीं है।’

‘जो आर्किटेक्ट की मूर्ति लगी है, उसे फिर से देख सकते हैं?’ बुलबुल गाइड से जैसे इसरार करती है।’

‘हां, वह देख लीजिए!’

‘फ़ोटो भी खींच लें?’

‘वो कैसे हो सकता है?’ गाइड फिर शर्माते हुए कहता है!

बच्चे राष्ट्रपति भवन के आर्किटेक्ट एडविन लौंडसियर लुटयेंस की मूर्ति के पास आ कर खड़े हो गए हैं। दुबारा। मूर्ति के नीचे लिखे डिटेल्स पढ़ने लगते हैं। बुलबुल कहती है कि, ‘यह अच्छा है कि यहां आर्किटेक्ट को भी आनर दिया गया है। मूर्ति लगा कर।’ वह जैसे जोड़ती है, ‘पहली बार किसी बिल्डिंग में आर्किटेक्ट की मूर्ति भी सम्मान से लगाई गई है।’

‘तो दीदी इतनी बड़ी बिल्डिंग भी देखी है क्या कभी?’ एक लड़का बोलता है,

‘इतना बड़ा कैंपस!’

‘हां नहीं देखा। पर सोचो जब ताजमहल बनाने वाले कारीगरों के हाथ काट लिए जाते हैं और यहां आर्किटेक्ट की मूर्ति लगा दी जाती है तो फ़र्क़ तो है। आखि़र ये भी रूलर थे और वो भी रूलर थे। तो फ़र्क़ तो है!’

सभी बच्चे सहमति में सिर हिलाते हुए चुप हैं। पर मुंडेर पर बैठे कबूतर चुप नहीं हैं। उन की चहचहाहट जारी है। भीतर जो नहीं कर पाए थे बच्चे वह बाहर आ कर पूरी धमाचौकड़ी के साथ कर रहे हैं। मतलब फ़ोटोग्राफ़ी और उछल कूद! सूर्यनाथ खुश हैं बच्चों को खुश देख कर।

साऊथ ब्लाक, नार्थ ब्लाक की चौहद्दी भी बच्चे छू रहे हैं, फोटो खींचने के बहाने। बोट क्लब पर बोटिंग सोटिंग, लइया चना कर के अब वह लोग इंडिया गेट पर हैं। एक लड़का इंडिया गेट की छत को निहारते हुए हाथ ऊंचा कर के राष्ट्रपति भवन के फ़र्श की थाह ले रहा है गोया वह नाविक हो और बांस का लग्गा नदी में डाल कर पानी की थाह ले रहा हो! एक लड़का उस की मंशा समझ कर उसे टोकता भी है, ‘यह दिल्ली का इंडिया गेट है किसी नदी का पानी नहीं।’

पर वह सब की अनसुनी किए अपना हाथ ऊपर किए थाह पर थाह लिए जा रहा है। कुछ-कुछ बुदबुदाता हुआ सा।

‘पापा आप को अपने दोस्त से भी मिलना था आज?’ नेहा पूछती है।

‘हां, मिलना तो है।’ सूर्यनाथ बोले, ‘पर उन का फ़ोन आएगा। जब वह फ्री होंगे तभी तो मिल पाएंगे?’

‘पर एप्वाइंटमेंट तो आज का ही था?’ नेहा ने फिर पूछा तो सूर्यनाथ ने स्वीकृति में सिर हिलाया।

‘दोस्त से भी मिलने के लिए एप्वाइंटमेंट लेना पड़ता है?’ बहन का एक बेटा जो गंवई परिवेश में पला बढ़ा है, बड़े कौतूहल से पूछता है।

‘हां, लेना तो पड़ता है। क्यों कि दोस्त बिजी बहुत रहता है।’ सूर्यनाथ धीरे से बुदबुदाते हैं।

‘असल में अंकल सीनियर आई.ए.एस. अफसर हैं।’ बुलबुल बताते हुए इतराती है।

‘ये सीनियर आई.ए.एस. क्या होता है?'

‘डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट जानते हो?’

‘हां, ज़िलाधिकारी न!’

‘तो उस से भी बहुत बड़े अफसर हैं अंकल! भारत सरकार में सेक्रेट्री हैं। किसी स्टेट के चीफ सेक्रेट्री के बराबर। लखनऊ जाते हैं तो स्टेट गेस्ट हो जाते हैं।’

‘अच्छा-अच्छा!’

बच्चों की यह सब बात सुन कर सूर्यनाथ को बड़ा ख़राब लगता है। पर वह चुप रहते हैं। अब बच्चे सब की देखा देखी फ़ोटो खींचने लगे हैं। इसी बीच दोस्त के पी.ए. का फ़ोन आ गया है। पूछ रहा है, ‘सर किस जगह हैं।’

‘क्यों इंडिया गेट पर हूं।’

‘राष्ट्रपति भवन घूम आए?’

‘हां।’ ‘तो सर आधे घंटे में आ जाइए! बॉस आने वाले हैं। बॉस आप सब के साथ ही लंच करेंगे। फिर नेक्स्ट मीटिंग में चले जाएंगे।’

‘अच्छी बात है!’ सूर्यनाथ ने पूछा, ‘कमरा नंबर वग़ैरह बताएंगे?’

‘ड्राइवर सब जानता है सर! वह आप को रिसेप्शन तक ले आएगा। वहां आप का पास बना रखा है। हमारे स्टाफ का एक आदमी वहां मिलेगा। आप को बॉस के पास ले आएगा।’

‘अच्छी बात है!’

मित्र गदगद हैं। सूर्यनाथ को सपरिवार अपने आफिस में पा कर। बच्चे विह्वल हैं कि इतने बड़े अफसर के आफिस में बैठे हैं। मित्र ने फ्रूट लंच का इंतज़ाम कर रखा है। हालां कि पूरा अमला उन की खिदमत में है पर वह खुद एक-एक चीज़ उठा-उठा कर दे रहे हैं, ‘सूर्यनाथ जी यह लीजिए, भाभी जी यह!’

लखनऊ की राजनीति से ले कर पर्यावरण, पानी और मंहगाई तक पर बात हो रही है। और लंच भी। मित्र कह रहे हैं, ‘दिल्ली से विदा होने के पहले एक दिन घर भी आइए न हमारे। बच्चों से भी भेंट हो जाएगी।’

‘क्या है कि अब अगले दो दिन शादी में ही व्यस्त रहना है। फिर संडे की रात में वापसी है।’

‘तो संडे को आइए न!’ कहते हुए वह पी.ए. से पूछते हैं, ‘संडे को कोई मीटिंग वग़ैरह तो नहीं है़?’

‘है सर, दो मीटिंग्स हैं। पर दो बजे तक ख़त्म हो जाएंगी।’

‘ओ.के.। तो सूर्यनाथ जी संडे की शाम हमारे गरीब खाने पर!’ वह बोले, ‘चार बजे तक मैं घर पहुंच जाऊंगा। आप लोग तभी आ जाइए!’

‘ठीक बात है!’

मित्र के आफिस से निकले सूर्यनाथ सब को ले दे कर तो बाहर देखा धूप खड़ी थी। धूप देख कर उन को लगा कि अभी तो काफी समय है। फिर उन को एक और मित्र की याद आ गई। मन हुआ कि उस से भी मिल लिया जाए। मोबाइल निकाला जेब से। फ़ोन मिलाया। बताया कि, ‘आप की बेदिल दिल्ली में हूं। मिलना चाहता हूं।’

‘अभी आप कहां हैं।’ मित्र चहकते हुए बोले।

‘रफ़ी मार्ग पर हूं।’ फिर सूर्यनाथ ने मंत्रालय का नाम बताया।

‘अच्छी बात है। मैं तो अभी गाज़ियाबाद की तरफ हूं। एक डेढ़ घंटा लग सकता है वहां तक पहुंचने में।’

‘इतनी देर यहां बैठ कर क्या करूंगा?’

‘अकेले हैं कि और भी कोई है।’

‘नहीं-नहीं सपरिवार हूं। बच्चे भी हैं।’

‘तब तो बहुत अच्छा!’ मित्र बोले, ‘फिर आप साकेत आ जाइए। वहां सेलेक्ट सिटी वाक नाम का एक बड़ा सा मॉल है। उस के पीछे ही मेरा आफ़िस है। जब तक मैं पहुंचूंगा तब तक आप बच्चों को मॉल घुमाइए!’

‘क्या बेवकूफी की बात करते हैं आप?’

‘क्या हो गया?’

‘आप जानते हैं मुझे और मॉल घूमने के लिए कह रहे हैं?’

‘आप को कब मॉल घूमने के लिए कहा?’

‘तब?’

‘बच्चों को घुमाने के लिए कहा।’ मित्र ने कहा, ‘गुस्सा मत होइए। बच्चों को घुमाइए। खुश हो जाएंगे। तब तक मैं पहुंच कर आप को फ़ोन करता हूं।’

‘अच्छी बात है।’

मॉल का नाम सुनते ही बच्चों में खुशी की खनक समा गई। सभी सूर्यनाथ के पास सिमट आए। उन के चेहरों पर जैसे हज़ार वाट के हायलोजन बल्ब की चमक छा गई। लद-फन कर चल पड़े साकेत के सेलेक्ट सिटी वाक की तरफ। रास्ते में कई जगह जाम से भी भिड़ंत हुई और फिर अचानक आ गई बारिश से भी। लेडी श्री राम कालेज पड़ा रास्ते में तो बुलबुल बोली, ‘पापा ज़रा यह कालेज भी देख लें।’

‘देख लो!’

पर गेट पर चौकीदार ने सभी जेंट्स को रोक दिया। मम्मी-बेटी गईं। थोड़ी देर बाद घूम-घाम कर खुश-खुश लौटीं। नेहा बोली, ‘हम लोगों को पढ़ना तो यहां चाहिए था।’

ख़ैर पहुंचे सेलेक्ट सिटी वाक।

बच्चे एस्केलेटर पर चढ़ गए। और अजब यह कि सूर्यनाथ की पत्नी भी। पर सूर्यनाथ सीढ़ियों से ही चढ़े। मॉल क्या था ऐश्वर्य का क़िला था। एक लड़का बोला भी दिल खोल कर कि, ‘ज़न्नत है ज़न्नत!’ पर चार छ शो रूम, दुकानें घूमते ही ज़न्नत की हक़ीक़त सामने आ गई। प्याज की तरह परत दर परत बेपरदा होती गई ज़न्नत और उस की हक़ीक़त।

एक शो रूम में बेल्ट की क़ीमत पांच हज़ार रुपए से शुरू हो रही थी। टी शर्ट और शर्ट का भी यही हाल था। बीस हजार पचीस हज़ार की एक कमीज़। साठ हज़ार-सत्तर हज़ार से साड़ियों की रेंज भी शुरू हो रही थी। जूता-चप्पल का भी यही हाल था। पांच हज़ार, दस हज़ार! सूर्यनाथ ने जैसे सांस खींच ली। डर गए यह सोच कर कि कहीं कोई बच्चा कोई चीज़ ख़रीदने की फर्माइश न कर बैठे। बस एस्केलेटर पर चढ़ना उतरना ही अफोर्डेबिल था बाक़ी सब सपने से भी बाहर था। सूर्यनाथ की पत्नी जैसे सकते में थीं। कह रही थीं, ‘आखि़र कौन ख़रीदता होगा इतना मंहगा सामान!’

‘क्या मम्मी!’ बुलबुल धीरे से बोली, ‘चुप भी रहो। देखो लोग सामान ख़रीद भी तो रहे हैं!’

‘इतना मंहगा!’ सूर्यनाथ की पत्नी फिर खदबदाईं, ‘बताओ पांच हज़ार रुपए में तो तुम्हारे पापा सूट सिलवा लेते हैं और यहां सब से सस्ती बेल्ट ही पांच हज़ार रुपए की है।’ वह जैसे हांफने लगीं, ‘सूट तो फिर यहां एक लाख रुपए का होगा।’

‘होगा नहीं मम्मी है!’ बेटा कालर खड़ी कर, कंधे उचकाते हुए बोला, ‘इस से भी ज़्यादा का है। बोलो ख़रीदोगी मेरे लिए।’

मम्मी क्या बोलतीं भला। चुप ही रहीं।

‘घबराओ नहीं मम्मी, आज नहीं तो कल को मैं भी खरीदूंगी इस मॉल से तुम्हारे लिए साड़ी, भइया के लिए सूट। बस मेरा नाम तुम एम.बी.ए. में लिखवा दो!’

‘दस लाख रुपए सालाना फीस भर कर!’ मम्मी ने जैसे फुंफकार भरी, ‘बाक़ी सब के पेट में जहर डाल दूं और तुम्हारा नाम एम.बी.ए. में लिखवा दूं पांच हज़ार की बेल्ट और सत्तर हज़ार रुपए की साड़ी ख़रीदने के लिए! अरे, इतने पैसे में तो तुम्हारी शादी हो जाएगी पगली!’

‘चुप भी करो मम्मी! सारा डिसकसन क्या यहीं कर लोगी?’ नेहा ने हाथ जोड़ कर कहा। मम्मी चुप हो गईं।

लड़के अलग झुंड बना कर घूम रहे थे। ख़ास कर एक बहन का बेटा जो गंवई परिवेश से आया था, टीन एज था, भौंचक था। फिर भी सभी लड़के जान गए थे कि यह मॉल उन की ख़रीदारी के वश का नहीं है। बावजूद इस के सभी लड़कों की ख्वाहिश थी कि मॉल के किसी रेस्टोरेंट में चल कर कुछ खा पी लिया जाए। या सिनेमा भी देख लिया जाए। सूर्यनाथ के बेटे को लड़कों ने यह काम सौंपा। उस ने सूर्यनाथ से तो नहीं पर मम्मी से दबी ज़बान सभी बच्चों की ख्वाहिश बताई। फिर बात सूर्यनाथ तक आई। पत्नी ने दबी ज़बान ही कहा, ‘बच्चों को कुछ खिला पिला दीजिए!’

‘इस मॉल में?’ सूर्यनाथ भड़के।

‘हां, बच्चे यही चाहते हैं।’

‘जहां सौ दो सौ रुपए की पैंट की बेल्ट पांच हज़ार रुपए में मिलती हो वहां के रेस्टोरेंट में भी यही आग लगी होगी।’ सूर्यनाथ ने लंबी सी सांस भरी, ‘भई मेरी तो हैसियत नहीं है।’

सूर्यनाथ की यह बात सुन कर बच्चे उदास हो गए। बेहद उदास। सूर्यनाथ भी। बच्चों की उदासी देख कर। उदास चेहरा लिए बच्चे फिर घूमने लगे इस फ़्लोर से उस फ़्लोर। एस्केलेटर की ऐसी तैसी करते हुए। सूर्यनाथ पत्नी के साथ एक बेंच पर बैठ गए। आते-जाते लोगों को निहारते हुए। खास कर बेलौस और बेअंदाज़ औरतों को। पत्नी यह सब देख कर कुढ़न की नदी में कूदने ही वाली थीं कि मित्र दिख गए। सूर्यनाथ ने चिल्ला कर उन्हें पुकारा तो वह झेंप गए। सभी की नज़रें सूर्यनाथ पर आ कर टिक गईं। इतनी कि सूर्यनाथ भी झेंप गए। क़रीब आ कर मित्र ने हाथ मिलाया, गले मिले और धीरे से बुदबुदाए, ‘गांव का मेला नहीं है यहां सूर्यनाथ जी, मॉल है यह! इतना चिल्लाने की ज़रूरत नहीं है!’

‘अरे तो भला कैसे बुलाता आप को? आप कहीं और आगे बढ़ जाते तो?’

‘मोबाइल है आप के पास! फ़ोन कर सकते थे!’

‘ओह सॉरी!’

‘कोई बात नहीं!’ मित्र सूर्यनाथ की पत्नी की ओर मुड़े, ‘भाभी जी नमस्कार! बच्चे कहां हैं?’

‘यहीं इसी मॉल में घूम रहे होंगे कहीं।’

‘अच्छा! अच्छा!’ कह कर मित्र भी बेंच पर बैठ कर अपनी दाढ़ी खुजाने लगे। बोले, ‘बहुत समय बाद मिले हम लोग!’

‘हां, कोई चार पांच साल तो हो ही गए होंगे।’ सूर्यनाथ बोले, ‘वह तो फ़ोन है कि हम लोगों का संपर्क बना रहता है!’

‘कहां, अब तो आप एस.एम.एस. भी नहीं भेजते!’

‘असल में आलसी हो गया हूं।’ सूर्यनाथ ने जोड़ा, ‘और असल में अब वह हूब, वह ललक भी नहीं रह गई ज़िंदगी में। लगता है जैसे चीज़ें हाथ से छूटती जा रही हैं।’

‘हां, वह तो देख ही रहा हूं। अभी आप चिल्लाने लगे थे। और ठाठ-बाट से कपड़े पहनने वाले ठहरे पहले आप! अभी देख रहा हूं तुड़े मुड़े लुंज पुंज कपड़े पहने!’

‘असल में खादी के कपड़े में यही तो परेशानी है!’ सूर्यनाथ बोले, ‘अभी बारिश हुई थी। एक लड़का भींग कर आया और मेरी गोद में बैठ गया। उस के भींगे कपड़ों ने मेरे कपड़े की कलफ ही उतार दी। तुड़-मुड़ गई कमीज अलग।’ झेंपते हुए सूर्यनाथ बोले।

तभी बच्चों का झुंड आ गया। सूर्यनाथ के पास। बेटे से उन्हों ने कहा, ‘अंकल के पांव छुओ!’

बारी-बारी सभी बच्चों ने मित्र के पांव छुए। बच्चों के पांव छूने से मित्र पुलकित हो गए। बोले, ‘आइए बच्चों को कुछ खिला-पिला दें।’ कह कर वह खड़े हो गए।

‘अरे नहीं!’ सूर्यनाथ ने उन का हाथ पकड़ कर खींच लिया और बेंच पर बिठा दिया। लेकिन वह फिर से खड़े हो गए। बेटे को बाहों में भरते हुए बोले, ‘आओ बच्चों तुम लोगों को कुछ खिलाते पिलाते हैं।’

‘अरे मान भी जाइए!’ सूर्यनाथ ने मित्र की मनुहार की, ‘हम लोग दो चार नहीं दस लोग हैं।’

‘दस लोग!’ मित्र अचकचाए।

‘हां भई घर के और भी बच्चे साथ में हैं।’

‘तो क्या हुआ हैं तो घर के ही बच्चे!’

‘आप समझिए भी!’ सूर्यनाथ संकोच से भर गए।

‘कुछ नहीं, बस आइए!’ कह कर उन्हों ने सूर्यनाथ का हाथ पकड़ कर खींच लिया। और बोले, ‘आइए भाभी जी, आप भी आइए!’

बेमन से चले सूर्यनाथ भी। पर बच्चों के उल्लास का ठिकाना नहीं था। बच्चों की यह खुशी देख कर सूर्यनाथ को अपना बचपन याद आ गया। जब वह चार आने पैसे ले कर अपने गांव से दशहरा का मेला देखने निकलते थे। लगता था उस चार आने में गोया वह पूरा मेला ख़रीद लेंगे। जी भर कर मेला देखते और उस चार आने में से पांच छ पैसा बचा भी ज़रूर ले आते थे। गट्टा, बताशा, लक्ट्ठा, भोपा, लढ़िया, गुब्बारा, मूंगफली ख़रीद कर भी। धान के खेतों को फलांगते, गीत गाती औरतों के हुजूम को चीरते फुदकते मेला जाने का सुख और उल्लास ही कुछ और था। जैसे वह धान के खेतों को फलांगते मेला जाते थे, आज कुछ-कुछ वैसे ही बच्चे एस्केलेटर पर झूमते जा रहे थे। धान की बालियों की तरह झूमते महकते-गमकते। बच्चों के साथ पत्नी भी एस्केलेटर पर थीं। मित्र भी। पर सूर्यनाथ ने फिर हाथ जोड़ लिए। सीढ़ियों से वह पहुंचे।

मित्र बच्चों की खुशी से गदगद।

रेस्टोरेंट में बच्चे विजयी मुद्रा में बैठे। मित्र ने मीनू लिया। उन के चेहरे पर शिकन आ गई। पर जल्दी ही उन्हों ने इस शिकन को ऐसे पोछा, गोया पसीना पोंछ रहे हों। बहुत जोड़ घटा कर प्रति व्यक्ति दो सौ ग्राम कोक और पचास ग्राम चिप्स भी कोई बारह-चौदह सौ रुपए का पड़ा दस लोगों के लिए। पेमेंट पहले करना था और सेल्फ सर्विस थी सो खु़द ही अपनी सीट पर ले कर आना था। बाहर पचास-साठ रुपए में मिलने वाली दो लीटर कोक की एक बोतल यहां बारह सौ रुपए में पड़ गई थी। मित्र के ज़ेब पर यह डाका सूर्यनाथ को नहीं सुहाया। वह फूट पड़े, ‘इतनी लूट! आखि़र कोई लिमिट होती है!’

‘सूर्यनाथ जी यहां पैसा सामान का नहीं जगह का है। ऐसा तो इस दिल्ली में होता रहता है। लोग अनाप-शनाप कमा रहे हैं। सो अनाप-शनाप ख़र्च कर रहे हैं।’

‘मुझे लगता है आप भी इस मॉल में पहली बार आ रहे हैं!’

‘इस मॉल में तो नहीं पर हां, इस रेस्टोरेंट में पहली बार आया हूं।’

‘तो इस मॉल में खरीददारी करते हैं आप?’ सूर्यनाथ जैसे भड़क गए।

‘नहीं-नहीं।’ मित्र बोले, ‘ज़रा आहिस्ता बोलिए सूर्यनाथ जी!’

‘अच्छा-अच्छा फिर?’

‘ख़रीदारी की हैसियत यहां नहीं है हमारी। अरे, घूमने-फिरने आते हैं। फिर देख-दाख कर चले जाते हैं।’

‘तो ये कौन लोग हैं जो यहां खरीदारी करते हैं?’

‘होंगे लोग! हम को आप को इस से क्या लेना-देना!’

‘लेना-देना है न!’

‘क्या सूर्यनाथ जी आप भी! कहां फंस रहे हैं। अरे इंज्वाय कीजिए घर चलिए!’

‘पचास-साठ रुपए की चीज़ बारह सौ रुपए में ख़रीद कर आप इंज्वाय कर सकते हैं हम तो नहीं।’ सूर्यनाथ धीमी पर सख़्त आवाज़ में बोले!

‘अब इस को इशू तो मत बनाइए!’

‘पर इशू तो है! हमारे बनाने या न बनाने से क्या फ़र्क पड़ता है!’ सूर्यनाथ भड़के रहे।

‘ख़ैर छोड़िए भी। यह बताइए कि बच्चों की पढ़ाई लिखाई कैसी चल रही है? दिल्ली कैसे आना हुआ?’

‘आप तो यहीं बैठे-बैठे एस.एम.एस. स्टाइल में पूछने लगे।’ सूर्यनाथ बोले,

‘पढ़ाई लिखाई बच्चों की ठीक ही चल रही है। बेटी एम.बी.ए. करना चाहती है।’

‘तो कर लेने दीजिए!’

‘साल भर की फीस और खर्चा दस-बारह लाख हो जाएगा! मतलब दो साल में बीस-बाइस लाख रुपए कैसे क्या करूं समझ नहीं आता। बच्चों को भी लोग कैसे पढ़ा ले रहे हैं, इतनी मंहगी-मंहगी फीस भर कर समझ नहीं आता। शादी-व्याह भी करना ही है।’

‘एजूकेशन लोन ले लीजिए!’

‘कितनी किश्तें भरेंगे। अभी इंश्योरेंश की किश्त है, घर की किश्त है, कार की किश्त है, बीमारी-दवाई है, रुटीन खर्चे हैं। मंहगाई है। काजू-बदाम के भाव दाल हो गई है।’

‘समस्या तो है भई!’

‘किसी तरह तोप ढांक कर गृहस्थी चला रहे हैं। नहीं सच बताएं ज़िंदगी जीनी मुश्किल हो गई है। और बच्चों की इच्छाएं जैसे हरदम पंख पसारे उड़ती रहती हैं। पर बच्चों की इच्छाएं मारता रहता हूं बात-बेबात और खुद मरता रहता हूं। क्षण-क्षण जीता हूं, क्षण-क्षण मरता हूं। गोया ज़िंदगी नहीं जी रहा। घात-प्रतिघात का खेल, खेल रहा हूं।

‘सूर्यनाथ जी इस तरह टूटने से तो काम चलता नहीं। समय के साथ बदलना और जीना सीखिए!’

‘मतलब करप्ट हो जाऊं? बेइमान हो जाऊं?’

‘यह तो मैं ने नहीं कहा!’

‘मतलब तो आप का यही है। ख़ैर, चाहे जो हो ज़िंदगी की ए.बी.सी.डी. फिर से तो शुरू नहीं कर सकता!’

‘यही ग़लती कर रहे हैं आप। चाइनीज़ या जापानी जानने वाले आदमी से आप हिंदी में बात करेंगे तो वह आप की बात क्या ख़ाक समझेगा! फिर दो ही सूरत बनती हैं या तो आप उसे अपनी हिंदी सिखाइए या फिर खुद उस की भाषा सीखिए। नहीं मत बात कीजिए! तो सूर्यनाथ जी ज़िंदगी की ए.बी.सी.डी. बार-बार शुरू करनी पड़ती है, लाइफ़ तभी स्मूथ चल सकती है। फ्लेक्सेबिल बनिए। अड़ना-अकड़ना छोड़ दीजिए। जिंदगी खूबसूरत हो जाएगी।’

‘चलिए देखता हूं।’ सूर्यनाथ बोले, ‘अब चला जाए यहां से?’

‘बिलकुल!’

नीचे आ कर मित्र ने विदा मांगी।

बच्चों ने उन के पांव छुए। चलते-चलते बेटे के कंधे पर हाथ रख कर कहने लगे, ‘अपने पापा को भी थोड़ा अपनी तरह स्मार्ट बनाओ! जींस-वींस पहनाओ। यह क्या ढीले-ढाले कपड़े पहनाते हो!’

बेटे ने कुछ कहा नहीं। मुसकुरा कर सिर हिला कर सहमति दी।

‘तो क्या सूर्यनाथ अब जींस-टी शर्ट पहनेंगे?’ सूर्यनाथ ने जैसे अपने आप से पूछा। और जवाब भी खुद ही दिया, ‘हरगिज़ नहीं।’

बच्चे मॉल के बाहर लगे फौव्वारों के इर्द गिर्द खड़े हो कर फ़ोटो खींचने-खिंचवाने लगे।

सूर्यनाथ चुपचाप खड़े बच्चों की खुशी उन की खुशी में समाई खनक को अपनी भीतर भी खोजने लगे। इस बीच बच्चों ने दो तीन बार सूर्यनाथ को बुलाया भी कि, ‘पापा आप भी आइए, आप की भी फ़ोटो खींच दें। पर सूर्यनाथ नहीं गए। हाथ हिला कर मना कर दिया।

दिल्ली बदल गई। देश बदल गया। गांव बदल गया। रास्ते और बाज़ार बदल गए। पर सूर्यनाथ नहीं बदले। उन की अकड़ नहीं छूटी, मिजाज नहीं बदला।

घर पहुंच कर बच्चे मॉल के मंहगे सामान का, वहां जाने का, वहां के रेस्टोरेंट में चिप्स खाने और कोक पीने का वर्णन इस भाव से कर रहे हैं गोया एवरेस्ट की चोटी छू कर आए हों। छोटे शहर से आए बच्चे दिल्ली के मॉल कल्चर की चकाचौंध में गुम हो गए हैं। उन के बखान में एक बार भी राष्ट्रपति भवन, बिरला भवन, गांधी स्मृति या नेशनल म्यूज़ियम का ज़िक्र नहीं है। बहन का एक लड़का बता भी रहा है अपनी मां से कि, ‘मामा तो बहुत कंजूस हैं। वह तो उन के दोस्त आ गए तो उन्हों ने खिलाया पिलाया। और हां, हम लोग एस्केलेटर पर भी खूब चढे़। वो मुफ़्त था!’

सूर्यनाथ की पत्नी भी यह सब सुन रही हैं। सुनती हुई सूर्यनाथ को देख रही हैं बड़े ग़ौर से यह सोचती हुई कि सूर्यनाथ कहीं भड़क न जाएं, नाराज न हो जाएं।

लेकिन सूर्यनाथ नाराज़ नहीं होते। किस-किस से नाराज हों वह भला? हां, उन के मन में ज़रूर यह आता है कि वह भाग कर बिरला भवन में गांधी स्मृति चले जाएं। और जहां गांधी को गोडसे ने गोली मारी थी, वहीं खड़ा हो कर प्रार्थना करने के बजाय चीख़-चीख़ कर कहें कि हे गोड़से, आओ हमें और हम जैसों को भी मार डालो!

पर वह देख रहे हैं कि उन के इर्द-गिर्द ढेर सारे गोडसे आ गए हैं। पर कोई गोडसे गोली नहीं मारता। सब व्यस्त हैं, बाज़ार में दाम बढ़ाने में व्यस्त हैं। सूर्यनाथ बिना गोली खाए ही मर जाते हैं।

उधर दिल्ली में चांद निकल आया है। आसमान पूरी तरह साफ हो गया है।