सूर्यनारायण रणसुभे: जीवन और स्वप्न / रवि रंजन

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राममनोहर लोहिया ने लिखा है कि बहुजनों का नेता ऐसा होना चाहिए जिसके नेतृत्व में काम करते हुए गैर-बहुजन भी गर्व का अनुभव करें. यह बात केवल राजनीति के बजाय साहित्यिक-सांस्कृतिक एवं सामाजिक सन्दर्भ में भी सच है और जाहिर है कि इस महत कार्य के योग्य वही व्यक्ति हो सकता है जिसमें इतिहास-बोध से लैस आलोचनात्मक चेतना और दूसरों के साथ स्वयं के सन्दर्भ में भी व्यक्ति पूजा का निषेध करने का नैतिक बल हो. कहने की ज़रूरत नहीं कि तमाम तरह की संकीर्णताओं से खुद मुक्त हुए बगैर किसी विचारक द्वारा अपने समय- समाज की कमजोर नब्ज़ पर उंगली रख पाना लगभग असंभव है और व्यक्ति-पूजा से छुटकारा पाए बगैर सच्चे लोकतंत्र का मार्ग प्रशस्त नहीं हो सकता.

इतिहास गवाह है कि अनेकानेक विविधताओं के युक्त भारत जैसे बहुजातीय,बहुधार्मिक एवं बहुभाषिक राष्ट्र में समय-समय पर अनेक प्रकार की संकीर्ण प्रवृत्तियाँ पैदा होती रही हैं और हर तरह की संकीर्णता कालांतर में व्यक्ति के साथ ही सम्पूर्ण समाज और प्रकारांतर से राष्ट्र के लिए घातक सिद्ध हुई है.इसलिए हमारे देश में हर समय ऐसे लोगों की ज़रूरत बनी रहती है जो समाज में प्रचलित क्षयिष्णु प्रवृत्तियों के खिलाफ खड्गहस्त हों और फटकारकर सच बोलने-लिखने का साहस रखते हों. प्रसंगवश विजयदेव नारायण की ‘प्रार्थना: गुरु कबीरदास के लिए’ कविता की याद न आए,यह मुमकिन नहीं:

“परम गुरु
दो तो ऐसी विनम्रता दो
कि अंतहीन सहानुभूति की वाणी बोल सकूँ
और यह अंतहीन सहानुभूति
पाखंड न लगे।
दो तो ऐसा कलेजा दो
कि अपमान, महत्वाकांक्षा और भूख
की गाँठों में मरोड़े हुए
उन लोगों का माथा सहला सकूँ
और इसका डर न लगे
कि कोई हाथ ही काट खाएगा ।

दो तो ऐसी निरीहता दो
कि इसे दहाड़ते आतंक क बीच
फटकार कर सच बोल सकूँ
और इसकी चिन्ता न हो
कि इसे बहुमुखी युद्ध में
मेरे सच का इस्तेमाल
कौन अपने पक्ष में करेगा।

यह भी न दो
तो इतना ही दो
कि बिना मरे चुप रह सकूँ ।”

कहना न होगा कि हमारे समय में सतत सतर्कता से लैस जो गिने चुने मूलगामी बुद्धिजीवी बगैर किसी परिणाम की परवाह किये चीज़ों को उनके सही नाम से पुकारने का साहस रखते हैं, उनमें महाराष्ट्र के एक छोटे -से कसबे लातूर- निवासी और दयानंद महाविद्यालय के अवकाशप्राप्त हिन्दी प्राध्यापक डॉ.सूर्यनारायण माणिकराव रणसुभे एक हैं. अद्वितीय सत्यनिष्ठा और अगाध विद्वत्ता से परिपूर्ण मराठी और हिन्दी समेत दुनिया की श्रेष्ठ कृतियों के गंभीर अध्येता तथा विद्वान-लेखक डॉ.सूर्यनारायण रणसुभे का जन्म अगस्त 7, 1942 को पुराने हैदराबाद रियासत के गुलबर्गा जिले की एक मजदूर बस्ती में हुआ. बालक सूर्यनारायण की प्रारंभिक शिक्षा मराठी माध्यम से गुलबर्गा में ही हुई. माता-पिता और नौ भाई-बहनों के साथ दो छोटे-छोटे कमरों में रहने वाले परिवार के इस मेधावी बालक ने स्नातक की पढ़ाई अंग्रेज़ी माध्यम से पुणे स्थित शासकीय महाविद्यालय में की. अपने एक साक्षात्कार में रणसुभे जी कहते हैं कि “बचपन खेलने के लिए होता है- इसका अनुभव हम भाई-बहनों को कभी नहीं हुआ.” पढ़ाई के दौरान वे अनेक तरह के काम करते रहे. “पान की दुकान के नीचे बैठकर पान काटकर देना,सुपारी काटना,गर्मी की छुट्टियों में दूसरों के घरों में रंग-सफेदी करना,फुटपाथ पर बैठकर व्यवसाय करने वालों के हाथ के नीचे काम करना,मूंगफली के बीज निकालना...इस प्रकार के काम करने में कभी संकोच नहीं हुआ.जैसे मैं ये काम करता था,वैसे स्कूल का काम भी बहुत निष्ठापूर्वक करता था...संभवत: कॉलेज जाने के बाद ही नया कपड़ा खरीदकर उसे मेरे लिए सिलाया गया...जब मैं लातूर में पहली बार साक्षात्कार के लिए आया तब मेरे बदन पर की पैंट मेरे एक मित्र की थी और शर्ट एक अन्य मित्र का.”

रणसुभे जी के हिन्दी साहित्य के अध्ययन-अध्यापन और लेखन के क्षेत्र में प्रवेश का प्रसंग बहुत ही मार्मिक,पर दिलचस्प है. बहुत ही अच्छे अंकों के साथ मैट्रिक पास करने के बाद उन्हें धारवाड़ मेडिकल कॉलेज में प्रवेश मिल रहा था जिसका खर्च उठाने ले लिए एक रिश्तेदार इस शर्त पर तैयार थे कि सत्रह वर्षीय युवा सूर्यनारायण उनकी पुत्री से सगाई करें और डॉक्टर बनने के बाद विवाह कर लें. सूर्यनारायण जी के माता-पिता और परिवार के अन्य सदस्य इसके लिए उन पर दबाव डाल रहे थे. किन्तु, तब तक युवा सूर्यनारायण दुनिया भर के बड़े रचनाकारों की अनेक कृतियों के साथ ही श्री साने गुरूजी, डॉ.भीमराव अम्बेडकर और प्रेमचन्द के लेखन से परिचित हो चुके थे.इसलिए उन्होंने अपने सम्पन्न रिश्तेदार का यह प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया और उच्च शिक्षा प्राप्त करने का अरमान छोड़कर वे डाक-तार विभाग में नौकरी के लिए प्रयास करने लगे.नौकरी के लिए बुलावे का इंतज़ार करने के क्रम में सूर्यनारायण जी ने मित्रों की सहायता से बी.एस.सी प्रथम वर्ष में प्रवेश ले लिया और भौतिकशास्त्र की कक्षा में अपने महाविद्यालय के प्राचार्य डॉ.डी.एस.दावर से इतने अच्छे अंक पाने के बावजूद मेडिकल कॉलेज में प्रवेश न लेने के लिए झिडकी का सामना किया. यह बात कॉलेज में चर्चा का विषय बनी और पंद्रह-बीस दिनों के भीतर ही महाविद्यालय के हिन्दी प्राध्यापक श्री कुलकर्णी ने पूरे राज्य में हिन्दी में सबसे ज़्यादा अंक प्राप्त करने वाले इस युवक को भारत सरकार द्वारा ‘अहिंदीभाषी छात्रों को हिन्दी छात्रवृत्ति’ नामक योजना की जानकारी देते हुए उसे अपनी आर्थिक स्थिति के मद्देनज़र आगे हिन्दी पढ़ने के लिए प्रेरित किया. परिणामत: युवा सूर्यनारायण ने बी.एस.सी. के बजाय बड़ी मुश्किल से बी.ए. में अपना दाखिला स्थानांतरित करवाया और इसके बाद सरकार की इस छात्रवृत्ति योजना के नियम के तहत स्नातकोत्तर हिन्दी की पढ़ाई के लिए सुप्रसिद्ध इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के छात्र बने जहाँ अश्क, लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय, कमलेश्वर, कृष्णा सोबती, दूधनाथ सिंह, मार्कंडेय, राजेन्द्र यादव, अमृतलाल आगर, यशपाल, नगेन्द्र, उदयनारायण तिवारी, रघुवंश आदि नामचीन विद्वान-शिक्षकों एवं साहित्यकारों के निरंतर सम्पर्क में रहने का सुयोग बना.चूंकि डॉ.रघुवंश सुप्रसिद्ध समाजवादी विचारक और राजनेता डॉ.राममनोहर लोहिया के मित्र थे और इलाहाबाद आने पर प्राय: विश्वविद्यालय के अतिथि गृह में ही ठहरते थे,इसलिए छात्र जीवन में सूर्यनारायण जी को लोहिया जी से भी संवाद करने के कई सुअवसर मिले. उल्लेखनीय है कि डॉ.सूर्यनारायण रणसुभे के व्यक्तित्व-निर्माण में सावे गुरूजी और बाबासाहेब आंबेडकर के साथ ही उनके विद्वान-शिक्षकों, हिन्दी के अनेक साहित्यकारों के अलावा डॉ.राममनोहर लोहिया और इलाहाबाद विश्वविद्यालय में आन्ध्र प्रदेश से हिन्दी पढ़ने आए अपने सहपाठी श्री माची रेड्डी की दोस्ती के कारण मार्क्सवाद के गहरे परिचय की महती भूमिका रही. बचपन से ही घनघोर अध्यवसायी छात्र और सन 1965 में प्राध्यापक के रूप में नियुक्त श्री सूर्यनारायण रणसुभे को हिन्दी और मराठी में लेखन के क्षेत्र में प्रवृत्त करने का श्रेय दयानंद महाविद्यालय,लातूर के विद्वान प्राध्यापक तथा स्नातकोत्तर हिन्दी विभागाध्यक्ष डॉ.चंद्रभानु सोनवणे को है. इनके सम्पर्क में आने के पूर्व रणसुभे जी की कुछ रचनाएँ मराठी-हिन्दी राष्ट्रवाणी, लोकसत्ता आदि में प्रकाशित हो चुकी थीं,पर एक ज़माने में प्रतिष्ठित ‘ग्रंथम’(कानपुर) प्रकाशन से छपी ‘आधुनिक मराठी साहित्य का प्रवृत्तिमूलक इतिहास’ शीर्षक उनकी पहली पुस्तक का लेखन सोनवणे जी और भूदेव पाटिल की प्रेरणा से हुआ.आगे चलकर पंचशील प्रकाशन,जयपुर और राधाकृष्ण प्रकाशन,दिल्ली से रणसुभे जी की ‘कहानीकार कमलेश्वर: सन्दर्भ और प्रकृति’ तथा ‘डॉ.बाबासाहेब आम्बेडकर’(जीवनी) जैसी महत्त्वपूर्ण पुस्तकें प्रकाशित हुईं.

सूर्यनारायण रणसुभे यदि प्राध्यापक न होते तो आलोचना के बजाय सृजनात्मक लेखन करते. कितु,अपनी विडम्बनापूर्ण जीवन-स्थितियों के तहत वे कालान्तर में दलित चिंतन और अनुवाद के क्षेत्र में सक्रिय हो गए.अपने एक साक्षात्कार में उन्होंने स्वीकार किया है कि “यह एक सहज नैसर्गिक प्रक्रिया है.मैं बचपन से ही मजदूरी करता रहा.मेरे आसपास सभी जाति और धर्म के लोग उपेक्षित थे.मैं भी उनमें से एक था...मेरी प्रतिबद्धता उनसे ही होगी और है.चिंतन के केंद्र बिंदु में भी वे ही होंगे.अपनी यातना के बोझ से मुक्त होने के लिए मेरे सामने दो ही मार्ग थे-एक तो मैं खुद अपनी यातना को सृजनात्मक मार्ग देता अथवा अन्य यातनामय जीवन जीने वालों की सृजनात्मक कृतियों का अनुवाद करता.मैंने आरम्भ में दूसरा मार्ग चुन लिया था.अब अवकाश के बाद पहले मार्ग को अपनाना चाहता हूँ.”

सृजनात्मक लेखन और उसके अनुवाद के बीच जटिल सम्बन्ध की व्याख्या करते हुए डॉ.रणसुभे ‘प्रतिबद्धता’ को इन दोनों के बीच की महत्त्वपूर्ण कड़ी मानते हुए कहते हैं कि यदि सर्जक और अनुवादक की प्रतिबद्धता एक हो तो अनुवाद न केवल अधिक सहज और जीवंत हो उठता है,बल्कि अनुवाद केवल अनुवाद न होकर पुन:सृजन की ऊँचाई का स्पर्श करने लगता है.

‘अनुवाद का समाजशास्त्र’ डॉ.सूर्यनारायण रणसुभे की विलक्षण पुस्तक है, जिसमें अनुवाद विषयक चिंतन की प्रचलित परिपाटी से हटकर अनुवाद प्रक्रिया को व्यापक ऐतिहासिक-सामाजिक-सांस्कृतिक प्रक्रिया का अंग मानते हुए इसके सामाजिक मूलाधारों की खोज की गयी है.जिस प्रकार साहित्य का समाजशास्त्रीय अध्ययन करते हुए साहित्य के सृजन से लेकर उसके अभिग्रहण तक की प्रक्रिया का विवेचन किया जाता है, उसी प्रकार रणसुभे जी ने इस पुस्तक में किसी समय-समाज में अनुवाद होने या न होने के कारणों की शिनाख्त करते हुए अनुवाद की प्रक्रिया और अनूदित कृतियों के अभिग्रहण में विचारधारा की भूमिका को भी रेखांकित किया है. उनके शब्दों में “जिस समाज-व्यवस्था में सामाजिक गतिशीलता अधिक होती है,समता और बंधुता की मूल्य-व्यवस्था जहाँ दृढ़ होती है,औरों के धर्म,संस्कृति तथा ज्ञान के प्रति आदर की भावना जहाँ दृढ़ होती है,वहां अनुवाद की प्रक्रिया अधिक तेजी से चलती रहती है...अहंकार से युक्त और बंद समाज-व्यवस्था में औरों के प्रति तिरस्कार अथवा उपेक्षा की भावना होती है और ऐसी व्यवस्था में अनुवाद-प्रक्रिया करीब-करीब नहीं के बराबर होती है...एक वृहत्तर समाज या मनुष्य के साथ जुड़ने की छटपटाहट से ही अनुवाद की प्रक्रिया शुरू हो जाती है.इस प्रकार की छटपटाहट वर्ण या जाति-व्यवस्था में बंद समाज में संभव नहीं होती...ऐसी व्यवस्था में अनुवाद संभव नहीं होता,न अनुवाद के प्रति गंभीरता होती है.”

इस पुस्तक में लेखक ने विस्तार से बतलाया है कि जो जाति जितनी जनतांत्रिक स्वभाव वाली होगी,उसकी जातीय भाषा में उतना ही अधिक अनुवाद होगा.भारत में अंग्रेज़ी शिक्षा का आरम्भ होने के बाद अनुवाद की प्रक्रिया में आई गति को रेखांकित करने के पूर्व सूर्यनारायण रणसुभे ने ज्ञानेश्वर को पहला विद्रोही अनुवादक बताते हुए सवाल उठाया है कि आखिर एक लम्बे समय तक भारतीय भाषाओं में संस्कृत ग्रंथों में के और ख़ासकर उन ग्रंथों के अनुवाद क्यों नहीं हुए जिनमें तत्कालीन सामंती व्यवस्था द्वारा प्रदत्त जीवन-मूल्यों का जमकर विरोध किया गया था.उनका कहना है कि गौतम बुद्ध और उनके अनुयायियों द्वारा लिखे गए साहित्य का अनुवाद करने के बजाय तथाकथित विद्वानों द्वारा इन ग्रथों को समाप्त करने का षडयन्त्र रचा गया.जाहिर है कि भारत में वर्ण-व्यवस्था के प्रचलन की वजह से अश्वघोष की वर्ण व्यवस्था-विरोधी पुस्तक ‘वज्रसूची’ का अनुवाद एक लम्बे अरसे के बाद संभव हो पाया.उनके शब्दों में अन्य भाषाओं में प्राप्त ज्ञान और साहित्य के अनुवाद की बात तो दूर कम से कम अपने पास जो श्रेष्ठ है, उसे विश्व की अन्य भाषाओं अथवा आधुनिक भारतीय भाषाओं में अनुवाद करने का गंभीर प्रयत्न भी दिखाई नहीं देता: “वेदों और उपनिषदों के अनुवाद कब से प्राप्त होते हैं ? एक और बाइबिल तथा कुरान के अनुवाद की एक लम्बी परंपरा मिलती है,तो दूसरी और एक हम हैं कि न औरों को समझ लेने की कोशिश करेंगे और न खुद को औरों तक पहुंचाने की. मुक्तिबोध की भाषा में हम ‘ब्रह्मराक्षस’ ही हैं.” इससे अलग एक और समस्या की तरफ डॉ.रणसुभे ने इंगित किया है, जहाँ नवजागरण काल में हमारे देश के बुद्धिजीवियों ने अपनी भाषाओं और उनमें रचित साहित्य की तुलना में अंग्रेज़ी भाषा और यूरोपीय चिंतन को श्रेष्ठ साबित करना आरंभ कर दिया था . भारत का पढ़ालिखा एक तबका अंग्रेज़ी,फ्रेंच, जर्मन,इतालवी अथवा लातिनी अमेरिकी साहित्य आदि के प्रति अतिरिक्त उत्साह का परिचय देता रहा,पर भारतीय भाषाओं में रचित साहित्य के प्रति वह उदासीन बना रहा. विचित्र बात है कि रंगभेद के शिकार नीग्रो और लातिनी अमेरिका के पिछड़ों की मुक्ति के लिए रचित साहित्य को सराहने वाला यह वर्ग अपने हमवतन दलित समुदाय की मुक्ति के लिए रचित साहित्य से विमुख रहा.लेखक के अनुसार इसके मूल में हमारी हीनता ग्रंथि थी. इसलिए लेखक का यह कहना सही है कि अनुवाद की पूरी प्रक्रिया तथा अनुवाद-दर्शन पर समाज-व्यस्था के सन्दर्भ में विचार करना ज़रूरी है.

‘प्रादेशिक भाषा और साहित्येतिहास’ नामक अपनी पुस्तक में सूर्यनारायण रणसुभे ने मराठी के साथ दक्षिण भारत में बोली जाने वाली ‘दखनी’ का जन्म मराठी के सम्पर्क से मानते हुए लिखा है कि ‘मराठी आठवीं – नवीं शती की भाषा है और ‘दखनी’ ग्यारहवीं शती की,जिसमें मराठी संस्कृति की अभिव्यक्त हुई है’.विषय की व्यापकता के मद्देनज़र लेखक ने पुस्तक के आरंभ में मराठी भाषा की उत्पत्ति का परिचय देने के बाद केवल आधुनिक साहित्य और उसमें भी विशेष तौर पर कथा साहित्य तथा अधुनातन साहित्यिक प्रवृत्तियों का लेखा-जोखा प्रस्तुत किया है. किन्तु, मराठी साहित्य के इतिहास में प्रख्यात ‘रविकिरण मंडल’ के कवियों पर उन्होंने डूब कर लिखा है.इतना ही नहीं,साहित्येतिहास में मुख्य धारा से विच्छिन्न रचनाकारों के अवदान को रेखांकित करते हुए लेखक ने साहित्येतिहासकार के दायित्व का बखूबी निर्वाह करते हुए ‘रविकिरण मंडल’ के बाहर के प्रमुख कवियों पर भी पर्याप्त प्रकाश डालने के उपरान्त ‘रविकिरण मंडलोत्तर’ मराठी काव्य की भी सूक्ष्म मीमांसा की है.

केशवसुत नाम से प्रसिद्ध मराठी कवि कृष्णाजी केशव दामले के योगदान पर विचार करते हुए रणसुभे जी जहाँ उनकी कविता में जीवन के प्रति घोर निराशा को लक्षित करते हैं, वहीं उनकी सामाजिक चेतना सम्पन्न कविताओं की प्रशंसा करने से नहीं चूकते.इस क्रम में वे ‘अछूत जाति के बालक का पहला प्रश्न’ और ‘मजदूर पर भुखमरी का संकट’ सरीखी कविताओं में रूढ़िग्रस्त चातुर्वर्ण्य व्यवस्था से उत्पन्न विषमताओं तथा आर्थिक सवालों को कवित्वपूर्ण ढंग से उठाने के कारण इन्हें महत्त्वपूर्ण मानते हैं.उनके अनुसार मराठी में पहले लिखी जा रही आध्यात्मिक एवं श्रृंगार- काव्य से विलग केशवसुत ने शुद्ध लौकिक प्रेम और प्रकृति-काव्य का सृजन किया. वे मराठी में न केवल रहस्यवादी कविताओं के प्रणेता माने जाते हैं,बल्कि अंग्रेज़ी में प्रचलित सौनेट छंद को ‘सुनीत काव्य’ के रूप में मराठी में प्रचलित करने का श्रेय भी उन्हीं को प्राप्त है. बावजूद इसके, रणसुभे जी शिकायती लहजे में लिखते हैं कि ‘केशवसुत कवि को अलग दुनिया का प्राणी मानते थे.उनकी ये धारणाएँ बड़ी ही विचित्र, विवादास्पद और विक्षिप्त-सी हैं...आत्माभिव्यक्ति और आत्मतुष्टि को ही वे काव्य-हेतु मानते हैं.’

इस साहित्येतिहास ग्रन्थ में मराठी के कमोबेश तमाम महत्त्वपूर्ण रचनाकारों के अवदान का विवेचन -विश्लेषण करने वाली रणसुभे जी की इतिहास-दृष्टि भाववाद के बजाय यथार्थवाद से प्रेरित है. वैज्ञानिक चेतना से लैस हुए बगैर साहित्येतिहास ग्रन्थ में न तो जयंत नार्लीकर रचित विज्ञान गल्प पर कई पृष्ठ लिखे जा सकते हैं और न ही मराठवाड़ा में बोली जाने वाली ‘महारी’ भाषा में ई.सोनकांबले रचित ‘यादों के पंछी’ जैसी दलित आत्मकथा का गहरा विवेचन संभव है, जिसमें मराठवाड़ा क्षेत्र में तब प्रचलित सामाजिक विषमता और अकल्पनीय दरिद्रता से पीड़ित समुदायों का मार्मिक चित्रण है.डॉ.रणसुभे लिखते हैं कि मराठवाड़ा की इस भयावह सामाजिक गुलामी की वृत्ति के कारण ही डॉ.बाबासाहेब ने औरंगाबाद में मिलिंद कॉलेज की स्थापना की.मराठवाड़ा के दलितों को शिक्षित करना उनका लक्ष्य था.इस मिलिंद महाविद्यालय में अध्ययन करने महाराष्ट्र के कोने-कोने से दलित युवक इकट्ठा होने लगे. दलितों की यह नयी पीढ़ी जाति के अभिशाप से और दरिद्रता से मुक्त होना चाह रही थी.इसलिए उन्हें शिक्षा की ज़रूरत थी. विवेचन-क्रम में ‘याद़ों के पंछी’ के रचनाकार की इस बात के लिए सराहना की गयी है कि उनके अनुभव भयावह थे,पर ‘इन अनुभवों में किसी के प्रति न कोई तिरस्कार था,न किसी के प्रति उपेक्षा, न फतवेबाजी और न विद्रोह...अन्य दलित आत्मकथाओं की तुलना में इस आत्मकथा की यह विशेषता है कि इसमें कहीं पर भी सवर्णों के प्रति तिरस्कार,नफरत,गुस्सा,चिढ़ नहीं है...उनकी लेखनी का चमत्कार है कि पाठकों के मन में अलबत्ता उन व्यक्तियों के प्रति चिढ़,गुस्सा या नफरत पैदा होती है जिन्होंने उस किशोर के साथ अमानवीय व्यवहार किया था...जो बुद्धिजीवी बार बार यह कहते हैं कि असली समस्या गरीबी की,दरिद्रता की है...वे इस आत्मकथा से अगर गुजरें तो उन्हें पता चलेगा कि इस देश में गरीबी के साथ एक और अभिशाप है और वह है दलित होने का शाप...इसलिए प्रश्न केवल आर्थिक नहीं,सामाजिक भी है.’

इस पुस्तक के अंत में ‘दखनी हिन्दी:भाषा और साहित्य का उद्भव और विकास’ अध्याय के अंतर्गत महाराष्ट्र,कर्नाटक,गुजरात एवं आन्ध्र प्रदेश आदि राज्यों के कुछ भूभागों में बोली जाने वाली भाषा और उसमें रचित साहित्य का परिचय देते हुए लेखक ने स्पष्ट शब्दों में स्वीकार किया है कि दखनी वस्तुत: हिन्दी या उर्दू के बजाय कालान्तर में एक ऐसी स्वतंत्र बोली के रूप में विकसित हुई है जो देवनागरी और फारसी,दोनों लिपियों में लिखी जाती रही है.यह दक्षिण के अधिकांश मुसलामानों के साथ ही सैकड़ों वर्षों से इन क्षेत्रों में बसे हिन्दी भाषी समाज की भी मातृभाषा है और इसके आगे हिन्दी या उर्दू जोड़ना ज़रूरी नहीं है.रणसुभे जी के अनुसार “इसका इतिहास करीब एक हज़ार वर्ष पुराना है.कभी यह बहमनी तथा आदिलशाही दरबार की राजभाषा थी,प्रशासन की भाषा थी और दक्षिण की सम्पर्क भाषा थी.उर्दू का जन्म इसी भाषा से हुआ है...इसका जन्म अरबी और फारसी बोलने वालों के संपर्क से हुआ .” जाहिर है कि ‘दखनी’ में मराठी संतों ने भी काव्य-सृजन किया है.

डॉ. रणसुभे ने ‘दखनी’ के ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य पर विचार करने के उपरान्त इस क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण योगदान देने वाले अनेकानेक विद्वानों का हवाला देते हुए वजही,गव्वासी,नुसरती आदि मध्ययुगीन दखनी कवियों के साथ ही माणिकप्रभु, ख्वाजा बन्देनावाज़ गेसुदराज़, वली औरंगाबादी आदि की रचनाओं का जो मूल्यांकन प्रस्तुत किया है, वह उनके साहित्येतिहासकार की आलोचनात्मक चेतना का जबरदस्त उदाहरण है.

‘डॉ.बाबासाहेब आम्बेडकर’ नाम से लिखित कृति रणसुभे जी द्वारा हिन्दी के जीवनी साहित्य को एक अनुपम देन है.इसमें लेखक ने ‘डॉ.आम्बेडकर पूर्व महाराष्ट्र’ अध्याय में किसी असाधारण व्यक्ति के क्रांतिकारी कार्यों का विवेचन करने के लिए जिन तीन पद्धतियों का ज़िक्र किया है उनमें पहली पद्धति यह है कि उस व्यक्ति के जन्म के पूर्व जो भी सामाजिक,राजनीतिक,आर्थिक और धार्मिक परिस्थितियाँ रही हों,उनका विवेचन और उसके आधार पर उस व्यक्ति के कार्यो का मूल्यांकन किया जाय.दूसरी पद्धति है उस व्यक्ति के जीवनकाल में सामाजिक,राजनीतिक,आर्थिक और धार्मिक परिस्थितियों का विवेचन करते हुए उसके क्रांतिकारी क़दमों का विरोध करने वाली शक्तियों की शिनाख्त और ऐसी प्रतिगामी ताकतों से टकराने की उसकी क्षमता का मूल्यांकन करना.तीसरी पद्धति के तहत उस महापुरुष के देहावासान के बाद उसके शब्द और कर्म का समाज पर प्रभाव और सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया को गति प्रदान कर सकने में उसके चिंतन और क्रिया-कलापों की सक्षमता को परखना शामिल है.

डॉ.आम्बेडकर की जीवनी लिखने के दौरान इन तीनों पद्धतियों का विनियोग करते हुए डॉ.रणसुभे इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि “उनके ग्रथों को पढ़ते समय बार-बार इस बात का एहसास होता है कि वे किसी प्रदेश विशेष के दलितों की बात नहीं कर रहे थे,अपितु इस देश के सभी शूद्रों,अछूतों,शोषितों,श्रमिकों के लिए संघर्षरत थे.उनका संघर्ष केवल इन तक ही सीमित नहीं था,वास्तव में वे एक शोषण रहित और जातिरहित विशुद्ध मानवीय मूल्यों से सम्पन्न राष्ट्र का स्वप्न देख रहे थे.इन दिनों उनके व्यक्तित्व और उनके विचारों को एक ख़ास तबके तक सीमित रखकर ही प्रस्तुत किया जा रहा है.वास्तव में यह उस तबके के लिए भी खतरनाक है और सम्पूर्ण भारतीय चिंतन की दृष्टि से भी यह घातक है.”

डॉ.आम्बेडकर की यह जीवनी वस्तुत: भारतीय समाज-व्यवस्था का इतिहास भी है, जिसमें डॉ.रणसुभे ने भारत में वर्ण व्यवस्था के उदय के कारणों और परिणामों को रेखांकित करते हुए भारतीय मनुष्य के उस सामूहिक अवचेतन को भी खंगाला है जिसकी मनोरचना में स्वयं को श्रेष्ठ और अन्य को हीन समझने की प्रवृति घर कर गयी है.लेखक का यह कहना इतिहास सम्मत है कि ‘इस देश में जो बाहरी शक्तियाँ आईं,उन्होंने कभी इस वर्ण या जाति-व्यवस्था के विरोध में ज़िहाद नहीं छेड़ा...जो विदेशी थे या सत्ता हथियाने या शोषण करने आये थे,उनका लक्ष्य व्यवस्था-परिवर्तन नहीं था.’ अपने विश्लेषण के दौरान लेखक ने दिनकर के महाग्रंथ ‘संस्कृति के चार अध्याय’ से एक प्रासंगिक उद्धरण लेकर साबित किया है कि भारत में इस्लाम धर्मावलम्बियों के बीच सामाजिक भेदभाव वस्तुत: हिन्दू धर्म के साथ उसके घात-प्रतिघात का नतीज़ा है.दिनकर ने लिखा है: “हिन्दुओं ने मुसलामानों को जातिवाद का ज़हर पिलाया,बदले में,मुसलामानों ने हिन्दुओं को परदे का शाप दिया.हिन्दुओं की देखादेखी मुसलामानों में भी ऊँच-नीच का भेद चलाने लगा.” इस भेदभाव के विरुद्ध समय-समय पर अनेकानेक समाज सुधारकों एवं चिंतकों द्वारा जो मुहिम चलाई जाती रही,उसका भी इस जीवनी में सप्रमाण उल्लेख मिलता है. इस सन्दर्भ में जोतिबा फुले, न्यायमूर्ति गोविन्द रानडे तथा गोपाल गणेश आगरकर आदि के योगदान पर डॉ.रणसुभे ने विस्तार से विचार करते हुए फुले के एक काव्यात्मक कथन का ख़ास तौर ज़िक्र किया है, जिससे खुद बाबासाहेब आम्बेडकर भी प्रेरित हुए थे:

‘ज्ञान के अभाव में बुद्धि गई,
बुद्धि के अभाव में नीति गई,
नीति के अभाव में गति गई,
गति के अभाव में संपत्ति गई,
संपत्ति के अभाव में शूद्र बर्बाद हुए,
केवल ज्ञान के अभाव में इतना अनर्थ हो गया.’

जीवनी-लेखन के क्रम में डॉ.रणसुभे ने बाबासाहेब आम्बेडकर के व्यक्तित्व निर्माण की पृष्ठभूमि के साथ ही उनके सामाजिक,धार्मिक एवं राजनीतिक विचारों का विस्तार से जिस प्रकार वर्णन किया है उससे यह कृति रोचक और प्रेरणादायी बन पड़ी है. इस कृति के अंत में लेखक ने आज के सन्दर्भ में डॉ.आम्बेडकर के प्रभाव की मीमांसा करते हुए लिखा है कि जाति निर्मूलन के लिए बाबासाहेब द्वारा प्रस्तावित अंतरजातीय विवाह एक कारगर उपाय है.ऐसे विवाह अगले सौ-दो सौ वर्षों में अगर तेज़ी से होने लगे तो जातियाँ टूट सकती हैं. “आज से पचास वर्ष पूर्व जो समाज अंतरजातीय विवाह करनेवालों का जीना मुश्किल कर देता था,जिन्हें बहिष्कृत कर देता था,वही समाज अब उन्हें सम्मान के साथ स्वीकार कर रहा है.इसे आम्बेडकर जी के स्वप्नों की पूर्ति ही कहेंगे.यह शुभ लक्षण है.” इसी प्रकार जो दलित समुदाय पहले अपने ऊपर ढाए जाने वाले ज़ुल्म को ज़ुल्म नहीं मानता था,वह आज प्रतिरोध कर रहा है और स्पष्ट ही ‘बाबासाहेब के विचारों के कारण उन्हें उनकी संवेदनशीलता वापस मिल गयी है.’ बावजूद इसके, डॉ.आम्बेडकर की इस जीवनी में दलित चिंतन के सन्दर्भ में विवेकानंद झा की अत्यंत महत्त्वपूर्ण और प्रामाणिक कृति ‘चांडाल:अनटचैबिलिटी एंड कास्ट इन अर्ली इण्डिया’ का नामोल्लेख तक न होना अखरता है.

‘दलित साहित्य:स्वरूप और संवेदना’ पुस्तक में डॉ.सूर्यनारायण रणसुभे ने भारतीय दलित साहित्य की सिद्धान्तिकी के साथ ही उसकी सामाजिक-सांस्कृतिक पृष्ठभूमि आदि पर विचार करते हुए अनेक आत्मकथाओं और कथाकृतियों की व्यावहारिक आलोचना की है. हिन्दी में दलित साहित्य विषयक चर्चा से असंतोष व्यक्त करते हुए उन्होंने मराठी में इस विषय पर हुई बहस को अपने सैद्धांतिक विवेचन का आधार बनाया है.उल्लेखनीय है कि साहित्य-सृजन में विचारधारा की भूमिका को लेकर काफी बहस होती रही है.अनेक रचनाकार यह मानते हैं कि सृजनात्मक लेखन को सीधे-सीधे विचारधारा से जोड़कर न तो कुछ सार्थक लिखा जा सकता है और न ही उसके मर्म को समझा जा सकता है.साहित्य को विचार में घटाकर देखना किसी रचना के साथ गैर-रचनात्मक व्यवहार है,जिससे बचने की ज़रूरत है.वजह यह कि इससे साहित्य की स्वायत्ता सवालों के घेरे में आ जाती है.

ग्राम्शी ने तो यहाँ तक लिखा है कि सामाजिक यथार्थ को अभिव्यक्ति देने वाले दो तरह के रचनाकार होते हैं- एक सामाजिक यथार्थ का प्रवक्ता होता है और दूसरा कलाकार.खुद लेनिन ने भी मायकोवस्की को क्रांति का कवि मानने के बावजूद अपने प्रिय कवि के रूप में पुश्किन का नाम लिया है.वस्तुत: साहित्य-क्षेत्र में मुख्य मुद्दा विचारधारा को अपनाने या न अपनाने के बजाय विचारधारात्मक कट्टरता से बचने का है.इस सन्दर्भ में ग्राम्शी का कहना है कि “कलाकार के सम्मुख एक राजनीतिक परिदृश्य अवश्य होता है,पर वह किसी राजनीतिकर्मी की तुलना में कम नपातुला होता है.इसलिए कलाकार कम कट्टर होता है.

दलित साहित्य के विशेष सन्दर्भ में विचारधारा और साहित्य के बीच कथित अन्योन्याश्रय सम्बन्ध को लेकर इस पुस्तक की भूमिका में अपना पक्ष रखते हुए हुए डॉ.रणसुभे ने लिखा है कि “श्रेष्ठ सृजनात्मक साहित्य किसी न किसी दर्शन की नींव पर खड़ा होता है अथवा उस रचना के भीतर से एक नया दर्शन प्रस्फुटित होता है.भक्ति साहित्य की नींव में अद्वैतवाद तथा उसकी शाखा-प्रशाखाओं का दर्शन है.ठीक इसी प्रकार बौद्ध दर्शन दलित साहित्य के मूल में है.इस कारण इस पुस्तक में ‘बौद्ध दर्शन,सामाजिक क्रान्ति और डॉ.बाबासाहेब आम्बेडकर’ शीर्षक से एक स्वतंत्र आलेख मौजूद है.”

विदित है कि सृजनात्मक साहित्य को इतिहास की धारा में रखकर देखते हुए उसके विचारधारात्मक अर्थ का संधान करने पर रचना में अन्तर्निहित सामाजिक यथार्थ आलोकित हो उठता है. कितु,यह प्रक्रिया ऊपर से सरल दिखाई देने के बावजूद बहुत जटिल हुआ करती है.वजह यह कि साहित्य का इतिहास-प्रक्रिया से इकहरा सम्बन्ध नहीं होता.मैनेजर पाण्डेय पाण्डेय के शब्दों में “शब्द का अर्थ से,अर्थ का अनुभव से,अनुभव का संवेदना से,संवेदना का यथार्थ से,यथार्थ का समाज से और समाज का इतिहास से जटिल सम्बन्ध होता है.”

रणसुभे जी की आलोचना-पद्धति प्रकारांतर से ऐतिहासिक-समाजशास्त्रीय पद्धति है.इसलिए उसमें दलित साहित्य समेत तमाम कलाकृतियों एवं वैचारिक साहित्य को इतिहास की धारा में रखकर मूल्यांकित करने के पेशकश है.इसीलिए वे दलित साहित्य पर लिखने के पूर्व भारतीय चित्त के निर्माण में ‘मनुस्मृति’ की भूमिका को रेखांकित करते हैं: “मनुस्मृति की व्यवस्था धीरे-धीरे इस देश की मानसिकता में घर करने लगी.शिक्षित हों या अशिक्षित,सबकी मानसिकता के निर्माण में मनुस्मृति की भूमिका महत्त्वपूर्ण रही है...आर्यसमाजी मनुस्मृति पर लगाए गए आरोपों का खण्डन करने का प्रयत्न करते हैं.उनके अनुसार मनुस्मृति के जो श्लोक आपत्तिजनक हैं,वे प्रक्षिप्त हैं.सवाल यह नहीं है कि कौन- से श्लोक शुद्ध और कौन-से प्रक्षिप्त हैं.सवाल है कि मनुस्मृति में रूपायित समाज-व्यवस्था से,वर्ण-व्यवस्था से यहाँ की मानसिकता बनी है कि नहीं...मनु ने अमानवीय सनाज-व्यवस्था का अर्थात वर्ण-व्यवस्था का केवल समर्थन ही नहीं किया अपितु उसे धर्म,दर्शन,तथा आचरण के नियमों के अंतर्गत ला रखा,आग्रह से उसका प्रतिपादन किया,ऐसी व्यवस्था को बनाए रखने के लिए शास्त्र का निर्माण किया.इसलिए इसको न केवल नकारना ज़रूरी है,बल्कि नए मानवीय समाज-निर्माण के लिए इस शास्त्र को नष्ट करना भी आवश्यक है.” वर्ण-व्यवस्था के विरुद्ध स्वामी दयानंद सरस्वती और आर्य समाज की भूमिका को एक सीमा तक स्वीकार करने के बावजूद डॉ.रणसुभे उनके समकालीन जोतिबा फुले को दयानंद की तुलना में कहीं ज़्यादा महत्त्वपूर्ण और मानते हैं.

ऊपर उद्धृत लम्बे उद्धरण से गुजरते हुए लेखक की साफगोई और दो-टूकपन से दो-चार हुआ जा सकता है.कहना यह है कि डॉ.रणसुभे सुविधाजीवी बुद्धिजीवियों की तरह दुविधा की भाषा के बजाय चीज़ों को उनके सही नाम से पुराने में विश्वास रखते है.उनके अनुसार दलित साहित्य में जो नकारवादी स्वर है उसके पीछे मनुवादी व्यवस्था से घृणा और रचनात्मकता की पृष्ठभूमि में बुद्ध की समतावादी व्यवस्था है.कहने की ज़रूरत नहीं है कि दलित रचनाकार जब वर्ण-व्यवस्था के कारण अपने निजी जीवन या सामुदायिक जीवन के भोगे हुए तेजाबी यथार्थ को व्यक्त करने लगते हैं तो कई बार इस जीवन की जय के दौरान कला की पराजय दिखाई पडती है. मिर्ज़ा ग़ालिब ने सही लिखा है:

“फ़रियाद की कोई लय नहीं है नाला पाबन्द-ए-नय नहीं है
क्यूं रद्दे क़दह करे है जाहिद मय है मगस की क़य नहीं है.”

समकालीनता के आत्यन्तिक दबाव में अपनी ज़मीन से उखड़े हुए लोगों की तरह मध्यकालीन काव्य से अनभिज्ञ आलोचकों से विलग डॉ.रणसुभे संत-भक्त कवियों की क्रांतिकारी भूमिका का ज़िक्र करना नहीं भूलते.सच तो यह है कि उनके भीतर की गहरी संवेदनशीलता का श्रोत भक्तिकाव्य के उनके अगाध ज्ञान में निहित है.संत ज्ञानेश्वर,तुकाराम,बसवेश्वर,कबीर,रैदास आदि कवियों पर उनको सुनना एक अनोखा अनुभव हुआ करता है. वे दलित साहित्य के सन्दर्भ में भी इन संत-भक्त कवियों की भूमिका को स्वीकार करते हैं. यह सही है कि इन मध्ययुगीन रचनाकारों के लेखन के बावजूद दलित समाज की स्थिति में कोई ख़ास बेहतरी नहीं आई,पर इनको नज़रअंदाज़ करना रणसुभे जी की दृष्टि में विवेकसम्मत नहीं है.इस मुद्दे पर उनका दृष्टिकोण सुप्रसिद्ध समाजशास्त्री और बँगला साहित्य के मर्मी लेखक-आलोचक धुर्जटि प्रसाद मुखर्जी के नज़रिए के करीब है, जिन्होंने भक्ति आन्दोलन की विफलता के कारणों पर विस्तार से विचार करते हुए लिखा है कि संत काव्य में निहित विद्रोही चेतना और वैयक्तिकता जहाँ पुरोहितवाद का विरोध करती है, वहीं ईश्वर-प्रेम के बहाने व्यक्त मानुष- प्रेम भाग्यवाद का विरोधी है. उनके अनुसार भक्तिकाव्य इस बात का रचनात्मक प्रमाण प्रस्तुत करता है कि एक बंद समाज में रहस्यवाद कैसे क्रांतिकारी भूमिका अदा करता है.लेकिन भक्तिकाव्य की परिणति से यह जाहिर हो जाता है कि साहित्यिक परम्पराओं की अपेक्षा सामाजिक-सांस्कृतिक परम्पराएं किस हद तक ताकतवर होती हैं.भक्ति आन्दोलन को जन-जागरण पैदा करने वाले एक सांस्कृतिक आन्दोलन के रूप में चिह्नित करते हुए डी.पी.मुखर्जी कहते हैं कि उस जागरण की सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि उसमें समाज की स्वीकृति के बावजूद सामाजिक हित के लिए किसी स्पष्ट विकल्प का अभाव है.वस्तुत: भक्तिकाव्य में आत्मा के अनुरोध और जन-जीवनगत यथार्थ के बीच दरार की वजह आध्यात्मिकता की भौतिक अंतर्वस्तु और धर्म के रूप के बीच अंतर्विरोध तथा राजनीतिक चेतना के अभाव में निहित है.

यह सही है कि सूर के वृन्दावन और रैदास के बेगमपुर में जातिभेद के लिए कोई जगह नहीं है. गेल आमवेट की ‘सीकिंग बेगमपुरा: द सोशल विज़न ऑफ़ एंटी कास्ट इंटेलेक्चुअल’ पुस्तक में रैदास के एक पद की जो नवोन्मेषशालिनी व्याख्या है,उसमें कवि रैदास के यूटोपिया या कलपना लोक की अद्भुत विश्लेषण है. किन्तु,जाहिर है कि तत्कालीन समाज में व्याप्त भेदभाव के मद्देनज़र भक्त कवियों का यूटोपिया कालांतर में इसे जड़मूल से उखाड़ फेंकने में नाकामयाब साबित हुआ.वजह यह कि केवल सदाचारवाद का प्रवचन और व्यक्तिगत स्तर पर उसे अमल में लाने से कोई समाज-व्यवस्था कभी नहीं बदलती. र्डॉ.रणसुभे कहते हैं कि इसी कारण दलित साहित्य एक सीमा तक ही संतों के कार्य को स्वीकार करता है.

गौरतलब है कि किसी भी रचनाधारा में फार्मूलाबद्ध लेखन कालान्तर में रचना के सत्त्व को हानि पहुँचाता है. यह बात अन्य रचनाओं के साथ-साथ दलित लेखन पर भी लागू होती है. यह सुखद है कि धीरे-धीरे दलित साहित्यकारों ने समाज के दूसरे तबकों पर दोषारोपण को स्थगित कर आत्मालोचन करते हुए अपने समुदाय की कमियों को भी रेखांकित करना आरंभ किया है.दलित कहानी का विश्लेषण करते हुए डॉ.रणसुभे एक सच्चे समालोचक की हैसियत से उन कहानियों की ओर पाठकों का ध्यान खींचते हैं जिनमें दलित समुदाय के भीतर मौजूद प्रतिक्रियावादी और स्वार्थी तत्त्वों को बेनकाब किया गया है.इतना ही नहीं, दलित कहानी में उन्हें स्त्री पात्रों का अभाव भी खटकता है.उनके अनुसार चूंकि दलित जीवन में रोजी-रोटी की समस्या ही महत्त्वपूर्ण होती है,इसलिए उनके जीवन को आधार बनाकर रचित कहानियों में स्त्री-पुरुष संबंधों का यथोचित वर्णन नहीं मिलता.

दलित आत्मकथा पर लिखने के दौरान डॉ.रणसुभे ने सुप्रसिद्ध संरचनावादी चिन्तक नार्थोप फाई का एक कथन उद्धृत करते हुए आत्मकथा की रचना-प्रक्रिया और उसके लेखन का औचित्य प्रतिपादित किया है.उनके शब्दों में “आपबीती इस दृष्टि से रचनात्मक है कि कृतिकार को आपबीती में घटनाओं और अनुभवों की एक सुदीर्घ शृंखला का चयन करके एक विश्वस्त तंत्र निर्मित करना पड़ता है तथा यह प्रक्रिया कथात्मकता की प्रक्रिया के सदृश है.” दलित लेखन के सन्दर्भ में ‘आत्मकथा’ के बजाय ‘दलित स्वकथन’ के इस्तेमाल की वकालत करते हुए डॉ.रणसुभे लिखते हैं कि “दलित स्वकथन मुख्यत: एक सामाजिक दस्तावेज़ है...आत्मकथा स्वांत:सुखाय लिखी जाती है.परन्तु दलित स्वकथन भयानक पीड़ा के साथ लिखा जाता है.” इस आलेख में हिन्दी पाठकों को मराठी की पन्द्रह महत्वपूर्ण दलित आत्मकथाओं से परिचित कराया गया है.

वर्ण-व्यवस्था के तहत इक्कीसवीं सदी में भी भारतीय समाज में व्याप्त भेदभाव के प्रसंग में लेखक ने इस पुस्तक में एक स्थान पर एक कड़वा निजी अनुभव साझा किया है:

“महाराष्ट्र से दिल्ली की यात्रा में था. लम्बी यात्रा, अकेला मैं शयनयान में बैठा था. सामने एक उत्तर भारतीय परिवार था.रेल हिन्दी भाषी प्रदेश से गुजर रही थी. दोपहर का समय था.सामने बैठे परिवार में से पुरुष ने मुझसे पूछा: ‘भाई साहब,आप किस बिरादरी से जुड़े हैं?’ मेरी हिन्दी से तो कोई पहचान नहीं पाता कि मैं अहिन्दी भाषी हूँ.मैंने जान-बूझकर कहा कि ‘मैं दलित हूँ.’

इस एक वाक्य से मानो धमाका हुआ.नीरव शांतता.थोड़ी देर बाद उस पुरुष ने पूरी नम्रता से कहा,‘भाई साहब,क्या आप थोड़ी देर दरवाज़े के पास जाकर खड़े हो जाएंगे,हमें लंच लेना है.’अत्यंत विनम्रता! भयंकर अपमान,परन्तु इस वाक्य में छिपे भयंकर अपमान के विष को क्या सभी लोग महसूस कर सकेंगे? मैं अगर यह कहता कि मैं ब्राह्मण हूँ,ठाकुर हूँ या लाला तो मुझे लंच में शरीक कर लिया जाता.मैंने कहा कि मैं दलित हूँ और मुझे वहाँ से उठाया गया.दलित की यातना क्षणभर के लिए अगर महसूस करनी हो तो अपनी मूल जाति छिपाकर कभी दलित बनकर देखी.तब पता चलेगा कि आखिर

दलित होने का मतलब क्या है...ठीक इसी प्रकार एक यात्रा में जब मैंने अपना परिचय एक मुसलमान के रूप में दिया तो चर्चा के सारे सन्दर्भ बदल गए और कई आँखों में संदेह उभरकर आने लगा.”

रणसुभे जी द्वारा वर्णित इस प्रसंग से गुजरते हुए दिनकर की ‘रश्मिरथी’ में आए कर्ण के एक मार्मिक कथन के साथ ही भवभूति का स्मरण स्वाभाविक है:

‘हम उनका आदर्श कि जो निज व्यथा न खोल सकेंगे
पूछेगा जग किन्तु पिता का नाम न बोल सकेंगे.

‘उत्तररामचरितम’ में राम के व्यक्तित्व की करुणाजन्य व्यापकता और गहराई का चित्रण करते हुए भवभूति ने लिखा है कि जिस प्रकार औषधि को गड्ढे की आग में रखकर पकाने के लिए ‘पुटपाक’ कहे जानेवाले ऊपर-नीचे से बंद और मजबूत धातु के पात्र में रखी औषधि भीतर के ताप से पिघलकर द्रवीभूत तो हो जाती है,पर सुदृढ़ता के कारण ‘पुटपाक’ टूटता नहीं है,उसी प्रकार राम की व्यथा आवेग के ताप से मर्म को पिघलाती हुई भीतर ही भीतर उबलती-फैलती है, बाहर नहीं आती-

अनिर्भिन्नो गंभीरत्वादन्तर्गूढघनव्यथ: I
पुटपाकाप्रतीकाशो रामस्य करुणो रस:II

सामाजिक गतिकी की दृष्टि से यह अच्छी बात है कि हमारे समय में दलित समुदाय से आने वाले अनेकानेक रचनाकार साहित्य की तमाम विधाओं में अपनी व्यथा खोलकर रखते हुए न केवल समाज को आइना दिखा रहे हैं,बल्कि आत्मनिरीक्षण भी कर रहे हैं.इसके साथ ही वे स्वाभिमान की रक्षा के लिए तत्पर हैं और अपने संवैधानिक अधिकारों के प्रति जागरूक भी. बावजूद इसके,उल्लेखनीय है कि दलित आत्मकथाओं में जो गिनीचुनी रचनाएँ कला की ऊँचाई का स्पर्श कर सकी हैं, उनमें रचनाकार की व्यथा तथाकथित सवर्णों के प्रति नफरत या गाली-गलौज के बजाय ऐसे लहजे में व्यक्त हुई है जिससे गुजरते हुए किसी भी समुदाय का सहृदय पाठक जातिवाद से घृणा करने लग जाता है.इस दृष्टि से डॉ.रणसुभे द्वारा हिन्दी में अनूदित और बहुविध विवेचित मराठी दलित आत्मकथा ‘यादों के पंछी’, आदिवासी आत्मकथा ‘अक्करमाशी’ और ओमप्रकाश वाल्मीकि की आत्मकथा ‘जूठन’ आधुनिक भारतीय साहित्य की अन्यतम कृतियाँ सिद्ध होती हैं.

अपने लेखन के शुरुवाती दौर में ‘कहानीकार कमलेश्वर :सन्दर्भ और प्रकृति’ तथा ‘देश विभाजन और हिन्दी कथा साहित्य’ जैसे महत्त्वपूर्ण ग्रंथों के रचयिता डॉ.सूर्यनारायण रणसुभे ने अपने लेखक-मित्रों के साथ ‘हिन्दी साहित्य का अभिनव इतिहास’,’कहानीकार अज्ञेय: सन्दर्भ और प्रवृत्ति’ तथा ’साहित्यशास्त्र’ सरीखी अनेक किताबें लिखी हैं,पर दलित चिंतन और दलित साहित्य के अनुवाद के क्षेत्र में उनका योगदान अप्रतिम है.’यादों के पंछी’,’अक्करमाशी’,’उठाईगीर’ जैसी प्रमुख दलित आत्मकथाओं के सफल अनुवादक, ‘अनुवाद का समाजशास्त्र’ जैसे ग्रन्थ के प्रणेता और अनुवाद-चिन्तक एवं ‘दलित साहित्य:स्वरूप और संवेदना’ पुस्तक के लेखक एवं आम्बेडकरवादी विचारक के रूप में हिन्दी- मराठी जगत में विख्यात डॉ.सूर्यनारायण रणसुभे की रचनावली ‘भावना प्रकाशन’,दिल्ली से प्रकाशित है,जिस पर हमारे समय के शब्द-चेतन समुदाय की दृष्टि जानी चाहिए. प्रसन्नता की बात है कि आज अठहत्तर वर्ष की आयु में भी वे रचना,आलोचना एवं अनुवाद के क्षेत्र में अपनी सतत सक्रियता से हिन्दी और मराठी साहित्य को समृद्ध करने के साथ ही बाबासाहेब आम्बेडकर के ‘वर्ण-जाति विहीन समाज’ के स्वप्न को साकार करने में जुटे हैं.